Friday, 25 September 2020

कला-कविता का अद्भुत मेल 'गढ़वाली चित्रकला शैलीÓ

 


कला-कविता का अद्भुत मेल 'गढ़वाली चित्रकला शैलीÓ
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दिनेश कुकरेती

16वीं से लेकर 19वीं शताब्दी तक उत्तराखंड में चित्रकला की 'गढ़वाली शैलीÓ प्रचलित थी। गढ़वाली शैली पहाड़ी शैली का ही एक भाग है, जिसका विकास गढ़वाल नरेशों के संरक्षण में महान चित्र शिल्पी मौलाराम तोमर ने किया। मौलाराम उत्तराखंड की संस्कृति, कला, इतिहास एवं साहित्य को विरचित करने वाले ऐसे शख्स का नाम है, जिसने अपनी अद्वितीय प्रतिभा से इस राज्य के इतिहास को भविष्य के लिए संजोकर रखा। मंगत राम व रामी देवी के घर 1743 में श्रीनगर (गढ़वाल) में जन्मे मौलाराम के पुरखे श्याम दास व हरदास मुगल शासकों के दरबार में चित्रकार थे। 

 वे हिमाचल प्रदेश के मूल निवासी थे, लेकिन दाराशिकोह के पुत्र सलमान शिकोह के साथ 1658 में औरंगजेब के कहर से बचने के लिए गढ़वाल नरेश पृथ्वी शाह की शरण में आ गए। महाराज ने इन्हें प्रश्रय देने के साथ राज्य में चित्रकारी आदि की जिम्मेदारी भी सौंप दी। इसी के साथ ये राजा के दरबार में शाही तस्वीरकार बन गए। इन्हीं के वंश में जन्मे मौलाराम ने 1777 से 1804  तक महाराज प्रदीप शाह, महाराज ललित शाह, महाराज जयकीर्ति शाह और महाराज प्रद्युम्न शाह के साथ कार्य किया। इस कालखंड में मौलाराम ने गढ़वाली शैली के चित्रों का आविष्कार कर यहां की चित्र शैली को न सिर्फ नई पहचान दी, बल्कि इस शैली को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक विद्यालय भी स्थापित किया। 1833 में मौलाराम ने दुनिया से विदा ली।

कुंवर प्रीतम शाह मौलाराम से चित्रकला सीखने टिहरी से श्रीनगर आते थे। उनके चित्रों में कला और कविता का अद्भुत समन्वय था। अपने जीवनकाल में उन्होंने चित्रों के साथ कई पुस्तकों व कविताओं का भी सृजन किया। उनके बनाए चित्र ब्रिटेन के संग्रहालय, बोस्टन संग्रहालय, हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विवि के संग्रहालय, भारत कला भवन, बनारस, अहमदाबाद के संग्रहालय और लखनऊ, दिल्ली, कोलकाता व इलाहाबाद की आर्ट गैलरी  में देखे जा सकते हैं। इन पर बैरिस्टर मुकुंदीलाल ने 1968 में एक पुस्तक भी लिखी। इसके अलावा उन्होंने अंग्रेजी भाषा में गढ़वाल पेंटिंग्स, सम नोट्स ऑन मौलाराम, गढ़वाल स्कूल ऑफ पेंटिंग्स नाम की किताबें भी लिखीं।

मौलाराम से तुलसीराम तक का सफर
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गढ़वाली शैली के सूत्रपात का श्रेय हरदास के पुत्र हीरालाल को जाता है। मौलाराम के पिता मंगतराम इन्हीं हीरालाल के पुत्र थे। मौलाराम के बाद उनके पुत्र ज्वालाराम व पौत्र आत्माराम ने चित्रकारी जारी रखी। लेकिन, बाद में तुलसीराम के बाद उनके वंशजों ने चित्रकला छोड़ दी। यहीं से गढ़वाल शैली के अवनति का अवनति का दौर शुरू हो गया था।



उत्तराखंड के प्राचीनतम कला-स्थल
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-अल्मोड़ा की लाखु गुफा के शैल चित्र में मानव को अकेले व समूह में नृत्य करते हुए दिखाया गया है। इसके अलावा यहां रंगों से सजे विभिन्न पशुओं को भी चित्रित किया गया है।
-अल्मोड़ा के ल्वेथाप के शैलचित्र में मानव को शिकार करते हुए और हाथों में हाथ डालकर नृत्य करते हुए दिखाया गया है।
-चमोली के ग्वारख्या की गुफा में अनेक पशुओं के चित्र मिलते है, जो लाखु के चित्रों से अधिक चटख हैं ।
-चमोली के किमनी गांव के शैलचित्र में सफेद रंग से रंगे हथियार एवं पशुओं के चित्र हैं।
-उत्तरकाशी के हुडली गुफा के शैलचित्र में नीले रंग का प्रयोग किया गया है।



प्रमुख चित्र संग्रहालय
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-मौलाराम आर्ट गैलरी, श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल)
-महाराज नरेंद्र शाह संग्रह, नरेंद्रनगर (टिहरी)
-कुंवर विचित्र शाह संग्रह, टिहरी   
-राव वीरेंद्र शाह संग्रह, देहरादून
-गढ़वाल विश्वविद्यालय संग्रहालय, श्रीनगर
-गिरिजा किशोर जोशी संग्रह, अल्मोड़ा

लंदन के म्यूजिम में मौलाराम की चित्रकृतियां
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लंदन के विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूजियम में भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों से जुड़े गढ़वाल चित्र शैली के जो सात मिनिएचर (चित्रकृतियां) अपनी आभा बिखेर रहे हैं, उनका सृजन मौलाराम के हाथों हुआ माना जाता है। हालांकि, 1775 से 1870 ईस्वी के बीच बने ये मिनिएचर कब और कैसे इस म्यूजियम तक पहुंचे, इस रहस्य पर अभी भी पर्दा पड़ा हुआ है। रानी विक्टोरिया और राजकुमार एल्बर्ट के नाम से बना यह म्यूजियम सजावटी कला और अन्य चीजों का दुनिया में सबसे बड़ा म्यूजियम है।

अर्ली वॉल पेंटिंग्स ऑफ गढ़वाल के लेखक, प्रसिद्ध चित्रकार एवं शोधकर्ता प्रो.बीपी कांबोज के अनुसार लंदन के म्यूजियम में सजे लघुचित्र (मिनिएचर) जल रंगों से बने हैं। इनमें सबसे पुराना चित्र रुक्मणी-हरण (1775 से 1785) का है। इसमें झरोखे पर बैठी रुक्मणी, कृष्ण के संदेशवाहक से संदेश सुन रही है। म्यूजियम में 1820 में बना यमुना में नहाती गोपियों की पेड़ पर चढ़े श्रीकृष्ण से उनके वस्त्र लौटाने की प्रार्थना का दुर्लभ चित्र भी है। अन्य तीन चित्रों में विष्णु के मत्स्य, कूर्म व परशुराम अवतार को दर्शाया गया है। एक अन्य चित्र में राधा-कृष्ण एक पलंग पर बैठे हैं।
मौलाराम के वंशज डॉ. द्वारिका प्रसाद तोमर के अनुसार हो सकता है कि ब्रिटिशकाल में अंग्रेज इन कृतियों को साथ ले गए हों अथवा गढ़वाली राजवंश के माध्यम ये उनके हाथ लग गई हों। हालांकि, यह तो शोध के बाद ही मालूम पड़ेगा कि ये मिनिएचर मौलाराम कृत हैं या गढ़वाली शैली के किसी अन्य चित्रकार के।

गढ़वाल की कला एवं चित्रकारी
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चांदी के समान श्वेत पर्वत शिखर, कल-कल बहती चमकदार सरिताएं, हरी-भरी घाटियां एवं यहां की शीत जलवायु ने हमेशा ही पर्यटकों को गढ़वाल की ओर आकर्षित किया है। यह सौंदर्य से परिपूर्ण ऐसी भूमि है, जिसने महर्षि वाल्मीकि व कालीदास जैसे महान लेखकों को प्रेरणा प्रदान की। हालांकि, पत्थर पर नक्काशी की यहां की मूल कला धीरे-धीरे समाप्त हो गई है। लेकिन, अद्र्धशताब्दी पूर्व तक के घरों में दरवाजों पर लकड़ी की नक्काशी का कार्य आज भी देखा जा सकता है। इसके अलावा गढ़वाल के मंदिरों में भी लकड़ी की नक्काशी मौजूद है। चांदपुरगढ़ का किला, श्रीनगर मंदिर, बदरीनाथ के निकट पांडुकेश्वर, जोशीमठ के निकट देवी मादिन, देवलगढ मंदिर आदि इसके प्रमाण हैं।

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