Wednesday 30 September 2020

दून की धरोहर : तीसरी सदी का अश्वमेध यज्ञ स्थल

 

दून की धरोहर : तीसरी सदी का अश्वमेध यज्ञ स्थल
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दिनेश कुकरेती
देहरादून जिले के विकासनगर ब्लॉक स्थित बाड़वाला जगतग्राम में सघन बाग के बीच तीसरी सदी के वीरान पड़े अश्वमेध यज्ञ स्थल को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) ने इस क्षेत्र को नई पहचान दी है। विकासनगर से छह किमी की दूरी पर स्थित यह वही स्थल है, जहां कुणिंद (कुलिंद) शासक राजा शील वर्मन ने अश्वमेध यज्ञ किया था। एएसआइ की ओर से वर्ष 1952 से 1954 के बीच किए गए उत्खनन कार्य के बाद यह स्थल प्रकाश में आया। उत्खनन में पक्की ईंटों से बनी तीसरी सदी की तीन यज्ञ वेदिकाओं का पता चला, जो धरातल से तीन-चार फीट नीचे दबी हुई थीं। इन यज्ञ वेदिकाओं को एएसआइ ने दुर्लभतम की श्रेणी में रखा था। तीन में से एक वेदिका की ईंटों पर ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्णित सूचना के आधार पर जो एतिहासिक तथ्य उभरकर सामने आए, उनके अनुसार ईसा की पहली से लेकर पांचवीं सदी के बीच तक वर्तमान हरिपुर, सरसावा, विकासनगर और संभवत: लाखामंडल तक युगशैल नामक साम्राज्य फैला था। वृषगण गोत्र के वर्मन वंश द्वारा शासित इस साम्राज्य की राजधानी तब हरिपुर हुआ करती थी। तीसरी सदी को इस साम्राज्य का उत्कर्ष काल माना जाता है, जब राजा शील वर्मन ने साम्राज्य की बागडोर संभाली। वह एक परम प्रतापी राजा थे, जिन्होंने जगतग्राम बाड़वाला में चार अश्वमेध यज्ञ कर अपने पराक्रम का प्रदर्शन किया। इन्हीं अश्वमेध यज्ञों में से तीन यज्ञों की वेदिकाएं यहां मिली हैं, जबकि चौथा यज्ञ स्थल अभी खोजना बाकी है।



एएसआइ के अधीन, फिर भी उपेक्षित
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पुरातात्विक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण यह अश्वमेध यज्ञ स्थल वर्तमान में एएसआइ के अधीन होने पर भी उपेक्षित पड़ा हुआ है। यहां पहुंचने के लिए एक पगडंडीनुमा मार्ग है, जो एक निजी बाग से होकर गुजरता है। यज्ञ स्थल पर शौचालय तो छोडि़ए, पेयजल की सुविधा तक नहीं है, जिससे पर्यटक यहां जाना पसंद नहीं करते। वैसे पुरातत्व विभाग ने इस यज्ञ स्थल की देख-रेख के लिए दो संविदाकर्मी भी तैनात किए हुए हैं। लेकिन, निजी मिल्कियत वाले आम के बाग से रास्ता जाने के कारण उसे पक्का तक नहीं किया जा सका।



इसलिए किया जाता था अश्वमेध यज्ञ
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प्राचीन काल में शक्तिशाली राजाओं की ओर से अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए अश्वमेध यज्ञ किया जाता था। इस यज्ञ में अनुष्ठान के पश्चात एक सुसज्जित अश्व छोड़ दिया जाता था। अश्व जहां-जहां से होकर भी गुजरता था, वह क्षेत्र स्वाभाविक रूप से अश्वमेध यज्ञ करने वाले राजा के अधीन हो जाता था। लेकिन, यदि किसी राजा ने उसे पकड़ लिया तो यज्ञ करने वाले राजा को उससे युद्ध करना पड़ता था।

सुधरेगी पर्यटन की स्थिति
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अश्वमेध यज्ञ स्थल जगतग्राम बाड़वाला के राष्ट्रीय स्मारक बनने का पर्यटन पर विशेष प्रभाव पड़ेगा। अभी तक पर्यटकों को इस स्थल के बारे में कोई जानकारी नही थी। यज्ञ स्थल तक जाने के लिए कोई रास्ता न होना भी इसकी बड़ी वजह है। लेकिन, अब राष्ट्रीय स्मारक घोषित होने के बाद अश्वमेध यज्ञ स्थल पर देश-विदेश के पर्यटकों की संख्या बढऩे की उम्मीद है। अभी तक पर्यटक कालसी स्थित अशोक शिलालेख देखने के लिए यहां आते रहे हैं। लेकिन, राष्ट्रीय स्मारक बनने के बाद अब इस अश्वमेध यज्ञ स्थल के बारे में भी लोगों को जानकारी मिल पाएगी। साथ ही पर्यटन की स्थिति में भी सुधार आएगा। बता दें कि वर्ष 1860 में जॉन फॉरेस्ट नामक अंग्रेज ने कालसी क्षेत्र की खोज की थी। इस दौरान बाड़वाला के पास जगतग्राम के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारियां मिली थीं।

ऐसे घोषित होते हैं राष्ट्रीय स्मारक
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किसी खोदाई स्थल को विशेष परिस्थितियों में ही राष्ट्रीय स्मारक बनाया जाता है। इसके लिए एक लंबी कागजी प्रक्रिया से गुजरना होता है, जिसमें सालों लग जाते हैं। मगर, एएसआइ को देश की संस्कृति और सभ्यता से जुड़ी महत्वपूर्ण 11 धरोहरों को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने में अप्रैल 2018 से लेकर मार्च 2019 तक का ही समय लगा। यह अपने आप में एक अनूठा रिकॉर्ड है। इन 11 धरोहरों को मिलाकर अब देश में राष्ट्रीय स्मारकों की संख्या 3697 हो गई है।



पुरोला में मिली अश्वमेध यज्ञ वेदी जगतग्राम से पुरानी
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देहरादून जिले के जगतग्राम के अलावा उत्तरकाशी जिले के पुरोला में भी अश्वमेध यज्ञ के प्रमाण मिले हैं। खास बात यह कि देश में पुरोला के अलावा अब तक कोई भी स्थल नहीं मिला, जहां अश्वमेध यज्ञ की वेदी का इतना स्पष्ट ढांचा हो। इस स्थल पर प्राचीन विशाल उत्खनित ईंटों से बनी यज्ञ वेदी मौजूद है। स्थल की खुदाई में लघु केंद्रीय कक्ष से शुंग कुषाण कालीन (दूसरी सदी ईस्वी पूर्व से दूसरी सदी ईस्वी) मृदभांड, दीपक की राख, जली अस्थियां और काफी मात्रा में कुणिंद शासकों की मुद्राएं मिली हैं। पुरोला में मिली अश्वमेध यज्ञ वेदी जगतग्राम से पुरानी हैं।



मलारी व रामगंगा घाटी में भी मिली समाधियां
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देहरादून जिले में कालसी के पास भी आरंभिक पाषाणयुगीन अवशेष मिले हैं। जबकि, चमोली जिले के मलारी गांव और पश्चिमी रामगंगा घाटी में महापाषाणकालीन शवाधान (समाधियां) मिलीं। इतिहासकारों के अनुसार सातवीं सदी ईस्वी पूर्व और चौथी सदी ईस्वी के मध्य हिमालय के आद्य इतिहास का प्रमाण मुख्यत: प्राचीन साहित्य है।



राजा शिव भवानी व राजा शील वर्मन ने किए यज्ञ
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जौनसार-बावर (देहरादून) में जयदास व उनके वंशजों का समृद्ध राज 350-460 ईस्वी तक माना जाता है। इस काल (301-400 ईस्वी) में यहां युगशैल राजाओं का राज भी रहा। इनमें से राजा शिव भवानी ने एक और राजा शील वर्मन ने चार अश्वमेध यज्ञ किए।

पर्यटन विकास के प्रमाण अश्वमेध यज्ञ
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अश्वमेध यज्ञ इस बात के द्योतक हैं कि क्षेत्र में व्यापार (निर्यात) से प्रचुर लाभ हुआ होगा। व्यापार अपने आप में एक पर्यटनकारी घटक है और अश्वमेध यज्ञ पर्यटन विकास की ही कहानी के प्रमाण हैं। यज्ञ दर्शन और प्रवचन सुनने के लिए यहां बाह्य प्रदेशों से गणमान्य व्यक्ति व पंडित भी आए होंगे, जिससे निश्चित रूप से पर्यटन को नया आयाम मिला होगा।



मुद्रा विनियम विकास काल
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कुणिंद अवसान काल की मुद्राएं बेहट, देहरादून, गढ़वाल (सुमाड़ी व डाडामंडी क्षेत्र का भैड़ गांव), काली गंगा घाटी आदि स्थानों पर मिलीं। ताम्र व रजत मुद्राओं के मिलने और हर काल में मुद्रा निर्माण होने में विकास झलकता है। मुद्रा निर्माण से स्पष्ट होता है कि तब उत्तराखंड में व्यापार विकसित था और विनियम के लिए मुद्राएं जरूरी मानी जाने लगी थीं।

Sunday 27 September 2020

आचरण में संस्कृति तो व्यवहार में समृद्धि

 

आचरण में संस्कृति तो व्यवहार में समृद्धि
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दिनेश कुकरेती
राज्य गठन के इन बीस वर्षों में संस्कृति को लेकर बहुत-सी बडी़-बडी़ बातें हुईं।  संस्कृति को रोजी-रोटी से जोड़ने के लिए सांस्कृतिक उन्नयन के कसीदे पढे़ गए। कहा गया कि हम अपनी लोक विरासत को समृद्ध कर दुनिया के अंतिम छोर तक उसका प्रसार करेंगे। ताकि वह आर्थिकी का मजबूत आधार बन सके। ऐसा सोचना-बोलना गलत भी नहीं था। हम देखते हैं कि देश के जो भी क्षेत्र सांस्कृतिक रूप में समृद्ध हैं, वहां सांस्कृतिक पर्यटन भी उतना ही समृद्ध हुआ है। लेकिन, यह भी सच है इसके पीछे कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में राज्य की सोच अवश्य परिलक्षित होती है। इसके विपरीत उत्तराखंड में सांस्कृतिक उन्नयन को शायद ही कभी राज्य के स्तर से गंभीर प्रयास हुए हुए होंगे। यहां तक कि हम तो संस्कृति विभाग का ढांचा भी ठीक से खडा़ नहीं कर पाए। जबकि, हम खुद को वैदिक कालीन संस्कृति का संवाहक मानते हैं। 

बीते बीस सालों का सांस्कृतिक दृष्टि से मूल्यांकन करें तो पाते हैं कि इस कालखंड में हमने दो-एक गीतों पर ठुमके लगाने के सिवा कोई गंभीर पहल नहीं की। उत्तर प्रदेश में रहते हुए हम जिस अलग "सांस्कृतिक पहचान" की दुहाई दिया करते थे, अपने घर में हमने उससे भी किनारा कर लिया। वह तो शुक्र है लोक के उन संवाहकों का, जो निःस्वार्थ एवं समर्पण भाव से संस्कृति के संरक्षण में जुटे हुए हैं। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने हमारी उम्मीद को टूटने नहीं दिया और भरोसा दिलाते रहे हैं कि इस रात की सुबह जरूर होगी।

समाज के गुणों का समग्र रूप
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देखा जाए तो संस्कृति किसी भी समाज के गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का ही नाम है। वह संस्कृति ही है, जो संबंधित समाज के सोचने-विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप संबंधित समाज की ओर से दीर्घकाल तक अपनाई गई पद्धतियों का ही परिणाम है। लेकिन, अफसोस! हम ऐसा कर पाने में असफल रहे और अब सोच का दायरा थोडा़ विकसित हुआ तो बगलें झांक रहे हैं।

कृ धातु से हुई संस्कृति शब्द की उत्पत्ति
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संस्कृति शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा 'कृÓ (करना) धातु से हुई है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं 'प्रकृतिÓ (मूल स्थिति), 'संस्कृतिÓ (परिष्कृत स्थिति) और 'विकृतिÓ (अवनति स्थिति)। जब 'प्रकृतÓ यानी कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो 'विकृतÓ हो जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए 'कल्चरÓ शब्द का प्रयोग होता है, जो लैटिन भाषा के 'कल्ट या कल्टसÓ से लिया गया है। इसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहां तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द 'संस्कृतिÓ।

सरोकारों से जुडे़ समाज की उत्तम स्थिति ही संस्कृति
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संस्कृति का अर्थ है उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य को स्वभावगत रूप से प्रगतिशील प्राणी माना गया है। वह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरंतर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी
प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, आचार-विचार, नवीन अनुसंधान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊंचा उठकर सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता से मनुष्य की भौतिक प्रगति सूचित होती है, जबकि संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही संतुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, क्योंकि शरीर के साथ मन और आत्मा भी जुड़ा हुआ है। 

भौतिक उन्नति से शरीर की भूख तो मिट सकती है, लेकिन मन और आत्मा की नहीं। इन्हें संतुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, वही संस्कृति है। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौंदर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र, वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक जीवन जीने के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इसी प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।

हमें मनुष्य बनाती है संस्कृति
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संस्कृति जीवन के निकट से जुड़ी है। यह कोई बाह्य वस्तु नहीं है और न कोई आभूषण ही, जिसे मनुष्य प्रयोग कर सके। यह सिर्फ रंगों का स्पर्श मात्र भी नहीं है। यह वह गुण है, जो हमें मनुष्य बनाता है। संस्कृति परंपराओं से, विश्वासों से, जीवन शैली से, आध्यात्मिक पक्ष से और भौतिक पक्ष से निरंतर जुड़ी हुई है। यह हमें जीवन का अर्थ तो बताती ही है, जीवन जीने का सलीका भी सिखाती है। सार रूप में कहें तो मानव ही संस्कृति का निर्माता है और संस्कृति मानव को मानव बनाती है।

मैं नहीं, हम के भाव का बोध कराती है संस्कृति
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संस्कृति का एक मौलिक तत्व है, धार्मिक विश्वास और उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति। संस्कृति सिखाती है कि हमें धार्मिक पहचान का सम्मान करना चाहिए। साथ ही सामयिक प्रयत्नों से भी परिचित होना चाहिए, जिनसे अंत:धार्मिक विश्वासों की बातचीत हो सके, जिन्हें प्राय: अंत:सांस्कृतिक वार्तालाप कहा जाता है। विश्व जैसे-जैसे जुड़ता चला जा रहा है, हम अधिक से अधिक वैश्विक हो रहे हैं और अधिक व्यापक वैश्विक स्तर पर जी रहे हैं। हम यह नहीं सोच सकते कि जीने का एक ही तरीका होता है और वही सत्य मार्ग है। सह-अस्तित्व की आवश्यकता ने विभिन्न संस्कृतियों और विश्वासों के सह-अस्तित्व को भी आवश्यक बना दिया है। इसलिए इससे पहले कि हम इस प्रकार की कोई गलती करें, बेहतर होगा कि अन्य संस्कृतियों को जानने के साथ अपनी संस्कृति को भी भली प्रकार समझें। दूसरी संस्कृतियों के बारे में हम तभी चर्चा कर सकते हैं, जब हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों को भली प्रकार समझने के काबिल हो जाएं।



जो समाज को जोडे़, वही संस्कृति
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सत्य, शिव और सुंदर- ये तीन शाश्वत मूल्य हैं, जो संस्कृति से निकट से जुड़े हुए हैं। यह संस्कृति ही है जो हमें दर्शन और धर्म के माध्यम से सत्य के निकट लाती है। यह हमारे जीवन में कलाओं के माध्यम से सौंदर्य प्रदान करती है और सौंदर्य की अनुभूति करने वाला मानव बनाती है। वह संस्कृति ही है, जो हमें नैतिक मानव बनाने के साथ दूसरे मानवों के निकट संपर्क में लाती है। साथ ही हमें प्रेम, सहिष्णुता और शांति का पाठ पढ़ाती है।



ऐसे जीवन में उतरेगी संस्कृति
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* उत्तराखंड को ब्रह्मा, विष्णु, महेश समेत समस्त देवी-देवताओं, यक्ष, किन्नर, गंधर्वों और ऋषि-मुनियों का आदिकालीन निवास माना गया है। यहां चारधाम और सप्त बदरी-पंच केदार समेत तमाम ऐसे ऐतिहासिक एवं पौराणिक मठ-मंदिर हैं, जो किसी न किसी देवता और ऋषि-मुनि से जुडे़ हुए हैं। गंगा की समस्त धाराओं और यमुना का उद्गम भी यहीं है। बावजूद इसके इन स्थलों के बारे में स्वयं उत्तराखंड के लोगों को शायद ही विस्तार में जानकारी हो। जबकि, यही जानकारी न केवल इन स्थलों के विकास का कारक बनेगी, बल्कि धार्मिक पर्यटन एवं तीर्थाटन को भी मजबूत आधार देगी।
 

*वीर भडो़ं की इस धरती का अपना विशिष्ट एवं गौरवशाली इतिहास रहा है। यहां गढो़ं के रक्षकों यानी गढ़पतियों को भड़ कहा जाता है। इन्हें लोक में देवताओं के जैसा सम्मान प्राप्त है। कई क्षेत्रों में तो ये गढ़पति इष्ट देव के रूप में पूजे जाते हैं। गढ़वाल का "बावन गढो़ं का देश" नाम भी इन्हीं गढ़पतियों एवं गढो़ं के कारण ही पडा़। अगर इन गढो़ं को अलग-अलग पर्यटन सर्किट से जोड़ने की पहल हो तो राज्य की आर्थिकी का बडा़ भार ये अपने ऊपर ले सकते हैं।

*उत्तराखंड के तमाम लोक वाद्य उपेक्षा के चलते म्यूजियम की शोभा बढा़ रहे हैं। यहां ढोल जैसा धरती का सबसे पुराना वाद्य भी धीरे-धीरे लुप्तप्राय श्रेणी में आ गया है और इसे बजाने वाले भी रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर गए अथवा उन्होंने दूसरे काम-धंधे अपना लिए। अगर हमने इन वाद्यों के संरक्षण और इन्हें प्रचलन में लाने की कोशिश की होती तो ऐसी नौबत ही न आती। यह न भूलें कि तबला भी कभी ऐसी ही स्थिति में पहुंच गया था, लेकिन आज वही तबला देश-दुनिया में हजारों घरों को चमका रहा है। लिहाजा उत्तराखंड में ऐसी कोशिश की जानी चाहिए, उजड़ते पहाड़ को निश्चित रूप से संबल मिलेगा।

*वैदिक कालीन संस्कृति के वाहक उत्तराखंड के लोकगीत-नृत्य भी उतने ही पुराने हैं, जितना कि हमारी सभ्यता का इतिहास। लेकिन, अन्य प्रदेशों की तरह इन्हें विश्व फलक पर पहचान दिलाने के प्रयास ही नहीं हुए। इसीलिए हमारे लोक कलाकारों की दशा आज भी बेहद दयनीय है। यदि इन लोकगीत-नृत्यों को प्रश्रय दिया जाए तो ऐसी कोई वजह नहीं, जो ये आर्थिकी का संबल न बन सकें।

*पहाड़ की बारहनाजा पद्धति आदिकाल से ही समृद्ध रही है। इसमें न केवल मनुष्य के भोजन की जरूरतें पूरी होती हैं, बल्कि मवेशियों के लिए भी चारे की कमी नहीं रहती। इसमें सिर्फ बारह प्रकार के अनाज ही नहीं, बल्कि तरह-तरह के रंग-रूप, स्वाद और पौष्टिकता से परिपूर्ण दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा मिलाकर 20-22 प्रकार के अनाज आते हैं। हम कह सकते हैं कि यह सिर्फ फसलें न होकर पहाड़ की एक पूरी कृषि संस्कृति है। बारहनाजा का एक और फायदा यह है कि आगर किसी कारण एक फसल न हो पाए तो दूसरी से उसकी पूर्ति हो जाती है। सरकार यदि इस पद्धति को प्रोत्साहित करे तो पहाड़ में कभी अन्न की कमी होगी ही नहीं। बस जरूरत है मजबूत इच्छाशक्ति की और पहाड़ के उन लोगों से प्रेरणा लेने की, जिनकी बदौलत आज भी बारहनाजा पद्धति अस्तित्व में है।

*पौराणिक ट्रैक रूटों को विकसित और संसाधनों से लैस कर भी हम उत्तराखंड में समृद्धि के द्वार खोल सकते हैं। आखिर यही ट्रैक तो सदियों से उत्तराखंड में जीवन का संचार करते रहे हैं। सोचिए, देश-दुनिया से जितने ज्यादा लोगों का प्रवाह उत्तराखंड की ओर होगा, उतने ही यहां रोजगार के संसाधन भी विकसित होंगे। सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्नता हासिल करने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी है।

*लोक भाषाएं किसी भी संस्कृति की प्रथम पहचान हैं। पंजाबी, गुजराती, मराठी, तमिल, मलियाली, बांग्ला आदि भाषाएं इसका प्रमाण हैं। लोक भाषाएं न केवल लोक को न जानने-समझने में मददगार होती हैं, बल्कि संबंधित क्षेत्र की ब्रांडिंग का काम भी करती हैं। बावजूद इसके हम गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनसारी भाषा के संरक्षण के प्रति आज तक गंभीर नहीं हो पाए। नई पीढी़ को तो हमने अपनी लोकभाषाओं से विलग ही कर दिया। इस दिशा में गंभीरता से मनन किए जाने की जरूरत है।

केदारनाथ आपदा की कविताएं


वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा का मैं प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं। तब केदारघाटी में मैंने जो हालात देखे, वह हृदय को द्रवित कर देने वाले थे। इन्हीं हालात को समेटती चंद कविताएं-



आपदा की कविताएं
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(एक)
इस दु:ख की कोई सीमा नहीं
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तनु-
पांच साल की बच्ची
रोज पापा को फोन लगाती है,
पर दूसरी तरफ से
कोई जवाब नहीं आता
तनु फिर अगले दिन का
इंतजार करती है,
पापा से मिलने की
ढेरों कल्पनाओं संग
वह दिनभर खेलती है,
छोटी बहन पीहू को खिलाती है
और शाम को-
फिर फोन लगाने बैठ जाती है।
तनु की दादी नहीं है
लेकिन-
उसके तिहत्तर साल के दादा

चुपचाप यह सब देखते रहते हैं
और-
पोंछते रहते हैं आंसू।
वह जानते हैं कि
तनु के पापा कभी नहीं आएंगे,
पर उससे कह नहीं सकते,
टूट जाएगा मासूम का बालमन।
हालांकि,
जानते हैं कि एक दिन तनु
उनसे पूछेगी,
दादा-
क्या केदारघाटी की तबाही
लील गई थी पापा को।
और तब... 

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(दो)
नदी
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नदी जीवन देती है
जीवन में उल्लास भी घोलती है।
जब आप अकेले होते हैं
कोई नहीं होता
सुख-दु:ख बांटने वाला
तब कल-कल, छल-छल बहती हुई
चट्टानों से अठखेलियां करती
नदी के पास चले जाइए।
चुपचाप उसके किनारे बैठकर
निहारिए उसके निर्मल जल को-
कितना आनंद मिलता है।
आप भूल बैठेंगे
सारे भौतिक सुख
अपना-पराया, तेरे-मेरे का भाव।
नदी के मन में ईष्र्या नहीं है
और-
न कोई राग-द्वेष ही
उसे यह भी नहीं मतलब कि
आप क्या सोचते हैं उसके बारे में।
उसने तो जबसे बहना सीखा है-
बांटती ही चली गई स्नेह।
वह तो हम हैं-
जो नहीं समझ पाए उसके मनोभाव
बांधने की कोशिश करने लगे
उसका अविरल बहाव,
कब्जाने लगे उसके शांत तट
और, भूल गए कि-
नदी कितनी भी उदार क्यों न हो,
पर कभी अपने तट नहीं छोड़ती
जब होने लगती है उसे घुटन
तो छटपटाने लगती है।
अफसोस-
हम कभी नहीं समझ पाए
उसकी छटपटाहट
इसलिए वह विकराल हो उठी
तोड़ दिए सारे बंधन-
लील गई जीवन के सारे सुख।
अब नदी शांत है-
उड़ेल रही है अपना दुलार।
हो सके तो कोशिश करना,
उसे समझने की
ताकि-
फिर कभी न देखनी पड़े
केदारघाटी जैसी त्रासदी...


 

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(तीन)
जिम्मेदारी
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यह भरोसा ही तो है
जिसने कमजोर नहीं होने दी
आस्था की डोर,
सदियां गुजरने के बाद भी।
सिर के ऊपर तने हुए-
खतरों को देख भी-
हम पहाड़ के नीचे से निकलते हैं।
दुर्गम रास्तों और-
उफनाती नदियों को पार करते हैं।
इसी प्रकार जारी है
हमारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की यात्रा।
किंतु-
इस दंभ में हम यह जरूर भूल गए कि
प्रकृति और हमारे बीच के रिश्ते की
कुछ मर्यादाएं हैं।
इसलिए-
जब सहसा कोई हादसा घटता है तो-
भगवान पर डाल देते हैं,
उसकी जिम्मेदारी...।
 

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(चार)
सबक
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मनुष्य दलदल में न फंसे
इसलिए भगवान स्वयं केदार जा बसे।
सोचा होगा-
यहां कोई नहीं आएगा
और आया भी तो
दर्शन कर लौट जाएगा।
पर, इंसान और भी चालाक निकला-
दर्शन करने गया और-
वहीं ठौर बना लिया।
बसा लिया अपनी तमाम बुराइयों
और गंदगियों का नगर।
और फिर-
अभिशप्त होने लगी
ग्लेशियरों से निकलने वाली
मंदाकिनी, सरस्वती और दूध गंगा।
मनुष्य ने उनके किनारों को भी नहीं बख्शा
और-
केदारधाम ग्लेशियरों के मुहाने पर बसता चला गया।
तो क्या हम भविष्य के खतरों को लेकर
सचमुच अंजान थे।
क्या मंदाकिनी के नीचे चट्टान पर
रामबाड़ा बसाने की कोई जगह थी।
किसी ने भी तो नहीं सोचा।
क्या आगे भी मनुष्य-
ऐसी गलतियां दोहराएगा।
आज...यही सोचने का समय है।
आपदा से सबक लेने का समय है...।
 

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@दिनेश कुकरेती

When Shashi Kapoor became RK Verma

जब शशि कपूर बने दून के आरके वर्मा
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र्ष 1970 की बात है। केआर फिल्म्स के बैनर तले फिल्म 'पतंगाÓ का निर्माण शुरू हुआ। प्रोड्यूसर-डायरेक्टर थे केदार कपूर। उनके दोस्त हुआ करते थे राम पाहवा। मेरी भी उनसे अच्छी दोस्ती थी। देहरादून के थे, सो बंबई से यहां आते तो मुझसे मिले बगैर नहीं रहते। उन्हें केदार कपूर ने फिल्म के प्रोडक्शन कंट्रोलर का जिम्मा सौंप दिया।
फिल्म की शूटिंग देहरादून व मसूरी में भी होनी थी, लिहाजा यूनिट यहां आ पहुंची। फिल्म में शशि कपूर, विम्मी, अजीत, राजेंद्रनाथ, शेखर पुरोहित, लक्ष्मी छाया जैसे लोग काम कर रहे थे। लेकिन, काम की व्यस्तता के चलते शशि कपूर व विम्मी को मुंबई में ही रुकना पड़ा। शेड्यूल तय हो चुका था, इसलिए केदार कपूर व राम पाहवा के सामने संकट खड़ा हो गया कि बिना हीरो-हीरोइन के कैसे शूटिंग की जाए।
परेशानहाल एक दिन राम पाहवा मेरे पास पहुंचे। कहने लगे, 'भई वर्मा (डा.आरके वर्मा) कहीं से भी एक लड़का-लड़की ढूंढो, जिनके चेहरे शशि कपूर व विम्मी से मैच करते हों।Ó मैंने हां तो कर दी, लेकिन बड़ा मुश्किल था उस जमाने में किसी को फिल्म में काम करने के लिए तैयार करना। फिर भी मैंने कोशिश जारी रखी।
एक दिन अचानक मुझे सूझा कि क्यों न मैं ही शशि कपूर का रोल कर लूं। सो, घर गया और पत्नी से पूछा कि 'क्या तुम विम्मी का रोल करोगी।Ó उसका फिल्मी बैकग्राउंड रहा है। पिता बंगाल में फिल्म प्रोड्यूसर थे। लेकिन, उसने इनकार दिया। तब मैंने बताया कि शशि कपूर मुझे ही बनता है तो वह बोली, 'फिर कोई ऐतराज नहीं।Ó बस! मैं निश्चिंत हो गया।

सुबह दफ्तर में बैठा था, तभी राम पाहवा भी आ पहुंचे। बोले, 'वर्मा कुछ बात बनी।Ó मैंने कहा, 'बिल्कुल बन गई है।Ó पाहवा बोले, 'तो फिर कौन हैं वो।Ó मैंने खुद की तरफ इशारा करते हुए कहा, 'भई शशि कपूर तो तुम्हारे सामने बैठा है और विम्मी है तुम्हारी भाभी।Ó पाहवा उछल पड़े। बोले, 'इसी को कहते हैं चिराग तले अंधेरा।Ó खैर! शूटिंग का दिन आ पहुंचा। हम पति-पत्नी तैयार होकर टैक्सी से रेलवे स्टेशन पहुंच गए। शशि व विम्मी का देहरादून पहुंचने पर ट्रेन से उतरने का दृश्य फिल्माया जाना था। पर एक संकट था, लोगों को पता चलता कि शशि व विम्मी आ रहे हैं तो उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो जाता। इसलिए मैंने कैमरामैन राजेंद्र मलूनी को ऐसी जगह कैमरा लगाने को कहा, जहां लोगों की उस पर नजर न पड़े।


शूटिंग शुरू हुई हम ट्रेन से उतरे। मैंने शूट पहना हुआ था और पत्नी ने सलवार-कमीज। वहां से हम तांगे में सवार हुए और तांगा चल पड़ा। फिल्म का एक दृश्य राजपुर रोड में फिल्माया जाना था। इसमें शशि व विम्मी देहरादून के बाजार में खरीददारी कर रहे हैं और राजेंद्रनाथ खाकी नेकर में मिठाई का डिब्बा लिए उनके पीछे दौड़ रहा है। लेकिन, यहां मुश्किल खड़ी हो गई। राजेंद्रनाथ ने भी काम के चलते यहां आने से मना कर दिया। तब राजेंद्रनाथ का हमशक्ल तलाशने की जिम्मेदारी भी पाहवा ने मुझे सौंप दी।
मैं मोती बाजार के एक व्यक्ति को जानता था। उसका हलवाई का काम था और शक्ल हूबहू राजेंद्रनाथ जैसी। पूरा नाम तो याद नहीं आ रहा, लेकिन सरनेम उसका गुप्ता था। उसे राजेंद्रनाथ बनाकर फिल्म की शूटिंग पूरी हुई और मैं राजपुर रोड पर शशि कपूर बनकर घूमा।

(जैसा कि डा.आरके वर्मा ने दिनेश कुकरेती को बताया।)
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When Shashi Kapoor became RK Verma
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It is a matter of the 1960s.  Production of the film 'Patanga' began under the banner of KR Films.  Producer-director was Kedar Kapoor.  Ram Pahwa used to be his friend.  I also had a good friendship with him.  He was from Dehradun, so if he came here from Bombay, he would not stay without meeting me.  He was given the role of production controller by Kedar Kapoor.

The film was to be shot in Dehradun and Mussoorie as well, so the unit arrived here.  People like Shashi Kapoor, Vimmi, Ajit, Rajendranath, Shekhar Purohit, Laxmi Chhaya were working in the film.  But, due to work busyness, Shashi Kapoor and Vimmi had to stay in Mumbai.  The schedule was fixed, so a crisis arose in front of Kedar Kapoor and Ram Pahwa how to shoot without a heroine.


One day Ram Pahwa came to me disturbingly.  They started saying, "Bhai Verma (Dr. R.K Verma) Find a boy and girl from anywhere, whose faces match Shashi Kapoor and Vimmi." I did, but it was very difficult to find someone in the film at that time.  Getting ready to work.  Nevertheless I kept trying.

One day I suddenly thought that why should I not play the role of Shashi Kapoor.  So, went home and asked his wife, "Will you play Vimmi's role?" Her film background has been.  The father was a film producer in Bengal.  But, he refused.  Then I told that Shashi Kapoor becomes me only, so she said, "No objections."  I got relieved.

Ram Pahwa also arrived in the morning when he was sitting in the office.  Said, 'Varma made some talk. Ó I said,' Absolutely has been made. '  Your sister-in-law. Ó Pahwa jumped.  He said, "This is what is called darkness under the lamp."  Shooting day arrived.  We husband and wife got ready and reached the railway station by taxi.  The scene of Shashi and Vimmi getting off the train on reaching Dehradun was to be shot.  But there was a crisis, people would have found it difficult to control if Shashi and Vimmi were coming.  That is why I asked the cameraman Rajendra Maluni to put the camera in a place where people do not see it.


Shooting started, we got off the train.  I was wearing a shoot and my wife salwar-kameez.  From there, we rode in a tanga and started walking.  A scene from the film was to be shot in Rajpur Road.  In this, Shashi and Vimmi are shopping in Dehradun market and Rajendranath is running after them with a box of sweets in khaki necker.  But, it became difficult here.  Rajendranath also refused to come here due to work.  Then Pahwa also entrusted me with the responsibility of looking for the presence of Rajendranath.

I knew a person from Moti Bazaar.  He had a confectionary job and was exactly like Rajendranath.  Can't remember the full name, but his surname was his Gupta.  The shooting of the film was completed by making him Rajendranath and I turned around on Rajpur Road as Shashi Kapoor. 

(As Dr. RK Verma told Dinesh Kukreti.)

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Friday 25 September 2020

कला-कविता का अद्भुत मेल 'गढ़वाली चित्रकला शैलीÓ

 


कला-कविता का अद्भुत मेल 'गढ़वाली चित्रकला शैलीÓ
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दिनेश कुकरेती

16वीं से लेकर 19वीं शताब्दी तक उत्तराखंड में चित्रकला की 'गढ़वाली शैलीÓ प्रचलित थी। गढ़वाली शैली पहाड़ी शैली का ही एक भाग है, जिसका विकास गढ़वाल नरेशों के संरक्षण में महान चित्र शिल्पी मौलाराम तोमर ने किया। मौलाराम उत्तराखंड की संस्कृति, कला, इतिहास एवं साहित्य को विरचित करने वाले ऐसे शख्स का नाम है, जिसने अपनी अद्वितीय प्रतिभा से इस राज्य के इतिहास को भविष्य के लिए संजोकर रखा। मंगत राम व रामी देवी के घर 1743 में श्रीनगर (गढ़वाल) में जन्मे मौलाराम के पुरखे श्याम दास व हरदास मुगल शासकों के दरबार में चित्रकार थे। 

 वे हिमाचल प्रदेश के मूल निवासी थे, लेकिन दाराशिकोह के पुत्र सलमान शिकोह के साथ 1658 में औरंगजेब के कहर से बचने के लिए गढ़वाल नरेश पृथ्वी शाह की शरण में आ गए। महाराज ने इन्हें प्रश्रय देने के साथ राज्य में चित्रकारी आदि की जिम्मेदारी भी सौंप दी। इसी के साथ ये राजा के दरबार में शाही तस्वीरकार बन गए। इन्हीं के वंश में जन्मे मौलाराम ने 1777 से 1804  तक महाराज प्रदीप शाह, महाराज ललित शाह, महाराज जयकीर्ति शाह और महाराज प्रद्युम्न शाह के साथ कार्य किया। इस कालखंड में मौलाराम ने गढ़वाली शैली के चित्रों का आविष्कार कर यहां की चित्र शैली को न सिर्फ नई पहचान दी, बल्कि इस शैली को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक विद्यालय भी स्थापित किया। 1833 में मौलाराम ने दुनिया से विदा ली।

कुंवर प्रीतम शाह मौलाराम से चित्रकला सीखने टिहरी से श्रीनगर आते थे। उनके चित्रों में कला और कविता का अद्भुत समन्वय था। अपने जीवनकाल में उन्होंने चित्रों के साथ कई पुस्तकों व कविताओं का भी सृजन किया। उनके बनाए चित्र ब्रिटेन के संग्रहालय, बोस्टन संग्रहालय, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विवि के संग्रहालय, भारत कला भवन, बनारस, अहमदाबाद के संग्रहालय और लखनऊ, दिल्ली, कोलकाता व इलाहाबाद की आर्ट गैलरी  में देखे जा सकते हैं। इन पर बैरिस्टर मुकुंदीलाल ने 1968 में एक पुस्तक भी लिखी। इसके अलावा उन्होंने अंग्रेजी भाषा में गढ़वाल पेंटिंग्स, सम नोट्स ऑन मौलाराम, गढ़वाल स्कूल ऑफ पेंटिंग्स नाम की किताबें भी लिखीं।

मौलाराम से तुलसीराम तक का सफर
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गढ़वाली शैली के सूत्रपात का श्रेय हरदास के पुत्र हीरालाल को जाता है। मौलाराम के पिता मंगतराम इन्हीं हीरालाल के पुत्र थे। मौलाराम के बाद उनके पुत्र ज्वालाराम व पौत्र आत्माराम ने चित्रकारी जारी रखी। लेकिन, बाद में तुलसीराम के बाद उनके वंशजों ने चित्रकला छोड़ दी। यहीं से गढ़वाल शैली के अवनति का अवनति का दौर शुरू हो गया था।



उत्तराखंड के प्राचीनतम कला-स्थल
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-अल्मोड़ा की लाखु गुफा के शैल चित्र में मानव को अकेले व समूह में नृत्य करते हुए दिखाया गया है। इसके अलावा यहां रंगों से सजे विभिन्न पशुओं को भी चित्रित किया गया है।
-अल्मोड़ा के ल्वेथाप के शैलचित्र में मानव को शिकार करते हुए और हाथों में हाथ डालकर नृत्य करते हुए दिखाया गया है।
-चमोली के ग्वारख्या की गुफा में अनेक पशुओं के चित्र मिलते है, जो लाखु के चित्रों से अधिक चटख हैं ।
-चमोली के किमनी गांव के शैलचित्र में सफेद रंग से रंगे हथियार एवं पशुओं के चित्र हैं।
-उत्तरकाशी के हुडली गुफा के शैलचित्र में नीले रंग का प्रयोग किया गया है।



प्रमुख चित्र संग्रहालय
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-मौलाराम आर्ट गैलरी, श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल)
-महाराज नरेंद्र शाह संग्रह, नरेंद्रनगर (टिहरी)
-कुंवर विचित्र शाह संग्रह, टिहरी   
-राव वीरेंद्र शाह संग्रह, देहरादून
-गढ़वाल विश्वविद्यालय संग्रहालय, श्रीनगर
-गिरिजा किशोर जोशी संग्रह, अल्मोड़ा

लंदन के म्यूजिम में मौलाराम की चित्रकृतियां
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लंदन के विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूजियम में भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों से जुड़े गढ़वाल चित्र शैली के जो सात मिनिएचर (चित्रकृतियां) अपनी आभा बिखेर रहे हैं, उनका सृजन मौलाराम के हाथों हुआ माना जाता है। हालांकि, 1775 से 1870 ईस्वी के बीच बने ये मिनिएचर कब और कैसे इस म्यूजियम तक पहुंचे, इस रहस्य पर अभी भी पर्दा पड़ा हुआ है। रानी विक्टोरिया और राजकुमार एल्बर्ट के नाम से बना यह म्यूजियम सजावटी कला और अन्य चीजों का दुनिया में सबसे बड़ा म्यूजियम है।

अर्ली वॉल पेंटिंग्स ऑफ गढ़वाल के लेखक, प्रसिद्ध चित्रकार एवं शोधकर्ता प्रो.बीपी कांबोज के अनुसार लंदन के म्यूजियम में सजे लघुचित्र (मिनिएचर) जल रंगों से बने हैं। इनमें सबसे पुराना चित्र रुक्मणी-हरण (1775 से 1785) का है। इसमें झरोखे पर बैठी रुक्मणी, कृष्ण के संदेशवाहक से संदेश सुन रही है। म्यूजियम में 1820 में बना यमुना में नहाती गोपियों की पेड़ पर चढ़े श्रीकृष्ण से उनके वस्त्र लौटाने की प्रार्थना का दुर्लभ चित्र भी है। अन्य तीन चित्रों में विष्णु के मत्स्य, कूर्म व परशुराम अवतार को दर्शाया गया है। एक अन्य चित्र में राधा-कृष्ण एक पलंग पर बैठे हैं।
मौलाराम के वंशज डॉ. द्वारिका प्रसाद तोमर के अनुसार हो सकता है कि ब्रिटिशकाल में अंग्रेज इन कृतियों को साथ ले गए हों अथवा गढ़वाली राजवंश के माध्यम ये उनके हाथ लग गई हों। हालांकि, यह तो शोध के बाद ही मालूम पड़ेगा कि ये मिनिएचर मौलाराम कृत हैं या गढ़वाली शैली के किसी अन्य चित्रकार के।

गढ़वाल की कला एवं चित्रकारी
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चांदी के समान श्वेत पर्वत शिखर, कल-कल बहती चमकदार सरिताएं, हरी-भरी घाटियां एवं यहां की शीत जलवायु ने हमेशा ही पर्यटकों को गढ़वाल की ओर आकर्षित किया है। यह सौंदर्य से परिपूर्ण ऐसी भूमि है, जिसने महर्षि वाल्मीकि व कालीदास जैसे महान लेखकों को प्रेरणा प्रदान की। हालांकि, पत्थर पर नक्काशी की यहां की मूल कला धीरे-धीरे समाप्त हो गई है। लेकिन, अद्र्धशताब्दी पूर्व तक के घरों में दरवाजों पर लकड़ी की नक्काशी का कार्य आज भी देखा जा सकता है। इसके अलावा गढ़वाल के मंदिरों में भी लकड़ी की नक्काशी मौजूद है। चांदपुरगढ़ का किला, श्रीनगर मंदिर, बदरीनाथ के निकट पांडुकेश्वर, जोशीमठ के निकट देवी मादिन, देवलगढ मंदिर आदि इसके प्रमाण हैं।