महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण नौ हजार साल ईसा पूर्व से लेकर सात हजार साल ईसा पूर्व तक की मानी जाती है। यही कारण है रामलीला मंचन की शुरुआत के बारे में ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। हालांकि, दक्षिण-पूर्व एशिया में कई पुरातत्वशास्त्री और इतिहासकारों को ऐसे प्रमाण मिले हैं, जो साबित करते हैं कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का मंचन हो रहा था। जावा के सम्राट 'वलितुंगÓ के एक शिलालेख में ऐसे मंचन का उल्लेख है। यह शिलालेख 907 ईस्वी का है। इसी प्रकार थाईलैंड के राजा 'ब्रह्मत्रयीÓ के राजभवन की नियमावली में रामलीला का उल्लेख है, जिसकी तिथि 1458 ईस्वी है।
तुलसी के शिष्यों ने की थी पहली रामलीला
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दिनेश कुकरेती
भारत में भी रामलीला के ऐतिहासिक मंचन का ईसा पू्र्व में कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। लेकिन, 1500 ईस्वी में गोस्वामी तुलसीदास ने जब आम बोलचाल की भाषा 'अवधीÓ में श्रीराम के चरित्र को 'रामचरितमानसÓ में चित्रित किया तो इस महाकाव्य के माध्यम से देशभर, खासकर उत्तर भारत में रामलीला का मंचन किया जाने लगा। कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों ने शुरुआती रामलीला का मंचन काशी, चित्रकूट और अवध में किया। इतिहासविदों के अनुसार देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं सदी के आरंभ में हुई थी। इससे पहले राम बारात और रुक्मिणी विवाह के शास्त्र आधारित मंचन ही हुआ करते थे। वर्ष 1783 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने हर साल रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया।
चित्रकूट के मैदान में पहली रामलीला
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काशी में गंगा और गंगा के घाटों से दूर चित्रकूट मैदान में दुनिया की सबसे पुरानी मानी जाने वाली रामलीला का मंचन किया जाता है। मान्यता है कि यह रामलीला 500 साल पहले शुरू हुई थी। 16वीं शताब्दी में 80 वर्ष से भी अधिक की उम्र में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी भाषा में रामचरितमानस लिखी थी।
रामलीला के प्रकार
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मुखौटा रामलीला: मुखौटा रामलीला का मंचन इंडोनेशिया और मलेशिया में होता रहा है। इंडोनेशिया का 'लाखोनÓ, कंपूचिया का 'ल्खोनखोलÓ और म्यांमार का 'यामप्वेÓ, ऐसे कुछ स्थान हैं, जहां इसका आज भी मंचन होता है।
छाया रामलीला: जावा व मलेशिया में 'वेयांगÓ और थाईलैंड में 'नंगÓ ऐसी जगह है, जहां कठपुतली के माध्यम से छाया नाटक प्रदर्शित किया जाता है। विविधता और विचित्रता के कारण छाया नाटक के माध्यम से प्रदर्शित होने वाली रामलीला मुखौटा रामलीला से भी निराली है।
मूक अभिनय: यह संगीतबद्ध हास्य थियेटर है। इसमें रामलीला का सूत्रधार रामचरितमानस की चौपाई और दोहे गाकर सुनाता है और अन्य कलाकार बिना कुछ बोले रामायण की प्रमुख घटनाओं का मंचन करते हैं। इस शैली में रामलीला की झांकियां भी दिखाई जाती हैं और बाद में शहरभर में शोभायात्रा निकाली जाती है।
ओपेरा (संगीतबद्ध गायन) शैली: उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में यह शैली विकसित हुई। इस रामलीला की खासियत है कि इसके संवाद क्षेत्रीय भाषा में न होकर ब्रज और खड़ी बोली में ही गाए जाते हैं। इसके लिए संगीत की विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया जाता है।
रामलीला मंडली: मंडलियों के माध्यम से भी पेशेवर कलाकार रामलीला का मंचन करते हैं। स्टेज पर रामचरितमानस की स्थापना करके भगवान की वंदना होती है। इसमें सूत्रधार, जिसे व्यास भी कहा जाता है, रामलीला के पहले दिन की कथा सुनाता है और आगे होने वाली रामलीला का सार गाकर सुनाता है। ये कलाकार-मंडलियां भारत के कई राज्यों में रामलीला का मंचन करती हैं।
पौड़ी की रामलीला : विशिष्टता बनी विशेषता
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उत्तराखंड की रामलीलाओं में गढ़वाल मंडल मुख्यालय पौड़ी में होने वाली रामलीला का शीर्ष स्थान है। यूनेस्को की धरोहर बन चुकी यह ऐसी रामलीला है, जिसने विभिन्न संप्रदायों के लोगों को आपस में जोडऩे का काम तो किया ही, आजादी के बाद समाज में जागरुकता लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पारसी थियेटर शैली और राग-रागनियों पर आधारित इस रामलीला का वर्ष 1897 में पौड़ी में स्थानीय लोगों के प्रयास से कांडई गांव में पहली बार मंचन हुआ था। इसे वृहद स्वरूप देने का प्रयास वर्ष 1908 से भोलादत्त काला, अल्मोड़ा निवासी तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पूर्णचंद्र त्रिपाठी, क्षत्रिय वीर के संपादक कोतवाल सिंह नेगी व साहित्यकार तारादत्त गैरोला ने किया। विद्वतजनों के जुडऩे के कारण पौड़ी की रामलीला को एक नया स्वरूप मिला और आने वाले सालों में जहां रामलीला के मंचन में निरंतरता आई, वहीं इसमें अनेक विशिष्टताओं का समावेश होता भी चला गया। वर्ष 1943 तक पौड़ी में रामलीला का मंचन सात दिवसीय होता था, लेकिन फिर इसे शारदीय नवरात्र में आयोजित कर दशहरा के दिन रावण वध की परंपरा शुरू हुई।
शुरुआती दौर में रामलीला में प्रकाश व्यवस्था के लिए स्थानीय भीमल वृक्ष की लकड़ी (छिल्लों) का प्रयोग होता था। लेकिन, वर्ष 1930 में छिल्लों का स्थान पेट्रोमैक्स ने ले लिया। यह वह दौर था, जब गायन पक्ष में माइक के अभाव के कारण ऊंचे स्वर वाले गायकों को तरजीह दी जाती थी। यह पारसी थियेटर शैली का ही एक अंग है। वर्ष 1945 में नौटंकी शैली का स्थान पूरी तरह रंगमंच की पारसी शैली ने ले लिया। वर्ष 1957 में पौड़ी का विद्युतीकरण हुआ और रामलीला मंचन का स्वरूप भी निखरने लगा। धीरे-धीरे गीत नाट्य के जरिए इसके संगीत को विशुद्ध शास्त्रीयता से जोड़ा गया। स्क्रिप्ट में बागेश्री, विहाग, देश, दरबारी, मालकोस, जैजवंती, जौनपुरी जैसे प्रसिद्ध रागों पर आधारित रचनाओं का समावेश किया गया।
वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगरान के अनुसार रामलीला मंचन की एक विशेषता यह भी है कि इसमें गीतों के पद हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी, अवधी, ब्रज के अलावा अन्य देशज शब्दों की चौपाइयों में तैयार किए गए हैं। कुछ मार्मिक प्रसंगों की चौपाइयां ठेठ गढ़वाली में भी हैं। शब्द इतने सहज व आसान हैं कि गीतों के पद श्रोताओं तक सीधी लय बना लेते हैं। तब मंचन की जरूरी शर्त यानी संवाद की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। लोकरुचि के अनुसार इसमें समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। रावण के पात्र के रूप में किसी खूंखार राक्षसी चरित्र की बजाय एक आकर्षक, अभिमानी व बलशाली विद्वान का चित्रण, राम-लक्ष्मण-सीता के रूप में किशोरवय पात्र, जिनकी आवाज में गीतों के पद मधुरता की ऊंचाइयां छूने लगते हैं और कुछ प्रसंगों का नौटंकी शैली में प्रहसन के रूप में मंचन जैसी विशेषताएं इस रामलीला को अनूठा बनाती हैं। पूरे उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व करने वाली पौड़ी की रामलीला में हिंदुओं के साथ मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोग भी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करते रहे हैं। इनमें मोहम्मद सिद्दीक, सलारजंग, इलाहीबख्श हुसैन, हसीनन हुसैन व इमामउल्ला खां के साथ ईसाई समुदाय के विक्टर का नाम भी आदर से लिया जाता है। आज भी यह परंपरा अनवरत चली आ रही है। रामलीला का यह मंच अनेक कलाकार, संगीतकार, गायक और कवियों की साधनास्थली भी रहा है।
मन को छू जाता है पार्श्व गायन
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पौड़ी की रामलीला की एक विशिष्टता इसका पाश्र्व गायन भी है। पहले रामलीला मंचन में पात्र स्वयं गाकर अभिनय भी करते थे। पाश्र्व गायन से रंगमंच पर कलाकार के सामने आने वाली कतिपय समस्याओं से उसे छुटकारा मिला और कलाकार अभिनय पर अधिक ध्यान देने लगे। शुरू में प्रायोगिक तौर पर किए जाने वाले पाश्र्व गायन के साथ मंचन की गुणवत्ता में इजाफा होने पर आज कुछ पात्रों को छोड़ बाकी सभी के लिए पाश्र्व गायन किया जाता है।
दृश्य के अनुरूप लगते हैं सैट
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साठ के दशक से रामलीला के कलापक्ष पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। खासकर, मंचन के दौरान दृश्य के अनुरूप सेट लगाने पर। इस दौर में भगवंत सिंह नेगी का दृश्य संयोजन और मंच निर्माण में विशेष योगदान रहता था। शुरू में मंच लकड़ी का बनाया जाता था, लेकिन वर्ष 1993 में पौड़ी नगर पालिका ने उसी स्थान पर एक विशाल स्थायी मंच का निर्माण करा दिया। मंच के लिए रामलीला कमेटी को यह जमीन कांडई गांव के कोतवाल सिंह नेगी के परिवार ने दान में दी थी।
आरती में भावनृत्य का समावेश
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दृश्य के अनुरूप सेट लगाने के अनेक चर्चित अभिनव प्रयोगों में हनुमान का संजीवनी बूटी लाते समय हिमालय आकाश मार्ग से उड़ते हुए दिखाया जाना काफी लोकप्रिय हुआ। आज रामलीला में जितना महत्वपूर्ण इसका संगीत पक्ष है, उतना ही इसका कला पक्ष भी। कलापक्ष में ही आरती के दृश्य के साथ भावनृत्य भी आज पौड़ी की रामलीला की खास विशेषता बन गई है।
सबसे पहले शामिल हुए महिला पात्र----------------------------
पूरे उत्तराखंड में पौड़ी की रामलीला को ही यह श्रेय जाता है कि उसने महिला पात्रों को रामलीला मंचन में सर्वप्रथम शामिल किया। वर्ष 2002 में पहली बार यह प्रयोग किया गया, जो लोगों को इस कदर भाया कि आज सभी महिला पात्रों को महिलाएं ही अभिनीत करती हैं।
जिंक ऑक्साइड की जगह पेन केक
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रामलीला मंचन में मेकअप हमेशा एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है। कम प्रकाश व्यवस्था के कारण विद्युतीकरण होने के बाद भी मेकअप में जिंक ऑक्साइड का प्रयोग किया जाता था। लेकिन, बाद के वर्षों में वीडियोग्राफी के प्रचलन में आने के बाद अब जिंक ऑक्साइड का स्थान पेन केक ने ले लिया है।
आस्था के साथ आजादी का उल्लास
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यह ऐसी रामलीला है, जिसमें स्वतंत्रता के गीत भी उल्लास के साथ गूंजते हैं। स्व.मथुरा प्रसाद डोभाल का आजादी के बाद लिखा गीत 'स्वतंत्र भारत पुण्य भूमि में, रामराज्य आयाÓ इसके साथ ही रामलीला मंच पर धार्मिक आस्था की तस्वीरों के साथ नेताजी सुभाषचंद्र बोस की तस्वीर लगाना साबित करता है कि उस जमाने में रामलीला से जुड़े लोगों में आजादी के प्रति कितना जुनून रहा होगा।
निष्ठा एवं लगन की प्रतिमूर्ति
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इस ऐतिहासिक रामलीला को वर्तमान मुकाम तक पहुंचाने में कई लोगों का योगदान रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी पूरी निष्ठा एवं लगन से काम करने वाले इन लोगों में नरेंद्र सिंह भंडारी, दयासागर धस्माना, भूपेंद्र सिंह नेगी, नागमल सिंह नेगी, बच्ची सिंह, मोहन सिंह, ज्ञान विक्टर, मन्ना बाबू, सिताब सिंह कुंवर, सत्य प्रसाद काला, भगवंत सिंह नेगी, मदन सिंह नेगी, अजय नेगी, पूर्णचंद थपलियाल, सुंदर सिंह नेगी, नारायण दत्त थपलियाल, सुरेशचंद्र थपलियाल, उमाकांत थपलियाल, चिरंजीलाल शाह, मदनमोहन शाह, पीतांबर बहुखंडी शंकर सिंह नेगी, महिताब सिंह रावत, तारीलाल शाह, मथुराप्रसाद डोभाल आदि प्रमुख हैं।
ऐसे बनी यूनेस्को की धरोहर------------------------------
पौड़ी की इस ऐतिहासिक रामलीला को अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी परखा गया है। कुछ वर्ष पूर्व यूनेस्को की ओर से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से जुड़ी तमाम विधाओं के संरक्षण की योजना बनाई गई। इसके तहत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली ने देशभर में रामलीलाओं पर शोध किया। फरवरी 2008 में केंद्र ने पौड़ी की रामलीला का दस्तावेजीकरण किया और साबित हुआ कि यह ऐतिहासिक धरोहर है। खुद यूनेस्को ने उसे यह मान्यता प्रदान की है।निश्चित रूप में एक सांस्कृतिक दस्तावेज के तौर पर इस रामलीला का देश की विरासत में शामिल होना किसी भी परिपाटी के लिए गौरव की बात है।
दादर व कहरुवा के गीत, तबले की गमक
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उत्तराखंड की रामलीलाओं में कुमाऊं अंचल की गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत होने वाली रामलीला का विशेष स्थान है। पूर्व में विशुद्ध मौखिक परंपरा पर आधारित यह रामलीला पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। कुमाऊं में रामलीला मंचन की शुरुआत 18वीं सदी के मध्यकाल के बाद हो चुकी थी। बताते हैं कि कुमाऊं में पहली रामलीला तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर स्व. देवीदत्त जोशी के सहयोग से 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मंदिर में हुई। वर्ष 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पं.उदय शंकर ने छायाचित्रों के माध्यम से अल्मोड़ा नगर की रामलीला में नयापन लाने का प्रयास किया। हालांकि, यह रामलीला यहां की परंपरागत लीला से कई मायनों में भिन्न थी, लेकिन उनके छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की छाप यहां की रामलीला पर साफ दिखती है।
दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के रिसर्च एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी बताते हैं कि कुमाऊं की रामलीला में बोले जाने वाले संवाद, धुन, लय, ताल व सुरों में एक तरफ पारसी थियेटर की छाप है, तो दूसरी ओर ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। संवादों को आकर्षक व प्रभावी बनाने के लिए कहीं-कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू गजल का सम्मिश्रण भी हुआ है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में ज्यादातर कुमाऊंनी शैली का प्रयोग किया जाता है। रामलीला के गेय संवादों में प्रयुक्त गीत दादर, कहरुवा, चांचर व रूपक तालों में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमक के बीच पात्रों का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादों में रामचरित मानस के दोहों व चौपाईयों के अलावा कई जगह गद्य रूप में संवादों का प्रयोग होता है। यहां की रामलीला में वाचक अभिनय अधिक होता है, जिसमें पात्र एक ही स्थान पर खड़े होकर हाव-भाव प्रदर्शित कर गायन करते हैं। मंचन के दौरान नेपथ्य से गायन भी होता है। विविध दृश्यों में आकाशवाणी की उद्घोषणा भी की जाती है। रामलीला शुरू होने से पूर्व सामूहिक स्वर में राम वंदना का गायन किया जाता है। कुमाऊं की रामलीला की एक अन्य खासियत यह भी है कि इसमें अभिनय करने वाले सभी पात्र पुरुष होते हैं। हालांकि, अब कुछ जगह की रामलीलाओं में कोरस गायन व नृत्य के अलावा कुछ महिला पात्रों में लड़कियों को भी शामिल किया जाने लगा है।
कुमाऊं अंचल में रामलीला मंचन की तैयारियां अमूमन जन्माष्टमी के दिन से शुरू हो जाती हैं। लकड़ी के खंभों व तख्तों से मंच तैयार होता है। कुछ स्थानों पर तो अब स्थायी मंच भी बन गए हैं। शारदीय नवरात्र के पहले दिन से रामलीला का मंचन शुरू होता है, जो दशहरा अथवा उसके एक-दो दिन बाद तक चलता है। संपूर्ण रामलीला में तकरीबन साठ से अधिक पात्र अभिनय करते हैं। यहां की रामलीला में प्रयुक्त पर्दे, वस्त्र, शृंगार सामग्री व आभषूण अमूमन मथुरा शैली के होते हैं।
कुमाऊं में रामलीला मंचन की यह परंपरा अल्मोड़ा से विकसित होकर बाद में आसपास के अनेक स्थानों में चलन में आई। आज भी अल्मोड़ा नगर में लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) की रामलीला का आकर्षण कुछ अलग ही होता है। दशहरे के दिन नगर में रावण परिवार के डेढ़ दर्जन के करीब आकर्षक पुतलों को पूरे बाजार में घुमाया जाता है।
कुमाऊं अंचल की रामलीला को आगे बढ़ाने में पं.रामदत्त जोशी, ज्योर्तिविद बद्रीदत्त जोशी, कुंदनलान साह, नंदकिशोर जोशी, बांकेलाल साह, ब्रजेंद्रलाल साह आदि का विशेष योगदान रहा है। ब्रजेंद्र लाल साह ने रामलीला में आंचलिक पुट लाने के लिए कुमांऊनी व गढ़वाली भाषा में भी उसे रूपांतरित किया था। वहीं, वर्तमान में लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) के शिवचरण पांडे व हल्द्वानी के डॉ. पंकज उप्रेती समेत तमाम व्यक्ति, रंगकर्मी व कलाकार यहां की समृद्ध एवं परंपरागत रामलीला को सहेजने व संवारने के कार्य में जुटे हुए हैं।
दून की रामलीला : गेय शैली से नाट्य शैली की ओर
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वैसे तो रामलीला का आयोजन पूरे देश में होता है, मगर हम यहां दून की रामलीला की बात करेंगे। गुरु द्रोणाचार्य की इस नगरी में कई रामलीला समितियों का जन्म हुआ, किंतु समय के साथ ये समितियां समाप्त होती चली गईं। वर्तमान में यहां गिनती की ही रामलीला समितियां अस्तित्व में हैं। इन्हीं में से एक है श्री रामलीला कला समिति। यही वो समिति है, जिसने देहरादून में रामलीला की नींव डाली। वर्ष 1868 में लाला जमुनादास भगत ने तब इस रामलीला समिति का गठन किया था, जब देश गुलामी की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ था। मूलरूप से देवगन, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) निवासी लाला जमुनादास भगत का परिवार 200 वर्ष पहले दून आया और यहीं का होकर रह गया। वर्ष 1850 में जन्मे लाला जमुनादास शुरू से आध्यात्मिक प्रकृति के थे। राम और कृष्ण की कहानियां सुनकर बड़े हुए जमुनादास बाल्यकाल से ही राम के चरित्र से प्रेरित थे। जब वह युवावस्था में पहुंचे तो उन्हें यह बात बहुत अखरी कि दून में कहीं भी ऐसा आयोजन नहीं होता, जो श्रीराम के चरित्र एवं उनकेजीवन से लोगों को परिचित कराए। इसके बाद उन्होंने दून में हर वर्ष आश्विन नवरात्र में रामलीला का आयोजन करने का निर्णय लिया। वर्ष 1868 में महज 18 वर्ष की आयु में कुछ दोस्तों के साथ उन्होंने रामलीला समिति बनाई, जिसे नाम दिया गया श्री रामलीला समिति। समिति के तत्वावधान में इसी वर्ष दून में पहली बार रामलीला का मंचन हुआ, जो 149 वर्षों से अनवरत जारी है। इस समिति की रामलीला नवरात्र के पहले दिन से शुरू होकर दशमी के बाद तीन-चार दिन तक चलती है।
रूप बदला, स्वरूप नहीं
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इस समिति को भी समय के साथ रामलीला में काफी कुछ बदलाव करना पड़ा। मगर, स्वरूप आज भी 1868 वाला ही है। समिति के संरक्षक एवं पूर्व अध्यक्ष रविंद्रनाथ मांगलिक अब 76 वर्ष के हो चले हैं। वह लाला जमुनादास भगत के पोते हैं और दस वर्ष की आयु से समिति में अपना योगदान दे रहे हैं। बकौल रविंद्रनाथ, 'जब मैंने होश संभाला, तब रामलीला में दोहों और चौपाइयों का प्रयोग होता था। कलाकार भी स्थानीय होते थे और दोहे-चौपाइयों को याद करने के लिए महीनों अभ्यास किया करते थे। संगीत पक्ष में तबला और हारमोनियम का ही मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता था।Ó कहते हैं, तमाम लोगों को दोहे-चौपाइयों का मतलब आसानी से समझ नहीं आता था। इसलिए हमने एक प्रयोग किया और दोहे-चौपाइयों की जगह डायलॉग्स ने ले ली। यानी रामलीला का मंचन गेय शैली की बजाय नाट्य शैली में होने लगा। बाकी मूल स्वरूप में कोई छेड़छाड़ नहीं की गई। मंचन के दौरान कलाकार शुद्धता और मर्यादा का पूरा ख्याल रखते हैं। पिछले कुछ सालों से योग्य स्थानीय कलाकार नहीं मिल पा रहे हैं, इसलिए मथुरा-वृंदावन से पेशेवर कलाकार बुलाने पड़ते हैं।
तालाब में लंका दहन
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इस रामलीला की दो बातें बड़ी ऐतिहासिक हैं। पहली यह कि राम शोभायात्रा का शुभारंभ आज भी शिवाजी धर्मशाला से होता है। दूसरी, समिति पिछले करीब सौ साल से झंडा बाजार स्थित तालाब में लंका दहन का आयोजन करती आ रही है। जो इस रामलीला का प्रमुख आकर्षण है। यह तालाब दरबार साहिब के ठीक सामने स्थित है।
गढ़भाषा लीला रामायण
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चार अप्रैल 1977 को रेसकोर्स में गुणानंद 'पथिकÓ और साथियों ने 'गढ़ साहित्य संस्कृति विकास परिषदÓ की स्थापना की। इसका उद्देश्य गढ़वाली साहित्य-संस्कृति और गढ़वाली रामलीला प्रस्तुत करना था। रामलीला देहरादून के नगर निगम भवन में होती थी। इसमें पुतले नहीं जलाए जाते थे। वर्ष 1984 में इस रामलीला को उत्तरकाशी माघ मेले में आमंत्रित किया गया और 1990 में परिषद ने चिन्यालीसौड़ व ऋषिकेश में भी रामलीला की प्रस्तुति दी। इस रामलीला में प्रस्तुत की जाने वाली चौपाई और गीत गढ़वाली में होते थे, जिन्हें गाने के लिए विशेष धुन तैयार की गई थीं।