Friday 19 March 2021

दून के रंगमंच का सुनहरा अतीत

कभी पूरे उत्तर भारत में दून के रंगमंच की धाक हुआ करती थी। यह वह दौर है, जब लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी, मुंबई, चंडीगढ़, सहारनपुर, भारत भवन भोपाल जैसे शहरों में स्थानीय नाट्य संस्थाओं की ओर से नाटकों के सफल प्रदर्शन के फलस्वरूप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) का ध्यान दून की ओर भी आकृष्ट हुआ। रामलीला से आरंभ होकर दून का रंगमंच पहले कोलकाता की कोरिन्यियन ड्रामा कंपनी और फिर साधुराम महेंद्रू के लक्ष्मण ड्रामेटिक क्लब के पारसी नाटकों से होता हुआ 70 के दशक (1961 से 1970) तक पहुंचा। यहीं से दून के रंगमंच का स्वर्णिम काल शुरू होता है, जो 90 के दशक (1981 से 1990) तक बदस्तूर जारी रहा। इस कालखंड में यहां की कई नाट्य संस्थाओं व रंगकर्मियों ने राष्ट्रीय फलक पर न सिर्फ अपनी कला का लोहा मनवाया, बल्कि दून के रंगमंच को अलग पहचान भी दिलाई। इस सफलता में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही नेहरू युवा केंद्र की। हम भी रंगमंच के इसी सुनहरे अतीत से परिचित हो लें- 












दून के रंगमंच का सुनहरा अतीत

------------------------------------

दिनेश कुकरेती

ब्बे के दशक में देहरादून के नेहरू युवा केंद्र को रंगकर्मियों के बीच 'मंडी हाउसÓ के नाम से ख्याति प्राप्त थी। तब रंगमंच की समस्त गतिविधियां इसी केंद्र से संचालित हुआ करती थीं। यह दौर इस मायने में भी अविस्मरणीय है कि अमरदीप चड्ढा के बाद हिमानी शिवपुरी, श्रीश डोभाल, चंद्रमोहन व अरविंद पांडे को इसी दौरान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश मिला। इसी अवधि में अशोक चक्रवर्ती, अविनंदा, एवी राणा, अवधेश कुमार, सहदेव नेगी, ज्योतिष घिल्डियाल, ज्ञान गुप्ता, टीके अग्रवाल, सतीश चंद्र, तपन डे, दीपक भट्टाचार्य, अजय चक्रवर्ती, धीरेंद्र चमोली, रामप्रसाद सुंद्रियाल, गजेंद्र वर्मा, दादा अशोक चक्रवर्ती, अतीक अहमद, रमेश डोबरियाल, सुरेंद्र भंडारी, दुर्गा कुकरेती जैसे मंझे हुए रंगकर्मियों की मजबूत जमात भी खड़ी हुई। लेकिन, नेहरू युवा केंद्र के बंद होते ही नाट्य संस्थाओं के साथ रंगकर्मी भी बिखर-से गए। आज क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों व वीडियो एलबमों की व्यस्तता के चलते कलाकारों के पास समय का अभाव है। इसका सीधा असर रंगमंच पर भी पड़ा। हालांकि, इस सबके बावजूद दून में वरिष्ठजनों का अनुभव और युवाओं की ऊर्जा रंगमंच की जोत जलाए हुए है। वरिष्ठ रंगकर्मी ज्योतिष घिल्डियाल कहते हैं कि रंगमंच मानवीय है। जब तक जीवन है, रंगमंच भी है। वह बीमार पड़ सकता है, थक सकता है, पर मर नहीं सकता। वरिष्ठ रंगकर्मी यमुनाराम कहते हैं कि रंगमंच को संतुष्टि तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर संभावनाएं तलाश कर नए आयाम जुटाने होंगे।

चरित्र में जान फूंक देते थे दादा

----------------------------------

दून के रंगमंच को दादा अशोक चक्रवर्ती के बिना पूर्ण नहीं माना जा सकता। नाटक 'बर्फ की मीनारÓ में उनका विलियम का चरित्र दर्शकों को आज भी याद है। नाटक 'बर्फ की मीनारÓ व 'तलछटÓ के दिल्ली समेत कई स्थानों पर सफल प्रदर्शन किए गए। वर्ष 1978 में उन्होंने रंगकर्मियों के साथ मिलकर 'वातायनÓ संस्था की स्थापना की और पूरी तरह नाटकों को समर्पित हो गए। उनके निर्देशन में 'शंबूक की हत्याÓ, 'मैन विदाउट शैडोÓ व 'निशाचरÓ जैसे बहुचर्चित नाटकों का अनेक स्थानों पर प्रदर्शन हुआ। कैंसर जैसे असाध्य रोग के बावजूद उन्होंने अपने जीवन के अंतिम नाटक 'अंधा भोजÓ का निर्देशन किया। बांग्ला नाटक 'रातेर अथितिÓ का ङ्क्षहदी अनुवाद उन्हीं के सहयोग से पूर्ण हो पाया था। एनएसडी जाने के इच्छुक रंगकर्मी दादा से ही प्रशिक्षण लेते थे। एक समय ऐसा भी आया, जब दादा नुक्कड़ को समर्पित हो गए। 'दृष्टिÓ नाट्य संस्था के माध्यम से उन्होंने पूरे उत्तराखंड में जनजागरण अभियान चलाया। 'उत्तराखंड नाट्य परिसंघÓ की परिकल्पना को वर्ष 2003 में दादा ने ही मूर्तरूप दिया। जिसका उद्देश्य उत्तराखंड में रंग शिथिलता को तोडऩा व सार्थक एवं सक्रिय रंग आंदोलन का सूत्रपात करना था।














'प्रह्लादÓ से मानी जाती है गढ़वाली रंगमंच की शुरुआत

---------------------------------------------------------------

गढ़वाली रंगमंच की शुरुआत वर्ष 1930 से मानी जाती है। वर्ष 1930 में भवानी दत्त थपलियाल ने पहली बार गढ़वाली नाटक 'प्रह्लादÓ की प्रस्तुति दी। हालांकि, वर्ष 1912 में उन्होंने 'जय-विजयÓ और वर्ष 1914 में 'प्रह्लादÓ नाटक की रचना कर दी थी। लेकिन, कतिपय कारणों के चलते वर्ष 1930 से पूर्व इनका मंचन नहीं हो पाया। इसी बीच वर्ष 1932 में चार गैल्यों (साथियों) द्वारा रचित एवं अभिनीत नाटक 'पांखूÓ का उत्तरकाशी के माघ मेले में पहली बार मंचन हुआ। इन चार गैल्यों में से एक सत्यप्रसाद रतूड़ी थे। हालांकि, थोड़ा पीछे जाएं तो टिहरी राज्य के तत्कालीन रेजीडेंट शैमियर ने टिहरी में एक नाट्य क्लब की स्थापना कर ली थी। रियासत के सभी अधिकारी इस नाट्य क्लब के सदस्य होते थे। वर्ष 1921 तक इस क्लब के लिए प्रेक्षागृह भी बन गया, लेकिन नाटकों का मंचन इससे पूर्व से होने लगा था। अगस्त 1917 में टिहरी में नाटक 'सत्य हरिश्चंद्रÓ का पूर्वाभ्यास शुरू हो गया था और दो माह बाद इसे टिहरी में पारसी शैली में अभिनीत किया गया। नाट्य गृह बनने से टिहरी में नाटकों के लेखन व मंचन में तेजी आई और आने वाले वर्षों में 'यहूदी की बेटीÓ, 'खूबसूरत बलाÓ, 'सफेद खूनÓ, 'दानवीर कर्णÓ जैसे कुछ नाटकों का मंचन हुआ। वर्ष 1932 में विश्वंभर दत्त उनियाल रचित नाटक 'बसंतीÓ ने 'प्रह्लादÓ जैसी ही लोकप्रियता हासिल की। 

गढ़वाली के कुछ प्रमुख नाटक

---------------------------------

'भारी भूलÓ व 'मलेथा की कूलÓ  (जीत सिंह नेगी), 'खाडू लापताÓ, 'अंछर्यूं को तालÓ, 'दुर्जन की कछड़ीÓ व 'घरजवैंÓ (ललित मोहन थपलियाल), 'दूणो जनमÓ व 'कीड़ू की ब्वैÓ (किशोर घिल्डियाल), 'जंकजोड़Ó व 'अर्धग्रामेश्वरÓ (राजेंद्र धस्माना), 'कंस वधÓ, 'कंसानुक्रमÓ व 'स्वयंवरÓ (कन्हैयालाल डंडरियाल), 'मंगतू बौल्याÓ (स्वरूप ढौंडियाल), 'कफनÓ व 'लिंडर्या छ््वाराÓ (डॉ. कुसुम नौटियाल), 'जीतू बगड्वालÓ (ब्रजेंद्र शाह)
















ब्रह्मा ने नाटक रचा तो विश्वकर्मा ने रंगमंच

-------------------------------------------------

रंगमंच शब्द 'रंगÓ और 'मंचÓ के मेल से बना है। रंग, जिसके तहत दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवार, छत और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है। साथ ही अभिनेताओं की वेशभूषा और सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है। मंच, जिसके तहत दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊंचा रखा जाता है। जबकि, दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला या नाट्यशाला कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। 'ऋग्वेदÓ के कतिपय सूत्रों में यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का इशारा पाते हैं। माना जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा पाकर लोगों ने नाटक की रचना की होगी और इसी से नाट्यकला का विकास हुआ। यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया। 

'नाट्यशास्त्रÓ में नाटकों के विकास की प्रक्रिया व्यक्त करते हुए भरतमुनि कहते हैं, नाट्यकला की उत्पत्ति दैवीय है। दुखरहित सतयुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने ब्रह्माजी से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की, जिससे देवता अपना दुख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें। फलस्वरूप ब्रह्माजी ने 'ऋग्वेदÓ से कथोपकथन, 'सामवेदÓ से गायन, 'यजुर्वेदÓ से अभिनय और 'अथर्ववेदÓ से रस लेकर नाटक का निर्माण किया। रंगमंच के निर्माण का दायित्व निभाया देवशिल्पी विश्वकर्मा ने।