Monday 13 November 2017

याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या

याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या 
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दिनेश कुकरेती
देवभूमि के हर रंग में रचे-बसे हैं नेहरू जी। वह खेत-खलिहानों में भी हैं और नदियों, पहाड़ों व घाटियों में भी। उन्होंने प्रकृति के मध्य स्वच्छंद जीवनयापन करने वाले लोक समाज को धरती का सुकुमार पुष्प मानकर गले ही नहीं लगाया, बल्कि खुद भी उसके रंग में रंग गए। तभी तो गढ़वाली लोक हृदय झूम उठा और गाने लगा कि 'तू फूलों मा को फूल छई, लालों मा को लाल जवाहिर, बांकों मा को बांको छई, भारत को आंखो तू जवाहिर, ब्वै-बाबू देश को लाडो छई, गैणों मा की जून तू जवाहिरÓ। 
नेहरू जी को प्राकृतिक छटा से अपार स्नेह था और उतना ही प्यार वे प्रकृति के मध्य स्वच्छंद विचरण करने वाले लोगों से भी करते थे। यह वजह भी है गढ़वाली लोक हृदय ने उन्हें अपार स्नेह दिया। वह दिलों में बसकर लोकगीतों के रूप में जुबां पे उतर गए। आजादी के पहले और बाद में भी लोक समाज को उनमें अपना ही अक्स नजर आया। अपनी पुस्तक गढ़वाली लोक गीत में प्रसिद्ध साहित्यकार डा.शिवानंद नौटियाल लिखते हैं कि, 'गढ़वाली लोक समाज का मन पंडित जी के प्रतिष्ठा वाले पद को पाने पर ही नहीं नाचा करता था। वह तो बालपन से ही गढ़वाली गीतों के नायक रहे हैंÓ। नेहरू जी तो गढ़वाली समाज के लिए बसंत के समान हैं, जिनके दर्शन मात्र से वह गा उठा, 'बसंत छ आज ऋतु, बासंती ह्वै गवां हम, देखीक त्वै जबारी मन नचद छम-छमÓ। 
गढ़वाली लोकगीतों में 'चौंफलाÓ प्रसिद्ध नृत्य गीत है, जिसे नेहरू जी के सम्मान में तब गाया गया, जब अंग्रेजों ने गढ़वाली रणबांकुरों की वीरता से प्रभावित होकर उन्हें 'विक्टोरिया क्रॉसÓ से सम्मानित किया। उस दौर में गढ़वाली समाज अपने खेत-खलिहानों में मुखर होकर यह चौंफला गाते हुए झूम उठता था, 'मोतीलाला कू नौनू जवारी, तीले धारू बोला दा, भारता कू नेता जवारी, तीले धारू बोला दाÓ। डा.नौटियाल लिखते हैं कि अंग्रेज जब गढ़वाली वीरों को प्रलोभनों के बूते फौज में भरती होने को मना रहे थे, तब माताएं अपने बेटों, बहनें अपने भाईयों और बहुएं अपने सुहाग को गांधी, सुभाष और नेहरू की स्वराज वाली फौज में भरती होने के लिए प्रोत्साहित कर रही थीं। एक बानगी-'चला भुलौं भर्ती ह्वे जौंला, जवाहिर दादा की पलटन मा, भला सजुला खद्दर पैरी अर रंगीला जवाहिर कोट मा, मर मिटला देश का बाना, घर छोडुला दादा जवारी का साथ माÓ। 
जेठ में बरसात की कल्पना करने वाला गढ़वाली लोक समाज नेहरू को अपना भाग्य विधाता मानता रहा है। उसकी यह भावना लोकगीत में कुछ इस तरह प्रस्फुटित हुई, 'तिमला का पात भैजी, तिमला का पात, नेरू को राज भैजी जेठ मा बरसात, बाजी जाला बाजा भैजी, बाजी जाला बाजा, भारत मा ह्वैगे भैजी नेरू को सुखकारी राजÓ। अपनी तटस्थ नीति के लिए सारी दुनिया ने नेहरू जी को सराहा, फिर गढ़वाली समाज कैसे चुप रह सकता था। वह भी गा उठा, 'माछी मारी ताति भैजी, माछी मारी ताति, भलो तेरो राज नेरू, भली तेरी नीतिÓ। और जब गढ़वाली लोक समाज का वह नचाड़ इस दुनिया-ए-फानी से अलविदा कह गया तो लोक हृदय मानने को कतई तैयार नहीं था। वह तो आज भी उन्हें भारत के कण-कण में पाता है और गा उठता है, 'याद राली तेरी जवारी, जब तक दुन्या राली या, सूरज-जून सि नाम रालो, धरती-आकाश जब तक याÓ। 

किसी आघात से कम नहीं था नेहरू का जाना
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कितनी सशक्त और हृदय विदारक पंक्तियां हैं यह। तथाकथित सभ्य और चकड़ैत लोग भले ही इसे कल्पना समझें, लेकिन दुनिया के छल-कपट से दूर रहने वाले गढ़वाली लोक समाज के लिए किसी आघात से कम नहीं था नेहरू जी का जाना। उसके तो कलेजे पर मानो किसी ने चीरा लगा दिया हो। ऐसी थी उसकी पीड़ा, 'कलेजा का चीरा ह्वैगीं हिया का बेहाल, आंख्यों मा रिटण लैगी जवाहिर लालÓ।

I miss 'Leela temple' of 'Kamali'

यादों के झरोखों से
याद आती है 'लीला मंदिरÓ की 'कमलीÓ
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दिनेश कुकरेती
ठाकुर साहब जब देहरादून की सड़कों पर निकलते तो लोगों के कदम ठिठक जाया करते थे। पठानी व्यक्तित्व, सफेद खड़ी मूछें, सफेद बाल और हाथ में एक सोटी (आगे से गोल जादुई छड़ी सी) उन्हें अलग पहचान देती थी। लाहौर में बनने वाली साईलेंट फिल्मों के जाने-माने अभिनेता ठाकुर हिम्मत सिंह उन राजपूत ठिकानेदारों और जमींदारों के वंशज थे, जिन्हें कुछ खास वजहों से संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) का अपना घर-बार छोड़कर महाराजा रणजीत सिंह की शरण में जाना पड़ा। महाराजा ने उन्हें लाहौर के मोची दरवाजे के इलाके में बसने की इजाजत दी थी।
विभाजन के बाद वे मुंबई आ गए और फिर स्थायी रूप से देहरादून में बस गए। आजादी से पहले हिंदी सिनेमा और उस दौर के स्टूडियो सिस्टम का जिक्र आते ही जहन में जो नाम सबसे पहले उभरते हैं, वो हैं मुंबई के रणजीत, बांबे टॉकीज और वाडिया मूवीटोन, कोल्हापुर का जयाप्रभा, पुणे का प्रभात, कोलकाता का न्यू थिएटर्स और लाहौर का पंचोली आर्ट्स। इन बड़े नामों के बीच कुछेक ऐसे स्टूडियो भी अस्तित्व में आए, जो खुद भले ही ज्यादा समय तक जिंदा न रख पाए हों, लेकिन भारतीय सिनेमा के इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिए उन्हें नजरअंदाज कर पाना मुनासिब नहीं होगा।

 

ऐसे ही अल्पजीवी स्टूडियो में एक नाम है लाहौर का 'लीला मंदिरÓ, जिसकी नींव ठाकुर हिम्मत सिंह ने रखी थी। 'लीला मंदिरÓ के बैनर की पहली फिल्म पंजाबी में बनी 'कमलीÓ थी, जो वर्ष 1946 में प्रदर्शित हुई। फिल्म के निर्देशक थे प्रकाश बख्शी और संगीतकार इनायत हुसैन। मुख्य भूमिका अमरनाथ, किरण (शौकत) व आशा पोसले ने निभाई। शौकत और आशा संगीतकार इनायत हुसैन की बेटियां थीं।
 
इस फिल्म ने अपने वक्त में अच्छा-खासा बिजनेस किया। ठाकुर साहब के बेटे करूणेश ठाकुर उन दिनों को याद करते हुए बताते थे, 'पिताजी ने वर्ष 1940 में बनी पंजाबी फिल्म 'दुल्ला-भट्टीÓ में खलनायक की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म के निर्देशक रूप के.शौरी और संगीतकार पंडित गोविंदराम थे। 'दुल्ला-भट्टीÓ को इसलिए भी याद किया जाता है, क्योंकि प्रसिद्ध संगीतकार ओपी नैयर के जीवन की यह पहली फिल्म थी।
इस फिल्म में अजीज कश्मीरी के लिखे गीत 'रब दी जनाब विचों ऐहो दिल मंगदा, अंबियां दा बाग होवे, बदला दी छांव होवेÓ के कोरस में हिस्सा लेने के साथ-साथ वो इस गीत में पर्दे पर भी नजर आए थे।Ó वर्ष 1947 में 'लीला मंदिरÓ के बैनर तले फिल्म 'बेदर्दीÓ का निर्माण शुरू हुआ। निर्देशन का जिम्मा एक बार फिर प्रकाश बख्शी ने संभाला। ठाकुर हिम्मत सिंह के बेटे करूणेश ने मैट्रिक पास करने के बाद इस फिल्म में बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर अपना करियर शुरू किया था।
नौ सितंबर 1929 को लाहौर में जन्मे करूणेश ठाकुर की उम्र तब 18 साल थी। करूणेश बताते थे, 'उन दिनों देहरादून में मेरी मौसी का मकान बन रहा था। तीन अगस्त 1947 को हमने लाहौर में फिल्म 'बेदर्दीÓ की शूटिंग शुरू की और आगे की शूटिंग के लिए 12 अगस्त को यूनिट के साथ देहरादून पहुंचकर मौसी के अधबने मकान में ठहर गए। लेकिन, इसी बीच मुल्क का बंटवारा हो गया और यूनिट को दंगों से बचाने के लिए हमें देहरादून छोड़कर रातोंरात कोलकाता जाना पड़ा।
जाने-माने रंगकर्मी स्व.अतीक अहमद बताते थे कि विभाजन के बाद ठाकुर हिम्मत सिंह लाहौर छोड़कर मुंबई में रहने लगे और फिर देहरादून आ गए। बाद में करूणेश ठाकुर भी यहां करनपुर स्थित उसी पुश्तैनी मकान में अपने छोटे भाई व बहन के साथ रहते थे। करूणेश ठाकुर 'उत्तराखंड फिल्म चैंबर ऑफ कॉमर्सÓ के वाइस प्रेसिडेंट भी रहे।
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Through the windows of memories

I miss 'Leela temple' of 'Kamali'
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Dinesh Kukreti

When Thakur saheb used to go out on the streets of Dehradun, the people used to take stubborn steps.  The Pathani personality, white mustache, white hair and a sooty in the hand (a round magic wand from the front) gave him a distinct identity.  Thakur Himmat Singh, a well-known actor in Silent films made in Lahore, was a descendant of Rajput hideouts and zamindars who had to leave their homes in the United Provinces (now Uttar Pradesh) for some special reason and go to the shelter of Maharaja Ranjit Singh.  The Maharaja allowed them to settle in the area of ​​the Mochi Darwaza of Lahore.

After partition, he moved to Mumbai and then permanently settled in Dehradun.  The names that first emerge in the minds of Hindi cinema before independence and the studio system of that era are Ranjeet, Bombay Talkies and Wadia Movietone in Mumbai, Jayaprabha of Kolhapur, Prabhat in Pune, New Theaters in Kolkata and Lahore.  Ka Pancholi Arts.  A few such studios also came into existence among these big names, who may not be able to keep themselves alive for a long time, but it will not be appropriate for those interested in the history of Indian cinema to ignore them.

One such name in short-lived studios is 'Leela Mandir' of Lahore, which was laid by Thakur Himmat Singh.  The first film under the banner of 'Leela Mandir' was 'Kamali', made in Punjabi, which was released in the year 1979.  The film's director was Prakash Bakshi and composer Inayat Hussain.  The lead roles were played by Amarnath, Kiran (Shaukat) and Asha Posle.  Shaukat and Asha were daughters of composer Inayat Hussain.



The film did a lot of business in its time.  Thakur Saheb's son Karunesh Thakur used to remember those days, 'Dad played the role of a villain in the Punjabi film' Dulla-Bhatti 'in the year 1980.  The film was directed by Roop K. Shauri and composer Pandit Govindaram.  'Dulla-Bhatti' is also remembered because it was the first film in the life of famous composer OP Nayyar.

In this film, he was also seen on screen in this song along with playing the chorus of 'Rab Di Janaab Vichon Aiho Dil Mangda, Ambiya Da Bagh Howe, Badla Di Chaon Howe' written by Aziz Kashmiri. In the year 1979  Production of the film 'Bedardi' started under the banner of 'Leela Mandir'.  Prakash Bakshi once again took charge of direction.  Karunesh, son of Thakur Himmat Singh, started his career as an assistant director in this film after passing matriculation.

 
Karunesh Thakur, born in Lahore on September 9, 1929, was then 14 years old.  Karunesh used to say, 'My aunt's house was being built in Dehradun those days.  On 3 August 1949, we started shooting for the film 'Bedardi 4' in Lahore and arrived in Dehradun on 12 August with the unit and stayed in Mausi's unoccupied house for further shooting.  But, in the meantime, the country was divided and we had to leave Dehradun and go to Kolkata overnight to save the unit from rioting.

Well-known painter late Atik Ahmed used to say that after partition Thakur Himmat Singh left Lahore and started living in Mumbai and then moved to Dehradun.  Later, Karunesh Thakur also lived here with his younger brother and sister in the same ancestral house in Karanpur.  Karunesh Thakur was also Vice President of Uttarakhand Film Chamber of Commerce.  

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Friday 27 October 2017

लोक को जगाकर खुद सो गया लोक का चितेरा














लोक को जगाकर खुद सो गया लोक का  चितेरा
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दिनेश कुकरेती
प्रख्यात रंगकर्मी, चित्रकार, साहित्यकार एवं कार्टूनिस्ट बी.मोहन नेगी का असमय चले जाना किसी आघात से कम नहीं है। खासकर तब, जब कला-संस्कृति की परख रखने वाले बहुत कम लोग रह गए हों। नेगी महज एक चित्रकार नहीं, बल्कि चित्त  की पाठशाला थे। ऐसे चित्त की, जिसे महसूस करने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए। उनकी छांव में न जाने कितनों ने परिवेश को समझने की सोच विकसित की। उनमें पहाड़ के प्रति ऐसी छटपटाहट थी,जिसे देखने को आंखें तरस जाती हैं। नेगी सरलता एवं सौम्यता की ऐसी प्रतिमूर्ति थे, जिसने लोक के प्रति समझ रखने वाले हर व्यक्ति को उनका कायल बना दिया।

मूलरूप से पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लॉक की मनियारस्यूं पटटी के पुंडोरी गांव निवासी बी.मोहन नेगी का जन्म 26 अगस्त 1952 को देहरादून में हुआ। लेकिन, कर्मक्षेत्र हमेशा उनका पहाड़ ही रहा। सेवानिवृत्ति के बाद भी उन्हें पौडी़ से नीचे उतरना गवारा न हुआ। दो पुत्र और दो पुत्रियों के पिता 66 वर्षीय नेगी ने डाक विभाग में रहते हुए लंबे अर्से तक चमोली जिला मुख्यालय गोपेश्वर व गौचर में सेवाएं दीं। यहीं उनके अंतर्मन में पहाड़ ने जन्म लिया और वे पहाड़ के चितेरे चित्रकार बन गए।

उन्होंने एक तरफ बोधपरक लघु कविताएं लिखीं तो दूसरी तरफ चित्र, रेखाचित्र, कविता पोस्टर, कोलाज, मिनिएचर्स, कार्टून आदि विधाओं के माध्यम से सोई हुई व्यवस्था को झकझोरने का काम किया। अपनी तूलिका के माध्यम से उन्होंने तत्कालीन एवं मौजूदा दौर की ऐसी तस्वीर समाज के सामने रखी, जिसने हर किसी को सोचने पर मजबूर कर दिया। बावजूद इसके उन्हें कभी प्रचार की चाह नहीं रही और खामोशी से सृजन में जुटे रहे। बाद में नेगी का स्थानांतरण प्रधान डाकघर पौड़ी में हुआ तो यहां भी उन्होंने अपनी रचनाधर्मिता को संजीदा रखते हुए पर्वतीय समाज को एक नया आयाम देने का कार्य किया।


वर्ष 2009 में नेगी पौड़ी डाकघर से ही उप डाकपाल के पद से सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद तो उनका हर पल कला को समर्पित हो गया। उनके व्यक्तित्व में एक अजीब सा सम्मोहन था। जो भी एक बार उनसे मिलता हमेशा के लिए उनका हो जाता। अनजान लोगों से भी आत्मीयता पूर्वक मिलना उनका नैसर्गिक स्वभाव था। यही वजह है कि उनकी कलाकृतियां दीवारों पर ही नहीं लोगों के दिलों में अंकित हैं। एक दौर में नेगी पौड़ी की रामलीला के लिए कलाकारों के मुखौटा बनाया करते थे। साथ ही उन्होंने पहाड़ से गायब हो रही चित्रकला को पुनर्स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया। वह कहते थे, जब तक जीवन है, मैं कला से मुंह नहीं मोड़ सकता। चित्रकारी मेरे लिए साधना से ज्यादा पहाड़ के प्रति जिम्मेदारी है। उन्होंने सैकडो़ं पुस्तकों के मुखपृष्ठ ही नहीं बनाए, बल्कि भोजपत्र पर चित्रकारी व प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियां भी बनाई। उनके कलाकर्म को शास्त्रीय सीमाओं में बांध पाना असंभव है।


प्रेरणा के रूप में जिंदा रहेंगे बी मोहन
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प्रख्यात चित्रकार बी.मोहन नेगी 1984 से देश के विभिन्न शहरों में कविता व कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी भी आयोजित करते रहे। उन्होंने उत्तराखंड के प्रमुख शहरों के साथ ही दिल्ली, मुंबई, लखनऊ आदि शहरों में भी कविता पोस्टर प्रदर्शनियां लगाईं। इसके अलावा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय व विभिन्न क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनके चित्र, रेखाचित्र, कार्टून व कविताओं का प्रकाशन निरंतर होता रहा।  कला के इस पुरोधा ने गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, रंवाल्टी, नेपाली, पंजाबी, हिंदी व अंग्रेजी भाषा में लगभग 700 कविता पोस्टर बनाए।

इसके अलावा उन्होंने प्रकृति के चितेरे कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल की लगभग सौ कविताओं पर भी पोस्टर तैयार किए। उनके उकेरे गए चित्र लोकजीवन की जीवटता को प्रदर्शित करते हैं। खास बात यह कि जो भी चित्र नेगी ने बनाए, वे पर्वतीय जीवन की संजीदगी से भरे हुए हैं। नेगी को उनकी रचनाशीलता के लिए विभिन्न संस्थाओं की ओर से अनेकों बार सम्मानित किया गया। उन्हें मिले सम्मानों में प्रकाश पुरोहित जयदीप स्मृति सम्मान, हिमगिरी सम्मान, लक्ष्मी प्रसाद नौटियाल सम्मान, चंद्रकुंवर बत्र्वाल सम्मान, देव भूमि सम्मान, गढ़ विभूति सम्मान आदि प्रमुख हैं। नेगी भले ही आज दैहिक रूप में हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनकी प्रेरणा हमारे अंतर्मन में उन्हें हमेशा जिलाए रखेगी।

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Saturday 14 October 2017

कमल दा और मैं

कमल दा और मैं 
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दिनेश कुकरेती
"आकार", यही नाम तो था कमल दा के पुस्तकालय का। कोटद्वार में गोखले मार्ग स्थित कमल दा के मकान के भूतल पर हुआ करता था यह पुस्तकालय। आलमारियों में करीने से सजी पुस्तकें, जिनमें पूरा पहाड़ समाया हुआ था। देश-दुनिया को जानने के लिए भी यहां वह सारी पुस्तकें मौजूद थीं, जिन्हें देखने को एक पुस्तक प्रेमी तरस जाता है। इसके अलावा पहाड़ की तमाम भूली-बिसरी स्मृतियां भी यहां कमल दा ने संजोयी हुई थीं। तब शेखर भाई (चंद्रशेखर बेंजवाल) इसी पुस्तकालय में अड्डेबाजी किया करते थे। 
यह 1989 की बात होगी। इसी साल मैंने बीकाम प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने के साथ छात्र राजनीति में पर्दापण किया था और दुनियाभर के प्रगतिशील छात्र आंदोलनों को समझने की कोशिश कर रहा था। शेखर भाई तब कोटद्वार के लोकप्रिय छात्रनेता हुआ करते थे। सो, उनसे जुडा़व स्वाभाविक था। उन्हीं की बदौलत मैंने पहली बार "आकार" की देहरी पर कदम रखा। किताबों की यह दुनिया मुझे इस कदर भा गई कि फिर कदम अक्सर आकार में पड़ने लगे। वहां किताबें पढा़ने की पूरी आजादी थी। लेकिन, कमल दा घर ले जाने के लिए किताब तभी देते थे, जब उन्हें भरोसा हो जाता था कि वह तय समय पर लौट आएगी। एक भी दिन का विलंब हुआ तो खैर नहीं। मैंने उनका विश्वास अर्जित कर लिया था, सो मुझे आसानी से किताब मिल जाती थी। 
पहाड़ के बारे में जानना मुझे अच्छा लगता था, इसलिए ज्यादातर किताबें पहाड़ से संबंधित ही कमल दा इश्यू करवाता था। शहर में कोई गोष्ठी या परिचर्चा होती तो उसमें कमल दा को अवश्य आमंत्रित किया जाता। कुछ अच्छा सुनने के लिए मैं भी इन कार्यक्रमों में चला जाता। हालांकि, अंतर्मुखी होने के कारण मेरी भूमिका इनमें श्रोता की ही होती। पर, जिम्मेदार एवं गंभीर श्रोता की। समय गुजर रहा था और राजनीति में मेरी सोच भी परिपक्व होती जा रही थी। सो, अभिव्यक्ति के लिए धीरे-धीरे पत्रकारिता की ओर भी अग्रसर होने लगा। 
तब कोटद्वार से साप्ताहिक "सत्यपथ" का निरंतर प्रकाशन हो रहा था। गुरुजी पीतांबर दत्त डेवरानी "सत्यपथ" के संपादक हुआ करते थे। अब कमल दा के साथ उनसे भी अच्छी दोस्ती हो गई। कमल दा जब भी मिलते, छूटते ही बोलते, "क्या कर रहा है बे गुंडे।" इस "गुंडे" शब्द में कितना स्नेह था, मेरे पास व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं। 23 मार्च 1993 को मेरा पहला बाई लाइन लेख सत्यपथ में प्रकाशित हुआ। शीर्षक था "स्थितियां बदलनी होंगी"। पूरे पन्ने यह लेख मैंने साथी भगत सिंह पर लिखा था। गुरुजी के साथ कमल दा और दिवंगत साथी अश्वनी कोटनाला ने भी मुझे इस लेख के लिए बधाई दी। कमल दा ने तो यहां तक कहा कि "गुंडे नैनीताल समाचार के लिए भी लिखा कर। तेरी लेखनी में दम है।" 
कमल दा की बदौलत ही मेरा नैनीताल समाचार से परिचय हुआ और मैं उसका नियमित पाठक बन गया। कहीं नैनीताल समाचार की पुरानी प्रति दिखती थी तो मैं उसे टिपाने में भी गुरेज नहीं करता था। एक दिन कमल भाई बोले, "अबे तू नैनीताल समाचार क्यों नहीं लगा लेता।" मैंने कहा, "सोच तो ऐसा ही रहा हूं भाई साहब।" वो बोले, "सोच मत, तू सौ रुपये मुझे दे दे, मैं नैनीताल ही जा रहा हूं।" मेरी समस्या हल हो गई थी। अब नियमित रूप से मुझे नैनीताल समाचार मिलने लगा। इस बीच रंगमंच की ओर भी मेरा रुझान हो गया था। भारतीय ज्ञान विज्ञान जत्थे से जुड़कर गढ़वाल के बडे़ हिस्से में नाटक किए। 
तभी देश में एक बडा़ घटनाक्रम हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने कंमडल से मंडल का जिन्न बाहर निकाल दिया। देश आरक्षण विरोधी आंदोलन में सुलग उठा। लेकिन उत्तराखंड में आरक्षण के विरोध से शुरू हुआ यह आंदोलन उत्तराखंड राज्य आंदोलन में तब्दील हो गया। बैठकों-गोष्ठियों का दौर शुरू हो गया। उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार ने अखबारों के खिलाफ हल्ला बोलने का ऐलान कर दिया। इसका एक फायदा यह हुआ कि अमर उजाला व दैनिक जागरण आमजन के प्रिय हो गए। राज्य  आंदोलन की बागडोर एक तरह से इन दोनों अखबारों ने संभाल ली। 
मैं तब पूरी तरह पत्रकारी बिरादरी का हिस्सा बन चुका था। तब हमारी बैठकें अक्सर आकार यानी कमल दा के ठीये पर ही हुआ करती थीं। हम लोग नागरिक मंच के बैनर तले जुलूस-प्रदर्शनों में शिरकत करते। कमल दा पथ-प्रदर्शक की भूमिका में रहते थे। रामपुर तिराहा कांड के बाद पूरे उत्तराखंड में कर्फ्यू लगा दिया गया। तब हम रात को ठीया बदल-बदलकर रहते थे। ताकि पुलिस की पकड़ में न आ सकें। जब कर्फ्यू में ढील होती तो खामोशी से गलियों के रास्ते आकार में पहुंच जाते और अंदर से दरवाजे पर सिटकनी चढा़कर आगे की रणनीति पर चर्चा करते। शहर में मुर्दानिगी पसरी हुई थी, उससे बाहर निकलना भी जरूरी था। 
तारीख ठीक से याद नहीं, पर तब कर्फ्यू हट चुका था। हम आकार में बैठे और मौन जुलूस निकालने का निर्णय लिया। एक पूरे दिन हम आकार में ही नारे लिखी तख्तियां तैयार करते रहे। अगले दिन सारे पत्रकार दोपहर बाद कमल दा के ठीये पर एकत्र हुए और तहसील तक मौन जुलूस निकाला। इससे शहर में करंट दौड़ गया और लोग फिर मुट्ठियां तानकर घरों से बाहर निकलने लगे। अब मैंने ठान लिया था कि जीवन में पत्रकारिता ही करनी है। काश! तब आज के हालात का इल्म होता...? खैर! दुर्योग से मैं पक्का पत्रकार बन चुका था। यदा-कदा कविता भी हो जाया करती थी। 
कमल दा मेरी कविताओं को न सिर्फ पसंद करते थे, बल्क मुझे प्रोत्साहित करने के लिए उन पर प्रतिक्रिया भी देते थे। मुझे याद है, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद लिखी मेरी कविता जब युगवाणी पत्रिका में छपी तो कमल दा की प्रतिक्रिया थी, "गुंडे मैं तुझे इतनी गंभीरता से नहीं लेता था। ऐसे ही लिखता रहा कर।" वो यह भी चाहते थे कि मैं किसी तरह कोटद्वार से बाहर निकल जाऊं, ताकि जीवन में तरक्की की राह खुल सके। लेकिन, साथ में यह सलाह भी जरूर देते कि कभी जमीन मत छोड़ना। समय का पहिया घूमता रहा और एक दिन मैंने सचमुच कोटद्वार छोड़ दिया। इस बार मेरा ठौर बना देहरादून। 
यहां दैनिक जागरण से जुड़कर मैंने जीवन की नई पारी शुरू की। दिल्ली, मेरठ, लखनऊ, हल्द्वानी आदि शहरों के अनुभव की बदौलत मुझे यहां कोई खास परेशानी नहीं हुई। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि कमल दा दूर रहकर भी देहरादून में मेरे करीबी रहे। मैं जब भी कुछ अच्छा लिखता, कमल दा फोन कर हौसलाफजाई जरूर करते। खासकर 2010 में हरिद्वार कुंभ, 2013 में केदारनाथ आपदा और 2014 में श्री नंदा देवी राजजात की लाइव रिपोर्टिंग से तो कमल दा इस कदर प्रभावित थे कि जब भी मिलते मेरा कंधा जरूर थपथपाते। कहते, "गुंडे तुझसे ऐसी ही उम्मीद रहती है मुझे।" 
नंदा देवी राजजात में तो बाण तक मैं और कमल दा आभासी सहयात्री रहे। स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों के कारण यहां से आगे कमल दा यात्रा नहीं कर सके। सोशल मीडिया पर भी कमल दा मुझे हमेशा प्रोत्साहित करते रहे। विधानसभा चुनाव के दौरान लिखे व्यंग्यों की भी वे हर मुलाकात में तारीफ करते। जिस दिन वे दुनिया-ए-फानी से रुखसत हुए, उस सुबह भी मुझसे मिले थे। हमेशा की तरह पांच-सात मिनट हमने दुनिया जहान की चिंताओं पर चर्चा की और फिर मैं अपनी राह चलता बना। क्या मालूम था कि कुछ घंटों बाद वे उस ट्रैक पर निकलने वाले हैं, जहां से वापसी का रास्ता नहीं है। काश...!

किरायेदार



किस्‍सागोई

किरायेदार 
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दिनेश कुकरेती
ब तक के जीवन में मैं ज्यादातर समय किरायेदार की भूमिका में ही रहा। पहले परिवार के साथ और बाद में अकेले। कितनी ही जगह। सचमुच किरायेदार होना बडा़ कष्टदायी होता है और मेरे जैसे अंतर्मुखी इन्सान के लिए सुखदायी भी। फिलहाल मैं देहरादून में किरायेदार हूं, भरपूर गुडविल वाला किरायेदार। मालिक मकान मेरे बारे में बहुत सी बातें जानता है और बहुत सी नहीं। शायद जान भी न पाएगा। लेकिन फिलवक्त मुझे दिल्ली की किरायेदारी रह-रहकर याद आ रही है। 
बात 1995 की है। कालेज कंपलीट हो चुका था और कलयुग की तरह सिर पर सवार हो चुका पत्रकार बनने का भूत। हालांकि पत्रकारिता की शुरुआत तो 1991 में ही हो गई थी, लेकिन अब मैं इसमें स्थायी ठौर तलाश रहा था। मन करता था दिल्ली चला जाऊं। दिसबंर के तीसरे हफ्ते की बात होगी। मेरा एक मित्र जो दिल्ली में रहता था, तब कोटद्वार आया हुआ था। मुलाकात हुई तो बातों-बातों में उसने मुझसे भी दिल्ली आने की गुजारिश की। वह रोहिणी सेक्टर-16 में किराये के फ्लैट पर रहता था। कहने लगा रहने की कोई दिक्कत नहीं और मेरा भी साथ हो जाएगा। फिर खर्चे का बोझ भी हल्का रहेगा। मुझे सुझाव पसंद आ गया और उससे 20 जनवरी को दिल्ली पहुंचने का वादा कर दिया। 
अब मैं घर छोड़ने के लिए मन को मजबूत करने लगा और फिर 20 तारीख सुबह दस बजे वाली सोहराबगेट डिपो की बस से दिल्ली रवाना हो गया। सामान के नाम पर मेरे पास एक बडा़ सूटकेस और एक बैग था। कपड़े-लत्ते, बिस्तर-विस्तर सब इन्हीं में थे। शाम पांच बजे के आसपास मैं दिल्ली पहुंचा और फिर उत्तमनगर जाने वाली बस (शायद 883 नंबर) में सवार हो गया। साढे़ छह बजे के आसपास मैं रोहिणी सेक्टर-16 पहुंच चुका था। अंधेर घिर आया था और ठंडी हवाएं चल रही थीं। पास ही एक नाई की दुकान थी, जहां पर पूछताछ में पता चला कि मित्रवर शाम को कहीं निकल गए थे। संभवत: कुछ देर में लौट आएंगे। 
मेरे पास उसकी इंतजारी के सिवा कोई विकल्प नहीं था, सो मैं नाई भाई के आग्रह पर दुकान में ही बैठ गया। कुछ ही देर में तीन युवक वहां पहुंचे। उनसे नाई भाई ने मित्रवर के बारे में कुछ पूछा तो उनमें से एक बोला, वो तो देर में आते हैं। तब तक भाई साहब हमारे रूम में ठहर जाएंगे और मेरा सूटकेस उठाकर जाने लगे। मैं भी बिना कुछ विचार किए उनके साथ हो लिया, यह जाने बगैर कि वो कौन हैं, कहां के हैं और क्या करते हैं। वैसृवसे सच कहूं तो उस समय इससे बेहतर निर्णय लेने की क्षमता मुझमें नहीं थी। 
बहरहाल! अब मैं उनके रूम में था। उन्होंने स्टोव में दाल चढा़ई हुई थी अब उनमें से एक तुरत-फुरत में राई की सब्जी काटने लगा तो एक आटा गूंथने में जुट गया। साथ ही बातचीत का सिलसिला भी चल पडा़। पता चला कि वे गाजियाबाद यूपी के रहने वाले हैं। तब उत्तराखंड नहीं बना था, सो कोटद्वार भी यूपी का हिस्सा हुआ। इस नाते हम सब एक ही प्रांत के हो गए। अब कोटद्वार व गाजियाबाद के बीच की दूरी सिमट गई और हम पडो़सी शहरों के हो गए। रिश्तों में भी अचानक आत्मीयता आ गई। मित्र का कहीं अता-पता नहीं था, लौटेगा भी या नहीं, कुछ भी कहना मुश्किल था। रात के नौ बज चुके थे। तीनों भाई भोजन करने की तैयारी कर रहे थे। सो मुझसे भी बोले, भाई साहब! वो न जाने कब आते हैं, इसलिए आप तो भोजन कर ही लो। हमें भी अच्छा लगेगा। 
उनकी बातों में कोई बनावट नहीं थी और रोटी भी उन्होंने चार आदमियों के हिसाब से ही बनाई थी। मैंने भी सुबह से कुछ नहीं खाया था और उस पर थकान से चूर हुआ जा रहा था। हालांकि, एक संस्कारी पहाडी़ की तरह मैंने उनकी बात का विनम्रता पूर्वक इनकार ही में जवाब दिया। लेकिन, वो भी अतिथि सत्कार में पारंगत ठेठ देहाती ठैरे। बोले, भाई साहब! हम पराये हैं क्या, जो ना कर रहे हो। भोजन तो हम साथ ही करेंगे। और...उनको देर भी हो जाए तो चिंता वाली बात नी। चारों भाई यहीं बिस्तर डाल देंगे। अब मैं खुद के वश में नहीं था, सो कोई जवाब दिए बिना चुपचाप थाली ली और भोजन करने लगा। यकीन जानिए, मुझे लग रहा था, जैसे न जाने कितने दिनों बाद खाना मिला है। राई की सब्जी तो...मेरे पास शब्द नहीं हैं उस स्वाद को बयां करने के लिए। अब मेरी चिंता काफी हद तक दूर हो गई थी। लग रहा था अपनों के बीच हूं। 
खैर! साढे़ बजे के आसपास मित्र का पदार्पण हुआ। आते हुए नाई भाई से शायद उसे मेरे पहुंचने की सूचना मिल गई थी, सो वह सीधा भाई लोगों के ठिकाने पर आ पहुंचा। हालांकि, वह यह बात भूल चुका था कि मेरा उससे 20 जनवरी को दिल्ली पहुंचने का कमिटमेंट हुआ था। मुझे देखकर ही उसे यह बात याद आई। उस जमाने में मोबाइल-वोबाइल तो होते थे नहीं, जो आने से पहले मैं उसे इत्तिला करता। बहरहाल! रात चढी़ जा रही थी और भाई लोगों को भी सोने की जल्दी थी। सो मुझसे मुखातिब हो विनम्रता से बोले, भाई साहब! अब आप भी सो जाइए, सुबह मिलते हैं। 
अब मैं मित्रवर के रूम में था। उसने भोजन किया या नहीं, मुझे नहीं मालूम। क्योंकि मेरे पूछने पर उसने भोजन कर आने की बात कही थी। मुझे नींद आ रही थी, इसलिए इस मुद्दे का पटाक्षेप करने में ही बेहतरी समझी और जमीन पर बिस्तर डालकर नींद के आगोश में चला गया। सुबह नींद देर से खुली। रविवार का दिन था, इसलिए मित्रवर को भी शायद बेफ्रिकी थी। लेकिन, मैं बेफ्रिक नहीं था। मुझे काम की तलाश करनी थी। इसलिए नाश्ता करने के बाद मैंने मित्रवर को कुरेदना शुरू कर दिया। उसने आश्वस्त किया कि दो-चार दिन में काम बन जाएगा, बस! हमें अंग्रेजी अखबार में मंगलवार और शनिवार को छपने वाले क्लासीफाइड पर नजर रखनी है। 
अब मैं थोड़ा कम्फर्टेबल फील कर रहा था, सो विषय बदलते हुए लगे हाथ किराया और मालिक मकान के बारे भी पूछ लिया। मित्रवर ने जानकारी दी कि फ्लैट किसी हिमाचली का है, जो प्रकारांतर से उसकी भी रिश्तेदारी में है। लेकिन, उसके दिल्ली से बाहर रहने के कारण किराया बुआ लोग वसूलते हैं। किराया फिलहाल आठ सौ रुपये महीना है, इसलिए हम पर कोई खास बोझ नहीं पड़ने वाला। बीस साल पहले आठ सौ रुपये की रकम कोई छोटी-मोटी रकम नहीं थी, लेकिन मित्रवर के बोझ न पड़ने वाले इशारे से मैं समझ गया कि वह इसे बडी़ रकम क्यों मान रहा है। स्पष्ट था कि किरायेदारी में अब मेरी भी 400 रुपये की हिस्सेदारी हो चुकी थी। यानी अब मैं दिल्ली में किरायेदार होने का तमगा हासिल कर चुका था, जिसे बरकरार रखने के लिए जल्द से जल्द काम तलाशना था। 
अगली सुबह पहला काम मैंने यही किया कि अंग्रेजी अखबार खरीद लाया। मंगलवार का दिन होने के कारण अखबार क्लासीफाइड विज्ञापनों से लबालब था। दोनों ने ऊपर से नीचे तक नजर दौडा़नी शुरू कर दी। दो-तीन विज्ञापन मन मुताबिक मिले, सो दस्तावेजों की फाइल थामी और चल पड़े संबंधित पतों पर भाग्य की परीक्षा लेने। मित्रवर के साथ होने से संबंधित कंपनियों के पते तलाशने को भटकना नहीं पडा़। पर, अफसोस! बात भी नहीं बनी। मित्रवर ने फिर हौसलाफजाई की, टेंशन नहीं यार! इतनी बडी़ दिल्ली है, कल फिर देखते हैं। मैंने भी सहमति में सिर हिलाया और कमरे की राह पकड़ ली। रास्तेभर वो मुझे दिल्ली का भूगोल समझाता रहा और मैं हूं-हां में जवाब देता रहा। रूम में पहुंचते-पहुंचते अंधेरा घिर आया था। खैर! हमने पास ही लगने वाले मंगल बाजार से सब्जी वगैरह खरीदी और पेट पूजा के अनुष्ठान में जुट गए। 
भोजन करने के बाद मित्रवर तो सीधे बिस्तर के हवाले हो गए, मगर मेरी आंखों में नींद नहीं थी। रह-रहकर मन में एक सवाल कौंध रहा था कि आखिर वह कौन सी नौकरी करता है, जिसमें दफ्तर जाने की बाध्यता न हो। और...अगर ऐसा नहीं है तो मित्रवर के दफ्तर न जाने की क्या वजह हो सकती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि महाशय के पास कोई काम ही न हो। आशंका सच निकली तो मेरे भी पैर दिल्ली में जमने से पहले ही उखड़ सकते हैं। पर, उस वक्त सोए हुए व्यक्ति से तो कुछ पूछा नहीं जा सकता था। इसके लिए तो सुबह होने तक इंतजार करना मजबूरी था। 
सुबह नींद जल्दी ही टूट गई। बाहर देखा तो दिल्ली ने कोहरे की चादर ओढी़ हुई थी। हालांकि, मुझे कहीं जाना नहीं था, फिर भी मैं मन ही मन कोहरे के छंटने की कामना कर था। मित्रवर अभी भी निश्चंतता के खर्राटे ले रहे थे, लेकिन मैंने जगाने की चेष्टा नहीं की। खैर! जब महाशय की नींद टूटी, तब तक मौसम खुल चुका था। सो मैंने बिना मुहूर्त के ही सवाल दागा, ड्यूटी जाना है क्या? मित्रवर बोले, पहले वाली कंपनी मनमाफिक नहीं थी, उसे छोड़ दिया। इन दिनों दोपहृर बाद पार्ट टाइम काम कर रहा हूं। साथ ही फुलटाइम की भी खोज जारी है। 
मैंने बात आगे नहीं बढा़ई। कुछ देर की चुप्पी के बाद फिर मित्रवर बोले, यार! थोडी़ देर में किराया दे आते हैं। पर, अभी तो महीना खत्म होने में हफ्ता बाकी है, मैंने कहा। इस पर मित्रवर बोले, इस महीने नहीं दे पाया और पिछले महीने का भी बकाया है। कुछ पैसे तो होंगे ना? इस सवाल का जवाब ना में दे पाना मेरे लिए संभव नहीं था। कारण, मुझे दिल्ली आए हुए अभी तीन दिन ही हुए थे। जाहिर था, खाली तो आया नहीं हूंगा। सो बोला, कितने? पूरे ही दे देते हैं यार! बाकी देख लेंगे, मित्रवर का जवाब था। फिलहाल मेरे सामने कोई विकल्प नहीं था, लिहाजा सोलह सौ रुपये उसके हाथ में थमा दिए। 
भोजन कर हम पैदल ही किराया देने निकल पडे़। मधुवन चौक के पास ही एक सरकारी कालोनी में उसकी बुआ का परिवार रहता था। अजीब सा माहौल था वहां का। किसी ने पानी तक के लिए नहीं पूछा। मुझे तो छोडि़ए, उसे भी नहीं। ऐसे माहौल में पलभर भी वहां ठहरना मेरे लिए असह्य होता जा रहा था। लिहाजा, मैंने उससे चलने का इशारा कर दिया। हालांकि, उसकी नातेदारी का मामला था, लेकिन आत्मसम्मान तो सबका होता है। सो, उसने भी किराया बुआ के हाथ में थमाया और हमने वहां से विदा ली। बस स्टाप के पास  एक स्टाल से हमने अखबार खरीदा और पैदल ही घर की राह पकड़ ली। 
रूम में पहुंचते ही सबसे पहला काम हमने अखबार के पन्ने पलटने का किया और संयोग से रोजी का एक ठौर भी मिल गया। किसी कंपनी के एक साप्ताहिक अखबार का इस्तहार छपा था। मुझे तो अखबार के सिवा कहीं काम करना ही नहीं था, इसलिए लगा जैसे मन की मुराद पूरी हो गई। अगली सुबह मैं मित्रवर के साथ बरफखाने के पास स्थित कंपनी के दफ्तर में इंटरव्यू के लिए मौजूद था। संपादक-कम-मालिक से मुलाकात हुई और 1500 रुपये में बात भी बन गई। उस दौर में भी यह बहुत अच्छी रकम तो नहीं थी, मगर दिल्ली में पैर जमाने का सहारा तो मिल ही गया था। इसलिए मन में संतुष्टि के भाव थे। 
अगली सुबह से नौकरी शुरू हो गई और दो-एक दिन में मित्रवर का भी एक कंपनी में जुगाड़ हो गया। अब हम सुबह चार बजे उठ जाते और ठीक आठ बजे  रैट-पैट होकर बस स्टाप पर होते। मुझे दफ्तर तक तीन बस बदलनी पड़ती। पहली सेक्टर सोलह से मधुवन चौक, दूसरी मधुवन चौक से माल रोड-कैंप और तीसरी कैंप से बरफखाना। किराया सात रुपये बैठता। अब दिल्ली में रहते हुए धीरे-धीरे मुझमें भी चतुराई आने लगी थी। चूंकि, मेरा रूट माल रोड वाला था, जो दिल्ली यूनिवर्सिटी का भी रूट है, इसलिए खुद को स्टूडेंट शो कर मैं तीन के बजाय एक रुपये का ही टिकट लेने लगा। टिफिन मैं ले जाता था नहीं, इसलिए बेफिक्री रहती थी। शाम को लौटते हुए मुझे सीधे उत्तमनगर वाली बस मिल जाती, सो एक रुपये में मधुवन चौक पहुंच जाता। एक रुपया वहां से कमरे तक पहुंचने में खर्च होता था। लेकिन, डीटीसी की बस में सफर करने के दौरान थोडा़ सतर्क रहना पड़ता, क्योंकि कहीं पर भी टिकट चैकर आ धमकता था। 
एक दिन मेरा भी पाला टिकट चैकर से पड़ गया और मुझे पूरे बीस रुपये का अर्थदंड भुगतना पडा़। दरअसल, हमेशा की तरह उस दिन भी मैंने मधुवन चौक से एक रुपये का ही टिकट लिया था। लेकिन यह बस डीटीसी की थी, जिसे जहांगीरपुरी में टिकट चैकर ने रोक दिया। मैंने चालाक बनने की कोशिश यह कि टिकट चैकर के सामने ही बस से उतर गया, ताकि उसे लगे कि यहीं तक की सवारी है। लेकिन, दुर्भाग्य से वह मेरी स्थिति भांप गया। उसने मुझसे टिकट मांगा तो मैंने एक रुपये का टिकट उसके हाथ में थमा दिया। बस! फिर क्या था, बिना कुछ कहे उसने मेरा बीस रुपये का चालान काट दिया। उस दिन मेरी जेब में मात्र बीस रुपये ही थे, सोचिए उन्हें गंवाकर क्या हालत हुई होगी मेरी। मूड पूरी तरह उखड़ चुका था। 
मैंने आफिस जाने का प्लान कैंसिल कर दिया। रूम में लौटने से कोई फायदा नहीं था, क्योंकि चाभी मित्रवर के पास थी। सो, चालान को जेब में रखकर मैं मुद्रिका में सवार हो गया। इस चालान से उस दिन डीटीसी की बस में मैं कहीं घूमा जा सकता था। मैंने भी यही किया। पूरे दिन प्लस-माइनस मुद्रिका में  दिल्ली घूमता रहा। कुछ खाने-पीने का तो सवाल ही नहीं उठता था, क्योंकि जेब खाली थी। इसका फायदा यह जरूर हुआ कि दिल्ली के बारे में बहुत-कुछ जान-समझ गया। और...हां! इस चालान को अगले माह इसी तारीख पर मैंने फिर इस्तेमाल किया। क्योंकि महीना उसमें ठीक-ठीक पढ़ने में नहीं आ रहा था।
धीरे-धीरे जिंदगी की गाडी़ खिसकने लगी। पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन से भी कुछ पैसे मिल जाते थे। संपर्क बढ़ने पर बडे़ समाचार पत्रों में दफ्तरों में भी आना-जाना हो गया। खासकर राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स व दिल्ली प्रेस के दफ्तर में। एक दिन मित्रवर ने बताया कि वह ऐसे सज्जन को जानता है, जो साहित्यकार टाइप के हैं और उनके संपर्क भी अच्छे हैं। इन सज्जन का नाम उसने जयपाल सिंह रावत बताया। साथ ही इतवार को उनसे  मुलाकात कराने की बात भी कही। मुझे भी लगा कि मुलाकात करने में कोई बुराई नहीं है। मन में गोस्वामी तुलसीदास की एक चौपाई कौंधने लगी कि ना जाने किस वेश में नारायण मिल जाएं। फिर क्या था, इतवार को हम उत्तरी पीतमपुरा स्थित उनके ठीये पर जा धमके। 
पहली ही मुलाकात इस कदर आत्मीय रही कि जयपाल दा और उनके परिवार से मेरा मन का रिश्ता जुड़ गया। जयपाल दा ने गढ़वाली में लिखी अपनी कई कविताएं भी इस दौरान सुनाईं। संयोग देखिए कि उनकी कविताएं सुनने वाले पहले गंभीर श्रोता होने का श्रेय भी मुझे ही जाता है। उन दिनों मैंने भी गढ़वाली में लिखना शुरू कर दिया था, इसलिए हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होने के संकेत मिलने लगे। जयपाल दा ने गढ़कवि कन्हैया लाल डंडरियाल से मुलाकात कराने का भी भरोसा दिलाया। वे डंडरियाल जी को पिता तुल्य सम्मान देते थे। उस रात हम उनके यहां से भोजन करके ही रूम पर लौटे। 
धीरे-धीरे मुझे दिल्ली रास आने लगी थी, लेकिन साथ में दिक्कतें भी बढ़नी शुरू हो गईं। तब हमारे जैसे प्रवासियों का चूल्हा केरोसिन से ही जला करता था, लेकिन हमारे पास अब दो-एक दिन के लिए ही केरोसिन बचा था। व्यवस्था ब्लैक में ही हो सकती थी, जो फिलहाल संभव नहीं थी। संयोग देखिए कि रात को न जाने किधर से जयपाल दा रूम में आ गए। मैंने उनके सामने यह चिंता रखी तो बोले, व्यवस्था हो जाएगी, टेंशन लेने की जरूरत नहीं। अगले दिन वे दस लीटर केरोसिन लेकर हाजिर थे। मैंने पैसे का जिक्र छेडा़ तो उन्होंने मुझे चुप करा दिया। उस रात मैं उन्हीं के घर रहा। वहां डंडरियाल जी भी आए हुए थे, सो मुझे भी उनके दर्शनों का सौभाग्य मिल गया। आधी रात तक साहित्यिक चर्चा होती रही। 
अब डंडरियाल जी भी मेरी आत्मीयजनों की सूची में शामिल हो चुके थे। वो जयपाल दा के यहां बराबर आया करते थे। कभी किसी कारणवश नहीं आ पाते तो हम उनके घर चले जाते। तब उनका परिवार गुलाबी बाग में किराये के मकान पर रहता था और उस दौरान वे अपने सुप्रसिद्ध खंडकाव्य नागरजा (भाग तीन) पर काम कर रहे थे। मित्रवर की साहित्य में कोई रुचि नहीं थी, इसलिए वह अपनी ही दुनिया में रहता। नौकरी भी उसकी अटक-अटक कर चल रही थी, इसलिए खर्चा मेरी ही जेब से होने लगा। मुफलिसी के इस दौर का एक फायदा यह जरूर हुआ कि मैंने दिल्ली के बड़े हिस्से को पैदल नाप डाला। बीसियों दफा तो आफिस आना-जाना भी पैदल ही हुआ। एक बार जब जेब पूरी तरह तरह खाली हो गई तो एक दोस्त से पैसे उधार भी मांगने पडे़। 
ऐसी स्थिति में किसी को भी उकताहट होने लगना स्वाभाविक है, पर यहां धैर्य मेरा साथ दे रहा था। मुझे लग रहा था कि मैं परिस्थितियों को अपने अनुकूल ढाल सकता हूं। इसके लिए मैं लगातार प्रयास भी कर रहा था। इसी का नतीजा रहा कि कुछ समय बाद नवभारत टाइम्स में नौकरी मिल गई। पगार थी 2700 रुपये। उस दौर के हिसाब से यह बहुत अच्छी रकम थी। हालांकि, इसमें से 800 रुपये तो सीधे किराये के चले जाते थे। इधर, मित्र भी सहयोगी की बजाय बोझ की भूमिका में आ गया था। शायद उसने कोटद्वार अपने घर पर बता दिया था कि दिल्ली बहुत दिनों तक रुकने की इजाजत नहीं देने वाली। 
एक दिन उसने बताया कि पिताजी दिल्ली आने वाले हैं। पर, यह नहीं बताया कि क्यों आने वाले हैं। कुछ दिन वो सचमुच आ भी गए, लेकिन रूम पर नहीं, बल्कि अपनी बहन यानी उसकी बुआ के घर। वहीं उसे भी बुलाया गया। शाम को लौटने पर उसने बताया कि पिताजी ने कोटद्वार में रोड हेड पर दुकान ले ली है, अब वहीं कुछ होगा। साथ ही मुझे सलाह दी कि चाहूं तो फ्लैट अपने पास रख सकता हूं। हालांकि मकान मालिक इसे बचने का मन भी बना रहा है। प्रकारांतर से शायद वह नहीं चाहता कि मैं वहीं रहूं और सच तो यह है कि मैं खुद भी वहां रहने का इच्छुक नहीं था। इसलिए मैंने उससे कह दिया कि मैं अपनी व्यवस्था देख लूंगा। साथ ही उससे यह भी कह दिया कि वह अपना कोई भी सामान रूम में न छोड़े, मुझे किसी भी वस्तु की जरूरत नहीं है। यहां तक मैंने अपनी एक पैंट, एक जोडी़ जूते और एक स्वेटर भी उसी के हवाले कर दी, क्योंकि पिछले कुछ समय से इन्हें वही इस्तेमाल कर रहा था। 
वह यहीं नहीं रुका, सामान वगैरह पैक करने के बाद उसने मुझे रूम से बाहर बुलाया और बोला, यार कुछ पैसे होंगे। मैं चाहकर भी ना न बोल सका और बोला, कितने? पांच सौ हों तो..., उसने कहा। यह राशि बहुत बडी़ और फिर इसे लौटना भी नहीं था। सो, मैंने कहा, पांच सौ तो नहीं, हां! दो सौ दे सकता हूं। उसने दो सौ रुपये भी गिद्ध की तरह लपक लिए। किराया मैं चुकता कर ली चुका था। इसलिए बोरिया-बिस्तर समेटकर उसके दिल्ली छोड़ने से पहले जयपाल दा के घर आ गया। 
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Saturday 23 September 2017

आत्मिक सुख बिना आजादी कैसी

आत्मिक सुख बिना आजादी कैसी
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दिनेश कुकरेती
एक कहानी है कि किसी राजा ने बोलते तोते को सोने के पिंजरे में बंद कर दिया। वह उसे खाने को अच्छे-अच्छे व्यंजन देता, लेकिन कुछ दिन बाद तोता मर गया। मंत्री ने राजा  को तोते की मृत्यु का कारण उसकी आजादी छीन लेना बताया। राजा को अपने किए पर पछतावा हुआ और उसका हृदय परिवर्तन हो गया। अब वह रोजाना सुबह-सुबह जंगल में जाता, पक्षियों को दाना-पानी देता और उनको चहचहाते हुए सुनता। पहले पक्षी उससे दूर रहते थे, लेकिन धीरे-धीरे वह राजा के समीप बैठने लगे और कुछ दिन बाद तो पक्षी कभी राजा के सिर पर बैठ जाते तो कभी कंधे और भुजाओं पर। राजा को अब लगने लगा कि यही है आत्मिक सुख और किसी के साथ रहकर उनके विचारों को जानने एवं समझने का सही तरीका। सच कहें तो यह आत्मिक सुख ही असली आजादी है।
इतिहास के पन्ने पलटें तो आजादी मिलने से पहले आजादी के यही मायने हुआ करते थे, लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। प्रसिद्ध कथाकार जितेन ठाकुर कहते हैं कि आज गरीब आदमी के लिए आजादी का अर्थ गरीबी से आजादी है, तो अशिक्षित व्यक्ति के लिए अशिक्षा से आजादी। कहने का मतलब हर वर्ग और व्यक्ति के लिए आजादी के अलग-अलग मायने हैं। लेकिन, वर्तमान में जिस आजादी की सबको सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है बेकारी, महंगाई व भ्रष्टाचार से आजादी। असल में जिस अर्थ एवं भाव के साथ हमने आजादी की लड़ाई लड़ी और हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हमें जो 'अर्थÓ दिया, हम कहीं-न-कहीं उससे भटक गए हैं। कुव्यवस्था की विडंबना ने उसे विद्रूप बना दिया है।
कथाकार मुकेश नौटियाल कहते हैं, एक दौर वह भी था, जब वीर योद्धाओं में दीवानों की तरह मंजिल पा लेने का हौसला तो था, लेकिन बर्बादियों का खौफ न था। दीवानों की तरह आजादी के ये परवाने भी मंजिलों की ओर बढ़ते चले गए। बड़े से बड़े जुल्म-औ-सितम भी उनके कदमों को न रोक सके। अपने हौसलों से हर मुश्किल का सीना चीरते हुए वे आजादी की मंजिल की तरफ बढ़ते ही चले गये। हम आजाद हुए तो कितना कुछ बदल गया। लेकिन, क्या ही अच्छा होता कि हमारी समाज को गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अज्ञानता और अंधविश्वास की गुलामी से आजाद करने वाली भी सोच होती।  अली सरदार जाफरी लिखते हैं, 'कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी, खंजर आजाद है सीनों में उतरने के लिए, मौत आजाद है लाशों पे गुजरने के लिए।Ó
वर्तमान का परिदृश्य ऐसा ही तो है। जरा इन आंकड़ों पर गौर फरमाएं, 15 अगस्त 1947 को भारत न सिर्फ विदेशी कर्जों से मुक्त था, बल्कि इसके उलट ब्रिटेन पर उसका 16.62 करोड़ रुपये का कर्ज था। लेकिन, आज देश पर 50 अरब रुपये से भी ज्यादा का विदेशी कर्ज है। आजादी के समय जहां एक रुपये के बराबर एक डॉलर होता था, वहीं आज एक डॉलर की कीमत 61 रुपये तक पहुंच गई है। महंगाई पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है और जल्द ही इस स्थित में सुधार को प्रयास नहीं हुए तो हम मानसिक गुलामी के साथ आर्थिक गुलामी के चंगुल में भी फंस जाएंगे। साहित्यकार सुनील भट्ट कहते हैं कि हम अंग्रेजों के बंधनों से तो आजाद हो गए, लेकिन कुसंस्कारों के बन्धन से कब आजाद होंगे। हमारी आजादी का अर्थ केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं था। सही मायने में आजादी तो उस पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है, जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहें। तभी हम दिमागी गुलामी से भी आजाद हो पाएंगे।

कौन आजाद हुआ, किसके माथे से...
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साहित्यकार डॉ. कुटज भारती कहते हैं कि हम अंगे्रजों के गुलाम भले ही न हों, लेकिन आज भी आम आदमी को भूख से आजादी है न बीमारी से ही। शिक्षा के अभाव में आबादी का बड़ा हिस्सा अंधेरे का गुलाम बना हुआ है। हम न तो कन्या भ्रूण हत्या रोक पाए हैं, न बाल विवाह और दहेज को लेकर महिलाओं का उत्पीडऩ ही। इससे पूरा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। जहां तक दलितों और आदिवासियों के शोषण और तिरस्कार का सवाल है, इसके लिए दिखाने को कानून तो बहुत से हैं, पर हकीकत में ये तबके आजादी से कोसों दूर हैं।
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Monday 20 March 2017

लालसा

लालसा 
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जनि छै तनि रै जांदि त क्या ह्वै जांदु, 
द्वी घडि़ मैमु ऐ जांदि त क्या ह्वे जांदु। 

पर तु त खयेली तौंकी शिकासर्यूं ना, 
खुद मेरी बिसरै जांदि त क्या ह्वै जांदू। 

तिन त लव यू बोलिक फर्ज निभै द्ये, 
गालुंद झुंट्ये जांदि त क्या ह्वै जांदु। 

प्यार क्वी ज्यू बुथ्याणा कु खेल नी, 
यु तू बि चितै जांदि त क्या ह्वै जांदू। 

तु तनै खत्येणी रै, मि इनै खत्येणू छौं, 
माला़ सि गंठ्ये जादि त क्या ह्वै जांदू। 

दिनेश कुकरेती