राजवंशों के दौर में मुनादी करने वाला नगाड़ा
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दिनेश कुकरेती
धतिया या धदिया का अर्थ है किसी खास कार्य की सूचना या आपदा आदि की चेतावनी देने के लिए ऐसी जोरदार आवाज (धात या धाद) उत्पन्न करना, जो दूर-दूर तक सुनाई दे। डौंडी पीटने (मुनादी करना) का यह कार्य गढ़वाल-कुमाऊं में रोहिल्ला, कत्यूरी, चंद, पंवार आदि राजवंशों के दौर में धतिया नगाड़े के माध्यम से होता था। तब आज की तरह संचार के साधन नहीं थे, इसलिए राजा को अपने राज्य में अकस्मात कोई सूचना देनी होती थी या किसी राज्य पर चढ़ाई करनी होती थी तो यह नगाड़ा ही संदेश वाहक का काम करता था। इसे 'दैन दमुÓ भी कहते थे, क्योंकि यह दाहिनी ओर से बजाया जाता था। हालांकि, अब धतिया नगाड़े चुनिंदा स्थानों पर ही रह गए हैं।
15 किलो से अधिक वजनी होते थे नगाड़े
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तांबे या अष्ट धातु से बना यह नगाड़ा हालांकि दिखने में सामान्य नगाड़े की तरह ही होता था, लेकिन आकार में आजकल के नगाड़ों से कहीं अधिक बड़ा होता था। अमूमन 15 किलो से अधिक वजनी इस नगाड़े के पुड़े का व्यास लगभग डेढ़ फीट हुआ करता था। चंद राजाओं की ओर से कुमाऊं के जागेश्वर धाम में चढ़ाया गया धतिया नगाड़ा आज भी देखा जा सकता है। इसका वजन 16 किलो और पुड़े का व्यास लगभग 18 इंच है। इस नगाड़े को राजा दीप चंद ने जागेश्वर धाम में चढ़ाया था। इस नगाड़े को वृद्ध जागेश्वर के पास 'धती ढुंगÓ से बजाया जाता था। इस स्थान से रीठागाड़ी, गंगोलीहाट, चौकोड़ी और बेरीनाग तक साफ दिखाई देते हैं। तब गंगोलीहाट मणकोटी शासकों के अधीन हुआ करता था।
'धती ढुंगÓ पर रखकर बजाया जाता था धतिया नगाड़ा
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धतिया नगाड़ा बजाने के लिए राजशाही के दौर में ऐसे स्थान नियत होते थे, जहां से इसकी आवाज स्पष्ट रूप में दूर-दूर तक पहुंच जाए। जिस पत्थर पर रखकर इस नगाड़े को बजाया जाता था, उसे 'धती ढुंगÓ (नगाड़ा रखने के लिए नियत एक खास प्रकार का पत्थर) कहते थे। इसे लकड़ी के दो मोटे एवं मजबूत सोटों (लांकुड़) से बजाया जाता था।
साथ में बजते थे सहायक वाद्य
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राजशाही के दौर में धतिया नगाड़ा बजाना वीरता का प्रतीक माना जाता था। नगाड़े के सहायक वाद्य के रूप में दो विजयसार के ढोल, दो तांबे के दमाऊ, दो तुरही, दो नागफणी, दो रणसिंघा, दो भंकोर और दो कंसेरी बजाई जाती थी। बजाने से पहले इनकी विधिवत पूजा कराई जाती थी।
भैंसे के चर्म से बनती थी नगाड़े का पूड़ा
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धतिया नगाड़े का पुड़ा भैंस के चर्म से तैयार होता था। इसके लिए विशेष तौर से चार से पांच साल की आयु के भैंसे की खाल को चुना जाता था। खाल को धूप में अच्छी तरह सुखाकर फिर उसे कुछ दिन तेल में भिगाने रख दिया जाता था। तेल में रखने से पुड़ा नर्म एवं मजबूत हो जाता था और डंडे की मार से फटता भी नहीं था। नगाड़ा तैयार हो जाने के बाद पुड़े की नरमी बरकरार रखने के लिए साल में तीन से चार बार इस पर काले तिल का तेल या घी लगाया जाता था। फिर आग के सामने इसको आंच दिखाई जाती थी, ताकि घी या तेल अंदर तक चला जाय। नगाड़े की डोरियां भी भैंसे की आंत के चमड़े से ही तैयार की जाती थीं।
पिथौरागढ़ के कनार गांव में है उत्तराखंड का सबसे बड़ा नगाड़ा
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छिपला केदार पर्वत माला के मध्य समुद्रतल से आठ हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित पिथौरागढ़ जिले के अंतिम गांव कनार भगवती कोकिला के मंदिर में ऐसा ही नगाड़ा मौजूद है। इसे उत्तराखंड का सबसे बड़ा नगाड़ा होने का गौरव हासिल है। मंदिर में जब मेले का आयोजन होता है तो इसी नगाड़े को बजाकर मां भगवती की पूजा होती है। भगवती कोकिला मल्ला अस्कोट के गोरी छाल क्षेत्र की आराध्य देवी हैं। 22 धानी के इस नगाड़े को मंदिर के प्रांगण में ही बजाया जाता है। जबकि दूसरे 12 धानी के नगाड़े को डंडे के सहारे दो लोग कंधे पर टांगकर मंदिर के चारों ओर घुमाते हैं और तीसरा व्यक्ति इसे बजाता है।
मंदिरों में नगाड़े पर ही लगती है नौबत
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देवभूमि के प्रसिद्ध मंदिरों में आज भी नौबत (नौ तरह के स्वर) लगाने के लिए नगाड़ा बजाने की परंपरा है। नौबत में समय के साथ लय-ताल भी भिन्न-भिन्न होती है। इसका मुख्य उद्देश्य लोक का जागृत करना (जगाता) है। दरअसल, पुराने समय में किसी भी आपदा, उत्सव, अनुष्ठान आदि के बारे में मंदिरों से ही सूचना प्रसारित होती थी। साथ ही पूजा-अनुष्ठानों में भी नगाड़ा बजता था।
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