Saturday 20 May 2023

चारधाम दर्शन के साथ प्रकृति से करीबी का एहसास

 


चारधाम दर्शन के साथ प्रकृति से करीबी का एहसास

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दिनेश कुकरेती
त्तराखंड हिमालय की चारधाम यात्रा के अनेक रंग हैं। यह यात्रा अध्यात्म की अनुभूति तो कराती ही है, प्रकृति और संस्कृति से अपनापा भी जोड़ती है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़, हरियाली से लकदक जंगल, हिमाच्छादित चोटियां, खूबसूरत नौले, ताल व बुग्याल, अथाह जलराशि लिए गहरी सर्पाकार घाटियों से आगे बढ़ती नदियां, मंद-मंद बहती शीतल पवन और लोकजीवन की मनोहारी झांकियां इस यात्रा को और भी रसमय बना देती हैं। पहाड़ी झरनों के शीतल-निर्मल जल के दो घूंट पी लेने मात्र से रास्तेभर की थकान काफूर हो जाती है। पारंपरिक व्यंजनों का कुदरती स्वाद तो ऐसा कि मन तृप्त हो जाए। हां! इतना जरूर ध्यान रखें कि जब आप चारधाम यात्रा पर आ रहे हों तो अपना यात्रा प्लान  ऐसा तैयार करें कि उसमें कुछ दिन प्रकृति के सानिध्य में गुजारने के लिए भी निकल जाएं। कहने का मतलब आपका न्यूनतम उत्तराखंड प्रवास कम से कम सप्ताहभर का तो होना ही चाहिए। लेकिन, अगर आप चारों धाम में दर्शन के इच्छुक हैं तो प्रवास की अवधि 12 से 15 दिन होनी आवश्यक है। यकीन जानिए, आपका यह उत्तराखंड प्रवास यादगार बन जाएगा। चलिए! करते हैं उन पर्यटन स्थलों का दीदार, जिनकी सैर आप चारधाम दर्शन के बाद लौटते हुए अवश्य करना चाहेंगे।


























राजाजी टाइगर रिजर्व का बहुरंगी संसार
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हमारी यात्रा का पहला पड़ाव है हरिद्वार। यहीं से चारधाम की आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है। हिमालय की कंदराओं से निकलकर गंगा यहीं सबसे पहले मैदान का स्पर्श करती है। निश्चित रूप से लंबे सफर के बाद आप काफी थक चुके होंगे, तो गंगा में डुबकी लगाना तो बनता है। अब करते हैं जंगल सफारी के लिए राजाजी टाइगर रिजर्व का रुख। एशियाई हाथी के लिए प्रसिद्ध हरिद्वार शहर से लगे इस पार्क में बाघ की तो अच्छी-खासी मौजूदगी है ही, अन्य प्रजाति के जीव-जंतुओं का भी यहां बाहुल्य है। विशेषकर झिलमिल झील क्षेत्र में बारहसिंगा का दीदार करना तो अलग ही अनुभूति कराता है।

चौरासी कुटी जैसी शांति और सुकून कहां
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हम अब तीर्थ नगरी ऋषिकेश की ओर बढ़ रहे हैं, जिसकी हरिद्वार से दूरी महज 30 किमी है। यहीं से अपनी चारधाम यात्रा की विधिवत शुरुआत भी करेंगे। ऋषिकेश में वैसे तो वीरभद्र, भरत मंदिर, स्वर्गाश्रम, गीता भवन, त्रिवेणीघाट, राम व लक्ष्मण झूला जैसे आत्मिक आनंद की अनुभूति कराने वाले दर्शनीय स्थल हैं, लेकिन इनमें सबसे खास है भावातीत ध्यान योग के प्रणेता महर्षि महेश योगी की विरासत चौरासी कुटी। महर्षि महेश योगी ने वर्ष 1961 में स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश) के पास वन विभाग से 15 एकड़ भूमि लीज पर लेकर यहां अद्भुत वास्तुशैली वाली चौरासी छोटी-छोटी कुटियों और सौ से अधिक गुफाओं का निर्माण कराया था। यकीन जानिए ध्यान-साधना के लिए इससे बेहतर स्थान आपको और कोई नहीं मिलेगा।
इतिहास, संस्कृति एवं परंपरा के दर्शन
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अब बढ़ते हैं चारधाम में प्रथम तीर्थ यमुनोत्री धाम की ओर। हमारी यात्रा का पहला पड़ाव है उत्तरकाशी जिले में स्थित बड़कोट कस्बा। ऋषिकेश से यहां पहुंचने के लिए हमें चंबा व धरासू होते हुए 169 किमी की दूरी सड़क मार्ग से तय करनी पड़ेती। जबकि, देहरादून से मसूरी होते हुए बड़कोट की दूरी महज 130 किमी है। बड़कोट के इर्द-गिर्द यमुना नदी के किनारे स्थित कई धार्मिक, ऐतिहासिक व रमणीक स्थल हैं। इनमें से लाखामंडल, थान गांव, गंगनाणी, तिलाड़ी मैदान, खरसाली, गुलाबीकांठा जैसे पर्यटन स्थलों की सैर हम आधे घंटे से लेकर दो घंटे तक में कर सकते हैं। बड़कोट से लाखामंडल 25 किमी, ऋषि जमदग्नि की तपस्थली थान गांव 11 किमी, गंगनाणी सात किमी, ऐतिहासिक तिलाड़ी मैदान 3.5 किमी, देवी यमुना का शीतकालीन प्रवास स्थल खरसाली गांव 45 किमी और गुलाबी कांठा 52 किमी की दूरी पर हैं। गुलाबी कांठा समुद्रतल से 12 हजार फीट की ऊंचाई पर आनंद की अनुभूति कराने वाला बुग्याल है। चारों ओर से बर्फ की चादर ओढ़े गगन चूमते शिखरों के बीच गुलाबी कांठा सम्मोहन बिखेरता प्रतीत होता है।


प्रकृति में खो जाने का एहसास
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यमुनोत्री दर्शन हो लिए। अब बढ़ते हैं यात्रा के दूसरा पड़ाव गंगोत्री धाम की ओर। इसके लिए हमें उत्तरकाशी पहुंचना पड़ेगा। यहां से गंगोत्री धाम सौ किमी की दूरी पर है। गंगोत्री धाम के आसपास तो प्रकृति ने खुले हाथों नेमतें बिखेरी हुई हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो हिमालय की धवल चोटियां अपने पास बुला रही हैं। ...तो बढ़ते हैं 19 किमी की दूरी पर स्थित भागीरथी (गंगा) के उद्गम गोमुख ग्लेशियर की ओर। बेहद रोमांचक पैदल ट्रेक है यह। गंगोत्री से 33 किमी दूर मां गंगा का शीतकालीन प्रवास स्थल मुखबा गांव है और मुखबा के पास ही मार्कंडेयपुरी। हां! अगर लंबे सफर के इच्छुक नहीं हैं तो नौ किमी दूर जाह्नवी व भागीरथी नदी के संगम पर स्थित भैरों घाटी, 20 किमी दूर हर्षिल कस्बे, 14 किमी दूर केदारताल, 25 किमी दूर नंदनवन, नौ किमी दूर चीड़बासा, 14 किमी दूर भोजबासा आदि मनोरम स्थलों की सैर भी कर सकते हैं। नंदनवन से तो आपका वापस लौटने का मन ही नहीं करेगा।


ऐतिहासिक गर्तांगली से गुजरने का रोमांच
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वैसे ऐतिहासिक गर्तांगली (चट्टान को काटकर लकड़ी से बनाया गया सीढ़ीनुमा मार्ग) भी बहुत दूर नहीं है। इसके लिए आपको गंगोत्री धाम से 12 किमी पहले लंका पहुंचना होगा। लंका से आधा किमी दूर भैरवघाटी का प्रसिद्ध मोटर पुल है। इस पुल से पहले बायीं ओर भैरवघाटी से नेलांग को जोड़ने वाला पारंपरिक पैदल ट्रेक है। भैरवघाटी पुल से दो किमी दूर जाड़ गंगा घाटी में गर्तांगली मौजूद है। वर्ष 1962 से पहले भारत-तिब्बत के बीच व्यापारिक गतिविधियों के संचालन को उत्तरकाशी पहुंचने का गर्तांगली ही एकमात्र मार्ग हुआ करता था। 17वीं सदी में पेशावर के पठानों ने चट्टान काटकर यह ऐतिहासिक मार्ग बनाया था। यहां से आगे चीन सीमा शुरू हो जाती है।

मन मोह लेने वाला वासुकी ताल
-----------------अब बढ़ते हैं तीसरे पड़ाव केदारनाथ धाम की ओर। इसके लिए हमें गौरीकुंड पहुंचना होगा। यहां से केदारनाथ तक 16 किमी का पैदल ट्रेक है, जो समुद्रतल से 11 हजार फीट की ऊंचाई तक से गुजरता है। आप ट्रेकिंग के शौकीन हैं तो धाम से तीन किमी ऊपर चौराबाड़ी ताल की सैर भी कर सकते हैं। यह वही झील है, जो जून 2013 में केदारघाटी की तबाही का कारण बनी थी। केदारनाथ धाम से ही आठ किमी दूर 13,563 की ऊंचाई पर मनोहारी वासुकी ताल मौजूद है, लेकिन यह ट्रेक बेहद कठिन है। हालांकि, प्रकृति के खूबसूरत नजारों के बीच से गुजरने का अनुभव थकान का एहसास तक नहीं होने देता। यहां तमाम दुर्लभ फूलों के साथ देव पुष्प ब्रह्मकमल की भरमार है। केदारनाथ से लौटते हुए वक्त मिले तो त्रियुगीनारायण की सैर आपकी यात्रा को यादगार बना देगी। सोनप्रयाग से 12 किमी की दूरी पर स्थित त्रियुगीनारायण गांव के बारे में मान्यता है कि यहीं भगवान शिव का देवी पार्वती के साथ विवाह संपन्न हुआ था।



भैरवनाथ मंदिर और रुद्र गुफा
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केदारनाथ धाम पहुंचकर 800 मीटर दूर पास की पहाड़ी पर स्थित भैरवनाथ मंदिर में दर्शन नहीं किए तो क्या किया। ...और कुछ वक्त ध्यान-साधना में गुजारना चाहते हैं तो केदारनाथ मंदिर से 800 मीटर दूर मंदाकिनी नदी के दूसरी ओर दुग्ध गंगा के पास पहाड़ी पर स्थित रुद्र गुफा आपके स्वागत को तैयार है। इसी गुफा में अपनी केदारनाथ यात्रा के दौरान 18 मई 2019 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी ध्यान लगाया था। गुफा में आपके आराम का भी ध्यान रखा गया है और खाने के लिए पहाड़ी व्यंजन भी आसानी से उपलब्ध हैं। वापसी में जब आप गुप्तकाशी पहुंचते हैं तो ठीक सामने दूसरी पहाड़ी पर एक छोटा-सा नगर ऊखीमठ नजर आता है। गुप्तकाशी से ऊखीमठ की सड़क दूरी महज 17 किमी है। समुद्रतल से 4328 फीट की ऊंचाई पर बसे इसी खूबसूरत नगर में स्थित है पंचगद्दी स्थल ओंकारेश्वर धाम। कपाट बंद होने के बाद भगवान केदारनाथ और द्वितीय केदार भगवान मध्यमेश्वर की शीतकालीन पूजा यहीं संपन्न होती है। इसलिए इसे शीत केदार के नाम से भी जाना जाता है। रुद्रप्रयाग जिले में स्थित इस मंदिर में पांचों केदार केदारनाथ, मध्यमेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ व कल्पेश्वर एक साथ दर्शन देते हैं।


मिनी स्विटजरलैंड चोपता
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ऊखीमठ आ ही गए हैं तो यहां से 48.3 किमी दूर मिनी स्विटजरलैंड नाम से प्रसिद्ध चोपता की सैर भी कर लीजिए। रुद्रप्रयाग जिले में समुद्रतल से 9500 फीट की ऊंचाई पर स्थित चोपता अपनी खूबसूरती के साथ पंचकेदार में सबसे ऊंचे शिव मंदिर तृतीय केदार तुंगनाथ धाम और चंद्रशिला ट्रेक के लिए भी प्रसिद्ध है। यहां आप स्कीइंग का आनंद लेने के साथ वन्यजीव अभयारण्य का भी दीदार कर सकते हैं। कस्तूरी मृग का दीदार भी इसी अभयारण्य में होता है।


औली और गौरसों बुग्याल की सैर
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अब हम यात्रा के अंतिम चरण में बदरीनाथ धाम की ओर बढ़ रहे हैं, जो जोशीमठ से महज 45 किमी की दूरी पर है। जोशीमठ अपने आप में एक खूबसूरत पर्यटन स्थल है। यहां से महज 14 किमी दूर विश्व प्रसिद्ध स्कीइंग स्थल औली के दीदार होते हैं। जोशीमठ से औली जाने के लिए 4.15 किमी लंबा रोपवे भी है, जो देवदार के घने जंगल के ऊपर से गुजरता है। औली आए हैं यहां से लगभग चार किमी ऊपर दस हजार फीट की ऊंचाई पर गौरसों बुग्याल जाना न भूलें। प्रकृति ने इस सैरगाह को बड़ी फुर्सत में संवारा है। बदरीनाथ धाम में दर्शन के साथ आप शेषनेत्र झील और बदरीश झील के किनारे भी कुछ वक्त अवश्य गुजारें। दोनों झील मंदिर के एक किमी के दायरे में हैं। बदरीनाथ धाम के पास ही एक किमी की दूरी पर नंदा देवी का मायका बामणी गांव बसा हुआ है। यहां देवी उर्वशी और भगवान नारायण की जन्म स्थली लीलाढुंगी के दर्शन आपकी यात्रा का यादगार बना देंगे।


चीन सीमा पर बसा देश का प्रथम गांव
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बदरीनाथ से लगभग तीन किमी दूर भगवान नारायण की माता देवी मूर्ति का छोटा-सा मंदिर है। भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को यहां भगवान नारायण के प्रतिनिधि उद्धवजी का माता मूर्ति से मिलन भाव विह्वल कर देने वाला दृश्य साकार करता है। बदरीनाथ धाम से तीन किमी आगे चीन सीमा की ओर देश का प्रथम गांव माणा बसा हुआ है। इस खूबसूरत गांव में भोटिया जनजाति के परिवार रहते हैं, जो बदरीनाथ धाम के हक-हकूकधारी भी हैं। यहां औषधीय जड़ी-बूटियां बहुतायत में मिलती हैं। माणा में भेड़ की ऊन से हथकरघा पर तरह-तरह के पारंपरिक वस्त्र तैयार होते हैं। इसके अलावा यह गांव आलू व राजमा की खेती के लिए भी प्रसिद्ध है। शीतकाल में भगवान बदरी नारायण को इसी गांव की कुंवारी कन्याओं का तैयार किया हुआ ऊन का कंबल ओढ़ाया जाता है।
भीमपुल के साथ वसुधारा की सैर
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माणा गांव के पास महाभारतकालीन एक पुल भी मौजूद है, जिसे भीम पुल कहते हैं। मान्यता है कि जब पांडव इस गांव से होते हुए स्वर्ग जा रहे थे तो रास्ते में सरस्वती नदी पड़ी, जिसे पार करने को भीम ने दो बड़ी-बड़ी चट्टान उठाकर नदी के ऊपर रखकर आगे के लिए रास्ता बनाया। माणा का संबंध भगवान गणेश से है। कहते हैं कि महर्षि वेदव्यास से सुनकर भगवान गणेश ने यहां एक गुफा में महाभारत महाकाव्य की रचना की थी। माणा गांव के उत्तर में गणेश गुफा, माणा गांव के ऊपर 200 मीटर की दूरी पर व्यास गुफा और बदरीनाथ से एक किमी दूर नारायण पर्वत पर भृगु गुफा मौजूद है। माणा गांव से आठ किमी दूर 122 मीटर ऊंचा जल प्रपात है, जिसे वसुधारा नाम से जाना जाता है। वसुधारा के फेन से उड़ते जल के छींटे जब तन पर पड़ते हैं तो सारे सफर की थकान पलभर में उड़नछू हो जाती है।



मौसम
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चारधाम यात्रा मार्ग पर उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग व चमोली जिले में पड़ने वाले अधिकांश तीर्थ एवं पर्यटन स्थल सात हजार से लेकर 12 हजार फीट तक की ऊंचाई पर स्थित हैं। यहां मौसम पल-पल रंग बदलता रहता है और कभी भी वर्षा और बर्फबारी होने लगती है। ऐसे में न्यूनतम तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस से नीचे चले जाना सामान्य बात है। इसलिए इन स्थानों की सैर करने का मन है तो गर्म कपड़े, जरूरी दवाइयां व पोर्टेबल आक्सीजन सिलेंडर साथ लेकर ही आएं। यात्रा करने से पूर्व स्वास्थ्य की जांच भी अवश्य करा लें।


खाने-ठहरने की सुविधा
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केदारनाथ धाम के ऊपर चौराबाड़ी ताल व वासुकी ताल को छोड़कर हर तीर्थ व पर्यटन स्थल पर खाने-ठहरने की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध है। आप यहां पारंपरिक भोजन- जैसे मंडुवे की रोटी, हरा नमक, तिल, भट व भांग की चटनी, आलू के गुटके, पहाड़ी राजमा, उड़द व कुलथ की दाल, आलू का थिंचोंणी, फाणू, चैंसू, कंडाली का साग, झंगोरे की खीर, झंगोरे का भात, पिंडालू (अरबी के पत्ते) के पत्यूड़, ताजा मक्खन के साथ कुलथ की दाल के भरवां परांठे, दाल के पकौड़े, रोट, अरसा आदि का जायका ले सकते हैं। अन्य प्रांतों के व्यंजन भी अधिकतर स्थानों पर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। 

Wednesday 17 May 2023

जॉर्ज एवरेस्ट : मसूरी में रहकर मापी थी एवरेस्ट की ऊंचाई

 


जॉर्ज एवरेस्ट : मसूरी में रहकर मापी थी एवरेस्ट की ऊंचाई 

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दिनेश कुकरेती

पको मालूम है कि जिन सर जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर दुनिया की सबसे ऊंची चोटी का नाम 'माउंट एवरेस्टÓ रखा गया, उन्होंने जीवन का एक लंबा अर्सा पहाड़ों की रानी मसूरी में गुजारा था। वेल्स के इस सर्वेयर एवं जियोग्राफर ने ही पहली बार एवरेस्ट की सही ऊंचाई और लोकेशन बताई थी। इसलिए ब्रिटिश सर्वेक्षक एंड्रयू वॉ की सिफारिश पर वर्ष 1865 में इस शिखर का नामकरण उनके नाम पर हुआ। इससे पहले इस चोटी को 'पीक-15' नाम से जाना जाता था। जबकि, तिब्बती लोग इसे 'चोमोलुंग्मा' और नेपाली 'सागरमाथा' कहते थे। मसूरी स्थित सर जॉर्ज एवरेस्ट के घर और प्रयोगशाला में ही वर्ष 1832 से 1843 के बीच भारत की कई ऊंची चोटियों की खोज हुई और उन्हें मानचित्र पर उकेरा गया। जॉर्ज वर्ष 1830 से 1843 तक भारत के सर्वेयर जनरल रहे। 



पार्क एस्टेट मसूरी में है जॉर्ज का घर

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सर जॉर्ज एवरेस्ट का घर और प्रयोगशाला मसूरी में पार्क रोड में स्थित है, जो गांधी चौक लाइब्रेरी बाजार से लगभग छह किमी की दूरी पर पार्क एस्टेट में स्थित है। इस घर और प्रयोगशाला का निर्माण वर्ष 1832 में हुआ था। जिसे अब सर जॉर्ज एवरेस्ट हाउस एंड लेबोरेटरी या पार्क हाउस नाम से जाना जाता है। यह ऐसे स्थान पर है, जहां दूनघाटी, अगलाड़ नदी और बर्फ से ढकी चोटियों का मनोहारी नजारा दिखाई देता है। जॉर्ज एवरेस्ट का यह घर अब ऑर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की देख-रेख में है। यहां आवासीय परिसर में बने पानी के भूमिगत रिजर्व वायर आज भी कौतुहल बने हुए हैं। इस एतिहासिक धरोहर को निहारने हर साल बड़ी तादाद में पर्यटक यहां पहुंचते हैं।  

रॉयल आर्टिलरी के प्रशिक्षित कैडेट थे जॉर्ज

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सर जॉर्ज एवरेस्ट का जन्म चार जुलाई 1790 को क्रिकवेल (यूनाइटेड किंगडम) में पीटर एवरेस्ट व एलिजाबेथ एवरेस्ट के घर हुआ था। इस प्रतिभावान युवक ने रॉयल आर्टिलरी में कैडेट के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त किया। इनकी कार्यशैली और प्रतिभा को देखते हुए वर्ष 1806 में इन्हें भारत भेज दिया गया। यहां इन्हें कोलकाता और बनारस के मध्य संचार व्यवस्था कायम करने के लिए टेलीग्राफ को स्थापित और संचालित करने का दायित्व सौंपा गया। कार्य के प्रति लगन एवं कुछ नया कर दिखाने की प्रवृत्ति ने इनके लिए प्रगति के द्वार खोल दिए। वर्ष 1816 में जॉर्ज जावा के गवर्नर सर स्टैमफोर्ड रैफल्स के कहने पर इस द्वीप का सर्वेक्षण करने के लिए चले गए। यहां से वे वर्ष 1818 में भारत लौटे और यहां सर्वेयर जनरल लैंबटन के मुख्य सहायक के रूप में कार्य करने लगे। कुछ वर्ष काम करने के बाद जॉर्ज थोड़े दिनों के इंग्लैंड लौटे, ताकि वहां अपने सामने सर्वेक्षण के नए उपकरण तैयार करवाकर उन्हें भारत ला सकें। भारत लौटकर वे कोलकाता में रहे और सर्वेक्षण दलों के उपकरणों के कारखाने की व्यवस्था देखते रहे। वर्ष 1830 में जॉर्ज भारत के महासर्वेक्षक नियुक्त हुए।

अनेक चोटियों की मापी ऊंचाई

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वर्ष 1820 में दक्षिण अफ्रीका की समुद्री यात्रा के दौरान गंभीर ज्वर के प्रकोप से इनकी टांगों ने कार्य करना बंद कर दिया। ऐसे में उन्हें व्हील चेयर के माध्यम से ही कार्य संपादित करने के लिए ले जाया जाने लगा। लंबे इलाज के बाद वह चलने-फिरने की स्थिति में आ पाए। सर्वेक्षण की दिशा में नित्य अन्वेषण करके उन्होंने 20 इंच के थियोडोलाइट यंत्र का निर्माण किया। इस यंत्र के माध्यम से उन्होंने अनेक चोटियों की ऊंचाई मापी। वर्ष 1830 से 1843 के बीच वे भारत के सर्वेयर जनरल रहे। वर्ष 1862 में वे रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी के वाइस प्रेसिडेंट बने। अपने कार्यकाल में उन्होंने ऐसे उपकरण तैयार कराए, जिनसे सर्वे का सटीक आकलन किया जा सकता है। 

'चीफ कंप्यूटर' की रही अहम भूमिका

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उस दौर चोटियों की ऊंचाई की गणना के लिए कंप्यूटर नहीं होते थे। इसलिए तब गणना करने वाले व्यक्ति को ही कंप्यूटर कहा जाता था। 'पीक-15Ó की ऊंचाई की गणना में चीफ कंप्यूटर की भूमिका गणितज्ञ राधानाथ सिकदर ने ही निभाई थी। उनका काम सर्वेक्षण के दौरान जुटाए गए आंकड़ों का आकलन करना था। वे अपने काम में इतने माहिर थे कि उन्हें 'चीफ कंप्यूटरÓ का पद दे दिया गया था। अन्य चोटियों की ऊंचाई की गणना में भी उनकी अहम भूमिका रही।


लंदन के हाईड पार्क गार्डन स्थित घर में ली अंतिम सांस

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वर्ष 1847 में जॉर्ज ने भारत के मेरिडियल आर्क के दो वर्गों के मापन का लेखा-जोखा प्रकाशित किया। इसके लिए उन्हें रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ने पदक से नवाजा। बाद में उन्हें रॉयल एशियाटिक सोसायटी और रॉयल जियोग्राफिकल सोसायटी की फैलोशिप के लिए चुना गया। वर्ष 1854 में उन्हें कर्नल के रूप में पदोन्नति मिली। फरवरी 1861 में वे 'द ऑर्डर ऑफ द बाथ' के कमांडर नियुक्त हुए। मार्च 1861 में उन्हें 'नाइट बैचलर' बनाया गया। एक दिसंबर 1866 को लंदन के हाईड पार्क गार्डन स्थित घर में उन्होंने अंतिम सांस ली। उन्हें चर्च होव ब्राइटो के पास सेंट एंड्रयूज में दफनाया गया है।



जॉर्ज मसूरी में चाहते थे सर्वेक्षण का कार्यालय

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भारत सर्वेक्षण विभाग (सर्वे ऑफ इंडिया) एक केंद्रीय एजेंसी है, जिसका काम नक्शे बनाना और सर्वेक्षण करना है। इस एजेंसी की स्थापना जनवरी 1767 में ब्रिटिश इंडिया कंपनी के क्षेत्र को संघटित करने के लिए की गई थी। यह भारत सरकार के सबसे पुराने इंजीनियरिंग विभागों में से एक है। सर जॉर्ज के महासर्वेक्षक नियुक्त होने के बाद वर्ष 1832 में मसूरी भारत के महान त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण का केंद्र बन गया था। जॉर्ज एवरेस्ट मसूरी में ही भारत के सर्वेक्षण का नया कार्यालय चाहते थे। लेकिन, उनकी इच्छा अस्वीकार कर दी गई और इसे देहरादून में स्थापित किया गया।



आखिर सरकार ने ली इस ऐतिहासिक धरोहर की सुध

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मसूरी स्थित हाथीपांव पार्क रोड क्षेत्र के 172 एकड़ भूभाग में बने जॉर्ज एवरेस्ट हाउस (आवासीय परिसर) और इससे लगभग 50 मीटर दूरी पर स्थित प्रयोगशाला (आब्जरवेटरी) का जीर्णोद्धार कार्य शुरू होने से इस एतिहासिक स्थल के दिन बहुरने की उम्मीद जगी है। कई दशक से जॉर्ज एवरेस्ट हाउस के जीर्णोद्धार की मांग की जा रही थी, लेकिन इसकी हमेशा अनदेखी होती रही। नतीजा यह एतिहासिक धरोहर जीर्ण-शीर्ण हालत में पहुंच गई। बीते वर्ष पर्यटन विभाग की ओर से जॉर्ज एवरेस्ट हाउस समेत पूरे परिसर के जीर्णोद्धार और विकास की घोषणा की गई थी। इन दिनों यहां जीर्णोद्धार का कार्य प्रगति पर है। परिसर के पुश्तों को दुरुस्त किया जा रहा है, ताकि बरसात में भूमि का कटाव न होने पाए।

उत्तर भारत में सबसे पहले मसूरी पहुंची थी बिजली

उत्तर भारत में सबसे पहले मसूरी पहुंची थी बिजली
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जब दिल्ली, मुंबई व कोलकाता जैसे महानगरों में लोग चिमनी, ढिबरी, लालटेन व मशालें जलाकर घरों को रोशन किया करते थे, तब पहाड़ों की रानी मसूरी व देहरादून के कई इलाकों में बिजली के बल्ब जगमगाने लगे थे। ऐसा मसूरी के पास ग्लोगी में बनी उत्तर भारत की पहली एवं देश की दूसरी जल-विद्युत परियोजना के अस्तित्व में आने के कारण संभव हो पाया था। परियोजना वर्ष 1907 में बनकर तैयार हुई और फिर मसूरी विद्युत प्रकाश में जगमगा उठी। इस बिजलीघर से पहाड़ों की रानी मसूरी का बार्लोगंज और दूनघाटी का अनारवाला क्षेत्र आज भी रोशन है। दरअसल, ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने देश में जिन चार विद्युत गृहों की परिकल्पना की थी, उनमें मैसूर, दार्जिलिंग व चंबा (हिमाचल प्रदेश) के अलावा ग्लोगी परियोजना भी शामिल थी। 
 

कर्नल बेल की देख-रेख में तैयार हुआ था विद्युत गृह
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दिनेश कुकरेती
क्यारकुली व भट्टा गांव के ग्रामीणों की ओर से दान में दी गई जमीन पर वर्ष 1890 में ग्लोगी जल-विद्युत परियोजना पर काम शुरू हुआ था। यह स्थान मसूरी-देहरादून मार्ग पर भट्टा गांव से तीन किमी दूर है। परियोजना से बिजली उत्पादन की शुरुआत वर्ष 1907 में हुई। मसूरी नगर पालिका के तत्कालीन विद्युत इंजीनियर कर्नल बेल की देख-रेख में 600 से ज्यादा लोगों ने इस परियोजना पर काम किया था। तब परियोजना की लागत लगभग छह लाख रुपये तय की गई थी। इसमें तत्कालीन नॉर्थ-वेस्ट प्रोविसेंस अवध एंड आगरा शासन ने मसूरी नगर पालिका को 4.67 लाख रुपये का ऋण मुहैया कराया। जबकि, 1.33 लाख की धनराशि पालिका को अपने स्तर से उपलब्ध करनी थी। हालांकि, बाद में परियोजना की कुल लागत 7.50 लाख रुपये पहुंच गई।



बैलगाड़ी से ग्लोगी पहुंचाए गए टरबाइन व जनरेटर
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परियोजना का खाका नगर पालिका मसूरी के तत्कालीन इंजीनियर पी.बिलिंग हर्ट ने तैयार किया था। परियोजना के लिए विद्युत उत्पादन करने वाली टरबाइन लंदन से खरीदी गई। तब मसूरी के लिए सड़क नहीं थी, सो मजूदरों को मशीनें ग्लोगी पहुंचाने के लिए कष्टसाध्य परिश्रम करना पड़ा। सबसे पहले बड़े जनरेटर और संयंत्रों को बैलगाडिय़ों के जरिये परियोजना स्थल तक पहुंचाने के लिए गढ़ी डाकरा से कच्ची सड़क बनाने का निर्णय लिया गया। लेकिन, विस्तृत सर्वेक्षण के बाद इसमें अधिक धन और समय की बर्बादी को ध्यान में रखते हुए मशीनें वर्तमान देहरादून-मसूरी मोटर मार्ग से ग्लोगी पहुंचाई गई। तब यह बैलगाड़ी मार्ग हुआ करता था।



1907 में पूरा हुआ कार्य, 1909 में उद्घाटन
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वर्ष 1907 में परियोजना का कार्य पूरा हुआ और क्यारकुली व भट्टा में बने छोटे तालाबों से 16 इंची पाइप लाइनों के जरिये जलधाराओं ने इंग्लैंड में बनी दो विशालकाय टरबाइनों से विद्युत उत्पादन शुरू कर दिया। लेकिन, इसका विधिवत शुभारंभ 25 मई 1909 को किया गया।

पहली बार बल्ब को देखकर डर गए थे लोग
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मसूरी स्थित लाइब्रेरी में जिस दिन बिजली का पहला बल्ब जला, उस दिन ब्रिटेन का राष्ट्रीय गीत बजाकर खुशिया मनाई गईं। हालांकि, लोग तब बल्ब को देखकर डर रहे थे कि यह क्या बला है। लेकिन, तत्कालीन इंजीनियर ने बल्ब को अपने हाथ से पकड़कर लोगों को समझाया कि इससे उन्हें कोई खतरा नही है। इसके बाद मसूरी में अन्य स्थान भी बिजली से रोशन हुए और फिर देहरादून के लिए भी आपूर्ति की गई।



1933 में स्थापित हुई दो और इकाइयां
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वर्ष 1933 में विद्युत गृह की क्षमता 3000 किलोवाट करने के लिए एक-एक हजार किलोवाट की दो और इकाइयां स्थापित की गईं। जो आज भी मसूरी के बार्लोगंज और झड़ीपानी क्षेत्र को रोशन कर रही हैं। राज्य गठन के बाद से इसका संचालन उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड कर रहा है।

पानी के जहाजों से मुंबई और रेल से दून पहुंची मशीनें
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वर्ष 1900 में पहली बार देहरादून पहुंची रेल ने ग्लोगी जल-विद्युत परियोजना को गति देने में अहम भूमिका निभाई थी। इंग्लैंड से पानी के जहाजों के जरिये मुंबई पहुंची भारी मशीन और टरबाइनों को इस रेल से ही देहरादून पहुंचाया गया। यहां से बैलगाड़ी और श्रमिकों के कंधों पर इन मशीनों को पहाड़ी पर स्थित परियोजना स्थल तक पहुंचाया गया।



70 साल ग्लोगी बिजलीघर की मालिक रही मसूरी नगर पालिका
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नौ नवंबर 1912 में ग्लोगी विद्युत गृह ने देश में दूसरा बिजलीघर होने का गौरव हासिल किया। वर्ष 1920 तक मसूरी के अधिकांश बंगलों, होटलों और स्कूलों से लैंप उतार दिए गए और उनकी जगह बिजली के चमकदार बल्बों ने ले ली। मसूरी नगर पालिका पूरे 70 साल ग्लोगी बिजलीघर की मालिक रही। तब बिजली की आय से मसूरी नगर पालिका उत्तर प्रदेश की सबसे धनी नगर पालिका मानी जाती थी। वर्ष 1976 को उत्तर प्रदेश विद्युत परिषद ने बिजली घर सहित पालिका के समस्त विद्युत उपक्रम अधिग्रहीत कर लिए।

लंदन की विद्युत संबंधी कंपनी के विशेषज्ञ ने की थी सराहना
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ग्लोगी पावर हाउस उस दौर में कितना पावरफुल रहा होगा, इसका अनुमान लंदन स्थित इंग्लैंड की सबसे बड़ी विद्युत संबंधी कंपनी के विशेषज्ञ डॉ. जी.मार्शल के पत्र से लगाया जा सकता है। उन्होंने 19 दिसंबर 1912 को मसूरी पालिका के तत्कालीन अध्यक्ष ओकेडन यह पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने कहा था कि, 'ग्लोगी हिंदुस्तान का प्रथम जल-विद्युत गृह है, जो अतिरिक्त रूप से कई सौ हॉर्स पावर की रोपवे, ट्रॉम-वे और भारी मशीनों को चलाने की विशेष क्षमता रखता है।Ó

हर्ट ने 1898 में खींच लिया था परियोजना का खाका
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वर्ष 1898 में मसूरी नगर पालिका के तत्कालीन इंजीनियर पी.विलिंग हर्ट की जल-विद्युत परियोजना पर सौ पृष्ठों की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसमें  उन्होंने प्रस्तावित परियोजना का विस्तृत खाका खींचा था। इससे उस दौर में ऊर्जा विकास की समृद्ध तकनीकी का पता चलता है।


मसूरी के कब्रिस्तान में सोया है रानी झांसी का वकील

मसूरी के कब्रिस्तान में सोया है रानी झांसी का वकील
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दिनेश कुकरेती
पहाड़ों की रानी मसूरी में कैमल्स बैक रोड के कब्रिस्तान में स्वतंत्रता आंदोलन का एक ऐसा अंग्रेज सपूत भी दफन है, जिसने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ युद्ध में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया था। पेशे से वकील एवं पत्रकार इस आस्ट्रेलियन अंग्रेज ने अंग्रेजी हुकूमत द्वारा रानी झांसी के विरुद्ध लगाए गए झूठे आरोपों की ब्रिटिश अदालत में धज्जियां उड़ा दी थीं। वह जीवनपर्यंत भारतीय जनता की गुलामी व उत्पीडऩ के खिलाफ लड़ते रहे। इससे अंग्रेज हुक्मरान उनसे बेहद खफा रहते थे और अन्य भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की ही तरह उनका भी उत्पीडऩ किया करते थे।

सिर्फ 48 साल जिया आस्‍ट्रेलिया निवासी लैंग
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वाल्टर लेंग और एलिजाबेथ की संतान जॉन लैंग का जन्म 19 दिसंबर 1816 को सिडनी (आस्ट्रेलिया) में हुआ था। लेकिन, 20 अगस्त 1864 को 48 साल की अल्पायु में उन्होंने दुनिया-ए-फानी से रुखसत ली पहाड़ों की रानी मसूरी में। उनकी मौत संदेहास्पद परिस्थितियों में हुई थी। इसलिए 22 अगस्त 1864 को मसूरी पुलिस चौकी में उनकी हत्या की रिपोर्ट लिखाई गई। लेकिन, अंग्रेजी हुक्मरानों ने मामले की जांच को ही दबा दिया और उनकी मौत का रहस्य हमेशा रहस्य बनकर रह गया।

रस्किन ने खोजी कैमल्स बैक रोड के कब्रिस्तान में लैंग की कब्र
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जॉन लैंग वर्ष 1842 में भारत आ गए थे और यहां अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों की कानूनी मदद करने लगे। वर्ष 1861 में उन्होंने मसूरी में ही मारग्रेट वैटर से विवाह किया। कम ही लोग जानते हैं कि लैंग का नाम वर्ष 1964 में तब सुर्खियों में आया, जब प्रख्यात लेखक रस्किन बांड ने मसूरी की कैमल्स बैक रोड पर उनकी कब्र खोज निकाली। हालांकि, ऑस्ट्रेलिया में लैंग अपनी किताबों की वजह से पहले से लोकप्रिय थे, लेकिन भारत में उन्हें कम ही लोग जानते थे। बांड लिखते हैं, अक्सर लैंग का ऐतिहासिक जिक्र आता था, लेकिन यह पुष्ट नहीं था कि वह मसूरी में रहे थे। वर्ष 1964 में लैंग की सौवीं पुण्य तिथि पर ऑस्ट्रेलिया से एक परिचित ने उनसे जुड़े कुछ दस्तावेज भेजे थे। इसके बाद ही उन्होंने लैंग की कब्र की खोज शुरू की।

हिमालय के कद्रदान थे लैंग
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रस्किन बांड लिखते हैं, जॉन लैंग को हिमालय और इसकी शिवालिक श्रेणियों की सुंदरता काफी भाती थी। मेरठ में गर्मी की वजह से जब वह बीमार रहने लगे तो उन्होंने मसूरी का रुख किया और फिर यहीं गृहस्थी बसा ली। वह मसूरी में पिक्चर पैलेस के पास हिमालय क्लब में रहते थे। यहीं उन्होंने अंतिम सांस ली।

वर्ष 1830 में दे दिया गया था देश निकाला
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लैंग की प्रारंभिक शिक्षा सिडनी में हुई और वर्ष 1837 में उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी (इंग्लैंड) से बैरिस्टर की डिग्री हासिल की। फिर कुछ समय आस्ट्रेलिया में बिताने के बाद भारत आ गए। हालांकि, सिडनी विद्रोह में ब्रिटिश शासकों के खिलाफ आवाज उठाने पर उन्हें वर्ष 1830 में ही देश निकाला दे दिया गया था और वह इंग्लैंड चले गए थे। भारत आने के बाद वर्ष 1845 तक यहां विभिन्न क्षेत्रों में अंग्रेजों द्वारा गरीब भारतीयों पर थोपे गए मुकदमे लड़े।

आखिरी दम तक करते रहे अखबार 'मफसिलाइटÓ का प्रकाशन
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वर्ष 1845 में लैंग ने कोलकाता में 'मफसिलाइटÓ नाम से एक अखबार का प्रकाशन शुरू किया। बाद में इसका मेरठ से प्रकाशन किया गया, जिसे जीवन के अंतिम समय तक वह मसूरी से भी प्रकाशित करते रहे। इसके लिए उन्होंने मसूरी के कुलड़ी बाजार स्थित द एक्सचेंज बिल्डिंग परिसर में मफसिलाइट प्रिंटिंग प्रेस लगाई थी। अपने अखबार में वह अंग्रेजी हुकूमत की ज्यादतियों के खिलाफ लेख प्रकाशित करते थे। आज भी यह अखबार साप्ताहिक मफसिलाइट नाम से ङ्क्षहदी-अंगे्रजी, दोनों भाषाओं में प्रकाशित हो रहा है। इसके संपादक इतिहासकार जयप्रकाश उत्तराखंडी हैं और वही जॉन की याद में बनी एक समिति भी चलाते हैं।

1854 में रानी झांसी ने नियुक्त किया था लैंग को अपना वकील
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रानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र को तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत से मान्यता दिलाने का मुकदमा जॉन लैंग ने ही लड़ा था। इतिहासकार जयप्रकाश उत्तराखंडी लिखते हैं कि संतानविहीन शासकों का राज्य हड़पने के लिए भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की निगाहें झांसी पर भी टिकी थीं। वर्ष 1854 में रानी लक्ष्मी बाई ने जॉन लैंग को अपना मुकदमा लडऩे के लिए नियुक्त किया और मिलने के लिए झांसी बुलाया। ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ कोलकाता हाईकोर्ट में चले इस मुकदमे को लैंग हार गए। इसी बीच 1857 का गदर शुरू हो गया और 17 जून 1858 को अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मी बाई शहीद हो गईं। गदर असफल हो चुका था, सो इसी वर्ष लैंग भी मसूरी चले आए।

जब रानी ने लैंग से कहा 'मैं मेरी झांसी नहीं दूंगीÓ
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जॉन लैंग ने अपनी किताब  'वांडरिंग्स इन इंडियाÓ में लिखते हैं, बातचीत के दौरान रानी के गोद लिए हुए बेटे दामोदर ने अचानक रानी और मेरे बीच का पर्दा हटा दिया। जिससे रानी हैरान रह गई, हालांकि तब तक मैं रानी को देख चुका था। उन्होंने मुझसे कहा, 'मैं मेरी झांसी नहीं दूंगीÓ। मैं रानी को देख इतना प्रभावित हुआ कि खुद को नहीं रोक पाया और बोल बैठा, 'अगर गवर्नर जनरल भी आपको देखते तो थोड़ी देर के लिए खुद को भाग्यशाली मान बैठते, जैसे मैं मान रहा हूं। मैं विश्वास के साथ कह रहा हूं कि वो आप जैसी खूबसूरत रानी को झांसी वापस दे देते। हालांकि मेरी बात पर रानी ने बड़ी सधी हुई प्रतिक्रिया के साथ गरिमामयी ढंग से इस कॉम्प्लीमेंट को स्वीकार किया।Ó

 
रानी झांसी से रू-ब-रू होने वाले अकेले अंग्रेज थे लैंग
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जॉन लैंग अकेले अंग्रेज थे, जिन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से रू-ब-रू होने का सौभाग्य मिला था। लैंग लिखते हैं, 'रानी औसत कद, स्वस्थ, साधारण शरीर और कम आयु में बहुत सुंदर दिखने वाली गोल चेहरे वाली महिला थीं। उनकी आंखें काफी सुंदर और नाक की बनावट बेहद नाजुक थी। रंग बहुत गोरा नहीं, लेकिन श्यामलता से काफी बढिय़ा था। उनके शरीर पर कानों में ईयर रिंग के सिवा कोई जेवर नहीं था। वो बहुत अच्छी बुनाई की गई सफेद मलमल के कपड़े पहने हुई थीं। इस परिधान में उनके शरीर का रेखांकन काफी स्पष्ट था। वो वाकई बहुत सुंदर थीं। हां, जो चीज उनके व्यक्तित्व को बिगाड़ती थी, वह थी उनकी रुआंसी ध्वनि युक्त फटी आवाज। हालांकि, वो बेहद समझदार एवं प्रभावशाली महिला थीं

आस्ट्रेलिया के पहलेे उपन्यासकार थे लैंग
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लैंग सिर्फ वकील ही नहीं, एक लेखक और अपने दौर के नामी पत्रकार भी थे। ऑस्ट्रेलिया में जॉन लैंग को देश के पहले उपन्यासकार के तौर पर जाना जाता है। लैंग ने अंग्रेजी उपन्यास द वेदरबाइज, टू क्लेवर बाई हॉफ, टू मच अलाइक, द फोर्जर्स वाइफ, कैप्टन मैकडोनाल्ड, द सीक्रेट पुलिस, ट्रू स्टोरीज ऑफ द अर्ली डेज ऑफ ऑस्ट्रेलिया, द एक्स वाइफ, माई फ्रेंड्स वाइफ जैसे चर्चित उपन्यास लिखे। उनके निधन के बाद ये उपन्यास कई बार प्रकाशित हुए और पाठकों द्वारा पसंद किए जाते रहे।