Monday 13 November 2017

याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या

याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या 
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दिनेश कुकरेती
देवभूमि के हर रंग में रचे-बसे हैं नेहरू जी। वह खेत-खलिहानों में भी हैं और नदियों, पहाड़ों व घाटियों में भी। उन्होंने प्रकृति के मध्य स्वच्छंद जीवनयापन करने वाले लोक समाज को धरती का सुकुमार पुष्प मानकर गले ही नहीं लगाया, बल्कि खुद भी उसके रंग में रंग गए। तभी तो गढ़वाली लोक हृदय झूम उठा और गाने लगा कि 'तू फूलों मा को फूल छई, लालों मा को लाल जवाहिर, बांकों मा को बांको छई, भारत को आंखो तू जवाहिर, ब्वै-बाबू देश को लाडो छई, गैणों मा की जून तू जवाहिरÓ। 
नेहरू जी को प्राकृतिक छटा से अपार स्नेह था और उतना ही प्यार वे प्रकृति के मध्य स्वच्छंद विचरण करने वाले लोगों से भी करते थे। यह वजह भी है गढ़वाली लोक हृदय ने उन्हें अपार स्नेह दिया। वह दिलों में बसकर लोकगीतों के रूप में जुबां पे उतर गए। आजादी के पहले और बाद में भी लोक समाज को उनमें अपना ही अक्स नजर आया। अपनी पुस्तक गढ़वाली लोक गीत में प्रसिद्ध साहित्यकार डा.शिवानंद नौटियाल लिखते हैं कि, 'गढ़वाली लोक समाज का मन पंडित जी के प्रतिष्ठा वाले पद को पाने पर ही नहीं नाचा करता था। वह तो बालपन से ही गढ़वाली गीतों के नायक रहे हैंÓ। नेहरू जी तो गढ़वाली समाज के लिए बसंत के समान हैं, जिनके दर्शन मात्र से वह गा उठा, 'बसंत छ आज ऋतु, बासंती ह्वै गवां हम, देखीक त्वै जबारी मन नचद छम-छमÓ। 
गढ़वाली लोकगीतों में 'चौंफलाÓ प्रसिद्ध नृत्य गीत है, जिसे नेहरू जी के सम्मान में तब गाया गया, जब अंग्रेजों ने गढ़वाली रणबांकुरों की वीरता से प्रभावित होकर उन्हें 'विक्टोरिया क्रॉसÓ से सम्मानित किया। उस दौर में गढ़वाली समाज अपने खेत-खलिहानों में मुखर होकर यह चौंफला गाते हुए झूम उठता था, 'मोतीलाला कू नौनू जवारी, तीले धारू बोला दा, भारता कू नेता जवारी, तीले धारू बोला दाÓ। डा.नौटियाल लिखते हैं कि अंग्रेज जब गढ़वाली वीरों को प्रलोभनों के बूते फौज में भरती होने को मना रहे थे, तब माताएं अपने बेटों, बहनें अपने भाईयों और बहुएं अपने सुहाग को गांधी, सुभाष और नेहरू की स्वराज वाली फौज में भरती होने के लिए प्रोत्साहित कर रही थीं। एक बानगी-'चला भुलौं भर्ती ह्वे जौंला, जवाहिर दादा की पलटन मा, भला सजुला खद्दर पैरी अर रंगीला जवाहिर कोट मा, मर मिटला देश का बाना, घर छोडुला दादा जवारी का साथ माÓ। 
जेठ में बरसात की कल्पना करने वाला गढ़वाली लोक समाज नेहरू को अपना भाग्य विधाता मानता रहा है। उसकी यह भावना लोकगीत में कुछ इस तरह प्रस्फुटित हुई, 'तिमला का पात भैजी, तिमला का पात, नेरू को राज भैजी जेठ मा बरसात, बाजी जाला बाजा भैजी, बाजी जाला बाजा, भारत मा ह्वैगे भैजी नेरू को सुखकारी राजÓ। अपनी तटस्थ नीति के लिए सारी दुनिया ने नेहरू जी को सराहा, फिर गढ़वाली समाज कैसे चुप रह सकता था। वह भी गा उठा, 'माछी मारी ताति भैजी, माछी मारी ताति, भलो तेरो राज नेरू, भली तेरी नीतिÓ। और जब गढ़वाली लोक समाज का वह नचाड़ इस दुनिया-ए-फानी से अलविदा कह गया तो लोक हृदय मानने को कतई तैयार नहीं था। वह तो आज भी उन्हें भारत के कण-कण में पाता है और गा उठता है, 'याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या, सूरज-जून सि नाम रालो, धरती-आकाश जब तक याÓ। 

किसी आघात से कम नहीं था नेहरू का जाना
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कितनी सशक्त और हृदय विदारक पंक्तियां हैं यह। तथाकथित सभ्य और चकड़ैत लोग भले ही इसे कल्पना समझें, लेकिन दुनिया के छल-कपट से दूर रहने वाले गढ़वाली लोक समाज के लिए किसी आघात से कम नहीं था नेहरू जी का जाना। उसके तो कलेजे पर मानो किसी ने चीरा लगा दिया हो। ऐसी थी उसकी पीड़ा, 'कलेजा का चीरा ह्वैगीं हिया का बेहाल, आंख्यों मा रिटण लैगी जवाहिर लालÓ।

I miss 'Leela temple' of 'Kamali'

यादों के झरोखों से
याद आती है 'लीला मंदिरÓ की 'कमलीÓ
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दिनेश कुकरेती
ठाकुर साहब जब देहरादून की सड़कों पर निकलते तो लोगों के कदम ठिठक जाया करते थे। पठानी व्यक्तित्व, सफेद खड़ी मूछें, सफेद बाल और हाथ में एक सोटी (आगे से गोल जादुई छड़ी सी) उन्हें अलग पहचान देती थी। लाहौर में बनने वाली साईलेंट फिल्मों के जाने-माने अभिनेता ठाकुर हिम्मत सिंह उन राजपूत ठिकानेदारों और जमींदारों के वंशज थे, जिन्हें कुछ खास वजहों से संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) का अपना घर-बार छोड़कर महाराजा रणजीत सिंह की शरण में जाना पड़ा। महाराजा ने उन्हें लाहौर के मोची दरवाजे के इलाके में बसने की इजाजत दी थी।
विभाजन के बाद वे मुंबई आ गए और फिर स्थायी रूप से देहरादून में बस गए। आजादी से पहले हिंदी सिनेमा और उस दौर के स्टूडियो सिस्टम का जिक्र आते ही जहन में जो नाम सबसे पहले उभरते हैं, वो हैं मुंबई के रणजीत, बांबे टॉकीज और वाडिया मूवीटोन, कोल्हापुर का जयाप्रभा, पुणे का प्रभात, कोलकाता का न्यू थिएटर्स और लाहौर का पंचोली आर्ट्स। इन बड़े नामों के बीच कुछेक ऐसे स्टूडियो भी अस्तित्व में आए, जो खुद भले ही ज्यादा समय तक जिंदा न रख पाए हों, लेकिन भारतीय सिनेमा के इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिए उन्हें नजरअंदाज कर पाना मुनासिब नहीं होगा।

 

ऐसे ही अल्पजीवी स्टूडियो में एक नाम है लाहौर का 'लीला मंदिरÓ, जिसकी नींव ठाकुर हिम्मत सिंह ने रखी थी। 'लीला मंदिरÓ के बैनर की पहली फिल्म पंजाबी में बनी 'कमलीÓ थी, जो वर्ष 1946 में प्रदर्शित हुई। फिल्म के निर्देशक थे प्रकाश बख्शी और संगीतकार इनायत हुसैन। मुख्य भूमिका अमरनाथ, किरण (शौकत) व आशा पोसले ने निभाई। शौकत और आशा संगीतकार इनायत हुसैन की बेटियां थीं।
 
इस फिल्म ने अपने वक्त में अच्छा-खासा बिजनेस किया। ठाकुर साहब के बेटे करूणेश ठाकुर उन दिनों को याद करते हुए बताते थे, 'पिताजी ने वर्ष 1940 में बनी पंजाबी फिल्म 'दुल्ला-भट्टीÓ में खलनायक की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म के निर्देशक रूप के.शौरी और संगीतकार पंडित गोविंदराम थे। 'दुल्ला-भट्टीÓ को इसलिए भी याद किया जाता है, क्योंकि प्रसिद्ध संगीतकार ओपी नैयर के जीवन की यह पहली फिल्म थी।
इस फिल्म में अजीज कश्मीरी के लिखे गीत 'रब दी जनाब विचों ऐहो दिल मंगदा, अंबियां दा बाग होवे, बदला दी छांव होवेÓ के कोरस में हिस्सा लेने के साथ-साथ वो इस गीत में पर्दे पर भी नजर आए थे।Ó वर्ष 1947 में 'लीला मंदिरÓ के बैनर तले फिल्म 'बेदर्दीÓ का निर्माण शुरू हुआ। निर्देशन का जिम्मा एक बार फिर प्रकाश बख्शी ने संभाला। ठाकुर हिम्मत सिंह के बेटे करूणेश ने मैट्रिक पास करने के बाद इस फिल्म में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर अपना करियर शुरू किया था।
नौ सितंबर 1929 को लाहौर में जन्मे करूणेश ठाकुर की उम्र तब 18 साल थी। करूणेश बताते थे, 'उन दिनों देहरादून में मेरी मौसी का मकान बन रहा था। तीन अगस्त 1947 को हमने लाहौर में फिल्म 'बेदर्दीÓ की शूटिंग शुरू की और आगे की शूटिंग के लिए 12 अगस्त को यूनिट के साथ देहरादून पहुंचकर मौसी के अधबने मकान में ठहर गए। लेकिन, इसी बीच मुल्क का बंटवारा हो गया और यूनिट को दंगों से बचाने के लिए हमें देहरादून छोड़कर रातोंरात कोलकाता जाना पड़ा।
जाने-माने रंगकर्मी स्व.अतीक अहमद बताते थे कि विभाजन के बाद ठाकुर हिम्मत सिंह लाहौर छोड़कर मुंबई में रहने लगे और फिर देहरादून आ गए। बाद में करूणेश ठाकुर भी यहां करनपुर स्थित उसी पुश्तैनी मकान में अपने छोटे भाई व बहन के साथ रहते थे। करूणेश ठाकुर 'उत्तराखंड फिल्म चैंबर ऑफ कॉमर्सÓ के वाइस प्रेसिडेंट भी रहे।
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Through the windows of memories

I miss 'Leela temple' of 'Kamali'
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Dinesh Kukreti

When Thakur saheb used to go out on the streets of Dehradun, the people used to take stubborn steps.  The Pathani personality, white mustache, white hair and a sooty in the hand (a round magic wand from the front) gave him a distinct identity.  Thakur Himmat Singh, a well-known actor in Silent films made in Lahore, was a descendant of Rajput hideouts and zamindars who had to leave their homes in the United Provinces (now Uttar Pradesh) for some special reason and go to the shelter of Maharaja Ranjit Singh.  The Maharaja allowed them to settle in the area of ​​the Mochi Darwaza of Lahore.

After partition, he moved to Mumbai and then permanently settled in Dehradun.  The names that first emerge in the minds of Hindi cinema before independence and the studio system of that era are Ranjeet, Bombay Talkies and Wadia Movietone in Mumbai, Jayaprabha of Kolhapur, Prabhat in Pune, New Theaters in Kolkata and Lahore.  Ka Pancholi Arts.  A few such studios also came into existence among these big names, who may not be able to keep themselves alive for a long time, but it will not be appropriate for those interested in the history of Indian cinema to ignore them.

One such name in short-lived studios is 'Leela Mandir' of Lahore, which was laid by Thakur Himmat Singh.  The first film under the banner of 'Leela Mandir' was 'Kamali', made in Punjabi, which was released in the year 1979.  The film's director was Prakash Bakshi and composer Inayat Hussain.  The lead roles were played by Amarnath, Kiran (Shaukat) and Asha Posle.  Shaukat and Asha were daughters of composer Inayat Hussain.



The film did a lot of business in its time.  Thakur Saheb's son Karunesh Thakur used to remember those days, 'Dad played the role of a villain in the Punjabi film' Dulla-Bhatti 'in the year 1980.  The film was directed by Roop K. Shauri and composer Pandit Govindaram.  'Dulla-Bhatti' is also remembered because it was the first film in the life of famous composer OP Nayyar.

In this film, he was also seen on screen in this song along with playing the chorus of 'Rab Di Janaab Vichon Aiho Dil Mangda, Ambiya Da Bagh Howe, Badla Di Chaon Howe' written by Aziz Kashmiri. In the year 1979  Production of the film 'Bedardi' started under the banner of 'Leela Mandir'.  Prakash Bakshi once again took charge of direction.  Karunesh, son of Thakur Himmat Singh, started his career as an assistant director in this film after passing matriculation.

 
Karunesh Thakur, born in Lahore on September 9, 1929, was then 14 years old.  Karunesh used to say, 'My aunt's house was being built in Dehradun those days.  On 3 August 1949, we started shooting for the film 'Bedardi 4' in Lahore and arrived in Dehradun on 12 August with the unit and stayed in Mausi's unoccupied house for further shooting.  But, in the meantime, the country was divided and we had to leave Dehradun and go to Kolkata overnight to save the unit from rioting.

Well-known painter late Atik Ahmed used to say that after partition Thakur Himmat Singh left Lahore and started living in Mumbai and then moved to Dehradun.  Later, Karunesh Thakur also lived here with his younger brother and sister in the same ancestral house in Karanpur.  Karunesh Thakur was also Vice President of Uttarakhand Film Chamber of Commerce.  

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