Sunday, 20 September 2020

दून को लाला मंसाराम ने दी थी 'कनाट प्लेसÓ की सौगात



दून को लाला मंसाराम की सौगात 'कनाट प्लेसÓ
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दिनेश कुकरेती
गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह की शहादत के बाद उनके पुत्र एवं राज्य के उत्तराधिकारी सुदर्शन शाह ने देहरादून को एंग्लो इंडियन सैन्य अधिकारी मेजर हैदर यंग हर्से के हाथ बेच दिया था। बाद में एक समझौते के तहत हर्से से अंग्रेजों ने देहरादून को अपने कब्जे में ले लिया। लेकिन, इसका यह फायदा जरूर हुआ कि देहरादून उत्तरोत्तर तरक्की की सीढिय़ां चढऩे लगा। अंग्रेजों ने यहां एक तरफ यहां सड़कों व नहरों का जाल बिछाया, वहीं एफआरआइ जैसी भव्य इमारतें भी खड़ी कीं। चकराता रोड भी उसी दौर में अस्तित्व में आई।




'रामपुर मंडी रोडÓ नाम से जानी जाती थी चकराता रोड
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देहरादून के ब्रिटिश हुकूमत के अधीन होने पर अंग्रेज अपनी दूरगामी योजना के तहत चकराता में सैन्य छावनी स्थापित करने के प्रयास में जुट गए थे। इसी क्रम में वर्ष 1873 में दून के तत्कालीन सुपरिटेंडेंट एचजी रास ने सहारनपुर-चकराता मार्ग का निर्माण कराया। वर्ष 1900 में रेल भी देहरादून पहुंच चुकी थी। इससे यहां सेना गतिविधियां बढऩे लगीं। हालांकि, तब देहरादून से चकराता तक सीधा मोटर मार्ग नहीं था। लेकिन, देहरादून-रामपुर मंडी मार्ग अस्तित्व में आ चुका था, जो वर्तमान घंटाघर से 38 किमी दूर हरबर्टपुर के पास सहारनपुर-चकराता मार्ग को काटते हुए आगे बढ़ता था। इससे देहरादून से चकराता तक वाहनों की आवाजाही आसान हो गई। अपनी पुस्तक 'गौरवशाली देहरादूनÓ में देवकी नंदन पांडे लिखते हैं कि यह रोड लंबे समय तक रामपुर मंडी रोड के नाम जानी जाती रही। बाद में जब इस रोड से चकराता के लिए आवाजाही बढ़ गई तो इसे कंपनी दस्तावेजों में 'चकराता रोडÓ नाम से दर्ज किया गया।

नाव से होती थी आवाजाही और व्यापार
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20वीं सदी की शुरुआत तक यमुना नदी के किनारे स्थित रामपुर मंडी एक व्यावसायिक केंद्र के रूप में विकसित हो चुकी थी। तब यहीं से नाव के जरिये आवाजाही और व्यापार हुआ करता था।

चकराता रोड की शान थे आम, लीची व अमरूद के बाग
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वर्ष 1932 में चकराता रोड पर गोयल फोटो ट्रांसपोर्ट कंपनी, क्राउन एंड कंपनी, विश्वंभर दत्त चंदोला की प्रिंटिंग प्रेस व एक्स सोल्जर्स मोटर ट्रांसपोर्ट कंपनी का बुकिंग कार्यालय स्थापित हो चुके थे। लेकिन, इससे आगे का इलाका लगभग निर्जन था और इसके दोनों ओर आम, लीची व अमरूद के मीलों लंबे बाग हुआ करते थे।



लाला मंसाराम ने 58 बीघा भूमि पर बसाया 'कनाट प्लेसÓ
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शुरुआती दौर में चकराता रोड को आबाद करने का श्रेय नगर के प्रतिष्ठित बैंक रहे मंसाराम बैंक एंड संस के स्वामी लाला मंसाराम को जाता है। वर्ष 1944 में मंसाराम परिवार ने चकराता रोड पर कॉलोनी के लिए भूमि खरीदनी शुरू की। तब मंसाराम बैंक एंड संस की तूती बोलती थी। लाला मंसाराम ने सबसे पहले अपने पुत्र महावीर प्रसाद व पौत्रों के नाम पर कोलकाता के राजा टैगोर परिवार के पुष्पेंद्र नाथ, प्रणवनाथ व उनके एक अन्य भाई से 27 बीघा भूमि खरीदी। हालांकि, यह भूमि कॉलोनी के लिए नाकाफी थी, इसलिए पट्टेदार रामचंद्र से 7.99 बीघा लीज भूमि, स्व.महंत ओमप्रकाश के पुत्र सुरेंद्र प्रकाश व जयप्रकाश से 32 बीघा नौ बिस्वा भूमि और खरीदी गई। इसमें से कुल 58 बीघा भूमि पर कॉलोनी निर्माण का कार्य शुरू हुआ और इसे नाम दिया गया 'कनाट प्लेसÓ।



सुख-सुविधा और सुंदरता का ताना-बाना
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कनाट प्लेस में जनसुविधाएं मुहैया कराने के साथ ही चकराता रोड की दिशा में सीमा दर्शाती दीवार पर इस अंदाज में विद्युत पोल लगाए गए, जिससे रात में जगमगाते शहर का आभास हो। कॉलोनी में मनोरंजन के लिए दो सिनेमाघर 'हॉलीवुडÓ व 'अमृतÓ, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के साथ 94 दुकानें, पोस्ट ऑफिस्र 48 आवासीय फ्लैट, दो विशाल बंगले, आठ गैराज और 49 गोदाम भी बनाए गए। लोगों के विश्वास से उत्साही बैंक स्वामियों ने इसके बाद सड़क के दूसरी ओर भी इसी तरह का व्यावसायिक एवं आवासीय प्रतिष्ठान बनाने का बीड़ा उठाया।

इसलिए अलग नजर आता है डिजाइन
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वर्ष 1947 में सड़क के दूसरी ओर संपन्नता का यह प्रतीक लगभग तैयार हो चुका था। लेकिन, तब नगर में आबादी का इतना अधिक दबाव न था कि कोई इस निर्माणाधीन प्रतिष्ठान में पंूजी लगाता। लिहाजा बैंक स्वामियों ने नगरवासियों को आकर्षित करने के लिए उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देने शुरू किए। उन्होंने लाहौर से आकर राजपुर रोड पर अपना कारोबार कर रहे प्रमुख फर्नीचर व्यवसायी आरआर कोहली से संपर्क साधा। उनसे एक वर्ष तक किराया न लेने की बात कहते हुए दुकान व घर निर्माणाधीन इमारत में शिफ्ट करने का आग्रह किया गया। साथ ही यह छूट भी दे दी कि वे दुकान और मकान का डिजाइन अपनी सुविधा से तय कर सकते हैं। यही वजह है कि कनाट प्लेस में न्यू कोहली फर्नीचर मार्ट व ङ्क्षहद स्टोर्स ऐसे व्यावसायिक प्रतिष्ठान हैं, जो संपूर्ण कॉलोनी से अलग नजर आते हैं।

बैंक के घाटे में आने पर एक हाथ से दूसरे हाथ बिकती रही संपत्ति
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मंसा राम बैंक एंड संस ने चकराता रोड के दोनों ओर कॉलोनी तो विकसित कर दी, लेकिन भवनों के खाली रहने के साथ ही बैंक  भी लगातार घाटे में आने लगा। ऐसे में बैंक स्वामियों ने सिनेमा क्षेत्र वाली कॉलोनी 24 अप्रैल 1952 को यंग रोड पर रहने वाले नेपाल के अवकाश प्राप्त प्रधानमंत्री कर्नल शमशेर जंग बहादुर राणा की पत्नी रानी गंभीर कुमारी को 14.15 लाख रुपये में बेच दी। कालांतर में रानी गंभीर कुमारी ने यह संपत्ति सेठ बाल गोपाल दास को बेची।



किरायेदार ही बन गए मालिक
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कॉलोनी के आवासों का किराया बहुत कम था और समय पर भी नहीं मिलता था। सो, बाल गोपाल दास पर भी यह संपत्ति बोझ बनने लगी। ऐसे में नुकसान से बचने के लिए उन्होंने काबिज किरायेदारों को ही सस्ते मूल्य पर इसका हस्तांतरण कर दिया। धीरे-धीरे सिनेमाघरों के स्वामियों के साथ-साथ उनके नाम भी 'नटराजÓ और 'कैपरीÓ कर दिए गए।

ऐसे मिला एलआइसी को स्वामित्व
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इस सबके बावजूद सड़क की दक्षिण दिशा में बनी कॉलोनी में कोई बसने को तैयार नहीं था। नतीजा, वर्ष 1953 में इसे मात्र 5.75 लाख रुपये में भारत इंश्योरेंस को बेच दिया गया। वर्ष 1960 में भारतीय जीवन बीमा निगम के अस्तित्व में आने पर यह इमारत उसे हस्तांतरित कर दी गई। आज भी इसे एलआइसी बिल्डिंग के नाम से जाना जाता है।

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