Wednesday, 16 September 2020

बहुत पछताए एजेंट बनकर

 



 (व्यंग्य)

बहुत पछताए एजेंट बनकर

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दिनेश कुकरेती

र व्यक्ति जीवन में कुछ-न-कुछ बनने की तमन्ना दिल में संजोए रखता है। कोई नेता तो कोई अभिनेता, कोई डाक्टर तो कोई इंजीनियर, कोई शिक्षक, कोई बिजनेमैन, कोई चोर-डकैत, कोई गिरहकट, कोई कातिल वगैरह-वगैरह। यानी हरेक व्यक्ति के जीवन में वह समय जरूर आता है, जब वह किसी-न-किसी मुकाम पर पहुंच जाता है। जो कुछ नहीं बन पाता, उसे भी लोग बव्वा, क्वद्या, निट्ठला, बेकार, आवारा, लफंगा जैसे अलंकरणों से सुशोभित कर देते हैं। कहने का मतलब कुछ-न-कुछ तो हरेक को बनना ही पड़ता है, गोया मैं ही इससे कब तक बचा रहता।।

मेरी समाज में अच्छी छवि है (थी), लोगों को मुझ पर भरोसा भी है (था)। बल्कि कइयों से तो मैंने ये भी सुना है कि ईमानदार भी हूं (था)। सो, मैंने भी सोचा कि क्यों न इस छवि को भुनाया जाए। पढा़-लिखा भी हूं ही और अवगुण भी कुछ नहीं हैं, तो क्यों न एजेंट बन लिया जाए। वैसे भी देश में बेरोजगारी बहुत है। फिर ऐजेंटगीरी का धंधा भी चोखा है। इसके लिए न किसी डिग्री-डिप्लोमा की जरूरत, न पैसा-पल्ली की ही। हां, थोडा़ चिपकू प्रवृत्ति का होना जरूरी है। कार्य यह है कि किसी की राशि में सवार हो जाओ तो तब तक सवार रहो, जब तक कि वह जेब ढीली न कर दे।यही खूबी एक सफल एजेंट की पहचान भी है और शायद मैं इस खूबी से सरावोर था।



 

फिर सोचना क्या था, मेरे सधे कदम एजेंट बनने की राह पर अग्रसर हो गए। इसके लिए सबसे पहले मैंने एक बीमा कंपनी का रुख किया। सोचा भरोसे का महकमा है, केस लेने में किसी तरह की समस्या नहीं होगी। सो, अगले दिन मैं एक मित्र के साथ बीमा कंपनी के दफ्तर जा पहुंचा। वहां पर डीओ से मिला। उसने मुझे एक फार्म दिया और कहा, इसे भरकर तीस रुपये फीस समेत जमा करा दो।इसके साथ ही उसने कुछ पालिसी फार्म और जानकारी के लिए एक पुस्तक भी थमा दी और एक बात विशेष रूप से समझाई कि एजेंट बनने की शर्त पूरी करने के लिए कम-से-कम चार केस देना जरूरी है।

अब मुझ पर एजेंट का लेबल लग चुका था। सो, मैंने ग्राहकों की खोज में भटकना शुरू कर दिया। इसके लिए मित्रों ने भी मेरा उत्साहवर्द्धन किया। मैं सुबह से शाम तक मैं ग्राहक तलाशता रहता, लेकिन शुरुआत कहां से करूं, इसी उधेड़बुन में पांच-छह दिन गुजर गए। अब मैं थोडा़ खिन्न सा हो गया था। सफलता न मिलने पर ऐसा होना लाजिम है। खैर! जब कोई राह न सूझी तो मैं सीधे अपने एक दुकानदार मित्र के पास जा पहुंचा। उसे समझाया और बताया कि एजेंटगीरी को मैंने कैरियर बना लिया है, गोया, उसे मेरी मदद करनी ही पडे़गी। थोडी़ मशक्कत के बाद वह बीमा कराने के लिए तैयार हो गया। मेंने हाथों-हाथ उससे पहली किश्त भी ले ली।

एक पालिसी के बाद मेरा उत्साह दोगुना हो गया था, सो अब मैंने अन्य लोगों को घेरना शुरू कर दिया। कइयों को तो होटलों में चाय भी पिलानी पडी़, लेकिन हासिल सिफर रहा। कुछ लोग तो ऐसे भी टकरे, जो कहते, हमें अपनी जिंदगी पर पूरा भरोसा है, सो भला बीमा करने से क्या फायदा। कुछ पहली किस्त जमा करने के लिए कहते। बताइए, अगर ऐसा संभव होता तो कौन कमबख्त भला इस झमेले में पड़ता। खैर! एक महीना यूं ही गुजर गया। पहली वाली पालिसी के पैसे भी खर्च हो गए, क्योंकि उन्हें अब तक जमा ही नहीं किया था। इधर, घरवाले अलग कोसते कि मैं क्या कर रहा हूं। जब मैंने उनकी भी नहीं सुनी तो वे कुछ घबराये-से रहने लगे। उनके मन में यह बात घर कर गई कि मेरा दिमाग फिर गया है। कई दिनों तक तो मैं उन्हें किसी तरह मनाता रहा, लेकिन आखिर में मुझे हथियार डालने ही पडे़ और मैंने एजेंटगीरी से तौबा कर ली। इससे घरवालों ने भी चैन की सांस ली।


 

कुछ दिन तो मैं खामोश रहा, लेकिन फिर एजेंटगीरी का भूत मुझे कोसने लगा कि बरखुरदार! इतनी जल्दी हिम्मत हार गए। जबकि मैं हिम्मत हारने वाला प्राणी कभी रहा ही नहीं। हां, घरवालों के डर से कुछ दिन ढीला जरूर पड़ गया था। सो, एक बार फिर मैं नए सिरे से एजेंट बनने की राह पर चल पडा़। लेकिन, अब मेरा टारगेट चिटफंड कंपनियां थी। साथ ही मैंने अब यह भी तय कर लिया कि घरवालों के कानों में भनक तक नहीं लगने दूंगा कि उनका लाडला एक बार फिर एजेंट बन चुका है। एक-न-एक दिन मेरी एजेंटगीरी की चमक उन्हें स्वयं चौंधिया देगी।

अब एक रोज मैं अपने शहर में स्थित एक चिटफंड कंपनी के दफ्तर जा पहुंचा। वहां पर ब्रांच मैनेजर कहे जाने जीव से मुलाकात की और बताया कि मैं एजेंट बनने का इच्छुक हूं, सो मेहरबानी कर मेरा मार्गदर्शन करें। अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें। मैनेजर गदगद हो  गया। उसने मुझे अपनी समस्त योजनाएं बताईं और समझाया कि मुझे किस प्रकार लोगों की जेब से पैसे निकालने हैं। उस दिन मैं खुद को काफी गौरवान्वित महसूस कर रहा था। क्योंकि अगले दिन से मुझे अपनी एजेंटगीरी का शुभारंभ जो करना था।

अगले दिन मैं तड़के उठ गया और नित्य क्रिया से निवृत्त होने के बाद अपने ईष्ट का स्मरण कर निकल पड़ा कंपनी के लिए धन एकत्र करने। इस बार भी शुरुआत मैंने अपने उसी मित्र से की, जिससे बीमा करवाया था। हालांकि, मित्र को भली-भांति ज्ञात था कि उसकी पालिसी की किस्त मैं उडा़ चुका हूं। फिर भी मरता क्या न करता, मेरे कैरियर की खातिर उसने खाता खोल ही दिया। धीरे-धीरे मुझे सफलता भी मिलने लगी और महीनेभर में मैंने तकरीबन 55 हजार रुपये कंपनी के लिए जुटा लिए। इस कार्य में मुझे अपेक्षाकृत उतनी परेशानी का सामना भी नहीं करना पडा़, जितनी बीमा कंपनी की एजेंटगीरी में करना पड़ता था। उस पर अच्छा-खासा कमीशन मिलने के कारण मेरे हौसले भी बुलंद हो गए। लेकिन, मैंने फिर भी घरवालों को इसकी हवा तक नहीं लगने दी।

अगले माह से मैंने दिनभर मेहनत करनी शुरू कर दी। अच्छे-खासे खाते खुलने लगे। लोगों का मुझ पर विश्वास भी जम गया। अब मैं एक रेपुटेडेट एजेंट था। कितने ही लोगों को तो मैंने गारंटी भी दे दी कि अगर उनके पैसे कंपनी वापस नहीं करती तो मैं खुद लौटाऊंगा। वैसे मैं भली-भांति जानता था कि यदि मेरी औकात ऐसे पैसे लौटानी की होती तो अपना ही कोई अच्छा-खासा कारोबार न शुरू कर देता। लेकिन, इतनी गहरी बातें भला किसके दिमाग में आती हैं। फिर मुझे तो येन-केन-प्रकारेण लोगों की जेब से पैसे निकालने थे।

छह-साथ माह में मैं शहर का एक नामी एजेंट बन चुका था। लोग मुझ पर आंख मूंदकर भरोसा करने लगे। मेरा कमीशन भी बढ़ने लगा। सो, मैंने अपने नाम से भी एक खाता खुलवा दिया। सोचा, संचित धन कहां जाने वाला है, जमा करके तो उसे बढ़ना ही है। अब मेरे घरवालों को भी यह बात मालूम पड़ गई थी कि उनका पुत्र पैसा और नाम, दोनों ही कमा रहा है।


 

हां! एजेंटगीरी का एक नुकसान मुझे जरूर हुआ। हालांकि, यह नुकसान आर्थिक नहीं था। नातेदार, रिश्तेदार, दोस्त वगैरह मुझसे दूर रहने लगे। किसी की नजर दूर से मुझ पर पड़ जाती तो वहीं से हाथ हिलाकर कन्नी काट देता। भूलवश कोई दो-चार हो भी जाता तो जल्दी-जल्दी पल्लू झाड़ने की फिराक में रहता। क्योंकि उसे प्रायः यह डर लगा रहता कि कहीं मैं खाता खोलने का जिक्र न कर दूं। कालेज के दौर में मेरे इर्द-गिर्द रेंगने वाले दोस्त, जिन पर मैं यदा-कदा सामर्थ्यानुसार पैसे भी खर्च कर दिया करता था, मुझसे कन्नी काटने लगे। कारण मैं ऐसे प्रभावशाली एजेंट के रूप में विख्यात हो चुका था कि जिसकी राशि पर सवार हो जाता,  उसकी जेब से पैसे निकालकर ही दम लेता।

एजेंटगीरी करते-करते दो साल कब गुजर गए, पता ही न चला। कुछ लोगों का धन भी इस अवधि में राजी-खुशी लौट गया। फलतः उन्होंने दोगुनी रकम के खाते मुझे दे दिए। मेरा हौसला और भी बुलंद हो गया। लोगों का अंधाधुंध पैसा मेरे जरिये कंपनी में जमा होने लगा।

कहते हैं, होनी बलवान है। उसे कोई नहीं टाल सकता और उसका पूर्वाभास भी बहुत कम लोगों को ही हो पाता है। ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। होनी अपना काम कर गई और मैं असहाय-सा टुकुर-टुकुर देखता रह गया। हुआ यूं कि अचानक मेरा स्वास्थ्य गड़बडा़ गया, जिस कारण आठ-दस दिन मैं कंपनी के दफ्तर नहीं जा पाया। एक सुबह मैं नहा-धोकर मुहल्ले की दुकान पर अखबार पढ़ रहा था कि तभी मेरी नजर मेरे ही शहर से छपी एक खबर पर पडी़। मोटे-मोटे हरफों में छपा था, "...कंपनी ग्राहकों के करोडो़ं रुपये लेकर चंपत, आफिस पर ताला पडा़।" इस खबर पढ़ते ही मैं चेतनाशून्य हो गया।

उसके बाद क्या हुआ और क्या नहीं,  अवर्णनीय है। आज भी जब सोचता हूं तो रोंगटे खडे़ हो जाते हैं। मैं एजेंट से चोर बन गया। लोग मुझे ऐसी नजरों से देखते, मानो मैं कोई हलाल होने वाला बकरा होऊं। यही वजह है कि आज भी मैं लोगों से मुंह छिपाए फिर रहा हूं। लाखों का कर्ज़ अब तक सिर पर चढा़ है। जब अकेला होता हूं तो बार-बार घरवालों के कहे हिदायतभरे शब्द दिमाग में कौंधने लगते हैं। सोचता हूं, क्यों नहीं अमल किया तब घर वालों की सलाह पर। तब ऐसा लगता है, मानो ये पंक्तियां मेरे लिए ही लिखी गई हैं कि, "चौबे जी छबे बनने गए थे, दुबे होके आए, थे केक की फिक्र में, रोटी भी गई, चाही थी बडी़, छोटी भी गई, वाइज की नसीहत, क्यों न मानी आखिर, पतलून की ताक में, लंगोटी भी गई।"



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