Wednesday 30 November 2022

तब का मदारी, अब का मदारी


किस्सागोई

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तब का मदारी, अब का मदारी
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दिनेश कुकरेती
ह उस दौर की बात जब मोबाइल नहीं आया था। टेलीविजन में भी चैनलों की भरमार नहीं हुआ करती थी। दूरदर्शन ही तब एकमात्र लोकप्रिय चैनल था, लेकिन इसके लिए बीसियों दफा एंटीना घुमाना पड़ता था। हां, लोग सिनेमा खूब देखते थे। इसके साथ ही वीसीआर पर फिल्म देखने का भी अच्छा-खासा क्रेज था। कभी-कभी हम रात में तीन-तीन फिल्म देख लिया करते थे। लेकिन, सबसे ज्यादा मजा नुक्कडो़ं पर खेल-तमाशे देखने में आता था। खासकर काला जादू का खेल देखने में। कहीं पर डुगडुगी बजती और हम पास से गुजर रहे होते तो कदम खुद-ब-खुद ठिठक जाते। उस दौर में काला जादू का कितना रोमांच होता था, यह हमारी पीढी़ ही जानती है। जब तक खेल चलता, भय मिश्रित कौतुहल बना रहता था। मदारी और जमूरे के बीज गजब की ट्वीनिंग रहती थी।

मदारी कड़कदार आवाज में कहता, "सब अपने-अपने हाथ खोल दो।"

जमूरा जवाब देता, "खोल दिए उस्ताद।"

मदारी कहता, "कहां खोले हैं, देख नहीं रहे कई लोगों के हाथ अब भी बंधे हुए हैं।" 

उसका तीर सही निशाने पर लगता और डर के सब हाथ खोल देते। असल में मदारी अपनी बात इतने कान्फिडेंस के साथ कहता कि हमारे पास सोचने-समझने के लिए कुछ बचता ही नहीं था।

वह फिर दोहराता, "जिसके जेब में पैसे हैं और वह उन्हें छिपा रहा है तो उसे कसम हैं भगवान की। फिर न कहना कि मुंह से खून कैसे आ गया।"

हम खुद को कोसते कि क्यों आ गए तमाशा देखने और फिर चुपचाप जेब से कुछ पैसे निकालकर जमूरे की फैलाई झोली में डाल देते।
मदारी को इतनेभर से ही संतोष नहीं होता था। वह भीड़ के बीच से किसी को बुलाता और सम्मोहित कर उसके दोनों हाथ आपस में चिपका देता।
हालांकि, तब मालूम नहीं था कि हाथ सचमुच चिपकते हैं या नहीं, लेकिन उम्र बढ़ने के साथ पता चला कि वह, जिसके हाथ चिपकते थे, मदारी का ही आदमी होता था, जिसे वह भीड़ का हिस्सा बना दिया करता था।
मदारी कुछ बुदबुदाता और धीरे-धीरे उस व्यक्ति पर बेहोशी छा जाती। मदारी उसे चित्त जमीन पर लेटा देता। फिर चिल्लाकर कहता, "जमूरे! देख रहे हो इसे, क्या हाल हो गया।"

जमूरा जवाब देता, "हां, उस्ताद, देख भी रहा हूं और महसूस भी कर रहा हूं।"

"क्या महसूस कर रहे हो" उस्ताद पूछता।

जमूरा कहता, "उस्ताद! बता नहीं सकता, बेचारा...।"

यह सुन हम बगलें झांकने लगते। समझ नहीं आता कि आखिर माजरा क्या है। तभी जमीन पर चित्त लेटे व्यक्ति की तंद्रा टूटने लगती और साथ ही वह चिल्लाने भी लगता। यहां तक कि हाथ बंधे होने के बावजूद मदारी की ओर बढ़ता। ऐसा प्रतीत होता, मानो उसे मारने दौड़ रहा है। उसके माथे पर चिंता की लकीरें उभरी हुई होतीं। मदारी उसे समझाने का प्रयास करता तो वह और आक्रामक हो जाता और चिल्लाते हुए कहता, "मेरे हाथ खोल..., फिर बताता हूं तुझे।" 

हमारी इतनी तो समझ में आता कि कुछ गड़बड़ जरूर है, लेकिन क्या गड़बड़ है, यह नहीं समझ पाते और नजरें चुराते हुए चुपचाप वहां से खिसक लेते।

मितरों! आज हम डिजिटल युग में जरूर पहुंच गए हैं, पर न तो मदारियों से पीछा छूटा, न हमने जमूरे का आवरण त्यागने की ही कोशिश की। अब लगता है कि वह मदारी इन मदारियों से लाख गुना बेहतर था। वह तो सिर्फ तमाशा दिखाता था, पर इन्होंने तो देश को ही तमाशा बना दिया है। मदारी ने हमारी आंखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम सच और झूठ में फर्क तक नहीं कर पा रहे।

Thursday 17 November 2022

कहानी (गूगल पे)


कहानी

गूगल पे

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दिनेश कुकरेती

'सुनिए जी...' - बंद दरवाजे के बाहर से आवाज आई।

मनीष ने दरवाजा खोला तो सामने नीतू खडी़ थी।नीतू पति के साथ उसी मकान के एक कमरे में किराये पर रहती है, जिसमें मनीष भी किरायेदार है। पति मेहनत-मजूरी करता है और नीतू स्वयं दो-तीन घरों में किचन का काम। उम्र 27-28 साल से ज्यादा नहीं होगी। दो छोटे-छोटे बच्चे भी हैं नीतू के, लेकिन उसका चुलबुलापन इसका एहसास ही नहीं होने देता।

मनीष ने नीतू पर दृष्टि डाली तो वह सिर झुकाए याचक की-सी मुद्रा में बोली- 'पैसे भिजवाने थे अपने घर समस्तीपुर। ससुर की तबीयत खराब है। आप गूगल पे कर दोगे क्या?' उसकी मुट्ठी में दो-तीन मुडे़-तुडे़ नोट नजर आ रहे थे।

'किसे करना है गूगल पे?' - मनीष ने पूछा

'समस्तीपुर में हमारे घर के पास ही रहता है वह। नाम तो मुझे मालूम नहीं'- नीतू ने कहा। 

मनीष ने नीतू से उसका नंबर लेकर गूगल पे एप में फीड किया तो उसमें राजीव कुमार नाम शो हो रहा था। 

'क्या राजीव कुमार है उसका नाम?' - मनीष ने पूछा

'पता करती हूं', यह कहते हुए नीतू ने घर पर फोन लगाया तो दूसरी ओर से उसके देवर ने पडो़सी का नाम राजीव कुमार होने की बात स्वीकारी।

'...तो पैसे सीधे घर क्यों नहीं भेज रही हो?' - मनीष ने कहा

'घर में छोटा फोन है, खाली बात करने के लिए। उससे गूगल पे नहीं होता। इसलिए इस आदमी को पैसे भेजने पड़ते हैं। ससुर के लिए दवाइयां लानी हैं। तबीयत ज्यादा खराब है। लेकिन, कह रहे थे कि पैसे नहीं हैं उनके पास। मुझसे पैसे भेजने को कहा है। अब उनसे कैसे कहूं कि पैसे तो मेरे पास भी नहीं हैं। दो-तीन घरों में काम करके तो जैसे-तैसे महीने की गाडी़ चल पाती है।' - नीतू बोली

'...तो क्या ये आदमी दे देगा उन्हें पैसे। कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं करेगा? - मनीष ने आशंका जताते हुए पूछा

'तभी तो 1550 रुपये भिजवा रही हूं। इसमें से 50 रुपये वो रख लेगा और बाकी मेरे ससुर को देगा। वो सबसे ऐसे ही लेता है।' - नीतू ने बताया
'क्या...? गूगल पे के भी पैसे लेता है वो', मनीष ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा

'नहीं। हमारे यहां पैसे वाले लोग गरीबों से ऐसे ही तकाजा वसूलते हैं। ये तो फिर भी 50 रुपये ही ले रहा है। कई तो सौ-डेढ़ सौ भी ले लेते हैं।' - नीतू बोली

मनीष हतप्रभ था। फिर उसने चुपचाप नीतू के 1550 रुपये गूगल पे से ट्रांसफर कर दिए। नीतू ने भी मुट्ठी में बंद रुपये मनीष के हाथ में थमा दिए।

इसके बाद भी नीतू ने दो बार फिर मनीष से गूगल पे के जरिये पैसे भिजवाए, 50-50 रुपये कर समेत। मनीष हर बार गूगल पे तो कर देता है, लेकिन उसके बाद कई दिन व्यथित रहता है। नीतू की विवशता और समाज के इस संवेदनहीन बर्ताव को देखकर। कैसे लोग हैं वो, जो दूसरे की विवशता का फायदा उठाने में जरा-भी नहीं हिचकते। मैं स्वयं मनीष की जुबानी नीतू की दास्तान सुनकर व्यथित हूं, लेकिन सिवाय अफसोस व्यक्त करने के, कुछ नहीं कर सकता।
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Google pay

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Dinesh Kukreti

'Listen sir...' came a voice from outside the closed door.

When Manish opened the door, Neetu was standing in front of him. Neetu lives with her husband on rent in a room in the same house, in which Manish is also a tenant.  Husband works hard and Neetu herself does kitchen work in two-three houses.  Age will not be more than 27-28 years.  Neetu also has two small children, but her flirtatiousness does not let her realize it.

When Manish looked at Neetu, she bowed her head and said in a beggar's posture - 'We wanted to send the money to our home in Samastipur.  Father-in-law's health is bad.  What will you do on Google?  Two-three twisted notes were visible in his fist.

'Who has to do Google Pay?'  Manish asked

He lives near our house in Samastipur.  I don't know the name'- Neetu said.

When Manish took her number from Neetu and fed it in the Google Pay app, a show named Rajeev Kumar was happening in it.

'Is his name Rajeev Kumar?'  Manish asked

Saying 'I know', Neetu called at home and on the other side, her brother-in-law accepted that the name of the neighbor was Rajeev Kumar.

'...then why are you not sending the money directly home?'  Manish said

'There is a small phone in the house, to talk empty.  It doesn't work on Google.  That's why this man has to send money.  Have to bring medicines for father-in-law.  Health is very bad.  But, they were saying that they do not have money.  I have been asked to send money.  Now how can I tell them that I don't even have money.  By working in two-three houses, somehow the car can run for a month.  Neetu said

'...so will this man give them the money?  Will someone mess up somewhere?  Manish asked apprehensively.

That's why I am sending Rs 1550.  Out of this, he will keep 50 rupees and will give the rest to my father-in-law.  He takes the most like this.  Neetu told

'what...?  He also takes money from Google Pay,' Manish expressed surprise.

'No.  In our country, people with money collect similar demands from the poor.  Still he is taking 50 rupees only.  Some even take 100-150.'  Neetu said

Manish was bewildered.  Then he quietly transferred Rs 1550 to Neetu from Google Pay.  Neetu also handed over the money in her hand to Manish.

Even after this, Neetu twice again got Manish to send money through Google Pay, Rs.50-50 including tax.  Manish does it on Google every time, but after that remains distressed for many days.  Seeing Neetu's helplessness and this insensitive behavior of the society.  What kind of people are they, who do not hesitate to take advantage of others' helplessness.  I myself am distressed to hear Neetu's story from Manish's mouth, but cannot do anything except express regret.




Sunday 8 May 2022

हिमालय के रसीले जंगली फल

हिमालय के रसीले जंगली फल
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दिनेश कुकरेती
त्तराखंड के पर्वतीय अंचल को कुदरत ने बेपनाह खूबसूरती प्रदान की है। यहां प्रकृति ही नहीं, सभ्यता में, संस्कृति में, संस्कारों में, रीति-रिवाज एवं परंपराओं में जितनी स्निग्धता है, उतनी ही विविधता भी। यही वजह है कि दूर रहकर कठोर नजर आने वाला पहाड़ करीब जाने पर अंतर्मन को आल्हादित कर देता है। यह वही पहाड़ है, जो अनंतकाल से मानवता को नाना रूपों में सुख-समृद्धि बांटता रहा है और आज भी यह क्रम अनवरत जारी है। पहाड़ की उदारता देखिए कि  अपनी शरण में आए किसी भी जीव को उसने कभी भूखा-प्यासा नहीं सोने दिया। उसने अपने वनों को औषधीय संपन्नता प्रदान की तो उन्हें फूल-फलकर जन से जुडऩे का आशीष भी दिया। तभी तो हिमालय में पाए जाने वाले जंगली फल यहां की लोक संस्कृति में गहरे तक रच-बस गए। ये जंगली फल न केवल स्वाद, बल्कि सेहत की दृष्टि से भी बेहद अहमियत रखते हैं।  बेडू, तिमला, मेलू (मेहल), काफल, अमेस, दाडि़म, करौंदा, बेर, जंगली आंवला, खुबानी, हिंसर, किनगोड़, खैणु, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, गूलर, भमोरा, भिनु समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं। इन जंगली फलों में विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। अच्छी बात यह है कि इन्हीं गुणों की वजह से धीरे-धीरे ये पहाड़ की आर्थिकी से भी जुडऩे लगे हैं। दरअसल, जंगली फलों के साथ इनके पेड़, फूल, पत्ते, छाल व जड़ें विभिन्न औषधियों के निर्माण ही नहीं, रंग, चर्मशोधक आदि बनाने में भी सहायक हैं। बावजूद इसके ज्यादातर फलों की व्यावसायिक उपयोगिता के बारे में स्थानीय लोगों को जानकारी न होने के कारण वह बाजार से नहीं जुड़ पाए। अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो ये जंगली फल पहाड़ में विकास की एक नई परिभाषा गढ़ सकते हैं। आइए! कुछ प्रमुख जंगली फलों की खूबियों से हम भी परिचित हो लें।

खट्ठा-मीठा मनभावन काफल
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आप गर्मियों में उत्तराखंड आए और काफल (मिरिका एस्कुलेंटा) का स्वाद नहीं लिया तो समझिए यात्रा अधूरी रह गई। समुद्रतल से 1300 से 2100 मीटर की ऊंचाई पर मध्य हिमालय के जंगलों में अपने आप उगने वाला काफल एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण हमारे शरीर के लिए बेहद लाभकारी है। इसका छोटा-सा गुठलीयुक्त बेरी जैसा फल गुच्छों में आता है और पकने पर बेहद लाल हो जाता है। तभी इसे खाया जाता है। इसका खट्ठा-मीठा स्वाद मनभावन और उदर-विकारों में अत्यंत लाभकारी होता है। काफल अनेक औषधीय गुणों से भरपूर है। इसकी छाल का उपयोग जहां चर्मशोधन (टैनिंग) में किया जाता है, वहीं इसे भूख और मधुमेह की अचूक दवा भी माना गया है। फलों में एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होने के कारण कैंसर व स्ट्रोक के होने की आशंका भी कम हो जाती है।
काफल ज्यादा देर तक नहीं रखा जा सकता। यही वजह है उत्तराखंड के अन्य फल जहां आसानी से दूसरे राज्यों में भेजे जाते हैं, वहीं काफल खाने के लिए लोगों को देवभूमि ही आना पड़ता है। काफल के पेड़ काफी बड़े और ठंडे छायादार स्थानों में होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में मजबूत अर्थतंत्र दे सकने की क्षमता रखने वाले काफल को आयुर्वेद में 'कायफलÓ नाम से जाना जाता है। इसकी छाल में मायरीसीटीन, माइरीसीट्रिन व ग्लाइकोसाइड पाया जाता है। इसके फलों में पाए जाने वाले फाइटोकेमिकल पॉलीफेनोल सूजन कम करने सहित जीवाणु एवं विषाणुरोधी प्रभाव के लिए जाने जाते हैं।

विटामिन-सी का खजाना किनगोड़
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किनगोड़ की झाडिय़ां पहाड़ में जंगलों और रास्तों के किनारे बहुतायत में दिख जाती हैं। समुद्रतल से 1200 से 2500 मीटर तक की ऊंचाई पर पाए जाने वाले किनगोड़ का वैज्ञानिक नाम बरबरीस एरिसटाटा है। आयुर्वेद में इसे दारुहल्दी के नाम से जाना जाता है और विभिन्न बीमारियों के निदान में इसका उपयोग होता है। विश्वभर में इसकी 656 और उत्तराखंड में लगभग 22 प्रजातियां पाई जाती हैं। पारंपरिक रूप से किनगोड़ त्वचा रोग, अतिसार, जॉन्डिस, आंखों के संक्रमण, मधुमेह समेत अन्य कई बीमारियों के निदान में लाभकारी पाया जाता है। पोषक तत्वों और मिनरल्स की बात करें तो इसमें प्रोटीन 3.3 प्रतिशत, फाइबर 3.12 प्रतिशत, कॉर्बोहाइडे्रट्स 17.39 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, विटामिन-सी 6.9 मिग्रा प्रति सौ ग्राम व मैग्नीशयम 8.4 मिग्रा प्रति सौ ग्राम पाया जाता है।
आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में किनगोड़ का इतना महत्व है कि इसके एक ही पेड़ से न जाने कितने तत्व निकाल लिए जाते हैं। इसके फल में विटामिन-सी प्रचुर मात्रा में मिलता है, जो त्वचा और मूत्र संबंधी समस्याओं में अत्यंत लाभकारी है। लेकिन, इनके औषधीय गुणों से परिचित न होने के कारण आज तक किनगोड़ का फल बाजार में जगह नहीं बना पाया। जबकि, स्वाद के मामले में इस फल का कोई जवाब नहीं है। इसलिए बच्चे इसे बड़े चाव से खाते हैं।
हिमालयी रसबेरी का जवाब नहीं
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हिमालयी क्षेत्र में समुद्रतल से 750 से 1800 मीटर तक की ऊंचाई पर बहुतायत में पाया जाने वाला हिंसर (यलो रसबेरी या हिमालयन रसबेरी) बेहद जायकेदार फल है। यह भी जंगलों और पहाड़ी रास्तों पर अपने आप उगता है। हिंसर का वैज्ञानिक नाम रूबस इलिप्टिकस है, जो रोसेसी कुल का पौधा है। हिंसर में अच्छे औषधीय अवयवों के पाए जाने के कारण इसे विभिन्न रोगों के निवारण में परंपरागत औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है। प्राचीन समय से लेकर वर्तमान तक हिंसर के संपूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण और परीक्षण के उपरांत ही इसे एंटी ऑक्सीडेंट, एंटी ट्यूमर और घाव भरने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। अच्छी फार्माकोलॉजी एक्टिविटी के साथ-साथ हिंसर में पोषक तत्व, जैसे कॉर्बोहाइड्र्रेट, सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम, आयरन, जिंक और एसकारविक एसिड प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें विटामिन सी 32 प्रतिशत, मैगनीज 32 प्रतिशत, फाइबर 26 प्रतिशत और शुगर की मात्रा चार प्रतिशत तक आंकी गई है। इसके अलावा हिंसर का उपयोग जैम, जेली, विनेगर, वाइन, चटनी आदि बनाने में भी किया जा रहा है। यह मैलिक एसिड, सिटरिक एसिड, टाइट्रिक एसिड का भी अच्छा स्रोत है। यही वजह है कि धीरे-धीरे इसके फलों से बाजार भी परिचित होने लगा है।
तिमले का लाजवाब जायका
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मध्य हिमालय में समुद्रतल से 800 से 2000 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाने वाला तिमला, एक ऐसा फल है, जिसे स्थानीय लोग, पर्यटक व चरवाहा बड़े चाव से खाते हैं। तिमला, जो पौष्टिक एवं औषधीय गुणों का भंडार है। मोरेसी कुल के इस पौधे का वैज्ञानिक नाम फिकस ऑरिकुलेटा है। तिमले का न तो उत्पादन किया जाता है और न खेती ही। यह एग्रो फॉरेस्ट्री के अंतर्गत स्वयं ही खेतों की मेंड पर उग जाता है। तिमला न केवल पौष्टिक एवं औषधीय महत्व का फल है, बल्कि पर्वतीय क्षेत्रों की पारिस्थितिकी में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। पारंपरिक रूप में तिमले को कई शारीरिक विकारों, जैसे अतिसार, घाव भरने, हैजा व पीलिया जैसी गंभीर बीमारियों की रोकथाम में प्रयोग किया जाता है।

कई अध्ययनों के अनुसार तिमला का फल खाने से कई सारी बीमारियों के निवारण के साथ-साथ आवश्यक पोषक तत्वों की भी पूर्ति भी हो जाती है। इंटरनेशनल जर्नल फार्मास्युटिकल साइंस रिव्यू रिसर्च के अनुसार तिमला व्यावसायिक रूप से उत्पादित सेब और आम से भी बेहतर गुणवत्ता वाला फल है। पका हुआ फल ग्लूकोज, फ्रुक्टोज व सुक्रोज का भी बेहतर स्रोत माना गया है, जिसमें वसा व कोलस्ट्रोल नहीं होता। इसमें अन्य फलों की अपेक्षा काफी मात्रा में फाइबर और फल के वजन के अनुपात में 50 प्रतिशत तक ग्लूकोज पाया जाता है। वर्तमान में तिमले का उपयोग सब्जी, जैम, जैली और फॉर्मास्युटिकल, न्यूट्रास्युटिकल व बेकरी उद्योग में बहुतायत हो रहा है।

बारामासी फल रसीला बेडु
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प्रसिद्ध उत्तराखंडी लोकगीत 'बेडु पाको बारामासाÓ सुनते ही जीभ में बेडु(वाइल्ड फिग) के मीठे रसीले फलों का स्वाद घुल जाता है। बारामासा यानी बारह महीनों पाया जाने वाला। यह स्वादिष्ट जंगली फल उत्तरी-पश्चिमी हिमालय में निम्न से मध्यम ऊंचाई तक पाया जाता है। कई राज्यों में इसे सब्जी व औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। वैसे तो बेडु का संपूर्ण पौधा ही उपयोगी है, लेकिन इसकी छाल, जड़, पत्तियां, फल व चोप औषधीय गुणों से भरपूर हैं। पारंपरिक रूप से इसे उदर रोग, हाइपोग्लेसीमिया, टयूमर, अल्सर, मधुमेह व फंगस संक्रमण के निवारण के लिए प्रयोग किया जाता रहा है।
आयुर्वेद में बेडु के फल का गूदा कब्ज, फेफड़ों के विकार व मूत्राशय रोग विकार के निवारण में प्रयुक्त किया जाता है। जहां तक बेडु के फल की पौष्टिक गुणवत्ता का सवाल है तो इसमें प्रोटीन 4.06 प्रतिशत, फाइबर 17.65 प्रतिशत, वसा 4.71 प्रतिशत, कॉर्बोहाइड्रेट 20.78 प्रतिशत, सोडियम 0.75 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, कैल्शियम 105.4 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, पोटेशियम 1.58 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, फॉस्फोरस 1.88 मिग्रा प्रति सौ ग्राम और सर्वाधिक ऑर्गेनिक मैटर 95.90 प्रतिशत तक पाए जाते हैं। बेडु के पके हुए फल में 45.2 प्रतिशत जूस, 80.5 प्रतिशत नमी, 12.1 प्रतिशत घुलनशील तत्व व लगभग छह प्रतिशत शुगर पाया जाता है।
घिंघारू में हैं अनेक गुण
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आड़ू और बेडू के साथ पहाड़ में घिंघारू (टीगस नूलाटा) की झाडिय़ां भी छोटे-छोटे लाल रंग के फलों से लकदक हो जाती हैं। मध्य हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में समुद्रतल से 3000 से 6500 फीट की ऊंचाई पर उगने वाला घिंघारू रोजैसी कुल का बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधा है। बच्चे इसके फलों को बड़े चाव से खाते हैं और अब तो रक्तवद्र्धक औषधि के रूप में इसका जूस भी तैयार किया जाने लगा है। विदेशों में इसकी पत्तियों को हर्बल चाय बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। पर्वतीय क्षेत्र के जंगलों में पाया जाने वाला उपेक्षित घिंघारू हृदय को स्वस्थ रखने में सक्षम है। उसके इस गुण की खोज रक्षा जैव ऊर्जा अनुसंधान संस्थान पिथौरागढ़ ने की है।
संस्थान ने इसके फूल के रस से हृदयामृत तैयार किया है। घिंघारू के फलों में उक्त रक्तचाप और हाइपरटेंशन जैसी बीमारी को दूर करने की क्षमता है। जबकि, इसकी पत्तियों से निर्मित पदार्थ त्वचा को जलने से बचाता है। इसे एंटी सनवर्न कहा जाता है। साथ ही पत्तियां कई एंटी ऑक्सीडेंट सौंदर्य प्रसाधन और कॉस्मेटिक्स बनाने के उपयोग में भी लाई जाती है। घिंघारू की छाल का काढ़ा स्त्री रोगों के निवारण में लाभदायी होता है। छोटी झाड़ी होने के बावजूद घिंघारू की लकड़ी की लाठियां व हॉकी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।
हिमालयन स्ट्राबेरी है भमोरा
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हिमालय क्षेत्रों में समुद्रतल से एक हजार से 3000 मीटर तक की ऊंचाई पर या जाने वाला एक महत्वपूर्ण फल है भमोरा। कॉरनेसेई कुल के इस पौधे का वैज्ञानिक नाम कॉर्नस कैपिटाटा है। वैसे तो भमोरे का फल विरले ही खाने को मिलता है, परंतु चरावाहे आज भी जंगलों में इसे बड़े चाव से खाते हैं। सितंबर से नवंबर के मध्य पकने के बाद भमोरे का फल स्ट्रॉबेरी की तरह लाल हो जाता है, इसलिए इसे हिमालयन स्ट्राबेरी भी कहते हैं। पौष्टिक और औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ यह बेहद स्वादिष्ट भी होता है।
वर्ष 2015 में अंतरराष्ट्रीय जनरल ऑफ फार्मटेक रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भमोरा में मधुनाशी गुण भी पाए जाते हैं। इसके फल में एक महत्वपूर्ण अवयव एन्थोसाइनिन अन्य फलों की तुलना में दस से 15 गुणा ज्यादा पाया जाता है। कई वैज्ञानिक अध्ययनों में यह भी बताया गया कि भमोरा में मौजूद टेनिन को कुनैन के विकल्प के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। भमोरे के फल में पौष्टिक गुणवत्ता की बात करें तो इसमें प्रोटीन 2.58 प्रतिशत, फाइबर 10.43 प्रतिशत, वसा 2.50 प्रतिशत, पोटेशियम 0.46 मिग्रा और फॉस्फोरस 0.07 मिग्रा प्रति सौ ग्राम तक पाया जाता है।

Saturday 9 April 2022

नेगीदा के सुरों में बोलता है पहाड़


नेगीदा के सुरों में बोलता है पहाड़

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उत्तराखंड के मशहूर लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी को संगीत नाटक अकादमी की ओर से वर्ष 2018 का प्रतिष्ठित 'अकादमी सम्मानÓ दिया जाना महज व्यक्ति नहीं, बल्कि उत्तराखंड की बोली-भाषा, संस्कृति और लोक परंपराओं का सम्मान है। नेगी उत्तराखंड की लोक संस्कृति के ध्वज वाहक हैं। पहाड़ की बहू-बेटी के प्रतिनिधि और उनकी व्यथा के प्रतिबिंब हैं। पहाड़ की पहाड़ जैसी समस्याओं के युगदृष्टा हैं और अपने समय में तेजी से आ रहे बदलावों, लोगों से जुड़े सरोकारों व जनजीवन के चितेरे हैं। नेगी कवि हैं, गीतकार हैं, लोकगायक हैं और साथ ही एक गूढ़ चिंतक और लोकवाद्यों के विशेषज्ञ भी। एक व्यक्तित्व में इतने गुणों का समावेश बहुत कम देखने को मिलता है। अल्लामा इकबाल की जुबानी कहें तो- 'हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।Ó  

उत्तराखंड के इनसाइक्लोपीडिया हैं नेगीदा

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दिनेश कुकरेती

प उत्तराखंडी समाज, यहां की सभ्यता, संस्कृति, लोकजीवन, राजनीति आदि के बारे में जानना चाहते हैं तो गढऱत्न नरेंद्र सिंह नेगी के गीत सुन लीजिए। संपूर्ण तस्वीर सामने आ जाएगी। नेगी ने अपने गीतों के बोल और सुर के माध्यम से उत्तराखंडी समाज के दुख-दर्द, खुशी और जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है। किसी भी लोकगीत की भावनाओं और मान-सम्मान को ठेस पहुंचाए बिना उन्होंने हर तरह के उत्तराखंडी लोकगीत गाए हैं। उन्होंने प्रेम गीत भी रचे, लेकिन नए बिंब और रुपकों के साथ। इन गीतों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इनमें फिल्मी गीतों की तरह छिछोरापन नहीं है, बल्कि प्रेम की शालीनता और गरिमा उभरती है। हालांकि, नेगी के शुरुआती गीतों में गढ़भूमि की वंदना, यहां की प्राकृतिक सुंदरता और लोकजीवन की प्रशंसा खूब दृष्टिगोचर होती है। लेकिन, धीरे-धीरे पर्वतीय समाज की पीड़ा और यहां की व्यवस्थाजनित समस्याएं उनके गीतों में उभरती चली गईं।

उत्तराखंडी अस्मिता के प्रतीक

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12 अगस्त 1949 को पौड़ी जिले के पौड़ी गांव में जन्मे नेगी ने कॅरियर की शुरुआत पौड़ी से की थी और अब तक वे देश के विभिन्न हिस्सों में ही नहीं, दुनिया के कई मुल्कों में भी अपनी लोकमाधुर्य से भरी गायिकी का जादू बिखेर चुके हैं। हालांकि, समय के साथ-साथ गढ़वाल म्यूजिक इंडस्ट्री में कई नए गायक भी शामिल होते रहे, लेकिन नए गायकों की नई आवाज के होते हुए भी पूरा उत्तराखंड नेगी के गीतों को उसी प्यार व सम्मान के साथ आज भी वैसे ही सुनता है, जैसे आज से चार दशक पूर्व सुनता था। नेगी के गीतों का सबसे अहम पक्ष है, उनके बोल और उत्तराखंडी जनमानस के प्रति भावनाओं की गहरी धारा। यही वजह है कि उत्तराखंड के लोग दुनिया में जहां भी हैं, नेगी को अपनी अस्मिता का प्रतीक मानते हैं।

'गीतमालाÓ से शुरुआत, 'बुरांशÓ से आगे बढ़े 

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नेगी ने अपने गायिकी के सफर की शुरुआत गढ़वाली गीतमाला से की, जो दस अलग-अलग कडिय़ों में थी। लेकिन, फिर उन्होंने अपनी एलबम को अलग-अलग नाम से प्रदर्शित करना शुरू कर दिया। अपनी पहली एलबम का नाम उन्होंने 'बुरांशÓ रखा। बुरांश पर्वतीय अंचल में पाया जाना एक खूबसूरत जंगली फूल है। इस एलबम को लोगों ने हाथोंहाथ लिया और फिर तो नेगी के गीत हर उत्तराखंडी की आवाज बनते चले गए।

दुनियाभर में मिला मान-सम्मान

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नेगीदा अब तक एक हजार से भी अधिक गीत गा चुके हैं। अपनी बेहतरीन गायिकी के लिए उन्हें दुनियाभर में अलग-अलग अवसरों पर कई बार पुरस्कारों से भी नवाजा गया। आकाशवाणी लखनऊ ने उन्हें दस अन्य कलाकारों के साथ अत्याधिक लोकप्रिय लोक गीतकार की मान्यता दी और पुरस्कृत किया। यह पुरस्कार फरमाइश-ए-गीत के लिए आकाशवाणी को लोगों की ओर से भेजी गई मेल के आधार पर दिया गया।

देश-दुनिया में हर जगह नेगीदा के चाहने वाले

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नेगी देश के तमाम प्रमुख शहरों के अलावा यूएसए, आस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड, मस्कट, ओमान, बहरीन, यूएई आदि मुल्कों में बीसियों दफा अपनी प्रस्तुति दे चुके हैं। गढ़वाली-कुमाऊंनी प्रवासियों की ओर से उन्हें अक्सर देश के विभिन्न हिस्सों और विदेशों में अपनी प्रस्तुति देने के लिए आमंत्रित किया जाता है। 

जनमानस के दिलों में करते हैं राज

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नेगी के सभी गीतों के बोल हकीकत के धरातल से अंकुरित हुए हैं। इसी कारण वह उत्तराखंडी जनमानस के दिलों में राज करते हैं। वह जितने करीब गढ़वाल के हैं, उतने ही कुमाऊं और जौनसार के भी। उन्हें हर कोई सुनना चाहता है, एकांत में गुनगुनाना चाहता है। खास बात यह कि नेगी ने जो गीत गाए हैं, उनमें अधिकांश खुद ही लिखे भी हैं।

 प्रकाशित हो चुकीं तीन पुस्तक

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-'खुचकंडीÓ (अरसा और रोट ले जाने के लिए रिंगाल़ से बनी टोकरी)।

-'गाणियों की गंगा, स्याणियों का समोदरÓ (कल्पनाओं की गंगा, लालसा का समुद्र)।

-'मुट बोटी की राखÓ (मुट्ठी बंद करके रखना और तैयार रहना)। 

(नोट: इसमें नेगी ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन समेत सभी प्रमुख आंदोलनों से जुड़े गीतों को संग्रहीत किया गया है।)

'डायलन ऑफ द हिल्सÓ

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वर्ष 2007 में कोलकाता स्थित टेलीग्राफ ने नेगी को उनके वर्ष 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी और उत्तराखंड की पूरी राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ गाए आंदोलन गीत (जागर) 'नौछमि नारैणÓ के लिए लिए 'डायलन ऑफ द हिल्सÓ की संज्ञा दी थी। डायलन थॉमस 20वीं सदी के सबसे महान ब्रिटिश कवियों में से एक रहे हैं। वह अपने मूल वेल्स में एक साहित्यिक आइकन हैं।

इन फिल्मों के गीतों को दिए सुर

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चक्रचाल़, घरजवैं, सुबेरो घामs, ब्यो, कांठ्यों सी सूरज आई, मेरी गंगा होलि मैमू आली, कौथिग, बेटि-ब्वारि, बंटवारु, फ्योंलि ज्वान ह्वेगे, औंसि कि रात, छम्म घुंघुरू, जय धारी देवी, सुबेरौ घाम आदि।

नेगीदा की प्रमुख एलबम

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बुरांश, हौंसिया उमर, स्याणी, सलाण्या स्यालि़, समदोला़ क द्वी दिन, वा जुन्याली़ रात, रुमुक, माया को मुंडारो, बसंत ऐगे, बरखा, नौछमी नारैण, नयु-नयु ब्यो च, दगड़्या, तुमारी माया मा, घस्यारी, तू होलि बीरा, ठंडो रे ठंडो, टपकरा, टका छन त टकटका, हल्दी हाथ, हौंसिया उमर, जै भोले भंडारी, जय धारी देवी, छुंयाल, छिबड़ाट, घस्यारि, खुद, कैथे खुज्याणी होलि, कारगिलै लड़ै मा, उठा जागा उत्तराखंड, सौ कु नोट, अब कतगा खैल्यू आदि।

लोकमानस के पुरोधा

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जब दुनिया से हजारों बोली-भाषाएं लुप्त होती जा रही हों, तब उत्तराखंड की बोली-भाषा को न सिर्फ पुनस्र्थापित करने, बल्कि उन्हें लोकभाषा का सिरमौर बनाने की मंशा रखने वाले नेगी लोकमानस के पुरोधा भी हैं। वे उत्तराखंड के एकमात्र ऐसे लोक गीतकार एवं गायक हैं, जो अस्कोट से आराकोट और हरिद्वार से बदरीनाथ तक समान रूप से लोक में प्रतिष्ठापित हैं। 

जो लकीर खींची, उसकी बराबरी आसान नहीं

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नेगी के आने के बाद नए गायकों के लिए भी रास्ते खुले। यह अलग बात है कि उस कोलाहल में कुछ स्वर कुंद हुए तो कुछ उभरे भी। लेकिन, जो बड़ी लकीर नेगी खींच चुके हैं, उसकी बराबरी शायद ही कोई कर सके।

बारिश वाली दुपहरी में रचा पहला गीत

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नेगी ने अपना पहला गीत वर्ष 1976 में रिकॉर्ड किया था। गीत के बोल थे- 'सैरा बसग्याल बणु मा, रूड़ी कुटण मा, ह्यूंद पीसी बितैना, म्यारा सदनि इनि दिन रैना।Ó (बरसात जंगलों में, गर्मियां कूटने में, सर्दियां पीसने में बिताई। मेरे हमेशा ऐसे ही दिन रहे हैं।) जब गीत आकाशवाणी से बजा तो लोग इसके दीवाने हो गए और छोटे-बड़े हर किसी की जुबान पर इसके बोल तैरने लगे। बकौल नेगी, 'वह सन् 74 की एक बारिश वाली दोपहर थी। मेरे पिता की आंखों का ऑपरेशन होना था और मैं उनके साथ गांव से विकासनगर के लेहमन अस्पताल आया हुआ था। पिताजी वार्ड में बिस्तर पर लेटे थे और मैं बरामदे में तीन रुपये किराये वाली चारपाई पर बैठकर एकटक फुहारों को निहार रहा था। साथ ही सोच रहा था कि हमारे पहाड़ में महिलाएं तमाम कष्ट झेलने के बाद घर में बुजुर्गों की सेवा भी करती हैं और खेतों में काम भी। इसी उधेड़बुन में कब ये गीत कागज पर उतर गया, मुझे पता ही नहीं चला।Ó

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Friday 1 April 2022

सृष्टि को नवयौवन की अनुभूति कराता विक्रमी नववर्ष

सृष्टि को नवयौवन की अनुभूति कराता विक्रमी नववर्ष

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दिनेश कुकरेती

संत के आगमन के साथ धरा पुष्पों का आवरण ओढ़ चुकी है। चित्त में नवजीवन, नव उत्साह और आनंद का संचार होने से ऐसा लगता है, मानो सृष्टि ने नवयौवना का रूप धारण कर लिया हो। इसी उल्लासित वातावरण के बीच होती है भारतीय विक्रमी नववर्ष के साथ वासंतिक (चैत्र) नवरात्र की शुरुआत। 'सर्वप्रिये चारुतर वसंतेÓ में महाकवि कालीदास कहते हैं, 'नववर्ष का आरंभ जन-मन के उल्लास, उमंग एवं आनंद को द्विगुणित कर देने वाला है। वसंत हृदय में कोमल प्रवृत्तियों को जगाकर चित्त में नवजीवन, नव उत्साह, मस्ती, मादकता व आनंद प्रदान कर समस्त सृष्टि को नवयौवन की अनुभूति करा रहा है। कानन में टेसू (पलाश) के फूल, बागों में आमों पर बौर, आम्रमंजरी पर मंडराते भौंरे और कोयल की कूक मन को उद्वेलित कर वातावरण को मादक बना रही है।Ó इससे पहले, चैत्र संक्रांति से उत्तराखंड में नौनिहालों के लोकपर्व फूलदेई की शुरुआत हो चुकी होती है। यह एक तरफ आनंद का उत्सव है तो दूसरी तरफ विजय और परिवर्तन के आरंभ का प्रतीक। आइए! हम भी नववर्ष का उल्लास मनाएं।

राजा और मंत्री, दोनों ही मंगल

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ज्योतिष शास्त्र में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को वर्ष प्रतिपदा कहा गया है। यह भारतीय कालगणना का प्रथम दिन है। इसी दिन से भारतीय विक्रमी नववर्ष की शुरुआत होती है। इस बार 13 अप्रैल 2021 से विक्रमी संवत-2078 प्रारंभ हो रहा है। इसे 'राक्षसÓ संवत्सर के नाम से जाना जाएगा। नए संवत्सर के राजा और मंत्री, दोनों मंत्री होंगे।



















यही सौर संवत्सर, यही चंद्र संवत्सर

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विक्रमी संवत में सूर्य व चंद्रमा, दोनों की गति का ध्यान रखा जाता है। इसलिए यह सौर संवत्सर भी है और चंद्र संवत्सर भी। चंद्रवर्ष का सौर वर्ष से मेल-मिलाप ठीक रखने के लिए ही शुद्ध वैज्ञानिक आधार पर प्रत्येक तीन वर्ष बाद एक माह या अधिकमास की अतिरिक्त व्यवस्था की गई है। बीच-बीच में नक्षत्रों की स्थिति के अनुरूप तिथियों की घटत-बढ़त की जाती है। 

140 या 190 वर्ष में आता है क्षयमास

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भारतीय कालगणना में अधिकमास की तरह क्षयमास की भी व्यवस्था है। कालगणना में जो मामूली सूक्ष्म भेद रह जाता है, वह क्षयमास से पूरा होता है। क्षयमास वर्ष में कुल 11 चंद्रमास होते हैं, जो लगभग 140 या 190 वर्ष में एक बार आता है। 

स्वास्थ्य ठीक रखने को यह भी है परंपरा

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उत्तराखंड में नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवायन मिलाकर खाने की परंपरा भी है। आम धारणा है कि ऐसा करने पर रक्त विकार आदि शारीरिक रोग शांत रहते हैं और पूरे वर्ष स्वास्थ्य ठीक रहता है।

सभी पर्व-त्योहारों का आधार विक्रमी संवत

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धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार पर भारत में लगभग 30 संवत प्रचलन में हैं। इनमें से कुछ चंद्र संवत हैं और कुछ सौर संवत। लेकिन, जो संवत सबसे अधिक लोकप्रिय है, वह है विक्रमी संवत। हमारे सभी पर्व-त्योहार इसी के आधार पर मनाए जाते हैं।

Monday 14 March 2022

गोधूलि की बेला में फूलों से महक जाती है दहलीज


गोधूलि की बेला में फूलों से महक जाती है दहलीज

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दिनेश कुकरेती

कैसा मनमोहक नजारा है। कंदराएं बुरांश की लालिमा और गांव आडू़ व खुबानी के गुलाबी-सफेद फूलों से दमक रहे हैं। दूर पहाड़ों के घर-आंगन ऋतुरैंण और चैती गायन में डूब गए हैं। गोधूलि की बेला में नौनिहाल फ्योंली, बुरांश, मेलू, बासिंग, कचनार, आडू़, खुबानी, पुलम आदि के फूल चुनकर लौट आए हैं। अब इन फूलों को वो रिंगाल की टोकरी में सजाकर हर घर की देई (देहरी) पर बिखेर रहे हैं और गा रहे हैं, 'फूलदेई थाली, फूलदेई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार, फूले द्वार...फूल देई-छम्मा देई।Ó 

हर घर से मिलता है आशीष

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बचपन में हम भी ऐसे ही फूलों की टोकरी सजाकर गांव के घर-घर घूमा करते थे। इस टोकरी में गेहूं-जौ की नन्हीं बालियां भी होती थीं। जिस घर की देहरी पर हम फूल डालते, उस घर से हमें आशीर्वाद के साथ पीतल का सिक्का, गुड़, चावल व सई खाने को मिलते और खिलखिला उठते हमारे चेहरे। शायद इसीलिए बैशाख संक्रांति तक चलने वाले फूलदेई को बच्चों का त्योहार कहा जाता है। आज भी दूर-दराज के गांवों में बेटियां रोज गोधूलि बेला में पड़ोसियों की दहलीज पर फूल डालकर गाती हैं, 'फूलदेई-फूलदेई फूल संगरांद, सुफल करो नयो साल तुमुक श्री भगवान, रंगीला-सजीला फूल ऐ गीं, डाला-बोटला हर्या ह्वेगीं, पौन-पंछी दौड़ी गैना, डाल्यूं फूल है सदा रैन।Ó

चैत में ब्याहता बेटी को भेजी जाती है भिटोली

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कई गांवों में बच्चों के अलावा परिवार के सभी लोग अपने घरों में बोई गई हर्याल (हरियाली) की टोकरियों को गांव के चौक पर इकट्ठा कर उसकी सामूहिक पूजा करते हैं। फिर हर्याल को अपनी देहरी पर सजाया जाता है। चैत के महीने पहाड़ में ब्याहता बेटियों (धियाण) को कलेवा देने का रिवाज भी है। कुमाऊं में इसे भिटोली (भेंट) कहा जाता है। एक दौर में यह मायके वालों के पास बेटी की कुशलक्षेम पूछने का बहाना भी हुआ करता था। तब भाई कलेवा या भिटोली लेकर बहन के मायके जाता था। बहन खुशी-खुशी अपने आस-पड़ोस में इस कलेवा को बांटती थी। हालांकि, यह परंपरा अब रस्मी हो चली है।

घर-आंगन में चैती गायन की धूम

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इसके अलावा पहले गांव में दास (ढोल-दमाऊ वादक) घर-घर जाकर शुभकामनाएं देते थे। इस दौरान वे चैती गायन करते थे, यथा- 'तुमरा भंडार भरियान, अन्न-धनल बरकत ह्वेन, औंद रयां ऋतु मास, औंद रयां सबुक संगरांद। फूलदेई-फूलदेई फूल संगरांद।Ó (तुम्हारे भंडार भरे रहें, अन्न-धन की वृद्धि हो, ऋतु और महीने आते रहें, सबके लिए सक्रांति का पर्व खुशियां लेकर आता रहे)। इसी दिन के बाद वे गांव की हर धियाण के ससुराल दान मांगने के लिए जाते थे।

Sunday 6 March 2022

रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ















रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ

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होली के जैसे रंग ब्रजमंडल में हैं, कमोवेश वैसे ही देवभूमि उत्तराखंड में भी। बावजूद इसके पर्वतीय अंचल में होली गीतों के प्रस्तुतिकरण और उनके गायन-वादन में पहाड़ की मूल सुंगध साफ महसूस की जा सकती है। शास्त्रीयता और गीतों की विविधता उत्तराखंड की होली को विशिष्टता प्रदान करती है। यहां होली गायक की अवधि सबसे लंबी होती है, खासकर पिथौरागढ़ में तो यह रामनवमी तक गाई जाती है। आइए! आपको भी होली के इसी बहुरंगी स्वरूप से परिचित कराएं-

दिनेश कुकरेती

होली वसंत का यौवनकाल है और ग्रीष्म के आगमन का सूचक भी। ऐसे में कौन भला इस उल्लास में डूबना नहीं चाहेगा। फिर भारतीय परंपरा में तो त्योहार चेतना के प्रतीक माने गए हैं। वे जीवन में आशा, आकांक्षा, उत्साह व उमंग का ही संचार नहीं करते, बल्कि मनोरंजन, उल्लास व आनंद देकर उसे सरस भी बनाते हैं। वसंत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है और फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु अमृतप्राण हो उठती है। इसलिए होली को 'मन्वंतरांभÓ भी कहा गया है। यह 'नवान्नवेष्टिÓ यज्ञ भी है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्राचीन आर्यजन नए गेहूं व जौ की बालियों से अग्निहोत्र का प्रारंभ करते थे, जिसे कर्मकांड परंपरा में 'यवग्रहणÓ यज्ञ का नाम दिया गया। संस्कृत में अन्न की बाल को होला कहते हैं। जिस उत्सव में नई फसल की बालों को अग्नि पर भूना जाता है, वह होली है। अग्नि जलाकर उसके चारों ओर नृत्य करना आदिकालीन प्रथा है।

होली से अनेक कथाएं जुड़ी हैं। एक है प्रह्लाद एवं होलिका की कथा। सुप्रसिद्ध कवियत्री महादेवी वर्मा इसकी व्याख्या इस तरह करती हैं, 'प्रह्लाद का अर्थ परम आह्लाद या परम आनंद है। किसान के लिए नए अन्न से अधिक आनंददायी और क्या हो सकता है। अपनी फसल पाकर और मौसम की प्रतिकूलताओं से मुक्त होकर आत्मविभोर किसान नाचता है, गाता है और अग्निदेव को नवान्न की आहुति देता है।Ó दूसरी कथा ढूंडा नामक राक्षसी की है, जो बच्चों को बहुत पीड़ा पहुंचाती थी। एक बार वह पकड़ी गई और लोगों ने क्रोध में आकर उसे जिंदा जला दिया। इसी घटना की स्मृति में होली जलाई जाती है। यदि ढूंडा को ठंड नामक राक्षसी मान लें तो बच्चों के कष्ट और राक्षसी के जलने की खुशी की बात सहज समझ में आ जाती है।














बहरहाल! कारण कुछ भी हों, लेकिन होली का उत्सव आते ही संपूर्ण देवभूमि राधा-कृष्ण के प्रणय गीतों से रोमांचित हो उठती है। होली प्रज्ज्वलित करने से लेकर रंगों के खेलने तक यही उसका रूप जनमानस को आकर्षित करता है। आज भी रंगों की टोली प्रेयसी के द्वार पर आ धमकती है तो वही गीत मुखरित हो उठता है, जो कहते हैं कृष्ण ने राधा के द्वार खड़े होकर उनसे कहा था, 'रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ।Ó

अध्यात्म से उल्लास की ओर 

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उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में शास्त्रीय संगीत पर आधारित बैठकी होली गायन की परंपरा 150 साल से चली आ रही है। यह होली विभिन्न रागों में चार अलग-अलग चरणों में गाई जाती है, जो होली के टीकेतक चलती है। पहला चरण पौष के प्रथम रविवार को आध्यात्मिक होली 'गणपति को भज लीजे मनवाÓ से शुरू होकर माघ पंचमी के एक दिन पूर्व तक चलता है। माघ पंचमी से महाशिवरात्रि के एक दिन पूर्व तक के दूसरे चरण में भक्तिपरक व शंृगारिक होली गीतों का गायन होता है। तीसरे चरण में महाशिवरात्रि से रंगभरी एकादशी के एक दिन पूर्व तक हंसी-मजाक व ठिठोली युक्त गीतों का गायन होता है। रंगभरी एकादशी से होली के टीके तक मिश्रित होली की स्वरलहरियां चारों दिशाओं में गूंजती रहती हैं। विदित रहे कि पहले से तीसरे चरण तक की होली सायंकाल घर के भीतर गुड़ के रसास्वादन के बीच पूरी तन्मयता से गाई जाती है। चौथे चरण में बैठी होली के साथ ही खड़ी होली गायन का भी क्रम चल पड़ता है। इसे चीर बंधन वाले स्थानों अथवा सार्वजनिक स्थानों पर वाद्य यंत्रों के साथ लयबद्ध तरीके से गाया जाता है। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि पहाड़ में बैठकी होली गीत गायन का जनक रामपुर के उस्ताद अमानत उल्ला को माना जाता है। उन्होंने ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1860 में सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से इसकी शुरुआत की थी। तब से अब तक लोक के संवाहक इस परंपरा का बदस्तूर निर्वहन करते आ रहे हैं। 














इन शास्त्रीय रागों पर होता है गायन

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पहाड़ में बैठकी होली का गायन शास्त्रीय रागों पर आधारित होता है। यह होलियां पीलू, भैरवी, श्याम कल्याण, काफी, परज, जंगला काफी, खमाज, जोगिया, देश विहाग, जै-जैवंती आदि शास्त्रीय रागों पर विविध वाद्य यंत्रों के बीच गाई जाती हैं।


















ब्रज के गीतों में पहाड़ की सुगंध

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पर्वतीय अंचल में गाए जाने वाले होली गीत हालांकि ब्रज से आए प्रतीत होते हैं, लेकिन यहां आकर ये लोक के रंग में इस कदर रचे-बसे कि स्थानीय लोक परंपरा का अभिन्न अंग बन गए। यही विशेषता उत्तराखंड खासकर कुमाऊं की बैठ (बैठकी) होलियों की भी है। शास्त्रीय रागों पर आधारित होने के बावजूद इनके गायन में शिथिलता दिखाई देती है। जिससे शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक के सुर में अपना सुर जोड़ देता है। गढ़वाल अंचल के श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी और उससे लगे इलाकों में भी होली का कुमाऊं जैसा स्वरूप ही नजर आता है। यहां की होली में भी मेलू (मेहल) के पेड़ की डाली को होलिका के प्रतीक रूप में जमीन में गाड़कर प्रतिष्ठित करने और होली गाने का चलन है। एक जमाने में गढ़वाल की राजधानी रहे श्रीनगर और पुरानी टिहरी के राजदरबारों में भी होली गायन की समृद्ध परंपरा विद्यमान रही है। गढ़वाल में होली को होरी कहा जाता है और सभी होरी गीतों में ब्रजमंडल के ही गीतों का गढ़वालीकरण किया हुआ लगता है। अमूमन सभी होली गीतों में कहीं-कहीं गढ़वाली शब्द मिलते हैं, शेष पदावली ब्रजभाषा या खड़ी बोली की रहती है। हालांकि, गढ़वाल में प्रचलित होली गीतों में ब्रज की तरह कृष्ण-राधा या कृष्ण ही मुख्य विषय नहीं होते। यहां अंबा, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण आदि कई विषयवस्तु के रूप में प्रयुक्त होते हैं और सबका समान आदर गढ़वाली होली के नृत्यगीतों में होता है।

 

खड़ी-बैठ होली के रंग

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कुमाऊं की होली में ब्रज और उर्दू का प्रभाव साफ झलकता है। मुगलों, राजे-रजवाड़ों के मेल-मिलाप से ये परंपरा बनी। कुमाऊं की होली गायकी को लोकप्रिय बनाने में जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दाÓ का अहम योगदान रहा। यहां प्रचलित होली के तीन भेद बताए गए हैं। जैसे बैठ होली बैठकों में शास्त्रीय ढंग से गाई जाती है, तो खड़ी होली में ढोल-नगाड़ा होता है और पूरा समूह झोंक के साथ नाचता है। महिला होली इन दोनों का मिश्रित रूप है। इसमें स्वांग भी है, ठुनक-मुनक भी है और गंभीर अभिव्यक्तियां भी। लेकिन, सबसे ज्यादा जो दिखता है, वो है देवर-भाभी का मजाक। जैसे-'मेरो रंगीलो देवर घर ऐरों छो, कैं होणी साडी कैं होणी जंफर, मी होणी टीका लैंरो छो, मेरो रंगीलो देवर।Ó हालांकि समय के साथ पीढिय़ों से चली आ यह परंपरा अब कुछ सिमट सी गई है। 

श्रृंगार व दर्शन का उल्लास

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गढ़वाल में जब होल्यार किसी गांव में प्रवेश करते हैं तो गाते हुए नृत्य करते हैं, 'खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर, दरसन दीज्यो माई अंबे, झुलसी रहो जी। तीलू को तेल कपास की बाती, जगमग जोत जले दिन-राती, झुलसी रहो जी।Ó इष्ट देव व ग्राम देवता की पूजा के बाद होल्यार गोलाकार में नाचते-गाते हैं। यह अत्यंत जोशीला नृत्य गीत है, जिसमें उल्लास के साथ श्रृंगार का भी समावेश दिखाई देता है। ऐसा ही नृत्य-गीतेय शैली का एक भजन गीत है, जिसमें उल्लास के साथ मां भवानी की स्तुति की जाती है। यथा, 'हर हर पीपल पात, जय देवी आदि भवानी, कहां तेरो जनम निवास, जय देवी आदि भवानी।Ó श्रृंगार व दर्शन प्रधान यह गीत भी होली में प्रसिद्ध है, 'चंपा-चमेली के नौ-दस फूला, पार ने गुंथी हार शिव के गले में बिराजे।Ó श्रृंगार व उत्साह से भरे इस गीत में होल्यार ब्रज की होली का दृश्य साकार करते हैं। यथा-'मत मारो मोहनलाला पिचकारी, काहे को तेरो रंग बनो है, काहे की तेरी पिचकारी, मत मरो मोहन पिचकारी।Ó जब होल्यारों की टोली होली खेल चुकी होती है, तब आशीर्वाद वाला यह नृत्य-गीत गाया जाता है, 'हम होली वाले देवें आशीष, गावें-बजावें देवें आशीष।Ó
















यह गीत भी हैं प्रसिद्ध

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-ऐ गे बसंत ऋतु, ऐगेनी होली, आमू की डाली में कोयल बोली।

-उडिगो छो अबीर-गुलाल, हिमाला डाना लाल भयो, केसर रंग की बहार, हिमाला डाना लाल भयो।

-बांज-बुरांश का कुमकुम मारो, डाना-काना रंग दे बसंती नारंगी। 

-तुम विघ्न हरो महाराज, होली के दिन में।

-मुबारक हो मंजरी फूलों भरी, ऐसी होली खेलें जनाब अली।

-चंद्रबदन खोलो द्वार, कि हर मनमोहन ठाडे।

माघ पंचमी से शुरू हो जाती है होली

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होली का पर्व फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाता है। पहले दिन होलिका दहन होता है, जबकि दूसरा दिन धुलेंडी के नाम है। इस दिन लोग एक-दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं और ढोल की थाप पर होली के गीत गाते हुए घर-घर जाकर लोगों को रंग लगाते हैं। एक-दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है।

राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग यानी संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुंचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपने चरम पर होती है। फाल्गुन में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। इसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है और शुरू हो जाता है फाग एवं धमार का गायन। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा बिखरने लगती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूं की बालियां इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी सारे संकोच और रूढिय़ां भूलकर ढोलक-झांझ-मंजीरों की धुन पर नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी और चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा महात्म्य माना गया है।

अनूठा था होली का मुगलिया अंदाज

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इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था, लेकिन अधिकांशत: यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। जैमिनी के 'पूर्वमीमांसा सूत्रÓ और कथा गार्ह सूत्र, 'नारद पुराणÓ और 'कथा गाह्र्य सूत्रÓ 'नारद पुराणÓ, 'भविष्य पुराणÓ आदि प्राचीन ग्रंथों में भी होली का उल्लेख मिलता है। संस्कृत साहित्य में वसंत ऋतु और वसंतोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। प्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। 

सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की। इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। इस काल में बादशाह अकबर का जोधाबाई और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। शाहजहां के समय तक होली खेलने का मुगलिया अंदाज बदल चुका था। उस दौर में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।

विजयनगर की राजधानी रही हंपी के 16वीं सदी के एक चित्रफलक पर भी होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमार- राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दंपती को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। 16वीं सदी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपती को बगीचे में झूला झूलते दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएं नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। 17वीं सदी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है।

मिठास, मिजाज और अल्हड़पन

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देश के विभिन्न हिस्सों में होली का गायन अमूमन मार्च-अप्रैल तक होता है। इस समय काफी राग को गाने का प्रचलन है। बनारस घराने की विशिष्टता पूर्वी अंग है, जहां दादरा गाया जाता है। इसमें ज्यादा मिठास, मिजाज और अल्हड़पन का समावेश दिखता है। पीलू व काशी धुनें भी यहां गाई जाती हैं। अवधी होली में उलारा धुनों की खास अहमियत है। इसी पर आधारित होली गीत 'होरी खेले रघुवीरा अवध मेंÓ काफी प्रचलित है। 'रंग डारूंगी नंद के लालन पेÓ, 'कैसी धूम मचाईÓ, 'आंखें भरत गुलाल रसिया ना मारे रेÓ जैसे गीत भी पूर्वी अंग में प्रचलित होली गीतों में से हैं। जबकि, ब्रज में होली गीत कृष्ण पर ही केंद्रित होते हैं। वहां के गीतों में खुलापन है और लीला वर्णन ज्यादा है। रसिया होली धुनों पर ही गीत गाए जाते हैं। 'आज बिरज में होरी रे रसियाÓ जैसे होली गीत ब्रज में प्रसिद्ध हैं। राजस्थान में परंपरा एवं उत्साह को तवज्जो दी जाती है। यहां के होली गीत ब्रज से मिलते-जुलते हैं। इसी समय से गांवों में फाग और चैती गायन शुरू हो जाता है। उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में जोगीरा का गायन होता है। यहां शब्दों में खुलापन मिलता है। 

साहित्य में होली

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-श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है।

-हर्ष की 'प्रियदर्शिकाÓ, कालीदास के 'कुमारसंभवÓ और 'मालविकाग्निमित्रमÓ में रंग नामक उत्सव का वर्णन है।

-चंदवरदाई की 'पृथ्वीराज रासोÓ में होली का वर्णन है।

-संस्कृत के भारवि और माघ जैसे प्रसिद्ध कवियों ने वसंत की खूब चर्चा की है।

-महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर 78 पद लिखे हैं।

-सूफी संत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह जफर जैसे कवियों ने भी होली पर खूब लिखा है।

संगीत में होली

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-शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है। धु्रपद, छोटा व बड़ा खयाल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है।

-कथक नृत्य के साथ धमार, धु्रपद और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली कई सुंदर बंदिशें होली के गीतों पर हैं। इनमें चलो गुइंयां आज खेलें होरी कन्हैया घर और खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होली सखी जैसी बंदिशें काफी लोकप्रिय हैं।

-बसंत, बहार, हिंडोल जैसे कई राग हैं, जिनमें होली के गीत प्रमुखता से गाए जाते हैं।

-उपशास्त्रीय संगीत के अंतर्गत चैती, दादरा, ठुमरी आदि में भी होली गीत खूब गाए जाते हैं।