Tuesday, 22 September 2020

देहरादून स्थित श्री गुरु राम राय दरबार साहिब : शिल्प का अद्भुत सम्मोहन

 
दरबार साहिब : शिल्प का अद्भुत सम्मोहन
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दिनेश कुकरेती
ऐतिहासिक श्री दरबार साहिब (झंडा साहिब) दून की पहचान ही नहीं, आन-बान-शान का भी प्रतीक है। बल्कि यूं कहें कि दरबार साहिब में दून की आत्मा बसती है तो अत्युक्ति न होगी। उदासीन परंपरा के गुरु राम राय महाराज ने धामावाला में दरबार साहिब की नींव डाली थी। यहां गुरुद्वारे का निर्माण वर्ष 1699 में शुरू हुआ और इसे वर्ष 1707 में उनकी पत्नी माता पंजाब कौर ने भव्य स्वरूप प्रदान किया। यह इमारत मुगल वास्तुकला की अनूठी प्रतिकृति है। ऊंची मीनारें और गोल बुर्ज मुगल वास्तुकला के ऐसे नमूने हैं, जो दून की शान-औ-शौकत में चार चांद लगाते हैं। गुरुद्वारे की सबसे खास बात इसके भित्ति चित्र हैं। मुगल लघु चित्रों, पंजाबी व राजस्थानी शैली और स्थानीय पहाड़ी शैली में उकेरे गए ये भित्ति चित्र हर किसी को सम्मोहित सा कर देते हैं। इन भित्ति चित्रों को बनाने का सिलसिला करीब सौ साल तक चलता रहा। यही वजह है कि पौराणिक चित्रों में जहां मुगल बादशाह औरंगजेब और उसके दरबार के चित्र हैं, तो बाद के चित्रों में ब्रिटिश हुकूमत का प्रभाव भी साफ झलकता है। माना जाता है कि देश में इतनी बड़ी तादाद में भित्ति चित्र और कहीं नहीं बचे हैं। खास बात यह कि कई चित्रों पर मुख्य शिल्पकार तुलसी राम का नाम हिंदी व उर्दू में तुलसीराम मिस्त्री तस्वीर बनाने वाला खुदा हुआ है। 

कांगड़ा-गुलेर और मुगल शैली का अनूठा दरबार
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श्री दरबार साहिब में गुरुद्वारा किलेनुमा प्राचीर के अंदर है। इसके चारों ओर प्रवेश द्वार खुलते हैं। उनके ऊपर मीनारें बनी हैं। पश्चिमी छोर पर विशाल फाटक के सामने सफेद सीढ़ीनुमा गोल चबूतरा नजर आता है। इसी चबूतरे पर खड़ा है सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विजय का प्रतीक झंडा साहिब। गुरुद्वारा निर्माण की एक और विशिष्टता यह है कि इसकी छत पर कई कलश एवं कलश के ऊपर कलश का प्रयोग किया गया है। यह भव्य गुरुद्वारा श्वेत पत्थर तो तराशकर से बना है। चीड़ या देवदार की प्रचुर उपलब्धता के कारण परंपरागत रूप से इन लकडिय़ों का प्रयोग गुरुद्वारा निर्माण में किया गया है। दरवाजे व खिड़कियों पर लकडिय़ों का सुंदर प्रयोग हुआ है। लकड़ी पर बेहद खूबसूरत और बारीक नक्काशी की गई है। दरबार साहिब के मेहराबों पर फूल-पत्तियां, पशु-पक्षी, वृक्ष केचित्र अंकित हैं और उनकी रंग योजना कांगड़ा-गुलेर और मुगल शैली का मिश्रण है।

ऐसे हुआ देहरादून नामकरण
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श्री गुरु राम राय महाराज सातवीं पातशाही (सिखों के सातवें गुरु) श्री गुरु हर राय के पुत्र थे। छोटी सी उम्र में वैराग्य धारण करने के बाद गुरु राम राय संगतों के साथ भ्रमण पर निकल पड़े। वर्ष 1675 में चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन उनकेकदम दून की धरती पर पड़े। जब वे खुड़बुड़ा के पास पहुंचे तो उनके घोड़े का पैर जमीन में धंस गया और उन्होंने संगत को वहीं डेरा डालने का आदेश दिया। मुगल बादशाह औरंगजेब श्री गुरु राम राय महाराज से बेहद प्रभावित था। जब उसे पता चला कि गुरु राम राय दूनघाटी में आए हैं, तो उसने गढ़वाल के तत्कालीन राजा फतेह शाह को उनकी हरसंभव सहायता करने को कहा। आलमगीर औरगंजेब की आज्ञा से गढ़वाल के राजा फतेह शाह बाबा के लिए बहुमूल्य वस्तुएं भेंट लेकर स्वयं उपस्थित हुए। बाबा के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्होंने उनसे सदैव यहीं रहने की प्रार्थना की। साथ ही उन्हें तीन गांव खुड़बुड़ा, राजपुर व चामासारी दान में दिए। राजा की प्रार्थना को स्वीकार कर बाबा ने यहां डेरा स्थापित किया। बाद में राजा फतेह शाह के पोते प्रदीप शाह ने चार और गांव धामावाला, मियांवाला, पंडितवाड़ी व धर्तावाला गुरु महाराज को दिए। धामावाला में श्री गुरु राम राय के डेरा स्थापित करने पर इस स्थान के चारों ओर नगर आबाद हो गया और इस पवित्र भूमि को 'डेरा दूनÓ कहा जाने लगा। कालांतर में इसका अपभ्रंश 'देहरादूनÓ हो गया।

माता पंजाब कौर ने चलाई चेला प्रथा
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श्री गुरु राम राय महाराज जी की चार पत्नियां थीं। चार सितंबर 1687 को श्री गुरु रामराय महाराज परमात्मा का ध्यान करते हुए ब्रह्मलीन हो गए। तब उनकी सबसे छोटी पत्नी पंजाब कौर ने कार्यभार संभाला, लेकिन वह कभी महाराज की गद्दी पर नहीं बैठीं। उन्होंने पूरी उम्र दीन-दुखियों की सेवा में लगा दी। माता पंजाब कौर ने ही चेला प्रथा शुरू की और औद दास महाराज को श्रीमहंत नियुक्त किया। इसके बाद श्रीमहंत हर प्रसाद, श्रीमहंत हर सेवक, श्रीमहंत स्वरूप दास, श्रीमहंत प्रीतम दास, श्रीमहंत नारायण दास, श्रीमहंत प्रयाग दास, श्रीमहंत लक्ष्मण दास व श्रीमहंत इन्दिरेश चरण दास ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। वर्तमान में श्रीमहंत देवेंद्र दास गद्दीनसीन हैं।
 
कुमाऊंनी नथ में नूरजहां
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श्री दरबार साहिब में जहां पर झंडे जी विराजमान हैं, उसी अहाते के मुख्य द्वार पर नूरजहां को पहाड़ी नारी के रूप में दर्शाया गया है। लोक शैली पर आधारित इस चित्र में नूरजहां कुमाऊंनी नथ पहने हुए है। कला विशेषज्ञों का मानना है कि जहांगीर की सुंदर रानी का यह चित्र भारत में अनोखा है। इस भित्ति चित्र की दूसरी विशेषता यह है कि इसे एक उदासीन संप्रदाय के उपासना स्थल में स्थान दिया गया है। यह भारत की धार्मिक सहिष्णुता का बेहतरीन नमूना है। माना जाता है कि इस चित्र को नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल में बनवाया गया था। इसके अलावा झरोखों से एक-दूसरे को निहारते राधा-कृष्ण, भगवान गणेश को स्तनपान करातीं माता पार्वती जैसे न जाने कितने दुर्लभ चित्र श्री दरबार साहिब में देखे जा सकते हैं। गुरुद्वारे की दीवारों पर उकेरे गए मुगल, पंजाबी, राजस्थानी और पहाड़ी शैली के वृत्त व भित्ति चित्र मुगल साम्राज्य और दरबार साहिब की निकटता के प्रमाण हैं। गुरुद्वारे की दीवारों पर राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंगों को उद्धृत करते चित्र पूरे भारत में कहीं ओर देखने को नहीं मिलेंगे। हीर-रांझा, लैला-मजनू व कुछ अंग्रेजों के चित्रों को भी दरबार साहिब की दीवारों पर स्थान मिला है।

बारादरी शैली में बनी समाधियां
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दरबार साहिब परिसर में गुरु राम राय महाराज की समाधि के अलावा चार और समाधियां भी हैं, जिन्हें माता की समाधि कहा जाता है। यह समाधियां फूल और पशु-पक्षियों के चित्रों से समृद्ध है पर एक समाधि साधारण है। समाधियों का निर्माण बारादरी शैली में हुआ है। इन समाधियों को 1780 से 1817 तक पूर्ण किया गया, जैसा कि इन पर अंकित है। इन समाधियों का चित्रण पूर्ण होने में आधी शताब्दी से भी अधिक समय लगा पर कहीं भी कोई मूर्ति चित्रण नहीं है।
शीशे की परत में सुरक्षित रहेगा इतिहास
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चित्रकला विशेषज्ञ एवं भारतीय ललित कला अकादमी के तत्कालीन चेयरमैन प्रो. बीआर कांबोज लिखते हैं कि शुरुआती दौर के भित्ति चित्रों में जहां मुगल शैली साफ झलकती है, वहीं बाद में राजस्थानी और गढ़वाली शैलियों के चित्र भी बनाए गए। इनमें रामायण, महाभारत और कृष्ण लीला समेत अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाओं उकेरा गया है। इन चित्रों के महत्व और विशेषज्ञों की चिंता को देखते हुए एएसआइ की मदद से इनके संरक्षण की कवायद शुरू की गई है। इसके तहत इनके बाहर शीशे की परत चढ़ाने के साथ ही खराब होते चित्रों को बचाने की कोशिश हो रही है।


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