Monday 31 January 2022

फिजाओं में वासंती बयार

फिजाओं में वासंती बयार
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दिनेश कुकरेती
वातावरण में गर्माहट घुलने के साथ दून घाटी में भी मौसम सुहावना हो गया है। पेड़ों एवं लताओं के पोर-पोर पर हरियाली फूटने लगी है और बौरों से लद गई हैं आम की डालियां। खेतों में फूली सरसों और कंदराओं में महकती फ्योंली सम्मोहन सा बिखेर रही है। कोयल की कूक मन को उद्वेलित कर वातावरण में मादकता घोल रही है। चारों दिशाओं में नया रंग, नई उमंग, उल्लास एवं उत्साह का माहौल है। बागों में बहती मंद-मंद सुगंधित बयार प्रकृति से अठखेलियां करती प्रतीत होती है। कहने का मतलब ऋतुचक्र के परिवर्तन का इससे रंगीन पड़ाव अन्य कोई हो ही नहीं सकता। शायद इसीलिए भारतीय चिंतन परंपरा में वसंत को ऋतुओं का राजा माना गया है और जैसे राजा के आगमन पर उत्सव मनाया जाता है, ठीक वैसे ही ऋतुराज के स्वागत की रीत भी है।
वसंत उत्तर भारत के अलावा समीपवर्ती देशों की छह ऋतुओं में से एक ऋतु है, जो फरवरी से शुरू होकर अप्रैल मध्य तक इस क्षेत्र में अपना सौंदर्य बिखेरती है। ऐसा माना गया है कि माघ शुक्ल पंचमी से वसंत ऋतु का आगमन होता है। फाल्गुन और चैत्र वसंत ऋतु के महीने माने गए हैं। फाल्गुन वर्ष का अंतिम महीना है और चैत्र पहला। इसीलिए भारतीय नववर्ष का शुभारंभ वसंत से ही होता है। वैसे देखा जाए तो भारतीय ऋतु चक्र में चैत्र व वैशाख वसंत के मास हैं, किंतु सृष्टि में वसंत अपनी निर्धारित तिथि से 40 दिन पूर्व माघ में आता है। आए भी क्यों न, ऋतुराज जो ठैरा।
'मत्स्य सूक्तÓ में उल्लेख है कि अन्य पांच ऋतुओं हेमंत, शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ने अपने राजा के सम्मान में उसके अभिषेक एवं अभिनंदन के लिए स्वयं के कालखंड से आठ-आठ दिन समर्पित कर दिए। इसीलिए धरती पर वसंत ऋतु का पदार्पण चैत्र कृष्ण प्रथमा के स्थान पर 40 दिन पूर्व माघ शुक्ल पंचमी को हो जाता है। वसंत को प्रकृति का उत्सव भी कहा गया है। तभी तो 'ऋतुसंहारÓ में महाकवि कालिदास ने इसे 'सर्वप्रिये चारुतर वसंतेÓ कहकर अलंकृत किया है। जबकि, गीता में भगवान श्रीकृष्ण 'ऋतूनां कुसुमाकर:Ó अर्थात् 'मैं ऋतुओं में वसंत हूंÓ कहकर वसंत को अपना स्वरूप बताते हैं। पौराणिक कथाओं में वसंत को कामदेव का पुत्र कहा गया है।
कवि देव वसंत ऋतु का वर्णन करते हुए कहते हैं, 'रूप एवं सौंदर्य के देवता कामदेव के घर पुत्रोत्पत्ति का समाचार पाते ही प्रकृति झूम उठती है। पेड़ उसके लिए नव पल्लव का पालना डालते हैं, फूल वस्त्र पहनाते हैं, पवन झुलाती है और कोयल उसे गीत सुनाकर बहलाती है।Ó 'कालिका पुराणÓ में वसंत का व्यक्तीकरण करते हुए इसे सुदर्शन, अति आकर्षक, संतुलित शरीर वाला, तीखे नैन-नक्श वाला, अनेक फूलों से सजा, आम्र मंजरियों को हाथ में पकड़े रहने वाला, मतवाले हाथी जैसी चाल वाला जैसे तमाम गुणों से भरपूर बताया गया है।

शीत व उष्णता का संधिकाल वसंत ऋतु
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ऋतुराज वसंत शीत व उष्णता का संधिकाल है। इसमें शीत ऋतु का संचित कफ सूर्य की संतप्त किरणों से पिघलने लगता है। इससे जठराग्नि मंद हो जाती है और सर्दी-खांसी, उल्टी-दस्त जैसे अनेक रोग उत्पन्न होने लगते हैं। लिहाजा, इस समय आहार-विहार की विशेष सावधानी रखना जरूरी है। आहार: 'अष्टांगहृदयÓ में उल्लेख है कि इस ऋतु में देर से पचने वाले शीतल पदार्थ, दिन में सोना, स्निग्ध यानी घी-तेल में बने और अम्ल व मधुर रस प्रधान पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। ये सभी कफवर्धक हैं। इसके अलावा मिठाई, सूखे मेवे, खट्ठे-मीठे फल, दही, आइसक्रीम और गरिष्ठ भोजन का सेवन भी इस ऋतुत में वर्जित है।
इन दिनों में शीघ्र पचने वाले, अल्प तेल व घी में बने, तीखे कड़वे, कसैले, उष्ण पदार्थों जैसे लाई, मुरमुरे, जौ, भुने हुए चने, पुराना गेहूं, चना, मूंग, अदरक, सौंठ, अजवायन, हल्दी, पीपलामूल, काली मिर्च, हींग, सूरन, सहजन की फली, करेला, मेथी, ताजी मूली, तिल का तेल, शहद, गोमूत्र का सेवन लाभदायी माना गया है। इनसे कफ नहीं बढ़ता। विहार: 'योग सूत्रÓ में कहा गया है कि ऋतु परिवर्तन से शरीर में उत्पन्न भारीपन और आलस्य को दूर करने के लिए सूर्योदय से पूर्व उठना, व्यायाम, दौड़, तेज चलना, आसन और प्राणायाम (विशेषकर सूर्यभेदी) लाभदायी हैं। तिल के तेल से मालिश कर सप्तधान्य उबटन से स्नान करने को स्वास्थ्य की कुंजी माना गया है।

ऊर्जा, आशा एवं विश्वास की ऋतु
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मौसम का बदलाव हमें जीवन में सकारात्मक ऊर्जा और उत्साह का संदेश देता है। जब भी प्रकृति अपना स्वरूप बदलती है तो यह संकेत भी करती है कि समय के साथ-साथ बदलाव जरूरी है। पतझड़ के बाद वसंत ऋतु का आगमन भी इसी का प्रतीक है। इस ऋतु में जीवन प्रबंधन के कई सूत्र छिपे हैं। बस! जरूरत है उन्हें समझने की। पतझड़ में पेड़ों से पुराने पत्तों का गिरना और इसके बाद नए पत्तों का आना जीवन में सकारात्मक भाव, ऊर्जा, आशा एवं विश्वास जगाता है। वसंत ऋतु फूलों के खिलने का मौसम है, जो हमें हमेशा मुस्कराने का संदेश देता है।
वसंत को शृंगार की ऋतु भी माना गया है, जो व्यक्ति को व्यवस्थित और सजे-धजे रहने की सीख देती है। वसंत का रंग वासंती (केसरिया) होता है, जो त्याग और विजय का रंग है। यह बताता है कि हम अपने विकारों का त्याग कर कमजोरियों पर विजय प्राप्त करें। वसंत में सूर्य उत्तरायण होता है, जो संदेश है कि सूर्य की भांति हम भी प्रखर और गंभीर बनें। वसंत को ऋतुओं का राजा भी कहा गया है, क्योंकि इस ऋतु में उर्वरा शक्ति यानी उत्पादन क्षमता अन्य ऋतुओं की अपेक्षा बढ़ जाती है। इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं को ऋतुओं में वसंत कहा। जैसे वे समस्त देवताओं और परमशक्तियों में सबसे ऊपर हैं, वैसे ही वसंत ऋतु भी सभी मौसमों में सबसे श्रेष्ठ है।

मन प्रफुल्लित कर देता है राग वसंत
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भारतीय संगीत, साहित्य और कला में भी वसंत ऋतु को महत्वपूर्ण स्थान मिलाहै। संगीत में एक विशेष राग वसंत के नाम पर बनाया गया है, जिसे राग वसंत (बसंत) कहते हैं। यह शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी पद्धति का राग है। इसके गायन का समय वैसे तो रात्रि काअंतिम प्रहर है, किंतु इसे दिन या रात में किसी भी समय गाया-बजाया जा सकता है। इसके आरोह में पांच और अवरोह में सात स्वर होते हैं। इसलिए यह औडव-संपूर्ण जाति का राग है। रागमाला में इसे राग हिंडोल का पुत्र माना गया है। यह पूर्वी थाट का राग है। शास्त्रों में इससे मिलते जुलते एक अन्य राग वसंत हिंडोल का उल्लेख भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि राग वसंत के गाने व सुनने से मन प्रफुल्लित हो जाता है।

यौवन, सौंदर्य एवं स्नेह का संचार करता है वसंत
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वसंत ऋतु हर साल आती है और पीछे छोड़ जाती है यह संदेश कि जीवन में कभी निराश नहीं होना चाहिए। निराशा, नीरसता व निष्क्रियता को त्यागकर सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ताकि जीवन में यौवन, सौंदर्य एवं स्नेह का संचार हो। शायद तभी प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बत्र्वाल कहते हैं कि 'अब छाया में गुंजन होगा वन में फूल खिलेंगे, दिशा-दिशा से अब सौरभ के धूमिल मेघ उठेंगे, जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शैल जगेंगे, अब तरुओं में मधु से भीगे कोमल पंख उगेंगेÓ।

वसंत के यौवन का प्रतिबिंब है बुरांश
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उत्तराखंड के हरे-भरे जंगलों में बुरांश के सुर्ख फूलों का खिलना पहाड़ में वसंत ऋतु के यौवन का सूचक है। वसंत आते ही पहाड़ के जंगल बुरांश के फूलों से लकदक हो जाते हैं। बुरांश को वसंत में खिलने वाला पहला फूल माना गया है। इसके खिलते ही जंगलों में बहार आ जाती है। ऐसा आभास होने लगता है, मानो प्रकृति ने लाल चादर ओढ़ ली हो। उत्तराखंड के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में बुरांश की महत्ता महज एक पेड़ और फूल की नहीं, बल्कि वह तो यहां के लोक जीवन में रचा-बसा है।
हिमालय के अनुपम नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन, पे्रयसी की उपमा, प्रेमाभिव्यक्ति, मिलन अथवा विरह, सभी प्रकार के लोकगीतों की भावाभिव्यक्ति का माध्यम बुरांश ही है। कहीं यह फूल पुत्र के रूप में दर्शाया गया है तो कहीं पर इसकी तुलना ससुराल गई बेटी से की गई है। यह फूल लोकगीतों में प्रेमी और प्रेमिका का संदेशवाहक भी बना है। इसमें किसी ने अपनी लाडली का प्रतिबिंब देखा तो किसी ने इसे अपनी प्रियतमा के रूप में स्वीकार किया।
बुरांश का खिलना प्रसन्नता का द्योतक है तो प्रेम एवं उल्लास की अभिव्यक्ति भी। क्योंकि, बुरांश ने लाल होकर भी क्रांति के गीत नहीं गाए, बल्कि हिमालय की तरह प्रशंसाओं से दूर एक आदर्शवादी बना रहा। बुरांश ने लोक रचनाकारों को कलात्मक उन्मुक्तता, प्रयोगशीलता और सौंदर्यबोध दिया। होली से लेकर प्रेम, सौंदर्य और विरह सभी प्रकार के लोकगीतों के भावों को व्यक्त करने का जरिया बुरांश बना।
प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रा नंदन पंत ने अपनी कुमाऊंनी कविता में बुरांश के सौंदर्य को कुछ इस तरह प्रतिबिंबित किया, 'सार जंगल में त्वीज क्वै न्हा रे, क्वै न्हा। फुलन छै कैबुरूंश जंगल जस जलि जां। सल्ल छ, द्यार छ, पईं छ, अंयार छ। सबनाक फागन में पुग्नक भार छ। पै त्वि में ज्वानिक फाग छ। रंगन में तेर ल्वे छ, प्यारक खुमार छ।Ó अर्थात सारे वन क्षेत्र में तेरा जैसा कोई नहीं है, कोई नहीं। जब तू फूलता है, संपूर्ण वन क्षेत्र के जलने का सा भ्रम होता है। जंगल में साल है, देवदार है, पईंया है और अंयार समेत विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे हैं। सबकी शाखाओं में कलियों का भार है, पर तुझमें जवानी का फाग है। तेरे रंगों में लहू है, प्यार का खुमार है।

Friday 7 January 2022

ओंकारेश्वर में विराजते हैं पांचों केदार

ओंकारेश्वर में विराजते हैं पांचों केदार
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दिनेश कुकरेती
प जानते हैं कि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर अति प्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में निर्मित विश्व का एकमात्र मंदिर है। जिला मुख्यालय रुद्रप्रयाग से 41 किमी दूर समुद्रतल से 1311 मीटर की ऊंचाई पर ऊखीमठ में स्थित यह मंदिर न केवल प्रथम केदार भगवान केदारनाथ, बल्कि द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर का शीतकालीन गद्दीस्थल भी है। पंचकेदारों की दिव्य मूर्तियां एवं शिवलिंग स्थापित होने के कारण इसे पंचगद्दी स्थल भी कहा गया है। मान्यता है कि इस मंदिर में ओंकारेश्वर महादेव के दर्शनों से पंचकेदार यात्रा का पुण्य प्राप्त हो जाता है। कथा है कि वानप्रस्थ की अवस्था प्राप्त होने पर राजा मान्धाता ने यहां भगवान शिव की तपस्या की थी। जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें प्रणव स्वरूप अर्थात ओंकार रूप में दर्शन दिए। इसीलिए यहां अधीष्ठित भगवान शिव के दिव्य स्वरूप को ओंकारेश्वर महादेव के नाम से जाना जाने लगा। 
ओंकारेश्वर अकेला मंदिर न होकर मंदिरों का समूह है। इस समूह में वाराही देवी मंदिर, पंचकेदार लिंग दर्शन मंदिर, पंचकेदार गद्दीस्थल, भैरवनाथ मंदिर, चंडिका मंदिर, हिमवंत केदार वैराग्य पीठ, विवाह वेदिका व अन्य मंदिरों समेत समेत संपूर्ण कोठा भवन शामिल हैं। उत्तराखंड के मंदिरों में क्षेत्रफल और विशालता के लिहाज से यह सर्वाधिक विशाल मंदिर समूह है। पुरातात्विक सर्वेक्षणों के अनुसार प्राचीनकाल में ओंकारेश्वर मंदिर के अलावा सिर्फ काशी विश्वनाथ (वाराणसी) और सोमनाथ मंदिर में ही धारत्तुर परकोटा शैली उपस्थित थी। हालांकि, बाद में आक्रमणकारियों ने इन मंदिरों को नष्ट कर दिया। उत्तराखंड में भी अधिकांश प्रसिद्ध मंदिर या तो कत्यूरी शैली में निर्मित हैं या फिर नागर शैली में।

इसलिए है विशेष महत्व
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शीतकाल में केदारनाथ के कपाट बंद होने पर बाबा की भोग मूर्ति को डोली, छत्र, त्रिशूल आदि प्रतीकों के साथ ऊखीमठ लाकर ओंकारेश्वर मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित किया जाता है। इसी तरह द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर की चल विग्रह उत्सव मूर्ति भी शीतकाल में यहीं विराजती है। इसके अलावा ओंकारेश्वर मंदिर पंचकेदारों का गद्दी स्थल भी है।
ऐसे पड़ा ऊखीमठ नाम
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पौराणिक कथा के अनुसार इस स्थान पर बाणासुर की पुत्री उषा एवं भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का विवाह संपन्न हुआ था। इसलिए इस तीर्थ को देवी उषा के नाम पर उषामठ कहा जाने लगा। कालांतर में उषामठ का अपभ्रंश होकर पहले इसका उखामठ और फिर ऊखीमठ नाम पड़ा। देवी उषा के आगमन से पूर्व इस स्थान का नाम 'आसमाÓ था। राजा मान्धाता की तपस्थली होने के कारण इसे मान्धाता भी कहा जाता है। इसलिए केदारनाथ की बहियों का प्रारंभ 'जय मान्धाताÓ से ही होता है। 

बदरीनाथ के बाद सबसे खूबसूरत सिंहद्वार
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ओंकारेश्वर मंदिर चारों ओर से प्राचीन भव्य भवनों से घिरा हुआ है, जिनकी छत पठाल निर्मित है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए बाहरी भवन पर एक विशाल सिंहद्वार बना हुआ है, जो मंदिर में प्रवेश का एकमात्र मार्ग है। बेहतरीन नक्काशी वाला यह द्वार खूबसूरती में बदरीनाथ धाम के मुख्य प्रवेश द्वार के बाद उत्तराखंड में दूसरा स्थान रखता है।

सबसे प्राचीन एवं मजबूत मंदिर
----------ब्रिटेन के प्रसिद्ध पुरातत्वविद् सर ऑर्थर जॉन इवान्स ने जुलाई 1892 को इस मंदिर का सर्वेक्षण किया था। इस दौरान जो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए, उनका उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'लैंड्स ऑफ गॉड्स एंड ऑर्किटेक्चर स्टाइल ऑफ हिंदू टैंपलÓ के अध्याय-523 में विस्तार से वर्णन किया है। शोध के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यह मंदिर विश्व के सबसे प्राचीन एवं मजबूत मंदिरों में से एक है।

आक्रांताओं ने पहुंचाया नुकसान
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इतिहासकारों के अनुसार 1027 ईस्वी में मुस्लिम शासक महमूद ने ओंकारेश्वर मंदिर के सभामंडप की छत को ध्वस्त कर दिया था। लेकिन, वह सभामंडप की दीवारों और गर्भगृह को ध्वस्त नहीं कर सका। इसके बाद क्षेत्रीय लोगों ने सभामंडप की छत पठालों से निर्मित की। वर्तमान में यह छत सीमेंट-कंक्रीट की बनी हुई है।

विलुप्त हुई धारत्तुर परकोटा शैली
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धारत्तुर परकोटा शैली आज से 4702 वर्ष पूर्व तक अस्तित्व में रही है। इसके बाद यह धीरे-धीरे विलुप्त हो गई। ओंकारेश्वर मंदिर का निर्माण इस शैली में होने के कारण इसके गर्भगृह के बाहर से 16 और भीतर से आठ कोने हैं। जिन्हें विभिन्न अट्टालिकाओं से आवेष्टित स्तंभ एक दूसरे से पृथक करते हैं। मंदिर पर जो भव्य प्रभाएं निर्मित हैं, उन्हें इस शैली के अनुसार अंगूर के पत्रों के सदृश मंदिर की मध्यांतक प्रभा पर उकेरा गया है। इस प्रभा के नीचे गवाक्ष रंध्रों से ऊपर की ओर जाती स्मलिक पट्टिकाएं उभरी हुई हैं, जिनके मध्य में अति भव्य मृणाल पिंड विराजमान है। मंदिर की सभी स्मलिक पट्टिकाओं पर शांडिल्य श्रुतक उकेरे गए हैं, जिनसे होकर पट्टियां गर्भगृह के शिखर तक जाती हैं और एक विशाल चबूतरे के साथ मिलकर खत्म हो जाती हैं। गर्भ के मध्यांतक दीर्घप्रभा के नीचे की ओर प्रत्येक खंड पर कृतांतक पटल के साथ भूमि तक जाती भौमिक रेखाएं हैं। जबकि, गर्भगृह के शिखर पर चारों दिशाओं से छेनमल्लमत्रिकाएं उकेरी गई हैं।

धारत्तुर परकोटा शैली की विशेषता
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इसमें पाषाणों को भीतर से घुमाकर स्टोन वेल्डिंग करकेलगाया जाता था। प्रत्येक शिला के गुरुत्व केंद्र में स्थित एक शिला को सीधा रखा जाता था। इससे संपूर्ण मंदिर का गुरुत्व केंद्र एक ही स्थान पर रहता है। भीतर से घुमाकर लगाए गए पट्टीनुमा पाषाण मंदिर को लचीला बनाते हैं। इससे कंपन्न के अनुरूप ही मंदिर भी कंपन्न करता है। इसके गुरुत्व केंद्र पर लगाए पाषाण बाहरी ढांचे को आपस में जोड़े रखते हैं।

वक्त के थपेड़े सहकर भी अडिग
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इस मंदिर पर जो पाषाण लगे हैं, उन पर ग्रेनाइट की मात्रा अधिक है। इसी कारण यह मंदिर प्रकृति के अनेकों थपेड़े सहकर भी अपने स्थान पर अडिग बना हुआ है। जबकि कत्यूरी शैली के अधिकांश मंदिरों के पाषाणों पर स्फटिक सिल्ट की मात्रा अधिक थी, जिससे विकृत होने के कारण समय-समय पर इनका जीर्णोद्धार करवाया गया। प्रामाणिक तथ्यों के अनुसार आज तक इस मुख्य मंदिर के जीर्णोद्धार की जरूरत महसूस नहीं हुई।

28 फीट मोटी दीवारों से भी अधिक मजबूत
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वैदिक वास्तुकला से सुसज्जित इस मंदिर का निर्माण ग्रेनाइट पत्थरों से किया गया है। इन पत्थरों को पांच वर्षों तक मूंगा की चट्टानों कैल्शियम कॉर्बोनेट के चूर्ण और यव (जौ) से बने घोल में भिगोकर रखा गया था। मंदिर की दीवारें इतनी विशिष्टता के साथ निर्मित हैं कि यह अन्य मंदिरों की 28 फीट मोटी दीवारों से भी अधिक मजबूत हैं।

कहीं नहीं हैं ब्रह्मा-विष्णु द्वारपाल
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यह एकमात्र प्राचीन मंदिर है, जिसके द्वारपाल के रूप में ब्रह्मदेव व श्रीहरि विराजमान हैं। अन्य किसी भी मंदिर में ब्रह्मदेव व श्रीहरि की प्रतिमाएं द्वारपाल के रूप में स्थापित नहीं है।

Saturday 1 January 2022

#संकल्प एवं सपनों का नया साल



संकल्प एवं सपनों का नया साल

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नए वर्ष का समय बहुत अनुकूल होता है, किसी नए संकल्प के लिए, दृढ़ निश्चय से किसी नई शुरुआत के लिए। वैसे तो जीवन को सुधारने की शुरुआत कभी भी की जा सकती है, मगर मनोवैज्ञानिक रूप से नए साल के आरंभ से थोड़ा पहले या बाद में इस तरह की सोच के लिए अधिकांश तैयार रहते हैं। पिछले वर्ष भी गलतियां हुईं, उनके परिणाम भुगत लिए, चलो अब नए वर्ष के लिए तय करें कि इन गलतियों को नहीं दोहराएंगे और जीवन को बेहतर बनाएंगे। इस तरह की सोच केवल हमारे व्यक्तिगत जीवन की कुछ कमजोरियों को दूर करने पर आधारित हो सकती है। लेकिन, इसे व्यापकता देने के लिए अपने, अपने परिवार के, आसपास के जीवन को अधिक उद्देश्यपूर्ण बनाने से भी जोड़ा जा सकता है। बहुत से लोग यह सोचते हैं कि हम किन्हीं एक-दो लक्ष्यों को नए साल के लिए अपना लें, तो यही बहुत है। बहुत लंबी-चौड़ी बातें सोचने में कुछ नहीं रखा है। लेकिन, यदि हम अपने जीवन को समाज के व्यापक सरोकारों और सार्थक उद्देश्यों से जोड़ें तो हो सकता है, वहीं से हमें वह शक्ति मिल जाए, जो हमें अपनी कुछ व्यक्तिगत कमजोरियों और समस्याओं में ऊपर उठने का सामथ्र्य दे सके। यह तो स्पष्ट है कि पृथ्वी पर जो लाखों जीव रूप मौजूद हैं, उनमें मनुष्य की बहुत विशिष्ट स्थिति है। मनुष्य में ही वह क्षमता है कि वह पर्यावरण की, पेड़-पौधों की, जीवन के लाखों रूपों की रक्षा के लिए नियोजित ढंग से कदम उठा सके, असरदार कार्रवाई कर सके। यही मनुष्य की मुख्य पहचान और सबसे सार्थक उद्देश्य है, जिसके साथ हमें अपने जीवन को जोडऩा है। बहुत छोटे-छोटे स्तर पर हो रहे लाखों-करोड़ों सार्थक प्रयास ही आज दुनिया की सबसे बड़ी उम्मीद हैं। यह करोड़ों की संख्या में जलने वाले छोटे-छोटे दीप ही अंधकारमय हो रही दुनिया को रोशन करेंगे।












ऐसे हुई एक जनवरी से नए साल की शुरुआत

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दिनेश कुकरेती

वैसे तो भारत में हिंदू कैलेंडर के मुताबिक चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा के दिन से नए साल की शुरुआत होती है, लेकिन पूरे विश्व में सर्वग्राह्य रूप से नया साल एक जनवरी से मनाने का चलन है। यह परंपरा कैसे अस्तित्व में आई, इसका भी रोचक इतिहास है। ऐसी मान्यता है कि जनवरी महीने का नाम रोमन देवता 'जानूसÓ के नाम पर रखा गया था। कहते हैं कि जानूस दो मुख वाले देवता थे, जिसमें एक मुख आगे और दूसरा पीछे की ओर था। दो मुख होने की वजह से जानूस को अतीत और भविष्य की सारी जानकारियां रहती थीं। इसलिए उनके नाम पर जनवरी को साल का पहला महीना और एक जनवरी को साल की शुरुआत मानी गई। कहते हैं कि नया साल आज से लगभग 4000 साल पहले बेबीलोन में मनाया गया था। असल में एक जनवरी को मनाया जाने वाला नया वर्ष ग्रेगोरियन कैलेंडर पर आधारित है। इसकी शुरुआत रोमन कैलेंडर से हुई। हालांकि पारंपरिक रोमन कैलेंडर का नया साल एक मार्च से शुरू होता है। रोम के प्रसिद्ध सम्राट जूलियस सीजर ने 47 वर्ष ईसा पूर्व इस कैलेंडर में परिवर्तन किया था। उन्होंने इसमें जुलाई का महीना और इसके बाद अपने भतीजे के नाम पर अगस्त का महीना जोड़ दिया। तब से नया साल एक जनवरी को ही मनाया जाता है। 













एक जनवरी से लंबे होने लगते हैं दिन

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नया साल एक जनवरी से मनाए जाने के पीछे कई खगोलीय कारण भी हैं। एक जनवरी को पृथ्वी सूर्य के बेहद करीब होती है, इसलिए भी इसे साल की शुरुआत कहा जाता है। एक जनवरी को नया साल मनाने का तार्किक कारण यह भी है कि 31 दिसंबर को साल का सबसे छोटा दिन होता है और इसकेबाद दिन लंबे होने लगते हैं। इसलिए एक जनवरी को ही नए साल की शुरुआत मानी जाती है। 
















23 मार्च 2000 बीसी को हुआ था पहला न्यू ईयर सेलिब्रेशन 

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दुनिया में सबसे पहले न्यू ईयर सेलिब्रेशन की बात करें तो वह 23 मार्च 2000 बीसी को किया गया था। हालांकि, इजिप्ट और पर्सिया जैसे देशों में 20 सितंबर को नया साल मनाया जाता है। जबकि, ग्रीक में 20 दिसंबर को नए साल के जश्न मनाने का रिवाज है।














हर जगह अपने-अपने नववर्ष

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भारत में नया साल विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। ये तिथियां अमूमन मार्च और अप्रैल में पड़ती हैं। पंजाब में नया साल बैशाखी के रूप में 13 अप्रैल को मनाया जाता है। जबकि, सिख धर्म के अनुयायी इसे नानकशाही कैलेंडर के अनुसार मार्च में होली के दूसरे दिन मनाते हैं। जैन धर्मावलंबी नववर्ष को दीवाली के अगले दिन मनाते हैं। यह तीर्थांकर महावीर स्वामी की मोक्ष प्राप्ति के अगले दिन से शुरू होता है। ङ्क्षहदू नववर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। ङ्क्षहदू मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी ने इसी दिन सृष्टि की रचना प्रारंभ की थी। इस्लामी कैलेंडर के अनुसार मास मोहर्रम की पहली तारीख को नया साल हिजरी शुरू होता है।














इनकी पारंपरिक रोमन कैलेंडर को ही मान्यता

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ईसाइयों का एक अन्य पंथ ईस्टर्न आर्थोडॉक्स चर्च और इसके अनुयायी ग्रेगोरियन कैलेंडर को मान्यता न देकर पारंपरिक रोमन कैलेंडर को ही मानते हैं। इस कैलेंडर के अनुसार जॉर्जिया, रूस, यरूशलम, सर्बिया आदि में नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है।