Tuesday 13 February 2018

मैंने समेटी हैं अनगिनत खुशियां

मैंने समेटी हैं अनगिनत खुशियां 
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दिनेश कुकरेती
मैंने विकास की गोद में प्रकृति को सिमटते देखा है। दून की खुशहाली को सिसकते देखा है। जी हां! तमाम उन गवाहों में मैं भी शामिल हूं, जिसने देहरादून की बदलती सूरत और रंगत को न सिर्फ करीब से देखा, बल्कि महसूस भी किया। मैं 30 मई 1938 को जन्मा और नाम मिला जुगमंदर हॉल। आज मैं 79 वर्ष का हो चुका हूं। वैसे तो मैं शहर का एकमात्र सार्वजनिक प्रेक्षागृह (ऑडिटोरियम) हूं, मगर दुर्भाग्य देखिए कि कई लोग ठीक से मेरा नाम (जुगमंदर हॉल) भी नहीं जानते। ...और इतिहास तो शायद गिने-चुनों को ही पता होगा।
बड़ी बात नहीं कहता, मगर मैं इस शहर की वो इमारत हूं, जिसने गुजरे दौर में इस शहर को एक नई पहचान दी। इसके खुशहाल अतीत को जिया और वर्तमान को ढो रहा हूं। ढो इसलिए रहा हूं, क्योंकि आज का दून वो शहर नहीं रहा, जिसके लिए ये दुनियाभर में जाना जाता था। जिसके लिए ब्रितानी हुकूमत भी इसकी तारीफ करती थी। एक वक्त था, जब कल-कल बहती नहरें इस शहर की पहचान हुआ करती थीं। लोग इसे उत्तर का वेनिस कहा करते थे। लीची और बासमती की खुशबू लोगों के हृदय को महका देती थी। ...और मौसम इतना खुशनुमा कि पूछिए ही मत। जो भी यहां आता, उसका मुरीद हो जाता।
वो वक्त था 70 के दशक का, जो मेरे लिए भी बेहद सुनहरा दौर रहा है। तब उत्तर भारत के रंगमंच की पूरे देश में तूती बोलती थी। उस वक्त दून उत्तर भारत के रंगमंच का 'मक्काÓ हुआ करता था और मैं 'लॉड्र्सÓ। मेरा आंगन हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी से सराबोर रहता था। तब उत्तर भारत का शायद ही कोई थियेटर ऑर्टिस्ट होगा, जो अपनी कला को निखारने के लिए मेरी चौखट पर न पहुंचा हो। मैंने भी हर कला प्रेमी पर अपना सर्वस्व न्योछावर किया और उसे बुलंदियों तक पहुंचाया। मेरे आंगन में गूंजी किलकारियां मुझे आज भी याद करती हैं। संस्कृति और कला को सहेजने में मैंने कोई कसर बाकी नहीं रखी।
मेरी इमारत में चुनी गई हर एक ईंट इस बात की गवाह है। मगर, ये ईंटें उस दौर की भी गवाही देती हैं, जब मेरे अपनों ने ही मुझे बिसरा दिया था। मैंने अपने देश को आजाद होते देखा, अपने राज्य को वजूद में आते देखा और दून को अस्थायी राजधानी बनते भी। बावजूद इसके मेरे अपनों ने ही मेरे वजूद पर ताला जड़ दिया और मुझे धकेल दिया गुमनामी की काल कोठरी में। ठीक उसी तरह जैसे दून की नहरों को विकास के लिए बलि चढ़ा दिया गया और कंक्रीट के जंगल के लिए भुला दी गई बासमती व लीची की खुशबू। हालांकि, मैंने हिम्मत नहीं हारी। हर वक्त मेरा रोम-रोम आजादी के लिए तड़पता था। मेरा आंगन फिर से उन घुंघरुओं की छनक सुनने को बेताब रहता, जिनकी आवाज मेरी धड़कन हुआ करती थी। मैं तो अनंत काल तक कला को तराशने की हसरत रखता हूं, फिर ऐसा क्यों...?
यह सवाल हर वक्त मेरे जेहन में गूंजता रहता था। मगर, मुझे उम्मीद थी कि कभी तो मेरा कोई अपना मेरी सुध लेगा, क्योंकि मैं कोई गुजरा वक्त थोड़े हूं, जो लौट के न आ सकूं। सचमुच इसी उम्मीद ने मुझे टूटने नहीं दिया। कुछ वर्षों बाद नगर निगम ने मुझे फिर से संवारने का बीड़ा उठाया और मैं बेडिय़ों से आजाद हो गया। आज मैं फिर पहले की तरह कला को मुकाम देने का काम कर रहा हूं। अब मेरे आंगन में कबूतरों के पंखों की फडफ़ड़ाहट नहीं, बल्कि रंगमंच के संवाद और लोगों की तालियां गूंजती हैं। आज मैं फिर पहले की तरह हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी में गोते लगाता रहता हूं।

इस परिवार ने दिया दून को विस्तार 
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इस शहर की हर सांस में समाया हुआ है लाला भगवान दास का परिवार। यही परिवार मेरा जनक भी है। सही मायने में यही वो परिवार है, जिसने दून को विस्तार दिया। मुझ जैसे तमाम स्मृति चिह्न भगवान दास और उनके परिवार ने दून को दिए। इंदर रोड, चन्दर रोड, मोहिनी रोड, प्रीतम रोड आदि नाम इस परिवार की नेकनीयती के प्रतीक हैं। देहरादून स्पोट््र्स एसोसिएशन जैसी महत्वपूर्ण संस्था भी इसी परिवार की देन है। इसके अलावा डालनवाला में 450 बीघा में फैली टाउनशिप की सौगात भी दून को इसी परिवार ने दी। दून के लिए इस परिवार की सौगातों की सूची यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि म्युनिसिपैलिटी बिल्डिंग, लाला मनसुमरत दास मेमोरियल पवेलियन ग्राउंड, श्रीमती श्योति देवी एंड छिमा देवी वुमन्स हॉस्पिटल, डीएवी पीजी कॉलेज का जुगमंदर दास ब्लॉक, भगवानदास क्वार्टर, श्री दिगंबर जैन धर्मशाला के कुछ भवन भी इस परिवार की सामाजिक प्रतिबद्धता के उदाहरण हैं।

Monday 12 February 2018

इस इमारत में धड़कता है दून का दिल

इस इमारत में धड़कता है दून का दिल 
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दिनेश कुकरेती 
देहरादून शहर अपने-आप में पीढिय़ों का इतिहास समेटे हुए है। इस शहर ने न केवल राष्ट्रीय, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी अलग पहचान बनाई। कई राष्ट्रीय इमारतों, महत्वपूर्ण शिक्षण एवं अनुसंधान संस्थानों और नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण इस शहर को अंग्रेजों के जमाने से ही खास रुतबा रहा है। लेकिन, विडंबना देखिए कि आज यही शहर अपनी अमूल्य धरोहरों की उपेक्षा का दंश झेल रहा है। ऐसी ही धरोहर है दून का दिल कहा जाने वाला घंटाघर, जो आज याचक की तरह खड़ा अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। दून की सबसे सौंदर्यपूर्ण संरचनाओं में शामिल घंटाघर शहर की सबसे व्यस्ततम राजपुर रोड के मुहाने पर स्थित है और यहां की प्रमुख व्यावसायिक गतिविधियों का केंद्र भी है। पहले इस घंटाघर का घंटानाद दून के दूर-दूर के स्थानों से भी श्रव्य था, लेकिन अब यह स्थलचिह्न मात्र रह गया है। अब इसके चारों ओर दुकानें, शॉपिंग मॉल, सिनेमाघर, सरकारी भवन, पर्यटक स्थल आदि उभर आए हैं। 

सवा लाख में बना था घंटाघर 
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घंटाघर का इतिहास तकरीबन उतना ही पुराना है, जितना कि आजादी का। 24 जुलाई 1948 की सुबह नौ बजकर दस मिनट पर रिमझिम फुहारों के बीच इसकी नींव रखी गई थी। लाला शेर सिंह और उनके भाई आनंद सिंह, हरि सिंह व अमर सिंह ने अपने पिता लाला बलबीर सिंह की स्मृति में इसका निर्माण करवाया था। तब घंटाघर के निर्माण में सवा लाख रुपये का खर्च आया था। 70 फीट ऊंची इस इमारत पर जो छह घडिय़ां लगी हैं, उन्हें स्विटजरलैंड से मंगवाया गया था। वर्ष 1952 में जब यह इमारत बनकर तैयार हुई तो तत्कालीन रक्षा मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इसका उद्घाटन किया था।

देश में खास इस घंटाघर के छह कोण 
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दून का घंटाघर इस लिहाज से भी अनूठा है कि अंग्रेजों ने जो घंटाघर बनवाए थे, वे दो या चार घडिय़ों वाले हैं। जबकि, यह घंटाघर षट्कोणीय आकार का है और इसके शीर्ष के छह मुखों पर छह घडिय़ां लगी हुई हैं। यह घंटाघर ईंट और पत्थरों से निर्मित है। इसके षट्कोणीय आकार वाली हर दीवार पर प्रवेश मार्ग बना हुआ है। इसके मध्य में स्थित 80 सीढिय़ां इसके ऊपरी तल तक जाती हैं, जहां अद्र्धवृत्ताकार खिड़कियां हैं। मीनार के शिखर पर सभी छह आकृतियों में प्रत्येक पर घड़ी रखी हुई है। लाल और पीले रंग की संरचना वाली मीनार के सभी छह भागों पर सीमेंट की जाली सजाई गई है और सभी दरवाजों के ऊपर खूबसूरत झरोखे लगे हुए हैं। खास बात यह कि बिना घंटानाद के घंटाघरों में यह सबसे बड़ा घंटाघर है, जो अपने षट्कोणनुमा ढांचे के कारण देश में विशेष स्थान रखता है। यह न सिर्फ देश का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा घंटाघर है, बल्कि इसकी सबसे मुख्य बात यह है कि देश में दून और कोलकाता ही ऐसे घंटाघर हैं, जिनमें छह सुईयां हैं।

जर्जरहाल हुई ऐतिहासिक धरोहर 
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पलटन बाजार व राजपुर रोड के मध्य स्थापित इस इमारत के चारों ओर बने छोटे से पार्क की हालत वर्तमान में बहुत अच्छी नहीं है। पार्क की रेलिंग टूटी हुई है और इसके सौंदर्यीकरण के भी कोई गंभीर प्रयास होते नजर नहीं आते। हां, खास दिवसों पर पार्क को इलेक्ट्रिक लाइटों से जरूर सजा दिया जाता है, लेकिन प्राकृतिक सौंदर्यीकरण की दिशा में नाममात्र को ही कार्य किए गए हैं। आलम यह है की दून की शान कही जाने वाली इस इमारत की सभी दीवारों पर झाडिय़ां उग आई हैं। घडिय़ां टूट चुकी हैं और मशीन भी जर्जरहाल हैं।

हासिल होगा पुराना वैभव 
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खैर! देर आयद, दुरुस्त आयद। आखिरकार नीति-नियंता महसूस करने लगे हैं कि इस ऐतिहासिक इमारत को उसका खोया गौरव लौटाया जाए। सो, इसके कायाकल्प के लिए रस्साकसी होने लगी है। धर्मपुर विधायक एवं नगर निगम देहरादून के महापौर विनोद चमोली का कहना है कि घंटाघर की तस्वीर को नए साल में बदलने की तैयारी है। इसे बेहद आकर्षित बनाने का प्रयास किया जाएगा।