Sunday, 13 September 2020

कोटद्वार में है एक ऐसा स्‍थान जहां चकवर्ती सम्राट भरत का जन्‍म हुआ

कण्‍वाश्रम तब और अब
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दिनेश कुकरेती
केदारखंड क्षेत्र में मालिनी नदी के तट पर अवस्थित महर्षि कण्व के आश्रम पर कुछ कहने से पहले मैं डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के उस पत्र का उल्लेख करना जरूरी समझता हूं, जो उन्होंने चार अक्टूबर 1975 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को लिखा था। पत्र का मजमून कुछ यूं है- 'आदरणीय बहुगुणा जी, मैं 24 अक्टूबर 1971 को कोटद्वार के पास स्थित कण्वाश्रम देखने गया था। मेरे साथ पं.बनारसीदास चतुर्वेदी, नैथानी जी और अन्य अनेक साहित्यकार भी थे। बहुत ही सुंदर स्थान है। इसके साथ कालीदास के "अभिज्ञानशाकुंतलम" का संबंध है। मैं वस्तुत: उस स्थान पर जाकर अभिभूत होकर लौटा। मालिनी नदी का तट सचमुच कालीदास के वर्णन के अनुरूप शांत एवं मनोरम है। रास्ता ठीक है, पर बीच में नदी के बहाव की अस्थिरता के कारण थोड़ा ऊबड़-खाबड़ है, जो कालीदास के नतोन्नत भूमिभाग की याद दिला देता है। यह स्थान लोगों की जानकारी में बहुत कम आया है, टूरिस्ट विभाग इसका सदुपयोग कर सकता है। मेरी प्रार्थना है कि आप थोड़ा व्यक्तिगत रूप से इस पर ध्यान दें। आगे चलकर यह स्थान कालीदास समारोह के लिए बहुत ही उपयुक्त सिद्ध होगा। ... मेरे साथ उस दिन गढ़वाल और बिजनौर के अनेक साहित्यिक मित्र थे, सब में इस आश्रम के प्रति गहरी आत्मीयता दिखाई पडी़। ... मुझे विश्वास है कि आपका थोडा़ सा करावलंबन मिलने से यहां की जनता इस समारोह को स्वयं उत्साहपूर्वक अपना लेगी।Ó
मितरों, चार दशक के इस अंतराल में बहुत-कुछ बदल गया, लेकिन कण्वाश्रम के हालात कमोबेश वैसे ही हैं, जैसे द्विवेदी जी ने अपने पत्र में बयां किए थे। हां! तब संभावना और सोच दोनों ही थे, जबकि आज दोनों का नितांत अभाव दिखाई देता है। कण्वाश्रम का संरक्षण तो दूर, हम तो मालिनी सभ्यता के खंडहरों को भी सुरक्षित नहीं रखा पाए। जिन्हें देखकर ही डा. संपूर्णानंद ने कहा था, 'कण्वाश्रम दूसरे देशों में होता तो न जाने वहां क्या-क्या बन गया होता।Ó कण्वाश्रम की महानता का वर्णन 'स्कंधपुराणÓ, 'महाभारतÓ एवं महाकवि कालीदास के विश्वविख्यात नाटक 'शकुंतलाÓ में हुआ है। धार्मिक दृष्टि से भी देखें तो कण्वाश्रम का कालिदास के समय तक वही महत्व था, जो केदारनाथ एवं बदरीनाथ का है। पुराणों में उल्लेख है कि, 'बुद्धिमान मनुष्य को बदरीनाथ के पवित्र प्रदेश में कण्वाश्रम जाकर वहां विधिपूर्वक स्नान के बाद केदारनाथ जाना चाहिए और केदारनाथ में भलीभांति पूजन करने के उपरांत ही मंगलदायक बदरी विशाल के दर्शन करने चाहिएं।Ó हालांकि, कालांतर में यह महत्व जाता रहा, बावजूद इसके कुछ यात्रियों के 19वीं शताब्दी के अंत तक भी कण्वाश्रम से व्यासघाट (व्यासचट्टी) होते हुए बादरीनाथ जाने के प्रमाण मिलते हैं।

 यह जानकारी भी शायद ही वर्तमान पीढ़ी को होगी कि कण्वाश्रम विश्व का सर्वप्रथम विश्वविद्यालय रहा है, जिसके कुलपति महर्षि कण्व थे। इस विश्वविद्यालय में हजारों विद्यार्थी पढ़ते थे, जिन्हें गुरुकुल पद्धति से शिक्षा दी जाती थी। अपनी पुस्तक 'मालिनी सभ्यता के खंडहरÓ में अपने दौर के प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्र 'सत्यपथÓ के संपादक ललिता प्रसाद नैथानी लिखते हैं, 'शकुंतला और उनके पुत्र भरत (जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पडा़) इसी विश्वविद्यालय में पढ़े थे।Ó वेदों एवं महाभारत में भी उल्लेख है कि कण्वाश्रम एक विश्वविद्यालय था, जिसमें वेद-वेदांत और विविध दर्शनों की शिक्षा का विशेष प्रबंध था। इतिहासविद् डॉ. मदन चंद्र भट्ट का मत है कि तक्षशिला, वाराणसी व नालंदा से भी अधिक ख्यातिप्राप्त वैदिक विश्वविद्यालय कण्वाश्रम का पतन 13वीं शताब्दी में हुआ। हालांकि, महर्षि कण्व के बाद भी यह विश्वविद्यालय अस्तित्व में रहा, लेकिन जब वेदों के विरुद्ध बौद्धों का आंदोलन तेज हुआ तो अनुमान है कि कण्व विश्वविद्यालय पर भी इसका प्रहार हुआ। ऐसा जान पड़ता है कि तब बौद्धों ने मोरध्वज (कोटद्वार के समीप अवस्थित) को अपना केंद्र बनाया। भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक रहे कनिंघम ने भी इसे स्वीकारा है।


 डॉ. भट्ट लिखते हैं, 'कोटद्वार भाबर में प्रचलित ऋषि कण्व के जागर से ज्ञात होता है कि सतयुग में कोटद्वार के जंगल में मालन तट पर महर्षि कण्व ने तपस्या की और बाद में आश्रम बनाकर यहीं अपने शिष्यों को वेद एवं शास्त्रों की शिक्षा देने लगे । समिधा के लिए अरण्य में घूमते हुए एक बार महर्षि को ब्रह्मर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला मिली, जिसे उन्होंने अपनी दत्तक पुत्री बना लिया। एक बार कण्व उत्तरायणी के अवसर पर हरिद्वार गए थे। उनकी अनुपस्थिति में हस्तिनापुर का चंद्रवंशी राजा दुष्यंत आश्रम में आया और शकुंतला के साथ गंधर्व विवाह कर वापस चला गया। इस विवाह से चक्रवर्ती सम्राट भरत उत्पन्न हुआ, जो दुष्यंत के पश्चात हस्तिनापुर की गद्दी पर अभिषिक्त हुआ। भाबर के गांवों में गढ़वाली जनबोली में गाई जानेवाली ऋषि कण्व की यह गाथा कृष्णद्वैपायन व्यास रचित 'महाभारतÓ नामक महाकाव्य और महाकवि कालीदास रचित 'अभिज्ञानशाकुंतलमÓ नामक नाटक में वर्णित  कथानक से पर्याप्त साम्य रखती है। कोटद्वार की लोकपरंपराओं को ध्यान में रखते हुए चौकीघाटा में मालिनी नदी के बाएं तट पर वर्ष 1956 में वसंत पंचमी के दिन उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद की आज्ञा से पूर्व वनमंत्री जगमोहन सिंह नेगी ने आधुनिक कण्वाश्रम का शिलान्यास किया। साथ ही वहां महर्षि कण्व, शकुंतला, भरत आदि की संगमरमर की मूर्तियां स्थापित करवाईं। इसी दिन से यहां हर साल वसंत पंचमी के मौके पर बसंत मेला आयोजित किया जा रहा है।
मितरों! यही एकमात्र उपलब्धि है हमारे पास इतने सालों में कण्वाश्रम के नाम पर। हालांकि, समय-समय पर कायापलट की घोषणाएं होती रही हैं, लेकिन सबके पीछे अपने-अपने स्वार्थ थे, इसलिए नतीजा कुछ नहीं निकला। अफसोस तो इस बात का है कि उत्तराखंड बनने के बाद भी सरकारों ने इस ओर नहीं झांका। पर्यटन प्रदेश का सपना दिखाने के बावजूद। अन्यथा क्या वजह है कि आज भी कण्वाश्रम उत्तराखंड के पर्यटन मानचित्र में नहीं है। ...और तो छोडि़ए अस्थायी राजधानी देहरादून तक में लोग ठीक से कण्वाश्रम के बारे में नहीं जानते।

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