Monday, 8 January 2024

शीतकाल में भी जागृत हैं देवभूमि के ईष्ट

जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर

शीतकाल में भी जागृत हैं देवभूमि के ईष्ट
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दिनेश कुकरेती
हिमालय की शीतकालीन चारधाम यात्रा गतिमान है और घंटा-घड़ियाल की गूंज से आलोकित हो रहे हैं चारों धाम के शीतकालीन पड़ाव। हालांकि, उचित प्रचार-प्रसार न होने के कारण शीतकालीन यात्रा के बारे में बहुत लोगों को जानकारी नहीं है, बावजूद इसके देश के विभिन्न स्थानों से श्रद्धालु शीतकालीन गद्दीस्थलों में दर्शन को पहुंच रहे हैं। शीतकाल के छह महीने भगवान बदरी विशाल की पूजा चमोली जिले में स्थित योग-ध्यान बदरी मंदिर पांडुकेश्वर व नृसिंह मंदिर जोशीमठ, बाबा केदार की पूजा रुद्रप्रयाग जिले में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ और मां गंगा व देवी यमुना की पूजा क्रमश: उत्तरकाशी जिले में स्थित गंगा मंदिर मुखवा (मुखीमठ) और यमुना मंदिर खरसाली (खुशीमठ) में होती है। स्कंद पुराण में उल्लेख है कि इन स्थानों की यात्रा का भी चारधाम सरीखा ही माहात्म्य है। इसलिए जो तीर्थयात्री किन्हीं कारणों से चारधाम नहीं पहुंच पाते, उन्हें शीतकालीन में गद्दी स्थलों पर दर्शन करने चाहिएं। इस यात्रा के दौरान प्रकृति की सुंदरता को निहारने के साथ आप आसपास स्थित खूबसूरत पर्यटन स्थलों का दीदार भी कर सकते हैं। ...तो आइए! शीतकालीन चारधाम यात्रा पर चलें-
पांडुकेश्वर स्थित योग-ध्यान बदरी मंदिर


योग-ध्यान बदरी पांडुकेश्वर और नृसिंह मंदिर जोशीमठ
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जोशीमठ-बदरीनाथ हाइवे पर बदरीनाथ धाम से 18 किमी पहले और जोशीमठ से 24 किमी आगे पांडुकेश्वर स्थित योग-ध्यान बदरी मंदिर में भगवान नारायण के प्रतिनिधि के रूप में उनके बालसाख उद्धवजी व देवताओं के खजांची कुबेरजी की पूजा होती है। चमोली जिले में समुद्रतल से 1920 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह मंदिर पंच बदरी मंदिरों में से एक है, जिसकी स्थापना पांडवों के पिता राजा पांडु द्वारा की गई बताई जाती है। जबकि, जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर में आदि शंकराचार्य की गद्दी और भगवान के वाहन गरुड़जी की पूजा होती है। मान्यता है कि पांडवों ने अपनी स्वर्गारोहिणी यात्रा के दौरान जोशीमठ में नृसिंह मंदिर की स्थापना की थी, जबकि आदि शंकराचार्य ने यहां भगवान नृसिंह का विग्रह स्थापित किया। ऐसा भी कहते हैं कि आठवीं शताब्दी में राजा ललितादित्य ने अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान नृसिंह मंदिर का निर्माण किया। कुछ वर्ष पूर्व श्री बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति ने पुराने नृसिंह मंदिर का जीर्णोद्धार किया है, जो उत्तराखंड का तीसरा सबसे ऊंचा मंदिर है। शीतकालीन यात्रा के दौरान श्रद्धालु पांडुकेश्वर से सात किमी पहले जोशीमठ की ओर हनुमान चट्टी, जोशीमठ के ठीक नीचे विष्णु प्रयाग, जोशीमठ में आदि शंकराचार्य की तपस्थली शंकराचार्य मठ और जोशीमठ से 14 किमी दूर स्थित औली व संजीवनी शिखर की सैर भी कर सकते हैं।

ऊखीमठ स्थित ओंकारेश्वर मंदिर


ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ
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रुद्रप्रयाग जिले में स्थित ओंकारेश्वर मंदिर अतिप्राचीन धारत्तुर परकोटा शैली में निर्मित विश्व का एकमात्र मंदिर है। जिला मुख्यालय रुद्रप्रयाग से 41 किमी दूर समुद्रतल से 1311 मीटर की ऊंचाई पर ऊखीमठ में स्थित यह मंदिर न केवल भगवान केदारनाथ, बल्कि द्वितीय केदार मध्यमेश्वर का शीतकालीन गद्दीस्थल भी है। पंचकेदार की दिव्य मूर्तियां एवं शिवलिंग स्थापित होने के कारण इसे पंचगद्दी स्थल भी कहा गया है। ओंकारेश्वर अकेला मंदिर न होकर मंदिरों का समूह है, जिसमें वाराही देवी मंदिर, पंचकेदार लिंग दर्शन मंदिर, पंचकेदार गद्दीस्थल, भैरवनाथ मंदिर, चंडिका मंदिर, हिमवंत केदार वैराग्य पीठ, विवाह वेदिका व अन्य मंदिरों समेत समेत संपूर्ण कोठा भवन शामिल हैं। उत्तराखंड के मंदिरों में क्षेत्रफल और विशालता के लिहाज से यह सर्वाधिक विशाल मंदिर समूह है। पुरातात्विक सर्वेक्षणों के अनुसार प्राचीनकाल में ओंकारेश्वर मंदिर के अलावा सिर्फ काशी विश्वनाथ (वाराणसी) और सोमनाथ मंदिर में ही धारत्तुर परकोटा शैली उपस्थित थी। हालांकि, बाद में आक्रमणकारियों ने इन मंदिरों को नष्ट कर दिया। उत्तराखंड में भी अधिकांश प्रसिद्ध मंदिर या तो कत्यूरी शैली में निर्मित हैं या फिर नागर शैली में। यात्रा के दौरान श्रद्धालु चोपता, दुगलबिट्टा, देवरियाताल जैसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों की सैर भी कर सकते हैं। इसके अलावा त्रियुगीनारायण व कालीमठ जैसे प्रमुख तीर्थ स्थलों के दर्शनों को भी आसानी से पहुंचा जा सकता है।

मुखवा स्थित गंगा मंदिर


गंगा मंदिर मुखवा
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भागीरथी नदी के किनारे और हिमालय की गगनचुंबी सुदर्शन, बंदरपूंछ, सुमेरू और श्रीकंठ चोटियों की गोद में समुद्रतल से 8000 फीट की ऊंचाई पर स्थित मुखवा को शीतकालीन प्रवास स्थल होने के कारण गंगा का मायका भी कहा जाता है। यहां की खूबसूरत वादियां, देवदार के घने जंगल, चारों ओर बिखरा सौंदर्य, हिमाच्छादित चोटियां, पहाड़ों पर पसरे हिमनद और मुखवा की तलहटी में शांत भाव से कल-कल बहती भागीरथी का सम्मोहन हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है। मुखवा गंगोत्री धाम के तीर्थ पुरोहितों का गांव भी है। शीतकाल में मां गंगा की भोगमूर्ति विराजमान होने के कारण मुखवा को मुखीमठ भी कहा जाता है। इस गांव में 450 परिवार रहते हैं, जिनमें से  अधिकांश शीतकाल के दौरान जिला मुख्यालय उत्तरकाशी के आसपास निवास करते हैं। मुखवा गांव के परंपरागत शिल्प से तैयार लकड़ी के मकान अपनी खूबसूरती के लिए प्रसिद्ध हैं। 19वीं शताब्दी में ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी फ्रेडरिक विल्सन के बनाए हुए मकान यहां आज भी विद्यमान हैं। इस यात्रा के दौरान श्रद्धालु मुखवा गांव से 500 मीटर दूर धराली गांव में कल्पकेदार मंदिर, मुखवा के ही निकट विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल हर्षिल और यहां स्थित हरि शिला, मुखवा से चार किमी दूर बगोरी गांव के लाल देवता मंदिर आदि का सामीप्य भी पा सकते हैं।

खरसाली स्थित यमुना मंदिर


यमुना मंदिर खरसाली
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उत्तरकाशी जिले में समुद्रतल से 2500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित खरसाली गांव यमुना नदी के किनारे सुरम्य वादियों में बसा हुआ है। शीतकालीन प्रवास स्थल होने के कारण खरसाली गांव को यमुना का मायका भी कहा जाता है। यहां यमुना मंदिर भव्य स्वरूप में है। गांव के बीच में यमुना के भाई शनिदेव का भी पौराणिक मंदिर भी है, जिसे पुरातत्व विभाग ने 800 वर्ष से अधिक पुराना बताया है। खरसाली से बंदरपूंछ, सप्तऋषि, कालिंदी, माला व भीम थाच जैसी चोटियों के दर्शन भी होते हैं। शीतकाल के दौरान आसपास की पहाड़ियां बर्फ की धवल चादर ओढ़े रहती हैं। जनवरी के दौरान खरसाली में भी जमकर बर्फबारी होती है, जिसका आनंद उठाने के लिए पर्यटक और यमुना घाटी के ग्रामीण बड़ी संख्या में यहां पहुंचते हैं। यमुनोत्री धाम के तीर्थ पुरोहित भी इसी गांव के निवासी हैं। खरसाली से यमुनोत्री धाम की दूरी छह किमी है, जबकि जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से खरसाली की दूरी 134 किमी। यमुनोत्री के तीर्थ पुरोहित पुरुषोत्तम उनियाल कहते हैं कि इस यात्रा के दौरान आप खरसाली से एक किमी की दूरी पर जानकीचट्टी स्थित मार्कंडेय मंदिर, जानकीचट्टी के पास नारायणपुरी में भगवान नारायण मंदिर के दर्शन को भी आसानी से पहुंच सकते हैं।

मुखवा (मुखीमठ)


ठंड से बचाव जरूरी
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चारों गद्दीस्थलों पर दिसंबर से फरवरी के बीच जोरदार ठंड पड़ती है। साथ ही बर्फबारी होना भी सामान्य बात है। खरसाली व मुखवा में तो कई-कई दिन तक बर्फ पिघलती ही नहीं। ऐसे में ठंड से बचाव के लिए गर्म कपड़े जरूर साथ लेकर आएं। हालांकि, दिन का मौसम इन स्थानों पर बेहद खुशगवार रहता है। इसलिए गुनगुनी धूप का आनंद लेने के लिए भी मैदानी क्षेत्र से बड़ी संख्या में लोग यहां पहुंचते हैं।

खरसाली (खुशीमठ)


स्थानीय खानपान का जायका
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चारों शीतकालीन पड़ावों पर होटल, धर्मशाला व होम स्टे की कमी नहीं है। शीतकाल में यहां कमरे आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। श्रद्धालु होम स्टे में ठहरकर स्थानीय भोजन का भी जायका ले सकते हैं। इसमें स्थानीय स्तर पर उत्पादित होने वाले आलू के गुटखे, मंडुवा, फाफरा व चौलाई की रोटी, चौलाई का हलुवा, झंगोरे का भात व खीर, गहत की दाल व फाणू, चैंसू, राजमा की दाल व राई की सब्जी प्रमुख हैं।

विष्णु प्रयाग


ऐसे पहुंचें
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चारों गद्दीस्थल पहुंचने के लिए निकटतम हवाई अड्डा जौलीग्रांट (देहरादून) और निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश में पड़ता है। सभी पड़ाव सीधे मोटर मार्ग से जुड़े हुए हैं, इसलिए ऋषिकेश से सार्वजनिक व निजी वाहनों के जरिये आसानी से यहां पहुंचा जा सकता है।

जोशीमठ

Friday, 10 November 2023

बग्वाली़ रंगत : झिलमिल-झिलमिल दिवा जगि गैना


बग्वाली़ रंगत : झिलमिल-झिलमिल दिवा जगि गैना

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दिनेश कुकरेती

धुनिक दिखने की होड़ में गढ़वाल अंचल के शहरी परिवेश में रहने वाले लोग भले ही पारंपरिक तीज-त्योहारों को बिसरा चुके हों, लेकिन अंतराल के गांवों में आज भी लोग अतीत की इन सुनहरी यादों को जिंदा रखने के प्रयास में जुटे हुए हैं। इसकी झलक बग्वाल यानी छोटी दीपावली पर देखी जा सकती है। गढ़वाल में दीपावली से अधिक मान्यता बग्वाल की रही है और आज भी है। इस दिन लोग घरों में मीठे स्वाले, भरवां स्वाले, दाल के पकौड़े, जैसे पारंपरिक पकवान बनाते हैं और फिर इन्हें सगुन के तौर पर घर-घर बांटा जाता है। इस दौरान लोग अपनी सारी परेशानियों को भूलकर उत्सव में डूब जाते हैं और वातावरण में गूंजने लगती हैं गीतों की मधुर स्वर लहरियां। ऐसा प्रतीत होता है, मानो स्वयं प्रकृति गा रही हो, 'झिलमिल-झिलमिल दिवा जगी गैनि, फिर बौड़ी ऐ ग्ये बग्वालÓ की स्वर लहरियां। 

इन्सान ही नहीं, गोवंश का भी उत्सव

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पहाड़ में बग्वाल के दिन पालतू पशुओं, खासकर गाय, बछड़ों व बैलों की पूजा की जाती है। उनके लिए तैयार किया गया भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुवे के आटे का फीका हलुवा) व जौ के आटे से बने लड्डुओं को परात (पीतल की बड़ी थाली) में बग्वाली (चौलाई) के फूलों से सजाया जाता है। पशुओं के पैर धोकर धूप-दीप से उनकी आरती उतारी जाती है और टीका करने के बाद उनके सींगों पर सरसों का तेल लगाया जाता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया के उपरांत परात में सजाया हुआ अन्न उनको खिलाया जाता है। इसे गो पूड़ी कहते हैं।

इसलिए होती है गोवंश की पूजा

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बग्वाल के बारे में पौराणिक मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। इसके अलावा इस दिन ग्रामीण अपने पाले हुए मवेशियों को अन्न का ग्रास देते हैं। पौराणिक परंपरा का निर्वाह करते हुए लोग खरीफ की फसल की मंडाई के बाद पहला निवाला गोवंश को देते हैं। क्योंकि, गोवंश की फसल तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।  

सांझ ढलते ही थिरकने लगती पंचायती चौंरी

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सांझ ढलने पर गांव के सभी लोग पंचायती चौंरी (चौक) या खलिहान में एकत्रित होकर ढोल-दमाऊ के साथ नाचते हैं और भैला (भैलो) खेलते हैं। इसके लिए भीमल या चीड़ के छिल्लों (लकड़ी) को भांग या भीमल के रेसों (सेलू) से तैयार रस्सी में बांधकर आग लगाने के बाद सिर के ऊपर से घुमाया जाता है। इस दौरान लोग तरह-तरह के करतब दिखाते हैं। साथ में आतिशबाजी भी की जाती है। लगता है जैसे जमाने भर की खुशियां गांव के छोटे-से आंगन में सिमट गई हैं।

यही बग्वाल, यही यम चतुर्दशी

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गढ़वाल में छोटी दीपावली को 'बग्वालÓ कहते हैं। यम चतुर्दशी भी यही है। मान्यता है कि इस दिन गोपूजा से यमराज प्रसन्न होते हैं और मनुष्य को अल्पायु में मृत्यु के भय नहीं रहता। हालांकि, नए जमाने के लोग, खासकर नई पीढ़ी अब इस परंपरा को भूलती जा रही है।

भैलो रे भैलो, स्वाल-पकोड़ी खैल्यो

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आज भले ही युवा पीढ़ी भैलो से अपरिचित-सी हो गई हो, लेकिन एक दौर में पूरे गढ़वाल में भैलो के बगैर दीपावली अधूरी मानी जाती थी। दरअसल, भैलो गढ़वाल का एक प्राचीन खेल नृत्य है। आज भी जहां भैलो खेलने की परंपरा बची है, वहां दीपावली की संध्या पर महालक्ष्मी पूजन के बाद गांव के पंचायती चौक में भैलो की विधि-विधान पूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है। मिठाई बंटती है और आतिशबाजी के साथ जश्न मनाया जाता है। कहीं-कहीं ढोल-दमाऊ की थाप के साथ रातभर भैलो मंडाण चलता है।


ऐसे तैयार होता है भैलो

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लोकगीतों के साथ भीमल या चीड़ (कुलै़ं) के छिल्लों के अलावा तिल, भांग, सुराही या हिंसर की लकड़ी से घुमाने लायक एक गट्ठर बनाया जाता है। इसे सिरालू (विशेष लता बेल) या मालू की रस्सी से बांधा जाता है। खेतों में बनाए गए आड़ों (घास-फूस के ढेर) पर आग लगाकर इनसे भैलो के दोनों छोर पर आग लगाई जाती है। इसके बाद ग्रामीण उसे अपने चारों ओर घुमाते हुए कहीं 'भैलो रे भैलो, स्वाल पकोड़ी खैलो, भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भागलूÓ तो कहीं 'भैला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा-कूदा मारा फाल, फिर बौड़ी ऐगी बग्वालÓ जैसे गीत गाते हुए भैलो नृत्य करते हैं। इस बीच आतिशबाजी का क्रम भी चलता रहता है।


रस्सी कमर पर बांधकर भी खेले जाते थे भैलो

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भैलो बनाने का कार्य दीपावली से दो-एक दिन पहले ही शुरू हो जाता है। इसके लिए छिल्लों को धूप में सुखाया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व पौड़ी जिले की ढांगू पट्टियों के कई गांवों में भैलो के कुछ विशेष कलाकार होते थे। इन्हें स्थानीय भाषा में पुठ्यिा भैलो कहा जाता था। यह कलाकार भैलो को दोनों छोर से जलाकर हाथ से घुमाने की बजाय इसकी रस्सी कमर में बांध देते थे। फिर दोनों हाथों को जमीन पर टिका पैरों को ऊपर-नीचे उछालकर भैलो को कमर के सहारे चारोंं ओर घुमाते थे। हालांकि, अब यह कला लगभग विलुप्त हो चली है।


चांदपुर गढ़ी में धनतेरस ही बिखरने लगती है रंगत

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चमोली जिले की चांदपुरी गढ़ी के गांवों में तो धनतेरस से ही लोग भैलो खेलने लगते हैं। महिला-पुरुष अलग-अलग समूहों में दीपावली के गीतों के साथ पारंपरिक चांचरी (चांचड़ी) और थडिय़ा नृत्य करते हैं। कर्णप्रयाग क्षेत्र में भी पंचायत चौंरी में भैलो नृत्य होता है। हालांकि टिहरी, रुद्रप्रयाग व उत्तरकाशी जिलों में अब नाममात्र को ही भैलो खेले जाते हैं। जबकि, देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर में दीपावली के एक माह बाद बग्वाल (बूढ़ी दीवाली) मनाई जाती है। इस मौके पर पर भैलो खेले जाते हैं।


'बग्वालÓ के 11 दिन बाद आती है 'इगासÓ

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पहाड़ में बग्वाल के ठीक 11 दिन बाद इगास मनाने का चलन है। इस दिन रक्षाबंधन के धागों को हाथ से तोड़कर गाय की पूंछ पर बांध दिया जाता है। इस दिन भी भैलो खेलने की रवायत है। हालांकि, आधुनिकता के चकाचौंध में शहरी परिवेश के लोग इगास को भुला बैठे हैं। लेकिन, सुखद यह है कि देहरादून जैसे महानगरीय कल्चर वाले शहर में अब कुछ सामाजिक संगठन इगास मनाने की परंपरा को संजोने में जुटे हुए हैं।









Friday, 3 November 2023

MY ROOM

नवप्रकाशित पुस्तक "मेरा कमरा" में संकलित मेरा संस्मरण

एक कमरा बने न्यारा
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दिनेश कुकरेती
मैं ही क्या, हम सभी का दायरा एक कमरे तक ही तो सिमटा हुआ है। फिर भले ही फलक से सितारे तोड़ लाइए, बुलंदियों पर परचम फहरा लीजिए, लेकिन जैसा सुकून इस एक अदद कमरे में है, वैसा शायद ही कहीं और मिल पाएगा। सुख-दुख, हंसी-ठिठोली, मौज-मस्ती वगैरह-वगैरह, सबका नियामक यह एक कमरा ही तो है। कभी-कभी लगता है कि अगर यह कमरा न होता तो जीवन न जाने कहां हिचकोले खा रहा होता। यकीन जानिए मेरे लिए मेरा यह कमरा कुदरत की किसी नेमत से कम नहीं है। इसमें न सिर्फ़ अतीत की यादें समाई हुई हैं, बल्कि भविष्य के सुनहरे ख्वाब भी अंगडा़ई लेते नजर आते हैं। इसलिए मैं चाहे कहीं भी रहूं, जेहन से अपने इस कमरे को बाहर नहीं निकाल पाता।
आप सोच रहे होंगे कि भला ऐसा क्या है इस कमरे में, जो इसका मोह इस कदर रंग जमाए हुए है। इस सवाल के एक नहीं, अनेकों जवाब हो सकते हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि आप उनसे संतुष्ट ही हों। दरअसल, कमरा कोई चाहरदीवारी से घिरी जगह मात्र नहीं है। वह तो एक ऐसा रंगमंच है, जहां अभिनय की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं। कोई स्क्रिप्ट नहीं। कोई दिखावट-बनावट नहीं। कोई प्रशिक्षण नहीं। सब-कुछ जीवंत, स्वाभाविक और वास्तविक। जाहिर है ऐसी अनूठी धरोहर से आप भी निश्चित रूप से रू-ब-रू होना चाहेंगे। तो आइए! आपको लिए चलते हैं अपनी उस रंगशाला में, जहां सपने भी सपनों में खो जाने का अहसास कराते हैं। जहां भूगोल (स्थान) बदलने के बावजूद इतिहास खुद-ब-खुद अपना क्रम जोड़ लेता है। जहां रखी हर छोटी-बडी़ वस्तु अपनी कहानी खुद कहती प्रतीत होती है।

देहरादून का दक्षिण-पश्चिमी किनारा। यहीं घनी आबादी वाले एक मुहल्ले में है मेरा स्वप्न लोक का कमरा। पहले यह मकान मालिक का ड्राइंग रूम हुआ करता था, लेकिन फिर यकायक यह मेरा हो गया। तब से दस बरस बीत चुके हैं। इस अवधि में न तो मकान मालिक को मुझसे कोई शिकायत हुई और न मुझे उनसे। हम दोनों ही अपनी-अपनी दुनिया में खुश हैं। कमरे का भूगोल कुछ इस तरह है। एक किनारे पर तख्ते की दो फोल्डिंग चारपाई लगी हैं, जिन्हें आपस में मिलाकर मैंने बेड का आकार दे दिया। हालांकि, इस्तेमाल मैं इसके एक हिस्से को ही करता हूं। दूसरे हिस्से में कुछ किताब व पत्रिकाएं, डायरी, पेन, अखबार की कतरनें, मोबाइल के चार्जर, इयर फोन, विक्स व बाम की डिब्बी आदि शोभायमान हैं। बेड के दक्षिण भाग में सबसे किनारे प्लास्टिक की दो टोकरियां हैं, जिनमें मैं सब्जी वगैरह रखता हूं। पास ही पानी की बाल्टी, दो-एक पानी की बोतल और एक छोटा-सा गैस सिलेंडर है, जिसे मैं सर्वकालिक चूल्हे के रूप में इस्तेमाल करता हूं। इसी हिस्से की दीवार पर एक दरवाजा है, जो मकान मालिक के बरामदे से मेरे कमरे को सीधे जोड़ता है। हालांकि, अब यह हमेशा बंद रहता है। इसी दरवाजे पर मेरी तरफ वाले हिस्से में कुछ कीलें गडी़ हैं, जो हैंगर की तरह इस्तेमाल होती हैं। मेरे कुछ वस्त्र हमेशा इन कीलों की शोभा बढा़ते रहते हैं। पास ही दीवार से सटाकर मैंने एक कुर्सी रखी हुई है, जिसका उपयोग में टेबल फैन रखने के लिए करता हूं।
बेड के सामने पूर्वी हिस्से में मकान मालिक की पुरानी डायनिंग टेबल और चार कुर्सियां (उपरोक्त समेत) हैं। इस धरोहर को उन्होंने नई डायनिंग टेबल खरीदने के बाद पर्याप्त स्पेस होने के कारण मेरे कमरे में शिफ्ट कर दिया था। वैसे इसका मुझे फायदा ही मिला। कपड़े-लत्ते, चना-चबैना, सिर-दर्द, बुखार, पेट दर्द आदि मामूली मर्ज़ की दवाएं, विभिन्न विषयों की चुनिंदा पुस्तकें, लैपटाप, अखबार वगैरह रखने को पर्याप्त एवं सुरक्षित जगह मिल गई। जबकि, डायनिंग टेबल के नीचे जूते-चप्पल रखने की जगह बन गई।
पास ही दीवार से अटैच्ड एक बडी़ आलमारी है, जिसके एक हिस्से में मैं कुछ निहायत जरूरी खाने-पकाने के बर्तन और राशन वगैरह रखता हूं। शेष हिस्से में पुराने अखबार और किताबों के बंडल भरे पडे़ हैं। कुछ खुली किताबें भी हैं, जिन्हें मैं अक्सर संदर्भ पुस्तक के रूप में इस्तेमाल करता रहता हूं।
कुल मिलाकर मेरे इस कमरे में पुस्तकों का ही ज्यादा बोलबाला है। पुस्तकें ही मेरी संगी-साथी हैं, मित्र हैं और नाते-रिश्तेदार हैं। मैं इन्हीं से बतियाता हूं, इन्हीं के साथ सुख-दुख बांटता हूं और इन्हीं के साथ सपने भी देखता हूं। तभी तो इन दस सालों में मुझे न तो रेडियो-टीवी की जरूरत महसूस हुई, न फ्रिज-कूलर की ही। यह स्थितियां कभी-कभी तो खुद के वैरागी होने का अहसास कराने लगती हैं। सचमुच! जीवन में संतुष्टि का भाव और सोच का दायरा विस्तृत हो तो सारे आडंबर गौण लगने लगते हैं। आखिर इन्सान का असली ठौर तो कमरा भी नहीं, उसका एक कोना मात्र है। बस! आपके पास सपने, सीखने की ललक और अनुसंधान एवं सृजन की उत्कंठा होनी चाहिए। खुशकिस्मती से यह सभी प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक संसाधन मुझे पुरस्कार स्वरूप कुदरतन मिले हैं। बताइए! एक संतोषी जीव को इससे ज्यादा और क्या चाहिए।

ऐसा नहीं कि यह सिर्फ़ देहरादून में रहने का ही फलसफा़ हो, मैं जहां भी रहा, ऐसे ही फक्कड़ मिजाज या यूं कह लीजिए कि फकीराना अंदाज में रहा। याद आता है दिल्ली के एक छोर पर रोहिणी में स्थित वह एकाकी कमरा। यही कोई 23-24 साल पुरानी बात होगी। तब रोहिणी इलाके में बसागत हो ही रही थी। खासकर सेक्टर सोलह में तो अधिकांश फ्लैट वीरान पडे़ हुए थे। तब वहीं एक सिंगल रूम फ्लैट (जनता फ्लैट) मेरा ठौर हुआ करता था। सर्दियों के दिन थे। सूखी ठंड बेहाल किए जा रही थी। सुबह दस बजे के बाद ही सूर्यदेव के दर्शन हो पाते थे। तब तक धुंध के कारण हाथ को हाथ तक नहीं सूझता था। मेरे पास बिछौना-ओढ़ना तो था, मगर दिल्ली की सर्दी के हिसाब से उसे नाकाफी ही कहा जाएगा। ऐसे हालात में लोग सबसे पहले रजाई-गद्दे की खरीदारी करते हैं, पर मैंने ऐसा नहीं किया। वजह, इसका बेहतर विकल्प जो मिल गया था। सो, मैं सीधे मधुवन चौक से अंग्रेजी अखबारों की तीन-चार किलो रद्दी खरीद लाया। गद्दे का इससे बेहतर विकल्प भला और हो भी क्या सकता था। ऊपर से सस्ता अलग। इसका एक और फायदा यह हुआ कि अंतर्मन से कविता और कहानी के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे। हालांकि, कुछ समय बाद न चाहते हुए भी मुझे गर्दिश के दौर के साथी रहे इस कमरे से रुखसत लेनी पडी़। लेकिन, इसकी सुनहरी यादें आज भी मेरे मन-मंदिर में बसी हुई हैं।
यह प्रवृत्ति तब भी बनी रही, जब इसके बाद का कुछ अर्सा मैंने मेरठ में गुजारा। वहां मलियाना शूगर मिल के परिसर में मेरा कमरा हुआ करता था। जिसका उपयोग मैंने जीवन की प्रशिक्षणशाला के रूप में ही ज्यादा किया। इस कमरे ने मुझे खुद के अंदर से बाहर निकलने का मौका दिया और सलीका भी सिखाया। हारमोनियम और ढोलक बजाना सिखाया। लेखनी को संस्कृति एवं परिवेश से जोडा़ और हालात से लड़ने का जज़्बा दिया।
इस कालखंड में मुझे पौडी़, रुद्रप्रयाग, गोपेश्वर, जोशीमठ, हल्द्वानी व लखनऊ जैसे पहाडी़ एवं मैदानी शहरों में भी रहने का मौका मिला और हर स्थान पर जो कमरा मेरा ठौर बना, जीवन में महत्वपूर्ण सबक छोड़ गया। लोग खुले आसमान के नीचे दुनियादारी सीखते हैं और मैंनै कमरे की चाहरदीवारी में रहकर सीखी। मुझे अपने होने का उद्देश्य मालूम हुआ। लेकिन, इस सबमें सबसे बडा़ योगदान मेरे उस कमरे का है, जिसमें बचपन और किशोरवय में परिवार के साथ मैंने जीवन के महत्वपूर्ण ग्यारह साल बिताए। ...और उस कमरे का भी, जिसमें युवावस्था के बारह-तेरह साल गुजरे। अनेकों यादें हैं उन दोनों कमरों की, जिनकी चर्चा फुर्सत में कभी करूंगा। फिलहाल तो रात के दो बजने को हैं और आंखें नींद से बोझिल हुई जा रही हैं। मौसम में ठंडक है, लेकिन मेरे आंगन से  सटे पडो़सी के घर की चाहरदीवारी के भीतर महक रहे रात की रानी के फूलों की खुशबू जब कमरे के भीतर बैठे भी हवा के झोकों के साथ नथुनों में समाती है तो मन प्रफुल्लित हो उठता है। शायद...ना..ना यकीनन, इसी को जीवन कहते हैं।
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My memoirs compiled in the newly published book "My Room"


Become a room new
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Dinesh Kukreti
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hat is it I, all of us are limited to only one room.  Then, even if the stars are plucked from the pane, hoist the altar at the height, but as the peace is in this single room, it will hardly be found anywhere else.  It is a room of all happiness, sorrow, laughter, humor, fun, etc.  Sometimes it seems that if this room was not there then life would not have known where the hiccups were eating.  Trust me, this room of mine is not less than any nature of nature.  It contains not only memories of the past, but also the golden dreams of the future.  So no matter where I live, I am not able to get this room out of my mind.

 You must be wondering what is it like in this room, which is so enamored with this fascination.  There can be many answers to this question, but you are not necessarily satisfied with them.  Actually, the room is not just a boundary wall.  It is a theater where there is no time limit for acting.  No script.  No appearance-making.  No training.  Everything lively, natural and real.  Obviously, with such a unique heritage, you too would definitely like to be interacted with.  So come!  Take you to your theater where dreams also feel lost in dreams.  Where, despite changing geography (place), history automatically adds its own order.  Where every small item kept seems to tell its own story.

 South-western edge of Dehradun.  Here is my dream in a densely populated locality.  Earlier it used to be the drawing room of the landlord, but then it suddenly became mine.  Ten years have passed since then.  During this period neither the landlord nor the landlord had any complaint with me.  We both are happy in our world.  The geography of the room is something like this.  On one side, there are two folding cots of planks, which after mixing together I gave the shape of the bed.  However, I use only a part of it.  In the second part, some books and magazines, diaries, pens, newspaper clippings, mobile chargers, ear phones, boxes of wicks and balms, etc. are stunning.  There are two plastic baskets on the edge of the south side of the bed, in which I keep vegetables and so on.  Nearby is a bucket of water, two bottles of water and a small gas cylinder, which I use as an all-time stove.  There is a door on the wall of this part, which connects my room directly to the verandah of the landlord.  However, it is always closed now.  On this side, some nails are buried in my side, which are used as hangers.  Some of my clothes always adorn these nails.  Adjacent to the wall, I have a chair, which I use to keep the table fan in place.

 On the eastern side of the bed are the old homeowner's old dining table and four chairs (including the above).  After purchasing a new dining table, he had shifted this heritage to my room due to having enough space.  By the way, I got the benefit of this.  Clothes, rags, chickpeas, headaches, fever, stomach aches, etc., were found to be adequate and safe place to keep medicines, minor books, select books of various subjects, laptops, newspapers, etc.  Whereas, dining became a place to put shoes under the table.

 There is a large cupboard attached to the wall nearby, in one part of which I keep some very important cooking utensils and ration etc.  The remaining part is full of old newspapers and bundles of books.  There are also some open books, which I often keep using as a reference book.

 Overall, this room is dominated by books more.  Books are my friends, friends and relatives.  I talk to them, share happiness and sorrow with them and dream with them.  That is why in these ten years I neither felt the need for radio-TV nor refrigerator-cooler.  These situations sometimes make one feel like a recluse.  Really!  If the sense of satisfaction and the scope of thinking is wide in life, then all the hypocrites start to become secondary.  After all, the real person does not even have a room, he has only one corner.  Bus!  You must have dreams, urge to learn and yearning for research and creation.  Luckily, I have received all these natural and spiritual resources as a reward.  Tell me  What else does a contented creature need more than this?

 It is not that this is just a result of living in Dehradun, wherever I stayed, like this, I feel like a fugitive or a fakrana.  I remember that one room in Rohini at one end of Delhi.  That would be a 23-24 year old thing.  Then Rohini was getting settled in the area.  Most of the flats, especially in Sector Sixteen, were deserted.  Then there was a single room flat (Janta Flat) used to be my residence.  They were days of winter.  Dry cold was being harmed.  Only after ten o'clock in the morning could Suryadev be seen.  Till then the hand was not able to sense the hand due to the mist.  I had a bed cover, but according to the cold of Delhi it would be called insufficient.  In such a situation people are the first to buy a quilt-mattress, but I did not do so.  Because, the better option was found.  So, I brought three to four kilos of scrap to buy English newspapers directly from Madhuvan Chowk.  What could have been a better alternative to the mattress.  Cheap apart from above.  Another benefit of this was that poetry and story sprouted from the inner.  However, after some time, despite not wanting, I had to take a stand from this room, which was a companion of the times.  However, the golden memories of it still remain in my mind-temple.

 This trend continued even after I spent some time thereafter in Meerut.  There used to be my room in the premises of Maliana Sugar Mill.  Which I used more as a life course.  This room gave me a chance to get out from inside myself and also taught Salika.  Taught to play harmonium and dholak.  Gave the writing to the culture and environment and the courage to fight the situation.

 In this period, I also got the opportunity to live in Pahari, Rudraprayag, Gopeshwar, Joshimath, Haldwani and hill and plains cities like Lucknow and the room that became my place in every place left an important lesson in life.  People learn worldliness under the open sky and I learned by living in the walls of the room.  I understood the purpose of my being.  But, the biggest contribution to all this is from my room in which I spent significant eleven years of my life with my family in childhood and adolescence.  ... and also of the room in which twelve-thirteen years of youth passed.  There are many memories of those two rooms, which I will discuss in some time.  At present, it is two o'clock in the night and the eyes are getting weakened by sleep.  The weather is cold, but the scent of the flowers of the night queen smelling within the walls of the neighboring house adjacent to my courtyard, when sitting inside the room, is filled with gusts of wind in the nostrils of the mind.  Probably… naa .. Of course, this is called life.

Friday, 13 October 2023

तुलसी के शिष्यों ने की थी पहली रामलीला



महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण नौ हजार साल ईसा पूर्व से लेकर सात हजार साल ईसा पूर्व तक की मानी जाती है। यही कारण है रामलीला मंचन की शुरुआत के बारे में ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। हालांकि, दक्षिण-पूर्व एशिया में कई पुरातत्वशास्त्री और इतिहासकारों को ऐसे प्रमाण मिले हैं, जो साबित करते हैं कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का मंचन हो रहा था। जावा के सम्राट 'वलितुंगÓ के एक शिलालेख में ऐसे मंचन का उल्लेख है। यह शिलालेख 907 ईस्वी का है। इसी प्रकार थाईलैंड के राजा 'ब्रह्मत्रयीÓ के राजभवन की नियमावली में रामलीला का उल्लेख है, जिसकी तिथि 1458 ईस्वी है।

तुलसी के शिष्यों ने की थी पहली रामलीला

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दिनेश कुकरेती

भारत में भी रामलीला के ऐतिहासिक मंचन का ईसा पू्र्व में कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। लेकिन, 1500 ईस्वी में गोस्वामी तुलसीदास ने जब आम बोलचाल की भाषा 'अवधीÓ में श्रीराम के चरित्र को 'रामचरितमानसÓ में चित्रित किया तो इस महाकाव्य के माध्यम से देशभर, खासकर उत्तर भारत में रामलीला का मंचन किया जाने लगा। कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों ने शुरुआती रामलीला का मंचन काशी, चित्रकूट और अवध में किया। इतिहासविदों के अनुसार देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं सदी के आरंभ में हुई थी। इससे पहले राम बारात और रुक्मिणी विवाह के शास्त्र आधारित मंचन ही हुआ करते थे। वर्ष 1783 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने हर साल रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया। 



चित्रकूट के मैदान में पहली रामलीला

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काशी में गंगा और गंगा के घाटों से दूर चित्रकूट मैदान में दुनिया की सबसे पुरानी मानी जाने वाली रामलीला का मंचन किया जाता है। मान्यता है कि यह रामलीला 500 साल पहले शुरू हुई थी। 16वीं शताब्दी में 80 वर्ष से भी अधिक की उम्र में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी भाषा में रामचरितमानस लिखी थी।

रामलीला के प्रकार

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मुखौटा रामलीला: मुखौटा रामलीला का मंचन इंडोनेशिया और मलेशिया में होता रहा है। इंडोनेशिया का 'लाखोनÓ, कंपूचिया का 'ल्खोनखोलÓ और म्यांमार का 'यामप्वेÓ, ऐसे कुछ स्थान हैं, जहां इसका आज भी मंचन होता है।

छाया रामलीला: जावा व मलेशिया में 'वेयांगÓ और थाईलैंड में 'नंगÓ ऐसी जगह है, जहां कठपुतली के माध्यम से छाया नाटक प्रदर्शित किया जाता है। विविधता और विचित्रता के कारण छाया नाटक के माध्यम से प्रदर्शित होने वाली रामलीला मुखौटा रामलीला से भी निराली है।

मूक अभिनय: यह संगीतबद्ध हास्य थियेटर है। इसमें रामलीला का सूत्रधार रामचरितमानस की चौपाई और दोहे गाकर सुनाता है और अन्य कलाकार बिना कुछ बोले रामायण की प्रमुख घटनाओं का मंचन करते हैं। इस शैली में रामलीला की झांकियां भी दिखाई जाती हैं और बाद में शहरभर में शोभायात्रा निकाली जाती है। 

ओपेरा (संगीतबद्ध गायन) शैली: उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में यह शैली विकसित हुई। इस रामलीला की खासियत है कि इसके संवाद क्षेत्रीय भाषा में न होकर ब्रज और खड़ी बोली में ही गाए जाते हैं। इसके लिए संगीत की विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया जाता है। 

रामलीला मंडली: मंडलियों के माध्यम से भी पेशेवर कलाकार रामलीला का मंचन करते हैं। स्टेज पर रामचरितमानस की स्थापना करके भगवान की वंदना होती है। इसमें सूत्रधार, जिसे व्यास भी कहा जाता है, रामलीला के पहले दिन की कथा सुनाता है और आगे होने वाली रामलीला का सार गाकर सुनाता है। ये कलाकार-मंडलियां भारत के कई राज्यों में रामलीला का मंचन करती हैं।



पौड़ी की रामलीला : विशिष्टता बनी विशेषता

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उत्तराखंड की रामलीलाओं में गढ़वाल मंडल मुख्यालय पौड़ी में होने वाली रामलीला का शीर्ष स्थान है। यूनेस्को की धरोहर बन चुकी यह ऐसी रामलीला है, जिसने विभिन्न संप्रदायों के लोगों को आपस में जोडऩे का काम तो किया ही, आजादी के बाद समाज में जागरुकता लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पारसी थियेटर शैली और राग-रागनियों पर आधारित इस रामलीला का वर्ष 1897 में पौड़ी में स्थानीय लोगों के प्रयास से कांडई गांव में पहली बार मंचन हुआ था। इसे वृहद स्वरूप देने का प्रयास वर्ष 1908 से भोलादत्त काला, अल्मोड़ा निवासी तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पूर्णचंद्र त्रिपाठी, क्षत्रिय वीर के संपादक कोतवाल सिंह नेगी व साहित्यकार तारादत्त गैरोला ने किया। विद्वतजनों के जुडऩे के कारण पौड़ी की रामलीला को एक नया स्वरूप मिला और आने वाले सालों में जहां रामलीला के मंचन में निरंतरता आई, वहीं इसमें अनेक विशिष्टताओं का समावेश होता भी चला गया। वर्ष 1943 तक पौड़ी में रामलीला का मंचन सात दिवसीय होता था, लेकिन फिर इसे शारदीय नवरात्र में आयोजित कर दशहरा के दिन रावण वध की परंपरा शुरू हुई।



शुरुआती दौर में रामलीला में प्रकाश व्यवस्था के लिए स्थानीय भीमल वृक्ष की लकड़ी (छिल्लों) का प्रयोग होता था। लेकिन, वर्ष 1930 में छिल्लों का स्थान पेट्रोमैक्स ने ले लिया। यह वह दौर था, जब गायन पक्ष में माइक के अभाव के कारण ऊंचे स्वर वाले गायकों को तरजीह दी जाती थी। यह पारसी थियेटर शैली का ही एक अंग है। वर्ष 1945 में नौटंकी शैली का स्थान पूरी तरह रंगमंच की पारसी शैली ने ले लिया। वर्ष 1957 में पौड़ी का विद्युतीकरण हुआ और रामलीला मंचन का स्वरूप भी निखरने लगा। धीरे-धीरे गीत नाट्य के जरिए इसके संगीत को विशुद्ध शास्त्रीयता से जोड़ा गया। स्क्रिप्ट में बागेश्री, विहाग, देश, दरबारी, मालकोस, जैजवंती, जौनपुरी जैसे प्रसिद्ध रागों पर आधारित रचनाओं का समावेश किया गया।

वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगरान के अनुसार रामलीला मंचन की एक विशेषता यह भी है कि इसमें गीतों के पद हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी, अवधी, ब्रज के अलावा अन्य देशज शब्दों की चौपाइयों में तैयार किए गए हैं। कुछ मार्मिक प्रसंगों की चौपाइयां ठेठ गढ़वाली में भी हैं। शब्द इतने सहज व आसान हैं कि गीतों के पद श्रोताओं तक सीधी लय बना लेते हैं। तब मंचन की जरूरी शर्त यानी संवाद की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। लोकरुचि के अनुसार इसमें समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। रावण के पात्र के रूप में किसी खूंखार राक्षसी चरित्र की बजाय एक आकर्षक, अभिमानी व बलशाली विद्वान का चित्रण, राम-लक्ष्मण-सीता के रूप में किशोरवय पात्र, जिनकी आवाज में गीतों के पद मधुरता की ऊंचाइयां छूने लगते हैं और कुछ प्रसंगों का नौटंकी शैली में प्रहसन के रूप में मंचन जैसी विशेषताएं इस रामलीला को अनूठा बनाती हैं। 

पूरे उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व करने वाली पौड़ी की रामलीला में हिंदुओं के साथ मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोग भी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करते रहे हैं। इनमें मोहम्मद सिद्दीक, सलारजंग, इलाहीबख्श हुसैन, हसीनन हुसैन व इमामउल्ला खां के साथ ईसाई समुदाय के विक्टर का नाम भी आदर से लिया जाता है। आज भी यह परंपरा अनवरत चली आ रही है। रामलीला का यह मंच अनेक कलाकार, संगीतकार, गायक और कवियों की साधनास्थली भी रहा है।  



मन को छू जाता है पार्श्‍व गायन

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पौड़ी की रामलीला की एक विशिष्टता इसका पाश्र्व गायन भी है। पहले रामलीला मंचन में पात्र स्वयं गाकर अभिनय भी करते थे। पाश्र्व गायन से रंगमंच पर कलाकार के सामने आने वाली कतिपय समस्याओं से उसे छुटकारा मिला और कलाकार अभिनय पर अधिक ध्यान देने लगे। शुरू में प्रायोगिक तौर पर किए जाने वाले पाश्र्व गायन के साथ मंचन की गुणवत्ता में इजाफा होने पर आज कुछ पात्रों को छोड़ बाकी सभी के लिए पाश्र्व गायन किया जाता है।


दृश्य के अनुरूप लगते हैं सैट

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साठ के दशक से रामलीला के कलापक्ष पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। खासकर, मंचन के दौरान दृश्य के अनुरूप सेट लगाने पर। इस दौर में भगवंत सिंह नेगी का दृश्य संयोजन और मंच निर्माण में विशेष योगदान रहता था। शुरू में मंच लकड़ी का बनाया जाता था, लेकिन वर्ष 1993 में पौड़ी नगर पालिका ने उसी स्थान पर एक विशाल स्थायी मंच का निर्माण करा दिया। मंच के लिए रामलीला कमेटी को यह जमीन कांडई गांव के कोतवाल सिंह नेगी के परिवार ने दान में दी थी। 

आरती में भावनृत्य का समावेश

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दृश्य के अनुरूप सेट लगाने के अनेक चर्चित अभिनव प्रयोगों में हनुमान का संजीवनी बूटी लाते समय हिमालय आकाश मार्ग से उड़ते हुए दिखाया जाना काफी लोकप्रिय हुआ। आज रामलीला में जितना महत्वपूर्ण इसका संगीत पक्ष है, उतना ही इसका कला पक्ष भी। कलापक्ष में ही आरती के दृश्य के साथ भावनृत्य भी आज पौड़ी की रामलीला की खास विशेषता बन गई है।

सबसे पहले शामिल हुए महिला पात्र

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पूरे उत्तराखंड में पौड़ी की रामलीला को ही यह श्रेय जाता है कि उसने महिला पात्रों को रामलीला मंचन में सर्वप्रथम शामिल किया। वर्ष 2002 में पहली बार यह प्रयोग किया गया, जो लोगों को इस कदर भाया कि आज सभी महिला पात्रों को महिलाएं ही अभिनीत करती हैं।

जिंक ऑक्साइड की जगह पेन केक

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रामलीला मंचन में मेकअप हमेशा एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है। कम प्रकाश व्यवस्था के कारण विद्युतीकरण होने के बाद भी मेकअप में जिंक ऑक्साइड का प्रयोग किया जाता था। लेकिन, बाद के वर्षों में वीडियोग्राफी के प्रचलन में आने के बाद अब जिंक ऑक्साइड का स्थान पेन केक ने ले लिया है।

आस्था के साथ आजादी का उल्लास

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यह ऐसी रामलीला है, जिसमें स्वतंत्रता के गीत भी उल्लास के साथ गूंजते हैं। स्व.मथुरा प्रसाद डोभाल का आजादी के बाद लिखा गीत 'स्वतंत्र भारत पुण्य भूमि में, रामराज्य आयाÓ इसके साथ ही रामलीला मंच पर धार्मिक आस्था की तस्वीरों के साथ नेताजी सुभाषचंद्र बोस की तस्वीर लगाना साबित करता है कि उस जमाने में रामलीला से जुड़े लोगों में आजादी के प्रति कितना जुनून रहा होगा।

निष्ठा एवं लगन की प्रतिमूर्ति

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इस ऐतिहासिक रामलीला को वर्तमान मुकाम तक पहुंचाने में कई लोगों का योगदान रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी पूरी निष्ठा एवं लगन से काम करने वाले इन लोगों में नरेंद्र सिंह भंडारी, दयासागर धस्माना, भूपेंद्र सिंह नेगी, नागमल सिंह नेगी, बच्ची सिंह, मोहन सिंह, ज्ञान विक्टर, मन्ना बाबू, सिताब सिंह कुंवर, सत्य प्रसाद काला, भगवंत सिंह नेगी, मदन सिंह नेगी, अजय नेगी, पूर्णचंद थपलियाल, सुंदर सिंह नेगी, नारायण दत्त थपलियाल, सुरेशचंद्र थपलियाल, उमाकांत थपलियाल, चिरंजीलाल शाह, मदनमोहन शाह, पीतांबर बहुखंडी शंकर सिंह नेगी, महिताब सिंह रावत, तारीलाल शाह, मथुराप्रसाद डोभाल आदि प्रमुख हैं।

ऐसे बनी यूनेस्को की धरोहर

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पौड़ी की इस ऐतिहासिक रामलीला को अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी परखा गया है। कुछ वर्ष पूर्व यूनेस्को की ओर से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से जुड़ी तमाम विधाओं के संरक्षण की योजना बनाई गई। इसके तहत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली ने देशभर में रामलीलाओं पर शोध किया। फरवरी 2008 में केंद्र ने पौड़ी की रामलीला का दस्तावेजीकरण किया और साबित हुआ कि यह ऐतिहासिक धरोहर है। खुद यूनेस्को ने उसे यह मान्यता प्रदान की है।निश्चित रूप में एक सांस्कृतिक दस्तावेज के तौर पर इस रामलीला का देश की विरासत में शामिल होना किसी भी परिपाटी के लिए गौरव की बात है। 



दादर व कहरुवा के गीत, तबले की गमक

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उत्तराखंड की रामलीलाओं में कुमाऊं अंचल की गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत होने वाली रामलीला का विशेष स्थान है। पूर्व में विशुद्ध मौखिक परंपरा पर आधारित यह रामलीला पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। कुमाऊं में रामलीला मंचन की शुरुआत 18वीं सदी के मध्यकाल के बाद हो चुकी थी। बताते हैं कि कुमाऊं में पहली रामलीला तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर स्व. देवीदत्त जोशी के सहयोग से 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मंदिर में हुई। वर्ष 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पं.उदय शंकर ने छायाचित्रों के माध्यम से अल्मोड़ा नगर की रामलीला में नयापन लाने का प्रयास किया। हालांकि, यह रामलीला यहां की परंपरागत लीला से कई मायनों में भिन्न थी, लेकिन उनके छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की छाप यहां की रामलीला पर साफ दिखती है।

दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के रिसर्च एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी बताते हैं कि कुमाऊं की रामलीला में बोले जाने वाले संवाद, धुन, लय, ताल व सुरों में एक तरफ पारसी थियेटर की छाप है, तो दूसरी ओर ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। संवादों को आकर्षक व प्रभावी बनाने के लिए कहीं-कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू गजल का सम्मिश्रण भी हुआ है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में ज्यादातर कुमाऊंनी शैली का प्रयोग किया जाता है। रामलीला के गेय संवादों में प्रयुक्त गीत दादर, कहरुवा, चांचर व रूपक तालों में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमक के बीच पात्रों का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादों में रामचरित मानस के दोहों व चौपाईयों के अलावा कई जगह गद्य रूप में संवादों का प्रयोग होता है। यहां की रामलीला में वाचक अभिनय अधिक होता है, जिसमें पात्र एक ही स्थान पर खड़े होकर हाव-भाव प्रदर्शित कर गायन करते हैं। मंचन के दौरान नेपथ्य से गायन भी होता है। विविध दृश्यों में आकाशवाणी की उद्घोषणा भी की जाती है। रामलीला शुरू होने से पूर्व सामूहिक स्वर में राम वंदना का गायन किया जाता है। कुमाऊं की रामलीला की एक अन्य खासियत यह भी है कि इसमें अभिनय करने वाले सभी पात्र पुरुष होते हैं। हालांकि, अब कुछ जगह की रामलीलाओं में कोरस गायन व नृत्य के अलावा कुछ महिला पात्रों में लड़कियों को भी शामिल किया जाने लगा है। 

कुमाऊं अंचल में रामलीला मंचन की तैयारियां अमूमन जन्माष्टमी के दिन से शुरू हो जाती हैं। लकड़ी के खंभों व तख्तों से मंच तैयार होता है। कुछ स्थानों पर तो अब स्थायी मंच भी बन गए हैं। शारदीय नवरात्र के पहले दिन से रामलीला का मंचन शुरू होता है, जो दशहरा अथवा उसके एक-दो दिन बाद तक चलता है। संपूर्ण रामलीला में तकरीबन साठ से अधिक पात्र अभिनय करते हैं। यहां की रामलीला में प्रयुक्त पर्दे, वस्त्र, शृंगार सामग्री व आभषूण अमूमन मथुरा शैली के होते हैं। 



कुमाऊं में रामलीला मंचन की यह परंपरा अल्मोड़ा से विकसित होकर बाद में आसपास के अनेक स्थानों में चलन में आई। आज भी अल्मोड़ा नगर में लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) की रामलीला का आकर्षण कुछ अलग ही होता है। दशहरे के दिन नगर में रावण परिवार के डेढ़ दर्जन के करीब आकर्षक पुतलों को पूरे बाजार में घुमाया जाता है।

कुमाऊं अंचल की रामलीला को आगे बढ़ाने में पं.रामदत्त जोशी, ज्योर्तिविद बद्रीदत्त जोशी, कुंदनलान साह, नंदकिशोर जोशी, बांकेलाल साह, ब्रजेंद्रलाल साह आदि का विशेष योगदान रहा है। ब्रजेंद्र लाल साह ने रामलीला में आंचलिक पुट लाने के लिए कुमांऊनी व गढ़वाली भाषा में भी उसे रूपांतरित किया था। वहीं, वर्तमान में लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) के शिवचरण पांडे व हल्द्वानी के डॉ. पंकज उप्रेती समेत तमाम व्यक्ति, रंगकर्मी व कलाकार यहां की समृद्ध एवं परंपरागत रामलीला को सहेजने व संवारने के कार्य में जुटे हुए हैं।



दून की रामलीला : गेय शैली से नाट्य शैली की ओर

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वैसे तो रामलीला का आयोजन पूरे देश में होता है, मगर हम यहां दून की रामलीला की बात करेंगे। गुरु द्रोणाचार्य की इस नगरी में कई रामलीला समितियों का जन्म हुआ, किंतु समय के साथ ये समितियां समाप्त होती चली गईं। वर्तमान में यहां गिनती की ही रामलीला समितियां अस्तित्व में हैं। इन्हीं में से एक है श्री रामलीला कला समिति। यही वो समिति है, जिसने देहरादून में रामलीला की नींव डाली। वर्ष 1868 में लाला जमुनादास भगत ने तब इस रामलीला समिति का गठन किया था, जब देश गुलामी की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ था। मूलरूप से देवगन, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) निवासी लाला जमुनादास भगत का परिवार 200 वर्ष पहले दून आया और यहीं का होकर रह गया। वर्ष 1850 में जन्मे लाला जमुनादास शुरू से आध्यात्मिक प्रकृति के थे। राम और कृष्ण की कहानियां सुनकर बड़े हुए जमुनादास बाल्यकाल से ही राम के चरित्र से प्रेरित थे। जब वह युवावस्था में पहुंचे तो उन्हें यह बात बहुत अखरी कि दून में कहीं भी ऐसा आयोजन नहीं होता, जो श्रीराम के चरित्र एवं उनकेजीवन से लोगों को परिचित कराए। इसके बाद उन्होंने दून में हर वर्ष आश्विन नवरात्र में रामलीला का आयोजन करने का निर्णय लिया। वर्ष 1868 में महज 18 वर्ष की आयु में कुछ दोस्तों के साथ उन्होंने रामलीला समिति बनाई, जिसे नाम दिया गया श्री रामलीला समिति। समिति के तत्वावधान में इसी वर्ष दून में पहली बार रामलीला का मंचन हुआ, जो 149 वर्षों से अनवरत जारी है। इस समिति की रामलीला नवरात्र के पहले दिन से शुरू होकर दशमी के बाद तीन-चार दिन तक चलती है। 



रूप बदला, स्वरूप नहीं

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इस समिति को भी समय के साथ रामलीला में काफी कुछ बदलाव करना पड़ा। मगर, स्वरूप आज भी 1868 वाला ही है। समिति के संरक्षक एवं पूर्व अध्यक्ष रविंद्रनाथ मांगलिक अब 76 वर्ष के हो चले हैं। वह लाला जमुनादास भगत के पोते हैं और दस वर्ष की आयु से समिति में अपना योगदान दे रहे हैं। बकौल रविंद्रनाथ, 'जब मैंने होश संभाला, तब रामलीला में दोहों और चौपाइयों का प्रयोग होता था। कलाकार भी स्थानीय होते थे और दोहे-चौपाइयों को याद करने के लिए महीनों अभ्यास किया करते थे। संगीत पक्ष में तबला और हारमोनियम का ही मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता था।Ó कहते हैं, तमाम लोगों को दोहे-चौपाइयों का मतलब आसानी से समझ नहीं आता था। इसलिए हमने एक प्रयोग किया और दोहे-चौपाइयों की जगह डायलॉग्स ने ले ली। यानी रामलीला का मंचन गेय शैली की बजाय नाट्य शैली में होने लगा। बाकी मूल स्वरूप में कोई छेड़छाड़ नहीं की गई। मंचन के दौरान कलाकार शुद्धता और मर्यादा का पूरा ख्याल रखते हैं। पिछले कुछ सालों से योग्य स्थानीय कलाकार नहीं मिल पा रहे हैं, इसलिए मथुरा-वृंदावन से पेशेवर कलाकार बुलाने पड़ते हैं। 

तालाब में लंका दहन

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इस रामलीला की दो बातें बड़ी ऐतिहासिक हैं। पहली यह कि राम शोभायात्रा का शुभारंभ आज भी शिवाजी धर्मशाला से होता है। दूसरी, समिति पिछले करीब सौ साल से झंडा बाजार स्थित तालाब में लंका दहन का आयोजन करती आ रही है। जो इस रामलीला का प्रमुख आकर्षण है। यह तालाब दरबार साहिब के ठीक सामने स्थित है। 



गढ़भाषा लीला रामायण

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चार अप्रैल 1977 को रेसकोर्स में गुणानंद 'पथिकÓ और साथियों ने 'गढ़ साहित्य संस्कृति विकास परिषदÓ की स्थापना की। इसका उद्देश्य गढ़वाली साहित्य-संस्कृति और गढ़वाली रामलीला प्रस्तुत करना था। रामलीला देहरादून के नगर निगम भवन में होती थी। इसमें पुतले नहीं जलाए जाते थे। वर्ष 1984 में इस रामलीला को उत्तरकाशी माघ मेले में आमंत्रित किया गया और 1990 में परिषद ने चिन्यालीसौड़ व ऋषिकेश में भी रामलीला की प्रस्तुति दी। इस रामलीला में प्रस्तुत की जाने वाली चौपाई और गीत गढ़वाली में होते थे, जिन्हें गाने के लिए विशेष धुन तैयार की गई थीं।  

मुखौटों के पीछे छिपे असंख्‍य रावण


विजयदशमी के दिन हम हर साल धूमधाम से बुराई एवं असत्य के प्रतीक रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद आदि के पुतले जलाते हैं। समाज से बुराइयों को खत्म करने और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों पर चलने का भावनात्मक संकल्प लेते हैं। बावजूद इसके सवाल वहीं का वहीं है कि क्या हम वास्तव में रावण का अंत कर पाए। क्या रावण हमारे अंदर नहीं है। सच तो ये है कि रावण आज चप्पे-चप्पे में मौजूद है। वह पारिवारिक रिश्तों में भी है और सामाजिक जिम्मेदारियों में भी। कला, संस्कृति, साहित्य, शिक्षा व कानून-व्यवस्था में भी रावण के दर्शन किए जा सकते हैं। बल्कि, अब तो न्याय भी इसकी छाप लिए होने का आभास देता है। बस! हम उसे पहचान नहीं पा रहे हैं या यूं कह लीजिए की पहचानना ही नहीं चाहते। विचार कीजिए, यदि मुखौटों के भीतर छिपे रावण को हम पहचानेंगे नहीं तो उसे मार कैसे पाएंगे। क्या अपने अंदर बैठे रावण से दो-दो हाथ किए बिना हमें चारों ओर फैले पड़े रावणों से कभी मुक्ति मिल पाएगी।

मुखौटों के पीछे छिपे असंख्‍य रावण

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दिनेश कुकरेती

देवाधिदेव भगवान शंकर के पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित, सप्तऋषियों में से एक पुलस्त्य का पौत्र, महापंडित विश्रवा का पुत्र रावण ऋषिकुल में जन्म लेने के बाद भी राक्षस के रूप में ही याद किया जाता है। यह कर्मों की गति ही तो है। आज रावण संज्ञा नहीं, संज्ञेय है, परिभाष्य है। वह मात्र एक पात्र नहीं, चरित्र है। महज स्त्रीहर्ता नहीं, सुसंस्कार द्रोही है। घटना नहीं, परंपरा है और इसीलिए एकल नहीं, बहुल है, सर्वत्र है। घूसखोर, बेईमान, भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी, दंभी, क्रोधी, स्वार्थी, संस्कारहीन, विवेक सुप्त आदि सभी रावण के ही तो प्रतिरूप हैं। यदि तात्कालिक स्वार्थों में अंधे होकर हम इन रावणों को पहचान नहीं रहे या पहचानते हुए इस ओर आंखें मूंदे हुए हैं तो प्रकारांतर से यह एक और रावण के भ्रूण विकास की सूचना ही तो है। अगर आदमीयत, समाज एवं राष्ट्र की शुचिता की कोई अहमियत हमारे भीतर है तो इन बालिग-नाबालिग व गर्भस्थ रावणों को पहचानने के लिए अपनी क्षमता का विकास करना हमारा नैसर्गिक ही नहीं, नैतिक दायित्व भी है। 

विस्तार ही रावण का बीजमंत्र

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'सत्यमेव जयतेÓ रावण को नहीं सुहाता। इसमें उसे अपनी मौत दिखती है। चिरस्थायी मौत। कुल का नाश। भविष्य में कोई नामलेवा व पानीदेवा भी न बचे, ऐसा अंत। तब कैसे सह सकता है रावण सत्य की ही जीत की उद्घोषणा। राजनीति रावणी माया जाल का सबसे सुदृढ़ पाया है। इसके बहुत सारे प्रतिरूप हैं। कुछ आधे-अधूरे तो कुछ एक-दूसरे के परिपूरक। विस्तार ही रावण का बीजमंत्र है। भौतिक विस्तार, मानसिक विस्तार। क्योंकि जिस दिन उसके इस स्वच्छंद विस्तार पर कोई अंकुश लगेगा, उसी दिन से उसकी माया छंटनी शुरू होगी, दिग्विजय का सपना टूटेगा। अटल सामाजिक मूल्य फिर स्थापित होना शुरू होंगे।



सामाजिक विधानों से ऊपर है रावण

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रावण तो तीनों लोकों की सत्ता हासिल करने का भ्रम पाले बैठा है। अलग-अलग रूप और अपने-अपने दायरे में वह स्वयं को त्रिलोकपति समझने लगा है। इसलिए वह स्वयं को सामाजिक विधानों से ऊपर मानता है। रूढिय़ों को संस्कृति एवं संस्कारों का हिस्सा बताना रावणी कूटनीति का महत्वपूर्ण अंग है। जबकि संस्कृति एवं संस्कार वैमनस्य नहीं पनपाते। वह तो राष्ट्र के जीवन की जड़ें हैं। व्यक्ति पहले समाज और फिर राष्ट्र में बदलता ही संस्कृति एवं संस्कारों के सहारे है। अन्यथा आदिम युग से आज तक की विकास यात्रा कैसे संभव हो पाती। कैसे रावण पर राम की जीत की आशाएं जागतीं।

राम की पूजा, रावण का मोह

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हम राम को तो पूजते हैं, लेकिन अंतर्मन में रावण का मोह नहीं टूटता। अपने भीतर पूरी ईमानदारी से झांककर देखें तो महसूस करेंगे कि हमारे दिमाग में यह जो कुछ घुसता सा जा रहा है, वह हमारे अपने भीतर से उपजा हुआ नहीं है। हमें जो कुछ परोसा गया है और अभी भी परोसा जा रहा है, उसी की उपज है यह।



खंडित व्यक्तित्व का स्वामी है रावण

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रावण का प्रतीक एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। पश्चिम में मनोविज्ञान ने कई मनोरोगों की खोज की है, जिनमें एक है स्किजोफ्रेनिया यानी खंडित व्यक्तित्व। जब व्यक्तित्व अत्याधिक जटिल हो तो उसके दो नहीं, अनेक टुकड़े हो जाते हैं। हमारा सामाजिक जीवन एक दिखावा होता है। हम जैसे हैं, वैसे बाहर नहीं दिखा सकते, इसलिए हमें नकली चेहरे (मुखौटे) ओढऩे पड़ते हैं। जरूरत होने पर हम इन्हें बदल लेते हैं। धीरे-धीरे यह भी संभव है कि इस पाखंड में हम खुद को भी भुला बैठें।



फरेब के ही हो सकते हैं कई चेहरे

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हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद हमें उसका अर्थ नहीं मालूम कि रावण दशानन है। उसके दस चेहरे हैं। राम प्रामाणिक हैं। उन्हें हम पहचान सकते हैं, क्योंकि वह कोई धोखा अथवा फरेब नहीं हैं। रावण को पहचानना मुश्किल है। उसके अनेक चेहरे हैं। दस का मतलब ही अनेक है, क्योंकि दस से बड़ी कोई संख्या नहीं। दस आखिरी संख्या है और इसके आगे हम मनचाही संख्या जोड़ सकते हैं। रावण असुर है और हमारे चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती है, तब तक हमारे भी दशानन की तरह बहुत सारे चेहरे होते हैं। तब हम भूल जाते हैं कि हमारा स्वरूप क्या है। इस स्थिति में अपने भीतर मौजूद दशानन को हम कैसे जलाएं। ऐसा तो रावण को नकारने पर ही संभव हो पाएगा। ...और इसके लिए हमें रावण के अस्तित्व को नकारने का शुतुरमुर्गी तरीका अपनाने की जगह उसकी आंखों में आंखें डालकर उसे ही सच्चाई का दर्पण दिखाना होगा।













नवद्वार जीत लिए तो दशहरा हुआ

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दशहरा यानी विजयादशमी का पर्व नवरात्र के नौ दिन बाद आता है। नवरात्र और दशहरा ऐसे सांस्कृतिक उत्सव हैं, जो चैतन्य के देवी स्वरूप को पूरी तरह समर्पित हैं। इस पर्व के दिन जीवन के सभी पहलुओं के प्रति और जीवन में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं केप्रति अहोभाव प्रकट किया जाता है। नवरात्र के नौ दिन तमस, रजस और सत्व के गुणों से जुड़े हैं। पहले तीन दिन तमस के हैं, जब देवी रौद्र रूप में होती हैं, जैसे दुर्गा या काली। इसके बाद के तीन दिन देवी लक्ष्मी को समर्पित हैं। लक्ष्मी सौम्य हैं, पर भौतिक जगत से संबंधित हैं। आखिरी तीन दिन देवी सरस्वती यानी सत्व से जुड़े हैं। ये ज्ञान और बोध से संबंधित हैं। इन तीनों में जीवन समर्पित करने से जीवन को एक नया रूप मिलता है। 

अगर हम तमस में जीवन लगाते हैं तो हमारेजीवन में एक तरह की शक्ति आएगी। रजस में जीवन लगाने पर किसी अन्य तरीके से शक्तिशाली होंगे और सत्व में जीवन लगाने पर बिल्कुल अलग तरीके से शक्तिशाली बनेंगे। लेकिन, अगर हम इन सबसे परे चले जाएं तो फिर शक्तिशाली बनने की बात नहीं होगी, बल्कि हम मुक्ति की ओर चले जाएंगे। नवरात्र के बाद दसवां यानी अंतिम दिन दशहरा यानी विजयादशमी का होता है। इसके मायने हुए कि हमने इन तीनों पर विजय पा ली। इनमें से किसी के भी आगे घुटने नहीं टेके, बल्कि हर गुण के आर-पार देखा। हर गुण में भागीदारी निभाई, लेकिन अपना जीवन किसी गुण को समर्पित नहीं किया। अर्थात सभी गुणों को जीत लिया। यही विजयादशमी है। इसका संदेश यह है कि जीवन की हर महत्वपूर्ण वस्तु के प्रति अहोभाव और कृतज्ञता का भाव रखने से ही कामयाबी एवं विजय का वरण होता है। सरल शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि दशहरे का उत्सव शक्ति और शक्ति के समन्वय का उत्सव है। नवरात्र के नौ दिन मां भगवती की उपासना कर शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है। इस दृष्टि से दशहरा यानी विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव आवश्यक भी है।



जहां विजय, वहीं विजयादशमी

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श्रीवाराह पुराणÓ में कहा गया है कि ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन बुधवार को हस्त नक्षत्र में समस्त नदियों में श्रेष्ठ गंगा नदी धरा पर अवतीर्ण हुई थी, जो दस पापों को नष्ट करने वाली है। इसीलिए इस तिथि को दशहरा कहते हैं। रावण के दस शीश थे और इसी दिन उसका हनन हुआ था, इसलिए भी यह त्योहार दशहरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ और वर्षा ऋतु की समाप्ति एवं शरद ऋतु के आगमन पर आश्विन शुक्ल दशमी को मनाया जाने लगा। दशहरा मनाने की परंपरा युगों से चली आ रही है। त्रेतायुग में श्रीराम ने लंकापति रावण का वध कर विजय का वरण किया था, इसलिए इसे विजयादशमी नाम से भी जाना जाता है। पुराणों में यह भी उल्लेख है कि विजयादशमी के दिन देवराज इंद्र ने महादानव वृत्तासुर पर विजय प्राप्त की थी। पांडवों ने भी विजयादशमी के दिन ही द्रौपदी का वरण किया। महाभारत के युद्ध का आरंभ भी विजयादशमी के दिन से ही माना जाता है। 'ज्योतिर्निबंधÓ नामक ग्रंथ में लिखा है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय 'विजयÓ नामक मुहूर्त होता है, जो सर्वकार्य सिद्ध करने वाला माना गया है। इसीलिए इस त्योहार का नाम विजयादशमी पड़ा होगा। महर्षि भृगु ने कहा है कि इस दिन सभी राशियों में सायंकाल के समय विजय मुहूर्त में यात्रा करना उत्तम होता है, जो ग्यारहवां मुहूर्त है। जो जीत चाहते हैं, उन्हें इसी मुहूर्त में यात्रा करनी चाहिए। इसी तिथि को श्रीराम ने भगवती विजया का पूजन कर विजय प्राप्त की थी। इसीलिए इस दिन देवी विजया की पूजा परंपरा है। जिसकी वजह से इस त्योहार का नाम विजयादशमी पड़ा। 'चिंतामणिÓ नामक ग्रंथ में कहा गया है कि आश्विन शुक्ल दशमी के दिन तारों के उदय होने का जो समय है, उसका विजय से संबंध है, जो सारे काम और अर्थों को पूरा करने वाला है। 



वीरता के प्रादुर्भाव का दिन

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आश्विन शुक्ल दशमी को श्रीराम ने रावण तो देवी दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के बाद महिषासुर पर विजय की थी। दशहरा को दशहोरा भी कहते हैं, जिसके मायने हुए दसवीं तिथि। दशहरा वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियों में से एक है। अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल व कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा। इस दिन लोग शस्त्र-पूजा के साथ नया कार्य आरंभ करते हैं। मसलन अक्षर लेखन व नए उद्योग का आरंभ, बीज बोना आदि)। मान्यता है कि इस दिन जो कार्य आरंभ किया जाता है, उसमें विजय मिलती है। विजयादशमी को श्रीराम की विजय के रूप में मनाया जाए या दुर्गा पूजा के, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक एवं शौर्य की उपासक है। व्यक्ति एवं समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो, इसीलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। 















उत्सव की तरह है जीवन

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नवरात्र के नौ दिनों के प्रति या जीवन के हर पहलू के प्रति उत्सव एवं उमंग का नजरिया रखना और उसे उत्सव की तरह मनाना सबसे महत्वपूर्ण है। अगर हम जीवन में हर चीज को एक उत्सव के रूप में लेंगे तो बिना गंभीर हुए जीवन में पूरी तरह शामिल होना सीख जाएंगे। असल में ज्यादातर लोगों के साथ दिक्कत यह है कि वह जिस चीज को बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं, उसे लेकर हद से ज्यादा गंभीर हो जाते हैं। अगर उन्हें लगे कि वह चीज महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर उसके प्रति बिल्कुल लापरवाह हो जाएंगे और उसमें जरूरी भागीदारी भी नहीं दिखाएंगे। जीवन का रहस्य यही है कि हर चीज को बिना गंभीरता के देखा जाए, लेकिन उसमें पूरी तरह से भाग लिया जाए। बिल्कुल एक खेल की तरह।