देहरादून में जीएमएस (जनरल महादेव सिंह) रोड पर घंटाघर से पांच किमी दूर पहाड़ी के ऊपर स्थापित 'वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थानÓ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग का एक स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान है। प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक प्रो. डीएन (दाराशा नौशेरवां) वाडिया की कल्पना को मूर्त रूप देते हुए अगस्त 1968 में केंद्र सरकार ने दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में इसकी स्थापना की थी। तब इसे 'हिमालय भूविज्ञान संस्थानÓ के नाम से जाना जाता था। मार्च 1976 में संस्थान को दिल्ली से देहरादून स्थानांतरित कर प्रो.वाडिया के नाम पर वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान नाम दे दिया गया। संस्थान हिमालय भूविज्ञान के क्षेत्र में बुनियादी अनुसंधान कार्य करता है। इसके अलावा यहां सीस्मो टेक्टोनिक्स, प्राकृतिक संसाधनों, पर्वत निर्माण की प्रक्रिया और जियो डायनामिक्स विकास में भी अनुसंधान किया जाता है। बीते वर्षों में संस्थान हिमालय भूविज्ञान के एक उत्कृष्ट केंद्र के रूप में विकसित हुआ है और इसे एक अंतरराष्ट्रीय ख्यातिनाम राष्ट्रीय प्रयोगशाला के रूप में मान्यता दी जा चुकी है। जहां देश में उन्नत स्तर का शोध निष्पादित करने के लिए आधुनिकतम उपकरणों और अन्य आधारभूत सुविधाओं से सुसज्जित प्रयोगशालाएं हैं। यहां न केवल पुस्तक और पत्रिकाओं का एक समृद्ध संग्रह है, बल्कि उत्तराखंड हिमनदों का एक अनोखा संग्रहालय भी स्थापित है। संस्थान का अपना शोध और प्रकाशन संस्थान भी है, जो मानचित्र, शोधपत्र, पुस्तकें आदि प्रकाशित करता है।
दून की शान वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान
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दिनेश कुकरेती
केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त संस्थान होने के कारण वाडिया संस्थान को शुरुआती दौर में कई मुश्किलों से भी जूझना पड़ा। हालांकि, अपनी क्षमता के बलबूते संस्थान आज भूंकपीय हलचल, ग्लेशियोलॉजी, रॉक स्टडी, पेलियो बॉटनी पर बखूबी शोध कार्यों को अंजाम दे रहा है। साथ ही चट्टानों का अध्ययन कर उनमें दबे जीवाश्मों का पता लगाना, पराग कणों की मदद से चट्टानों की उम्र मालूम करना, भूस्खलन संभावित क्षेत्रों का अध्ययन करना जैसे शोध कार्यों में भी संस्थान के वैज्ञानिक तल्लीनता से जुटे हैं।
देशभर में संस्थान के 38 जीपीएस केंद्र
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संस्थान की प्रयोगशाला में स्थापित स्कैनिंग इलेक्ट्रॉनिक माइक्रोस्कोप की सहायता से किसी भी कण या पदार्थ को 50 गुणा बड़े आकार में देखा जा सकता है। सूक्ष्म जीवाष्म व परागकणों के अध्ययन को अत्याधिक क्षमता वाला माइक्रोस्कोप और रमन स्पेक्ट्रोस्कोप भी प्रयोगशाला में स्थापित है। वहीं, हिमालय के खिसकने की रफ्तार और उसकी दिशा के आकलन को देशभर में संस्थान के 38 जीपीएस केंद्र भी स्थापित हैं। यह सभी केंद्र सेटेलाइट से जुड़े हैं।
स्थापित की उन्नत भूकंप वेधशाला
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टिहरी के घुत्तू में संस्थान की भूकंप वेधशाला है। यह एशिया की पहली प्रयोगशाला है, जहां पर धरती से उठने वाली न्यूनतम तीव्रता की तरंगों को भी आसानी से रिकॉर्ड किया जा सकता है।
प्रो. दाराशा नौशेरवां वाडिया
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प्रोफेसर दाराशा नौशेरवां वाडिया (25 अक्टूबर 1883 से 15 जून 1969) भारत के अग्रगण्य भूवैज्ञानिक रहे हैं। उन्हें भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण में कार्य करने वाले शुरुआती कुछ वैज्ञानिकों में शामिल होने का श्रेय जाता है। वाडिया को हिमालय की स्तरिकी (स्केल) पर विशेष कार्य के लिए जाना जाता है। उन्होंने भारत में भूवैज्ञानिक अध्ययन और अनुसंधान स्थापित करने में सहायता की। उनकी लिखी और वर्ष 1919 में पहली बार प्रकाशित पुस्तक 'भारत का भूविज्ञानÓ अब भी उपयोगी बनी हुई है।
भूकंप के साथ चंद्रकंप पर भी नजर
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कुछ वर्ष पूर्व जब चंद्रयान-दो के लॉन्चिंग की तैयारी हो रही थी, तब इसरो के एक शीर्ष अधिकारी वाडिया संस्थान में आए थे। दरअसल, इसरो चंद्रयान-दो के जरिये चांद पर चंद्रकंप का अध्ययन करना चाहता है। इसके लिए उसे ऐसे सिस्मोग्राफ की जरूरत थी, जिनका वजन बेहद न्यून हो। ताकि, चंद्रयान पर उसके भार का असर न पड़े। साथ ही इसरो यह भी चाहता था कि सिस्मोग्राफ न्यूनतम से लेकर उच्चतम फ्रीक्वेंसी पर काम करने वाले होने चाहिए। तब वाडिया के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. सुशील कुमार रोहेला ने उन्हें बताया कि संस्थान के पास जो सिस्मोग्राफ हैं, वह 0.003 से 50 हट्र्ज पर काम करते हैं। कम भार वाले सिस्मोग्राफ के लिए वाडिया ने उन्हें कुछ कंपनियों के नाम भी सुझाए थे। जो चंद्रयान-दो केलिए अलग से भी सिस्मोग्राफ तैयार कर सकती हैं।
पता लगाया कि कैसे विलुप्त हुई सिंधु सभ्यता
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वाडिया संस्थान के एक शोध में सिंधु घाटी की सभ्यता के दौरान पड़े भयंकर सूखे के कारण स्पष्ट किए गए हैं। शोध के अनुसार सूखे के चलते ही सिंधु घाटी की सभ्यता विलुप्त हुई। दरअसल, करीब आठ हजार वर्ष पुरानी सिंधु घाटी की सभ्यता अपने चरम पर पहुंचने के बाद आज से चार हजार से 2900 साल के बीच विलुप्त हो गई थी। इसके विलुप्त होने की एक बड़ी वजह बेहद कमजोर मानसून भी माना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार तब लगभग 1100 साल की अवधि में ऐसा सूखा पड़ा कि लोगों का जीवनयापन मुश्किल हो गया। क्योंकि, तब तक कृषि और पशुपालन जीवनयापन का जरिया बन चुका था। संस्थान के शोध में होलोसीन युग (दस हजार वर्ष पूर्व से सात हजार वर्ष पूर्व की अवधि) में मानसून की स्थिति का पता लगाया गया। इसके लिए वैज्ञानिकों ने लद्दाख स्थित सो मोरिरी (मोरिरी त्सो) झील की सतह पर पांच मीटर तक ड्रिल किया और अवसाद के तौर पर दो हजार सैंपल लिए गए। कॉर्बन डेटिंग से अवसाद की उम्र निकालने पर पता चला कि आज से 4000 से 2900 साल पहले की अवधि के अवसाद में चिकनी मिट्टी की मात्रा अधिक है। दरअसल, बालू अधिक हल्की होने के कारण कम पानी में भी आसानी से बह जाती है। जबकि, मिट्टी को बहाकर लाने के लिए बारिश भारी मात्रा में होनी जरूरी है। वहीं, होलोसीन युग के अवसाद में बालू की मात्रा अधिक पाई गई।
इससे निष्कर्ष निकला कि उस समय मानसून जबरदस्त था। इस कालखंड को रामायण काल के नाम से भी जाना जाता है। देश के मानसून ने आज से 2070 साल पहले से लेकर 1510 साल के बीच की अवधि में फिर जोर पकड़ा। हालांकि, यह जानकारी मंडी (हिमाचल प्रदेश) स्थित रिवालसर झील के अवसाद के अध्ययन से मिली। अवसाद के अध्ययन को झील में 15 मीटर की गहराई में ड्रिल कर 1500 सैंपल एकत्रित किए गए। इससे अवसाद की अवधि पता लगाने के साथ ही यह बात भी सामने आई कि अवसाद में बालू की मात्रा अधिक है। यानी इस अवधि में मानसून मजबूत स्थिति में था। इसे और पुख्ता प्रमाण बनाने के लिए आइसोटोपिक (समस्थानिक) अध्ययन भी किया गया।
छोटा, किंतु दुर्लभ पुस्तकालय
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संस्थान
में एक मध्यम आकारी विशिष्ट पुस्तकालय भी है, जिसमें हिमालय भूविज्ञान के
विशेष संदर्भ में, भूविज्ञान एवं पर्वत विरंचन प्रक्रमों पर पुस्तक,
मोनोग्राफ, जर्नल और संगोष्ठी-सम्मेलनों की कार्रवाई के करीब 28 हजार
शीर्षकों का एक विशिष्ट संग्रह उपलब्ध है। यहां प्रख्यात भू-वैज्ञानिकों की
पुस्तकें और अन्य प्रकाशन भी बड़ी संख्या में विद्यमान हैं। श्रीमती मेहर
वाडिया की प्रदान की गई प्रो.डीएन वाडिया की निजी पुस्तकों का संकलन भी
पुस्तकालय की अनमोल निधि है। इसमें अमेरिका व लंदन की भूवैज्ञानिक सोसायटी
के कुछ विरले प्रकाशन और जीएसआइ के पुराने शोध-निबंध शामिल हैं। पुस्तकालय
की ओर से भू-विज्ञान के क्षेत्र से संबद्ध 44 राष्ट्रीय व 79 अंतरराष्ट्रीय
वैज्ञानिक जर्नल मंगवाए जाते हैं।
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संस्थान में स्थापित छोटा-सा संग्रहालय भ्रमणकर्ताओं व संस्थान में आने वालों, विशेषकर विद्यालयी छात्रों में बेहद लोकप्रिय है। संग्रहालय की स्थापना का मूल उद्देश्य छात्रों व जनसाधारण को भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से अवगत कराने के साथ उनका ध्यान संस्थान की विशिष्ट उपलब्धियों की ओर आकृष्ट कराना भी है। संग्रहालय में रखा हिमालय का उच्चावच (एल्टीट्यूड) मॉडल और पर्यावरण पर मानवोद्भवी क्रियाकलापों का प्रभाव दर्शाने वाली पेंटिंग विशेष आकर्षण का केंद्र हैं। संग्रहालय में व्यर्थ पदार्थों का सदुपयोग कर पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता जिराफ की विलुप्त प्रजाति का एक नया डिस्प्ले तैयार किया गया है। जबकि संग्रहालय के प्रवेश द्वार पर भूवैज्ञानिक काल-पैमाना और विभिन्न युगों में जीव-रूपों को दर्शाने वाली एक भूवैज्ञानिक घड़ी मौजूद है।
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