Thursday 23 December 2021

सबका अपना-अपना क्रिसमस

सबका अपना-अपना क्रिसमस

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क्रिसमस ऐसा त्योहार है, जिसकी शुरुआत तो रोम से हुई, लेकिन कालांतर में क्रिश्चियनिटी के प्रसार के साथ यह पूरी दुनिया में फैल गया। खास बात यह रही कि क्रिसमस जहां भी गया, वहीं के रंग में रंग गया। क्रिसमस ने न केवल संबंधित क्षेत्र की लोक परंपराओं को आत्मसात किया, बल्कि कैरल के गीतों में भी लोक का वास हो गया। आइए! हम भी जानते हैं कि क्रिसमस के इसी बहुरंगी को...

दिनेश कुकरेती

क्रिसमस मनाने की परंपरा ईसा के जन्म से बहुत पुरानी है। क्रिसमस एक रोमन त्योहार सैटर्नेलिया का अनुकरण है, जो मध्य दिसंबर से जनवरी तक मनाया जाता था। सैटर्नस रोमन देवता हैं। इस दौरान लोग तरह-तरह के पकवान बनाते थे और मित्र-परिचितों के साथ उपहारों का आदान-प्रदान करते थे। फूलों व हरे वृक्षों से घर सजाए जाते और स्वामी एवं सेवक अपना स्थान बदलते थे। कालांतर में यह त्योहार बरुमेलिया (सर्दियों के बड़े दिन) के रूप में मनाया जाने लगा। तब सूर्य उपासना रोमन सम्राटों का राजकीय धर्म हुआ करता था और मान्यता थी कि इसी दिन सूर्य का जन्म हुआ। बाद में जब ईसाई धर्म का प्रचार हुआ तो कुछ लोग ईसा को सूर्य का अवतार मान इसी दिन उनका भी पूजन करने लगे। हालांकि, तब ईसाइयों में इस प्रकार के किसी पर्व का सार्वजनिक आयोजन नहीं होता था। कहते हैं कि ईस्वी वर्ष की चौथी सदी में सूर्य उपासना का पर्व क्रिसमस में विलय हुआ। वैसे यह त्योहार ईसा मसीह के जन्मोत्सव के रूप में वर्ष 98 से मनाया जा रहा है। वर्ष 137 में रोम के बिशप ने इसे मनाने की विधिवत घोषणा की और वर्ष 350 में रोम के ही एक अन्य बिशप यूलियस ने इसके लिए 25 दिसंबर का दिन नियत किया। हालांकि, इसके पीछे भी रोचक कहानी है। दरअसल 16 दिसंबर के बाद दिन बड़े होने लगते हैं और 25 दिसंबर को रात-दिन बराबर। इसीलिए प्राचीन रोम में 25 दिसंबर को 'सूरज की विजयÓ के दिन के रूप में मनाया जाता था। धीरे-धीरे पूरा रोम क्रिश्चियनिटी के प्रभाव में आ गया और इस पर्व को 'स्टेट रिलीजनÓ घोषित कर 'क्राइस्ट द सनÓ का रूप प्रदान कर दिया गया। तभी से क्रिसमस को प्रभु यीशु के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।

विश्वास से उल्लास तक 

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25 दिसंबर को ईसा मसीह का जन्म हुआ, इस संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐसे तथ्य भी मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि ईसा का जन्म सर्दियों में नहीं हुआ था। दरअसल उस जमाने में मैसोपोटामिया के लोग अनेक देवताओं पर विश्वास करते थे, लेकिन उनका प्रधान देवता मार्डुक था। मान्यता थी कि सर्दियों के आगमन पर मार्डुक अव्यवस्था के दानवों से युद्ध करता है। इसी के निमित्त नववर्ष का त्योहार मनाया जाता था। मैसोपोटामिया का राजा मार्डुक के मंदिर में देव प्रतिमा के सामने वफादारी की सौगंध खाता था। परंपराएं राजा को वर्ष के अंत में युद्ध का आमंत्रण देती थीं, ताकि वह मार्डुक की तरफ से युद्ध करता हुआ वापस लौट सके। अपने राजा को जीवित रखने के लिए मैसोपोटामिया के लोग किसी अपराधी का चयन कर उसे राजसी वस्त्र पहनाते और उसे राजा का सम्मान एवं सभी अधिकार दिए जाते। आखिर में वास्तविक राजा को बचाने के लिए उसकी हत्या कर दी जाती। क्रिसमस में भी मुख्य ध्वनि परमात्मा को प्रसन्न करने की ही है।

क्रिसमस का एक रूप 'सैसियाÓ

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पर्शिया और बेबिलोनिया में ऐसा ही एक त्योहार 'सैसियाÓ नाम से मनाया जाता था। शेष सभी रस्मों के साथ इसमें दासों को स्वामी और स्वामियों को दास बनाने की रस्म भी निभाई जाती थी। प्राचीन यूरोपियन दुष्ट आत्माओं में विश्वास रखते थे। जैसे ही सर्दी के छोटे दिनों की लंबी-ठंडी रातें आतीं, उनके मन में भय समा जाता कि सूर्य देवता वापस नहीं लौटेंगें। सूर्य को वापस लाने के लिए इन्हीं दिनों विशेष रीति-रिवाजों का पालन होता और समारोह का आयोजन होता।

प्रकृति का पर्व

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स्कैंडिनेविया में सर्दियों के दौरान महीनों तक सूर्य के दर्शन नहीं होते थे। इसलिए सूर्य की वापसी के लिए 35 दिन के बाद पहाड़ की चोटी पर लोग स्काउट भेज देते। प्रथम रश्मि के आगमन की शुभ सूचना के साथ ही स्काउट वापस लौटते। इसी अवसर पर यूलटाइड नामक त्योहार मनाया जाता। प्रज्ज्वलित अग्नि के आसपास खान-पान का आयोजन चलता। अनेक स्थलों पर लोग वृक्षों की शाखाओं पर सेब लटका देते। इसका अर्थ है कि वसंत और ग्रीष्म अवश्य आएंगे। पहले यूनान में भी इससे मिलता-जुलता त्योहार मनाया जाता था। इसमें लोग देवता क्रोनोस की सहायता करते, ताकि वह ज्यूस और उसकी सहयोगी दुष्टात्माओं से लड़ सके।

66 पुस्तकों का संग्रह है बाइबल

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बाइबल यहूदियों और ईसाइयों का साझा धर्मग्रंथ है, जिसके ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट दो भाग हैं। ओल्ड टेस्टामेंट में क्राइस्ट के जन्म से पूर्व के हालात का ब्यौरा है। इसमें 39 पुस्तकें हैं। न्यू टेस्टामेंट में ईसा का जीवन, शिक्षाएं एवं विचार हैं। इसमें 27 पुस्तकें हैं। कहने का मतलब बाइबल एक पुस्तक न होकर 66 पुस्तकों का संग्रह है, जिसे 1600 वर्षों में 40 लेखकों ने लिखा। 


जहां गया, वहीं का हो गया क्रिसमस

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रोम से शुरू हुई इस परंपरा ने आज पूरी दुनिया के उत्सव का स्वरूप ले लिया है। लेकिन, हर जगह इसका स्वरूप स्थानीयता का पुट लिए हुए है। यही वजह है कि हर जगह क्रिसमस के दौरान होने वाले करोल (कैरल) के आयोजन में लोकधुनों की गूंज सुनाई पड़ती है। उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं अंचल में कैरल के अधिकांश गीत गढ़वाली-कुमाऊंनी में ही गाए जाते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि इस आयोजन में सभी धर्म-जाति के लोग बढ़-चढ़कर भागीदारी करते हैं। 

देहरादून के ऐतिहासिक चर्च

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सेंट थॉमस चर्च

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178 साल पुराने देहरादून के सेंट थॉमस चर्च के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। व्यस्ततम राजपुर रोड पर दिलाराम बाजार में स्थित यह चर्च लंबे अर्से तक बंद पड़ा रहा। वर्ष 2012 में इसे दोबारा खोला गया। सेंट थॉमस चर्च की सबसे बड़ी खासियत इसका सेना से जुड़ा इतिहास है। वर्ष 1840 में बने इस चर्च की इमारत और लंबे-चौड़े गार्डन की भव्यता देखते ही बनती है। पॉप म्यूजिक के दीवानों की तो यह खास जगह है। यह वही चर्च है, जहां ब्रिटिश संगीतकार, कलाकार एवं अभिनेता सर क्लिफ रिचर्ड का बपतिस्मा हुआ था। सर क्लिफ रिचर्ड का जन्म लखनऊ में हुआ था और बाद में उनका परिवार देहरादून शिफ्ट हो गया। यह चर्च सीएनआइ (चर्च ऑफ नार्थ इंडिया) के अधीन है। इस चर्च को सेना के लिए बनाया गया था और यहां सेना के जवान और सर्वे ऑफ इंडिया से जुड़े लोग प्रार्थना करने आते थे। इसीलिए यह चर्च आर्मी (गैरिसन) चर्च के रूप में जाना जाता था।

मॉरीसन मेमोरियल चर्च

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सीएनआइ द्वारा संचालित राजपुर रोड स्थित मॉरीसन मेमोरियल चर्च 25 अगस्त 1884 को बनकर तैयार हुआ था। अंग्रेजों का बनाया यह दून का सबसे बड़ा एवं खूबसूरत चर्च है। यह उत्तर भारत के सबसे पुराने चर्चों में से एक है। इस चर्च का मूल नाम देहरा प्रेस्बायटेरियन था, जिसे वर्ष 1890 में एपी मिशन ङ्क्षहदुस्तानी चर्च कर दिया गया। इसके बाद यहां के प्रमुख पास्टर रेवरेन जॉन मॉरीसन और उनकी पत्नी के नाम पर इस चर्च को मॉरीसन नाम दिया गया। इस चर्च में पहली बार बपतिस्मा रेवरेन थैंकवैल के सानिध्य में 26 अक्टूबर 1884 को हुआ था। यहां पहले भारतीय पास्टर के रूप में रेवरेन प्रभुदास ने अपनी सेवाएं दी। अब तक  कुल नौ मिशनरी और 22 पास्टर चर्च में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। चर्च के मुख्य हॉल की फर्श टेराजो की बनी है और छत से लगा खूबसूरत बोर्ड बिल्डिंग की शोभा को और अधिक बढ़ाता है। छत के रिज पर कई सारे सजावटी बोर्ड लगे हैं। आंतरिक भाग में उभरा हुआ छत तिकोन चर्च के सौंदर्य में चार चांद लगाता है। 

सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च

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कॉन्वेंट रोड पर स्थित सेंट फ्रांसिस कैथोलिक चर्च का निर्माण 1856 में आर्च बिशप कार्लि आगरा के विकेरिएट अपोसतोलिक ने शुरू किया था। 1897 से यहां पुरोहितों ने रहना शुरू कर दिया। चार अप्रैल 1905 को आए भूकंप ने चर्च को भारी नुकसान पहुंचाया। इसके बाद 1910 तक यहां एक बड़े कमरे का प्रयोग चर्च के रूप में होता रहा। 1910 में चर्च का नया भवन बनकर तैयार हुआ, जिसका उद्घाटन आगरा के आर्च बिशप और इलाहबाद व लाहौर के बिशप ने किया था। पल्ली पुरोहित फादर लूकस ओएफएम कपुचिन के अनुरोध पर इटली के चित्रकार निनोला सिमीटाटा ने चर्च की दीवारों पर सेंट फ्रांसिस आसिसी के उद्देश्य एवं जीवन की घटनाओं को चित्रित किया। निनोला सिमीटाटा द्वितीय विश्व युद्ध का बंदी था और उसे देहरादून के प्रेमनगर में बंदी बनाकर रखा गया था। फादर लूकस ने इस कार्य के लिए उसे बंदीगृह से छुड़वाया। इस चर्च में कई बार मदर टेरेसा भी आती रही हैं। 

Monday 30 August 2021

पर्वतीय लोकजीवन में रचे-बसे सावन-भादों

पर्वतीय लोकजीवन में रचे-बसे सावन-भादों

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दिनेश कुकरेती

सावन-भादों प्रकृति के उल्लास के महीने हैं। जंगल हरियाली से लकदक हो गए हैं। धरती के गर्भ से जगह-जगह जलस्रोत फूट चुके हैं। गाड-गदेरों, नदियों और झरनों का कोलाहल वातावरण में संगीत घोल रहा है। इस अनुपम छटा को देख भला कौन होगा, जो प्रकृति के इस सृजनकाल से रू-ब-रू नहीं होना चाहेगा। लेकिन, इस मनोहारी परिदृश्य के बीच विषम परिस्थितियों वाले पहाड़ में सावन-भादों का दूसरा पहलू भी है। पहाडिय़ों ने कोहरे की सफेद चादर ओढ़ी हुई है। यदा-कदा आसमान खुलने पर कोहरे के आगोश से झांकती पहाडिय़ां न केवल मन की अकुलाहट (व्याकुलता) बढ़ा रही हैं, बल्कि इस अंधियारे मौसम में लोग घरों से बाहर तक नहीं निकल पा रहे। ऐसे में खुद (याद) तो लगेगी ही। इसीलिए पहाड़ में सावन-भादों को खुदेड़ महीना कहा गया है। इसकी अभिव्यक्ति यहां लोक गीतों में हुई है। 

लोकगीतों में छलकती है 'खुदÓ

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पर्वतीय समाज में बिछोह ज्यादा है। पहले अभाव भी काफी अधिक था। बावजूद इसके आज भी पहाड़ के लोग एक-दूसरे के प्रति अगाध स्नेह रखते हैं। ऐसे में समय, स्थान और वातावरण के चलते खुद की व्युत्पत्ति होती है। सावन-भादों में जब थोड़ा-सा अभाव होता है तो एक-दूसरे के प्रति स्नेह 'खुदÓ (नराई) के रूप में सामने आ जाता है। यही वजह है कि यह खुद लोकगीतों में छलक पड़ी। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का गाया ऐसा ही एक गीत है, जिसमें वह बड़े चुटीले अंदाज में बोडी-ब्वाडा (ताई-ताऊ) की परेशानियों को माध्यम बनाकर पहाड़वासियों की दुश्वारियों को बयां करते हैं। देखिए, 'गरा-रा-रा ऐगे रे बरखा झुकि ऐगे, सरा-रा-रा डांड्यूं में कन कुयेडि़ छैगे।Ó (बारिश की झड़ी लग गई है और पहाडिय़ां कोहरे के आगोश में छिप गई हैं)। 

पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा

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एक अन्य गीत में नेगी उस नव विवाहिता के मन की थाह ले रहे हैं, जो अपने मायके के उल्लास एवं उमंगभरे दिनों को याद करते हुए उनकी याद में घुली जा रही है। तब वह कहती है, 'सौणा का मैना ब्वे कनु कै रैणा, कुयेड़ी लौंकाली, अंधेरी रात बरखा कु झमणाट, खुद तेरी लागालिÓ (मां! सावन के महीने में मैं कैसे रहूं। चारों दिशाएं कोहरे के आगोश में हैं। अंधेरी रात है और बारिश की झड़ी लगी हुई है। ऐसे में मुझे लगातार तेरी याद आ रही है)। नेगी के गीतों में पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा कुछ इस तरह भी अभिव्यक्ति मिली है, देखिए- 'हे बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासीÓ (चातुर्मास की बारिश, वनों में कोहरा घिर रहा है तो मन में उदासी)। 

इसी उदासी के बीच नवविवाहिता गा रही है, 'भादों की अंधेरी झकझोर, न बास-न बास, पापी मोर, ग्वेरै की मुरली तू-तू बाज, भैंस्यूूं की घांड्योंन डांडू गाज, तुम तैं मेरा स्वामी कनी सूझी, आंसुन चादरी मेरी रूझी।Ó (भादों का अंधेरा छाया है, हे मोर तू मेरे पास न बोल, न बोल। चरवाहों की मुरली तू-तू बज रही है और भैंसों की घंटियों से पर्वत गूंज रहा है। तुम्हें मेरे पति कैसी कठोरता सूझी, आंसूओं से मेरी धोती भीग गई है)।

लोक में सावन की फुहारों का इंतजार

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हालांकि, यह भी सच है कि सावन की इन्हीं फुहारों का पहाड़वासियों को हमेशा बेसब्री से इंतजार रहता है। इसकी अभिव्यक्ति नेगी अपने गीत में इस तरह करते हैं, 'बरखा हे बरखा, तीस जिकुडि़ की बुझै जा, सुलगुदु बदन रूझै जा, झुणमुण झुणमुण कैकि ऐजाÓ (बारिश हे बारिश, मेरे हृदय की प्यास बुझा जा, मेरे सुलगते तन-मन को भिगो जा, प्रकृति में संगीत बिखेरते हुए आ जा)। दरअसल, पहाड़ में खेती बारिश पर ही निर्भर है, इसलिए जब समय से बारिश नहीं होती तो पहाड़वासियों के कंठ से गीतों के रूप में यह पीड़ा छलक पड़ती है।

अंतर्निहित शक्तियों को प्रकट करती है शिक्षा

अंतर्निहित शक्तियों को प्रकट करती है शिक्षा

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दिनेश कुकरेती

शिक्षा महज किताबी ज्ञान हासिल कर अच्छी पद-प्रतिष्ठा पा लेने का नाम नहीं है। विषय विशेषज्ञ बन जाने को भी शिक्षा नहीं माना जा सकता। शिक्षा को डिग्रियों में भी नहीं तौला जा सकता। शिक्षा तो जीवन चलाने की ऐसी प्रक्रिया है, जो मनुष्य के जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। व्यापक दृष्टि से देखें तो शिक्षा में मनुष्य के वह सभी अनुभव समाहित हैं, जिनका प्रभाव उस पर जन्म से लेकर मृत्यु तक पड़ता है। 

शिक्षा शब्द संस्कृत की 'शिक्षÓ धातु से बना है। इसका अर्थ है सीखना या ज्ञान प्राप्त करना। सीखने की प्रक्रिया शिक्षक, छात्र व पाठ्यक्रम के माध्यम से संपादित होती है। इसका अंग्रेजी पर्याय एड्यूकेशन है, जो लैटिन के 'एड्यूकेटमÓ शब्द से बना है। इसमें 'ईÓ का अर्थ है 'अंदर सेÓ और 'ड्यकोÓ का अर्थ है 'बाहर निकालनाÓ। यानी एड्यूकेशन का शाब्दिक अर्थ व्यक्ति की अंतर्निहित शक्तियों का प्रकटीकरण है। इस प्रकार शिक्षा अथवा एड्यूकेशन का अर्थ चारित्रिक, मानसिक, शारीरिक और अंतर्निहित शक्तियों का व्यवस्थित रूप से विकास करना है। 

व्यापक अर्थ में देखें तो शिक्षा जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार में निरंतर परिवर्तन एवं परिमार्जन होता है। दुनिया के विभिन्न विचारकों ने समय-समय पर शिक्षा को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया। मसलन विवेकानंद मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति को शिक्षा मानते हैं। जबकि, गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के शब्दों में उच्चतम शिक्षा वह है जो हमें केवल सूचना ही नहीं देती, बल्कि हमारे जीवन को समूचे अस्तित्व के अनुकूल बनाती है। शिक्षा से गांधीजी का अभिप्राय बालक और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में निहित सर्वोत्तम शक्तियों के सर्वांगीण प्रकटीकरण से है। 













प्लेटो के विचार से बालक की क्षमता के अनुरूप शिक्षा उसके शरीर और आत्मा का विकास करती है, जबकि रूसो ने शिक्षा को विचारशील, संतुलित, उपयोगी एवं प्राकृतिक जीवन के विकास की प्रक्रिया माना है। कमेनियस ने संपूर्ण मानव के विकास को शिक्षा की संज्ञा दी है। जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यक्ति की क्षमताओं का विकास है। जिसके द्वारा वह अपने वातावरण पर नियंत्रण रख सकता है और संभावनाओं को पूरा कर सकता है। टी रेमांट के अनुसार शिक्षा मानव जीवन के विकास की वह प्रक्रिया है, जो शैशवास्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती रहती है। 

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो शिक्षा बच्चे की अंतर्निहित शक्तियों (योग्यताओं) को बाहर निकालकर उसके व्यवहार में परिवर्तन या परिमार्जन करती है। शिक्षा को समझने के दो दृष्टिकोण हैं, संकुचित और व्यापक। संकुचित सबसे प्राचीन दृष्टिकोण है, जो वर्ष 1879 तक अस्तित्व में रहा। इसमें शिक्षा के सैद्धांतिक, ज्ञानात्मक व औपचारिक स्वरूप पर बल दिया गया। लेकिन, इसका फलक विद्यालयी शिक्षा तक ही सीमित था। जबकि, व्यापक दृष्टिकोण बीसवीं सदी में आया। इसमें शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष यानी सर्वांगीण विकास और अनौपचारिक शिक्षा पर बल दिया गया।

शिक्षा का महत्व

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शिक्षा व्यक्ति के प्रत्येक पहलू को विकसित कर उसके चरित्र का निर्माण करती है। साथ ही उसके अंदर राष्ट्रीय एकता, भावनात्मक एकता, सामाजिक कुशलता, राष्ट्रीय अनुशासन जैसी भावनाएं विकसित करती है। ताकि वह राष्ट्रीय हित को केंद्र में रखते हुए अपने सामाजिक दायित्व का पूरे मनोयोग से निर्वहन कर सके।

शिक्षा के कार्य

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व्यक्ति संबंधी

- आंतरिक शक्तियों और संपूर्ण व्यक्तित्व का पूर्ण विकास

- भावी जीवन की तैयारी

- नैतिक उत्थान

- मानवीय गुणों का विकास

- आत्मनिर्भर बनाना

- आवश्यकता की पूर्ति में सक्षम

- जन्मजात प्रकृतियों में सुधार

समाज संबंधी

- सामाजिक नियमों का ज्ञान

- प्राचीन साहित्य का इतिहास

- कुरीतियों के निवारण में सहायक

- सामाजिक भावना का विकास

- सामाजिक उन्नति में सहायक

- धर्मों के विषय में तात्विक ज्ञान

- उदार दृष्टिकोण

राष्ट्र संबंधी

- भावनात्मक एकता

- कुशल नागरिक

- राष्ट्रीय विकास

- राष्ट्रीय एकता

सार्वजनिक हित संबंधी

सार्वजनिक आय संबंधी

- राष्ट्रीय अनुशासन

- अधिकार एवं कर्तव्यों का ज्ञान

वातावरण संबंधी

- वातावरण से समायोजन

- वातावरण का अनुकूलन

Tuesday 20 July 2021

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

Tuesday 13 July 2021

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams)

MY DAILY ROUTINE (DINESH KUKRETI): 28-06-2021( Village's natural water streams): google.com, pub-1212002365839162, DIRECT, f08c47fec0942fa0 (भाग-पांच) गांव के प्राकृतिक जल धारे ----------------------------- दिनेश कुकरेती ...

Thursday 20 May 2021

रा-रा दा तुम हमेशा याद आओगे

 रा-रा दा तुम हमेशा याद आओगे

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दिनेश कुकरेती

शहूर रंगकर्मी, हास्य अभिनेता, गढ़वाली गायक और लोक के चितेरे रा-रा दा यानी रामरतन काला से मेरा आत्मीय रिश्ता रहा है। वैसे तो लोक से अनुराग होने के कारण मैं दो-ढाई दशक तक उनके करीब रहा, लेकिन तकरीबन चार साल हमारे साथ-साथ गुजरे। इस अवधि में मैंने रा-रा दा के साथ आकाशवाणी नजीबाबाद के 'ग्रामजगतÓ अनुभाग में आकस्मिक कंपीयर के रूप में कार्य किया। कई यादें हैं इस कालखंड की, जिन पर ग्रंथ लिखा जा सकता है। रा-रा दा बेहद सरल एवं सहज इन्सान थे। बिल्कुल जमीन से जुड़े हुए। रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करने वाले, लेकिन दुनिया जहान की सभी चिंताओं से बेफिक्र। किसी चीज का लालच नहीं। हर हाल में खुश। इसलिए उनके साथ मेरी खूब जमती थी। जैसे वो, वैसा ही मैं भी। कोटद्वार शहर में कोई भी सांस्कृतिक आयोजन होता था तो उसमें रा-रा दा का होना अनिवार्य समझा जाता था।

रा-रा दा से मेरा परिचय रेडियो के जरिये हुआ। उस दौर टीवी चुनिंदा लोगों के घरों में हुआ करता था, वह भी ब्लैक एंड व्हाइट। रेडियो हर घर की पहुंच में होने के कारण मनोरंजन का प्रमुख साधन था। खासकर शाम साढ़े सात बजे आकाशवाणी नजीबाबाद से आने वाले 'ग्रामजगतÓ कार्यक्रम और शाम छह बजकर पांच मिनट पर आकाशवाणी लखनऊ से आने वाले 'उत्तरायणÓ कार्यक्रम के सब दीवाने हुआ करते थे। इन कार्यक्रमों में अक्सर एक गढ़वाली गीत बजा करता था, 'मितैं ब्योला बणै द्यावा, ब्योली खुज्ये द्याÓ। यह हास्य गीत गाया था रामरतन काला ने। तब लोग कहते थे कि कालाजी कोटद्वार में ही रहते हैं। गर्व की अनुभूति होती थी यह सुनकर।

धीरे-धीरे शहर में होने वाली सामाजिक गतिविधियों में मेरी भी हिस्सेदारी होने लगी। तभी रा-रा दा से प्रत्यक्ष मुलाकात हुई। फिर तो उनसे अक्सर मिलना-जुलना होने लगा। तब होली के पर्व से पूर्व उत्तराखंड लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक संस्था की ओर से पहाड़ की पारंपरिक होली को बढ़ावा देने के लिए होली उत्सव का आयोजन किया जाता था। मैं भी इसमें बढ़-चढ़कर भागीदारी किया करता था। शाम के वक्त हम ढोल-मजीरे की थाप पर तीन-चार दिन तक शहरभर में होली गाते थे। इसका समापन झंडाचौक में होता था। रा-रा दा इस आयोजन की खास शान हुआ करते थे। उनका होली (होरी) गाने और होल्य़ार साथियों के साथ थिरकने का अंदाज मन मोह लेता था।

रा-रा दा साइकिल पर चला करते थे, लेकिन शहर के बीच से गुजरते वो साइकिल के साथ पैदल ही होते थे। रास्तेभर मित्र-परिचितों से मेल-मुलाकात करते हुए जाना उनको आनंद देता था। बीती सदी के आखिरी वर्षों में हमने नुक्कड़ नाटक 'कासीरामÓ का पूरे गढ़वाल में मंचन किया। इस नाटक को हमने हिंदी से  गढ़वाली में अनुदित किया था। नाटक में बताया गया था कि एक अनपढ़ व्यक्ति का रसूखदार लोग किस-किस तरह से शोषण करते हैं। कोटद्वार में रा-रा दा ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनकी आत्मीयता देखिए कि एक मंझे हुए रंगकर्मी होने के बावजूद वो हमसे पूछते थे कि अब मुझे क्या करना है।

रा-रा दा और मैंने 'शैलनटÓ नाट्य संस्था में भी साथ-साथ काम किया। इस कालखंड में उनसे बहुत-कुछ सीखने को मिला। तब में 'शैलनटÓ का प्रचार मंत्री हुआ करता था। आकाशवाणी नजीबाबाद के निदेशक रहे स्व. सत्यप्रकाश हिंदवाण ने मुझे 'शैलनटÓ से जोडा़ था। वर्ष 2008 में मैं देहरादून आ गया, सो इसके बाद उनसे मिलना नहीं हो पाया। बड़ी इच्छा थी कि किसी दिन कोटद्वार में उनसे मुलाकात करूंगा। लेकिन, दुर्भाग्य से 20 मई 2021 को रा-रा दा हमसे रूठ गए और मेरी यह इच्छा धरी-की-धरी रह गई। काश! उनसे मुलाकात हो पाई होती...

परिस्थितियों ने बनाया कलाकार, संस्कृति ने संवारा

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मूलरूप से पौडी़ गढ़वाल जिले के द्वारीखाल ब्लाक की लंगूर पट्टी स्थित ग्राम कुडी़धार निवासी रामरतन काला यानी रा-रा दा का जन्म कोटद्वार क्षेत्र के पदमपुर गांव में 14 जनवरी 1950 को शाकंभरी देवी व महानंद काला के घर हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा कोटद्वार में ही हुई। उन्होंने इंटर तक पढा़ई की। पिता सेना में थे, इसलिए वो भी सेना में जाना चाहते थे, लेकिन परिस्थितियों ने कलाकार बना दिया। रा-रा दा स्वयं कहते थे, 'विद्यालय से ही मुझमें कलाकार के लक्षण पैदा होने लगे थे। मेरे अध्यापक भी मानने लगे थे कि यह लड़का कलाकार है। छात्र जीवन में ही मैं एक स्थापित कलाकार हो गया था। हालांकि, मैंने हास्य-व्यंग्य वाले गीत भी गाए हैं, लेकिन मूलरूप से मैं रंगकर्मी हूं। नाट्य विधा का आदमी हूं।Ó

अक्सर जब उनसे बातचीत होती थी तो वो कहते, आजीविका के लिए वह कहीं नहीं गए। उन्हेंं इस बात का डर रहता था कि घर से बाहर जाने पर कहीं पश्चिमी सभ्यता का रंग चढ़ गया तो उनके भीतर का कलाकार मर जाएगा। इसलिए उन्होंने संघर्ष किया और लोक के होकर ही रह गए। कोटद्वार में रहते हुए भी उनकी नजरें पहाडो़ं की ओर रहती थी। उन्होंने जो कुछ सीखा, जो कुछ किया, वह सब पहाड़ों से और पहाड़ों में। उन्होंने मां, बेटी, बहन व बुजुर्गों से सीखा और उन्हेंं ही लौटाने की कोशिश करते हैं।

रा-रा दा मूलत: किसान थे। इसलिए खेती के वक्त वो सिर्फ खेती पर ही ध्यान देते थे। इस बीच एक-दो जगह उन्होंने दुकान भी खोली। संयोग से दुकान चल पड़ी, लेकिन इधर-उधर जाने के लिए शटर डाउन करना पड़ता। नौकरी की तो वह सूट नहीं हुई। रा-रादा के ही शब्दों में, 'ओ! काला, ओ! फलाणे, ओ! ढिमकेÓ यह मुझे रास नहीं आया। आखिर 'ओ! कालाÓ क्या होता है। ऊपर वाले की कृपा है कि सांस्कृतिक गतिविधियों से पैसा मिलने लगा और धीरे-धीरे ही सही, लेकिन परिवार की गाड़ी चलने लगी।Ó

मुंबई ने दिया मौका, बढ़ते चले गए कदम

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वर्ष 1985 की बात है। पढा़ई पूरी करने के बाद रा-रा दा को लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी एवं उनके दल के साथ मुंबई जाने का मौका मिला। दल में कुल 27 सदस्य थे। वहां प्रवासियों के बीच गढ़वाल से जाने वाली संस्कृति कॢमयों की यह पहला दल था। दल की प्रस्तुतियों को लोगों ने हाथोंहाथ लिया, खासकर रा-रा दा की। इससे पूर्व इस दल के साथ रा-रा दा इलाहाबाद कुंभ में भी प्रस्तुति दे चुके थे। मुंबई के बाद तो यह सिलासिला सा चल पडा़। विभागीय कार्यक्रम भी मिलने लगे। वर्ष 1991 में उन्होंने कौथगेर कला मंच के नाम से 18-20 कलाकारों को साथ लेकर अपना ग्रुप भी बना लिया, जिसे लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी व लोकगायक अनिल बिष्ट लगातार बुलाते रहे।

रा-रा दा रंगमंच तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने आंचलिक फिल्मों भी अपनी कला की छाप छोडी़। उनकी पहली फिल्म 'कौथीगÓ थी। इसमें उन्होंने चाचा की यादगार भूमिका निभाई। इससे पहले वो संस्कृत धारावाहिक 'शकुंतलाÓ में भी अभिनय कर चुके थे। एलबम के दौर में भी रा-रा दा सबसे पसंदीदा कलाकार बने रहे। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के तकरीबन 15 एलबम के गीतों में उन्होंने अभिनय का लोहा मनवाया। इनमें 'नया जमना का छोरों कन उठि बौल़, तिबरि-डंड्यल्यूं मा रौक एंड रोलÓ, 'तेरो मछोई गाड बौगिगे, ले खाले अब खा माछाÓ, 'समद्यूल़ा का द्वी दिन समल़ौण्या ह्वेगीनाÓ, 'दरौल्य़ा छौं न भंगल्या भंगल्वड़ा धोल्यूं छौं, कैमा न बुल्यां भैजी जननी को मर्यूं छौंÓ, 'कन लडि़क बिगडि़ म्यारु ब्वारी कैरि कीÓ,'तितरी फंसे, चखुली फंसे तू क्वो फंसे कागाÓ, 'सुदी नि बोनूÓ, 'सरू तू मेरीÓ, 'तेरी जग्वाल़Ó, 'स्याणीÓ, 'नौछमी नारेणाÓ, 'सुर्मा सरेलाÓ, 'बसंत ऐ ग्येÓ जैसे सुपरहिट गीत शामिल हैं।

रा-रा दा कैसे डूबकर अभिनय करते थे, इसका प्रमाण अपने दौर में सबसे चॢचत रहा नाटक 'खाडू लापताÓ है। नाटक को देखकर ऐसा प्रतीत होता था, जैसे  प्रसिद्ध लेखक ललितमोहन थपलियाल ने यह नाटक उन्हीं को केंद्र में रखकर लिखा हो। आकाशवाणी नजीबाबाद के 'ग्राम जगतÓ कार्यक्रम को भी रा-रा दा ने नई ऊंचाइयां दीं। दूरदर्शन देहरादून के 'कल्याणीÓ कार्यक्रम में वो 'मुल्की दाÓ की भूमिका में लंबे अर्से तक दर्शकों का मनोरंजन करते रहे।

रा-रा दा एक बेहतरीन गायक भी थे। उनका गाया गीत 'ब्योलि खुज्ये द्यावा, ब्योला बणै द्याÓ एक दौर में आकाशवाणी नजीबाबाद व लखनऊ से सर्वाधिक प्रसारित होने वाले गीतों में शुमार रहा। इसके अलावा उन्होंने 'कख मिलली नौकरी, कख मिलली चाकरीÓ जैसे कई गीत गाए। वर्ष 2008 में एक कार्यक्रम के दौरान मस्तिष्काघात के कारण रा-रा दा पैरालिसिस के प्रभाव में आ गए। काफी इलाज कराने पर भी वो इस बीमारी से पूरी तरह उबर नहीं  पाए, जिससे दोबारा रंगमंच की ओर लौटना संभव न हो सका। हालांकि, वो हमेशा कहते थे, 'अभी मुझे बहुत-कुछ करना हैÓ, लेकिन नियति पर कहां किसी का वश चलता है। आखिरकार उसने रा-रा दा को भी हमसे छीन लिया।

Wednesday 21 April 2021

नमामि रामं रघुवंश नाथम



 

नमामि रामं रघुवंश नाथम

दिनेश कुकरेती

रामनवमी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के आठ दिन बाद पड़ती है। इस तिथि को श्रीराम के जन्मदिन की स्मृति में मनाया जाता है। राम श्रीविष्णु के अवतार माने गए हैं। अगस्त्य संहिता के अनुसार पुनर्वसु नक्षत्र व कर्क लग्न में जब सूर्य अन्यान्य पांच ग्रहों की शुभ दृष्टि के साथ मेष राशि पर विराजमान थे, तब राम ने असुरों का संहार करने के लिए धरा पर अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। अयोध्या के राजकुमार होते हुए भी राम पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग 14 वर्ष के लिए वन चले गए। धार्मिक दृष्टि से चैत्र शुक्ल नवमी का विशेष महत्व है। इस तिथि को दिन के बारह बजे जैसे ही सौंदर्य निकेतन, शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए चतुर्भुजधारी श्रीराम प्रकट हुए, माता कौशल्या विस्मित हो गईं। राम के सौंदर्य व तेज को देखकर उनके नेत्र तृप्त नहीं हो रहे थे। देवलोक भी अवध के सामने श्रीराम के जन्मोत्सव को देख फीका-सा लग रहा था। देवता, ऋषि, किन्नर, चारण सभी जन्मोत्सव में शामिल होकर आनंद उठा रहे थे। इसीलिए हम प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल नवमी को राम जन्मोत्सव मनाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामनवमी के दिन ही रामचरितमानस की रचना का शुभारंभ किया था।

जहां अनंत मर्यादाएं, वहां राम

भारतीय संस्कृति में ऐसा कोई दूसरा चरित्र नहीं, जिसे राम के समक्ष खड़ा किया जा सके। राम हमारी अनंत मर्यादाओं के प्रतीक पुरुष हैं, धीर-वीर हैं और इस सबसे बढ़कर प्रशांत (स्थिर या आडंबर रहित) हैं। इसलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर महाकवि भास, कालीदास, भवभूति और तुलसीदास तक न जाने कितनों ने अपनी लेखनी और प्रतिभा से राम के चरित्र को संवारा। वाल्मीकि के राम जहां लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष हैं। वहीं, भास, कालिदास और भवभूति के राम कुलरक्षक, आदर्श पुत्र, पति, पिता व प्रजापालक राजा का चरित्र सामने रखते हैं। कालिदास ने 'रघुवंशÓ महाकाव्य में इक्ष्वाकुवंश का वर्णन किया, तो भवभूति ने 'उत्तर रामचरितमÓ में अनेक मार्मिक प्रसंग जोड़ डाले। लेकिन, तुलसीदास ने रामचरित्र का कोई प्रसंग नहीं छोड़ा। यानी रामकथा को संपूर्णता वास्तव में तुलसीदास ने ही प्रदान की।

मान चेतना के आदि पुरुष

तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं। वे दुराचारियों, यज्ञ विध्वंसक राक्षसों का नाश कर लौकिक मर्यादाओं की स्थापना के लिए ही जन्म लेते हैं। वे सामान्य मनुष्य की तरह सुख-दुख का भोग करते हैं और जीवन-मरण के चक्र से होकर गुजरते हैं। लेकिन आखिर में अपनी पारलौकिक छवि की छाप छोड़ जाते हैं। इसलिए राम मर्यादा पुरुषोत्तम तो हैं ही, मान चेतना के आदि पुरुष भी हैं।

सबके अपने-अपने राम

तुलसीदास, रैदास, नाभादास, नानकदास, कबीरदास आदि के राम अलग-अलग हैं। किसी के राम दशरथ पुत्र हैं तो किसी के लिए सबसे न्यारे। तभी तो तुलसीदास कहते हैं, 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिंंह तैसी।Ó जबकि, इकबाल कहते हैं कि 'है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज, अहले वतन समझते हैं, उनको इमामे हिंद।Ó

आत्माओं को आनंदित करने वाले

राम कौन हैं। वे लोक जीवन में इतने प्रिय क्यों हैं। उनके बाद भी बहुत से धर्मनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, प्रजा हितैषी, न्याय प्रिय व नीति निपुण राजा हुए, फिर राम राज्य की महिमा का इतना गायन क्यों। असल में राम दो हैं। एक  वह जो अयोध्या में जन्मे, जिनके दैहिक जन्म का नाम राम है। दूसरे निराकार परमात्मा, जिन्हें राम का नाम इसलिए दिया गया, क्योंकि वह रमणीय और लुभाने वाला है। वह आत्माओं को आनंदित करने वाला है। ज्ञानवान और योगयुक्त आत्मा ही सीता है, क्योंकि वह निराकार राम का वरण करना चाहती है। लेकिन, निराकार राम से मिलने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है यानी पवित्रता का व्रत लेना होता है।

शरीर क्षेत्र, आत्मा क्षेत्रज्ञ

गीता अथवा ज्ञान की भाषा में शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा गया है। जब मनुष्यता (क्षेत्रज्ञ) के बुद्धि रूपी क्षेत्र में ज्ञान का हल चलाया जाता है, तब उन लकीरों से यानी ज्ञान की पक्की धारणा से सीता का जन्म होता है। यह जन्म माता के गर्भ से नहीं होता, क्योंकि यह तो स्वयं आत्मा का जन्म यानी जागरण अथवा पुनरुद्धार है।

पंचतत्वों ने निर्मित शरीर ही पंचवटी

यह संसार ही कांटों का वन है और पंच भौतिक तत्वों से निर्मित यह शरीर ही पंचवटी है। इसी में आत्मा रूपी सीता (वैदेही यानी देह से न्यारी) रहती है। मन में लक्ष्य को धारण करने की जो आज्ञा है, वही लक्ष्मण की खींची हुई लकीर है। इसका उल्लंघन करना आत्मा रूपी सीता के लिए मना है।

सभी व्यक्तियों का शासन है रामराज्य

राम जीवन के हर क्षेत्र में मर्यादाओं से बंधे हुए हैं और उनका कहीं भी उल्लंघन नहीं करते। वे पूरी तरह अपने समाज और देश के प्रति समर्पित हैं। इसीलिए वे रघुकुल भूषण हैं, समाज के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय हैं। राम के वीतरागी स्वभाव के अनेक उदाहरण रामायण में भरे पड़े हैं। रामराज्य में यद्यपि राजतंत्रीय व्यवस्था थी, मगर वह मर्यादित राजतंत्र था, निरंकुश नहीं। आधुनिक जनतंत्र केवल बहुमत का शासन है, मगर रामराज्य तो सभी व्यक्तियों का शासन था। जिसमें एक साधारण धोबी की आवाज भी उपेक्षित नहीं रह पाती। उसके शंका व्यक्त करने पर भी राम अपनी प्राणप्रिया पत्नी को बीहड़ वनों में भेज देते हैं। राम राज्य में केवल संन्यासी को ही नहीं, राजा को भी योगी कहा जाता था, जो प्रजा के लिए अपना सब-कुछ त्यागने के लिए तत्पर रहता था। राम इसके साक्षात प्रतीक हैं। 

समझाई संगठन की अहमियत 

राम ने मानवता से ओतप्रोत एक ऐसे समाज की रचना की, जो अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए भी तैयार रहे। राम अनुसूचित जातियों व जनजातियों में अत्यंत लोकप्रिय ही नहीं बन गए, बल्कि अपने आत्मीय भाव से उन्हें संगठित कर और बुराइयों से निकाल उनमें संगठन का स्वभाव पैदा करते रहे। इतिहास में कहीं भी जिक्र नहीं आता कि अयोध्या, जनकपुर व अन्य किन्हीं भी राजवंशों से संपर्क कर रावण को मारने के लिए राम ने संदेश भेजे या संपर्क किया। रामसेतु निर्माण में उन्होंने जन-जन को एक प्रबल संदेश दिया। सेतु के निर्माण में गिलहरी भी जुटी, क्योंकि पीडि़त, दुखी, गरीब व पंक्ति के अंत में खड़े व्यक्ति को भी राम प्यार करते हैं।

Sunday 18 April 2021

नागा संन्यासियों का रहस्‍यलोक, कैसे बनते हैं नागा


दिनेश कुकरेती

र तीन साल के अंतराल में हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन व नासिक में होने वाले कुंभ मेले का सबसे बड़ा आकर्षण होते हैं दशनामी (दसनामी) संन्यासी अखाडो़ं से जुडे़ नागा संन्यासी यानी अवधूत। यह दशनामी संबोधन संन्यासियों को आदि शंकराचार्य का दिया हुआ है। इसकी भी एक लंबी कहानी है। असल में आदि शंकराचार्य ने पूरब में जगन्नाथपुरी गोवर्धन पीठ, पश्चिम में द्वारका-शारदा पीठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में शृंगेरी पीठ की स्थापना के बाद देशभर में विभिन्न पंथों में बंटे साधु समाज को दस पदनाम देकर संगठित किया। ये दस पदनाम हैं- तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी। इसके उपरांत शंकराचार्य ने इनमें से ‘वन’ ‘अरण्य’ पद गोवर्धन पीठ‘तीर्थ’ ‘आश्रम’ पदनाम शारदा पीठ, ‘गिरि’ ‘पर्वत’ ‘सागर’ पदनाम ज्योतिर्पीठ और पुरी’ ‘भारती’ ‘सरस्वती’ पदनाम शृंगेरी पीठ से संबद्ध कर दिए। यह संपूर्ण व्यवस्था उन्होंने बिखरे हुए संत समाज को व्यवस्थित करने के लिए की। कालांतर में इन्हीं दशनामी संन्यासियों के बीच से नागा संन्यासियों का अभ्युदय हुआ। 

नागा, जो आकाश को अपना वस्त्र मानते हैं, शरीर पर भभूत (भस्म) मलते हैं, दिगंबर रूप में रहना पसंद करते हैं और युद्ध कला में उन्हें महारथ हासिल है। देखा जाए तो नागा सनातनी संस्कृति के संवाहक हैं और आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा का निर्वाह करते हुए विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं। हरिद्वार समेत दूसरे तीर्थों के दूरदराज इलाकों, हिमालय की कंदराओं, प्राकृतिक गुफाओं आदि स्थानों पर ये आम जनजीवन से दूर कठोर अनुशासन में रहते हैं। कहते हैं दुनिया चाहे कितनी भी क्यों न बदल जाए, लेकिन शिव और अग्नि के ये भक्त इसी स्वरूप में रहेंगे। 

अब मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि नागा संन्यासी शीत को कैसे बर्दाश्त करते होंगे। असल में नागा तीन प्रकार के योग करते हैं, जो उन्हें शीत से निपटने को शक्ति प्रदान करते हैं। नागा अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं। देखा जाए तो नागा भी एक सैन्य पंथ है। आप इनके समूह को सनातनी सैन्य रेजीमेंट भी कह सकते हैं। इतिहास में आततायियों के विरुद्ध ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का उल्लेख मिलता है, जिनमें हजारों नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया और अपनी जान की बाजी लगाकर भी सनातनी संस्कृति की रक्षा की। ऐसा नहीं कि नागा साधु सिर्फ पुरुष ही होते हैं। कुछ महिलायें भी नागा साधु होती हैं और गेरुवा वस्त्र धारण करती हैं। इन्हें अवधूतानी कहा जाता है। 

कठिन परीक्षाओं से गुजरकर बनते हैं नागा

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नागा संन्यासी बनना आसान नहीं है। इसके लिए कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। जब भी नागा बनने का इच्छुक कोई व्यक्ति किसी भी संन्यासी अखाड़े में जाता है तो उसे पहले कई तरह की परीक्षा देनी पड़ती है। सर्वप्रथम संबंधित अखाड़े के प्रबंधक यह पड़ताल करते हैं कि वह नागा क्यों बनना चाहता है। उसकी पूरी पृष्ठभूमि और मंतव्यों को जांचने के बाद ही उसे अखाड़े में शामिल किया जाता है। श्री पंचदशनाम जूना अखाडे़ के श्रीमहंत मोहन भारती बताते हैं कि अखाड़े में शामिल होने के बाद तीन साल तक उसे अपने गुरुओं की सेवा करनी पड़ती है। सभी प्रकार के कर्मकांडों को समझने के साथ स्वयं भी उनका हिस्सा बनना होता है। जब संबंधित व्यक्ति के गुरु को अपने शिष्य पर भरोसा हो जाता है तो उसे अगली प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। यह प्रक्रिया कुंभ के दौरान शुरू होती है। इस अवधि में संबंधित  व्यक्ति को संन्यासी से महापुरुष के रूप में दीक्षित किया जाता है। उसे गंगा में 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। फिर भस्म, भगवा और रुद्राक्ष की माला दी जाती है। 

श्रीमहंत मोहन भारती बताते हैं कि महापुरुष बन जाने के बाद उसे अवधूत बनाए जाने की तैयारी शुरू होती है। अखाड़ों के आचार्य अवधूत बनाने के लिए सबसे पहले महापुरुष बन चुके संन्यासी का जनेऊ संस्कार करते हैं और इसके बाद उसे संन्यासी जीवन की शपथ दिलवाई जाती है। साथ ही उसके परिवार और स्वयं का पिंडदान करवाया जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वो परिवार और संसार के लिए मर चुका है। पिंडदान करने के बाद दंडी संस्कार होता है और उसे पूरी रात पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करना पड़ता है। रातभर चले इस जाप के बाद भोर होने पर अखाड़े ले जाकर उससे विजया हवन करवाया जाता है और फिर गंगा में 108 डुबकियों का स्नान होता है। गंगा में डुबकियां लगाने के बाद उसे अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग करवाया जाता है। 

श्रीमहंत मोहन भारती के आनुसार नागा पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया के दौरान इन संन्यासियों को सिर्फ एक लंगोट में रहना पड़ता है। उन्हें दिगंबर कहा जाता है। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट का भी परित्याग कर देते हैं और और श्रीदिगंबर कहलाते हैं। इसके बाद वो ताउम्र इसी श्रीदिगंबर अवस्था में रहते हैं।

'कालÓ के उपासक बने शांति के पुजारी

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इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि 14वीं सदी के आरंभ में आततायी शासकों ने सनातनी परंपरा को आघात पहुंचाना शुरू कर दिया था। तब परमहंस संन्यासियों को लगने लगा कि उनकी इस राक्षसी प्रवृत्ति पर शास्त्रीय मर्यादा के अनुकूल विवेक शक्ति से विजय पाना असंभव है। सो, एक कुंभ पर्व में दशनामी संन्यासियों और सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वानों ने तय किया कि क्यों न शस्त्र का जवाब शस्त्र से ही दिया जाए। नतीजा, दशनामी संन्यासियों के संगठन की सामरिक संरचना फील्ड फॉरमेशन आरंभ हुई। असल में स्थिति भी ऐसी ही थी। सनातनी परंपरा की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करना ही एकमात्र विकल्प शेष रह गया था। लिहाजा, ऐसा निश्चय हो जाने पर सर्वानुमति से निर्णय लिया गया कि आगामी कुंभ पर्व के सम्मेलन में पूर्वोक्त चारों आम्नायों (शृंगेरी, गोवर्धन, ज्योतिष व शारदा मठ) से संबंधित दसों पदों के संन्यासियों की मढिय़ों के समस्त मठ संचालकों को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाए। 

इस निर्णय के अनुसार उससे अग्रिम कुंभ पर्व के सम्मेलन में देश के समस्त भागों से हजारों मठों के संचालक, विशिष्ट संत-संन्यासी व सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वान इकट्ठा हुए। उन्होंने एकमत से फैसला लिया कि अब परमात्मा के कल्याणकारी शिव स्वरूप की उपासना करते हुए सनातन धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। इसलिए परमात्मा रुद्र के संहारक भैरव स्वरूप की उपासना करते हुए हाथों में शस्त्र धारण कर दुष्टों का संहार किया जाए। ऐसा निश्चिय हो जाने के बाद शस्त्रों से सज्जित होने के लिए समस्त दशनामी पदों का आह्वान किया गया। इनमें विरक्त संन्यासियों के अलावा ऐसे सहस्त्रों नवयुवक भी सम्मिलित हुए, जिनके हृदय में सनातन धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान करने की प्रबल भावना थी। हजारों की संख्या में नवयुवक संन्यास दीक्षा लेकर धर्म रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गए। 

परमात्मा के भैरव स्वरूप की अविच्छिन्न शक्ति प्रचंड भैरवी (मां दुर्गा) का आह्वान कर उनके प्रतीक के रूप में भालों की संरचना हुई। इन्हीं भालों के सानिध्य में दशनाम संन्यासियों को युद्धकला का प्रशिक्षण देकर शस्त्रों से सज्जित किया गया। इसके बाद प्रशिक्षित एवं शस्त्र सज्जित संन्यासियों ने वस्त्र आदि साधनों का परित्याग कर दिया। आदि शंकराचार्य से पूर्व जैसे परमहंस संन्यासी वस्त्र त्यागकर दिगंबर अवस्था में रहते थे, वैसे भी वे भी शरीर में भस्म लगाए दिगंबर अवस्था में रहने लगे। इसी दिगंबर रूप ने उन्हें नागा संन्यासी के रूप में प्रतिष्ठित किया। कालांतर में नागा संन्यासी संज्ञा ही उनकी पहचान हो गया।

अग्नि वस्त्र धारण करती हैं

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अब थोडा़ महिला नागा संन्यासियों के बारे में भी जान लें। जूना अखाडे़ की साध्वी श्रीमहंत साधना गिरि बताती हैं कि नागा संन्यासी यानी अवधूतानी बनने के लिए सबसे पहले महिलाओं को संन्यासी बनना पड़ता है। इसके लिए वह पंच संस्कार धर्म का पालन करती हैं। इसके तहत सभी को अपने-अपने पांच गुरु-कंठी गुरु, भगौती गुरु, भर्मा गुरु, भगवती गुरु व शाखा गुरु (सतगुरु) बनाने पड़ते हैं। इनके अधीन ये सभी संन्यास के कठोर नियमों का पालन करती हैं। इसके बाद जहां-जहां कुंभ होते हैं, वहां इससे संबंधित संस्कार में भाग लेती हैं। अवधूतानी बनने की प्रक्रिया के तहत सभी साध्वी पूरी रात धर्मध्वजा के नीचे पंचाक्षरी मंत्र 'ॐ नम: शिवाय' का जाप करती हैं। सभी को यह कड़ी चेतावनी होती है कि इस प्रक्रिया में किसी किस्म का कोई व्यवधान न होने पाए। यही वजह है कि जब प्रक्रिया चल रही होती है, तब वहां किसी का भी प्रवेश करने की अनुमति नहीं होती।संन्यास दीक्षा में कुंभ पर्व के दौरान गंगा घाट पर मुंडन व पिंडदान होता है। रात में अखाड़े की छावनी में स्थापित धर्मध्वजा के नीचे 'ॐ नम: शिवाय' का जाप किया जाता है। यहीं पर ब्रह्ममुहूर्त में अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर 'विजया होम' के बाद संन्यास दीक्षा देते है। इसके बाद उन्हें स्त्री व धर्म की मर्यादा के लिए तन ढकने को पौने दो मीटर कपड़ा (अग्नि वस्त्र) दिया जाता है। फिर सभी संन्यासी गंगा में 108 डुबकियां लगाकर अग्नि वस्त्र धारण करती हैं और आचार्य महामंडलेश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। अब उन पर और उनके जन्म पर परिवार व माता-पिता का कोई अधिकार नहीं रह जाता। उसका जन्म धर्म, लोक कल्याण और मानव मात्र की सेवा को समर्पित हो जाता है। संन्यास दीक्षा के उपरांत आत्मा और परमात्मा के मिलन का एहसास होता है।

करती हैं 'अभ्रत' या 'मूसल वस्त्र' स्नान

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कुंभ पर्व के दौरान सभी अवधूतानी संबंधित अखाड़े के शाही स्नान, शाही जुलूस और पेशवाई का अभिन्न हिस्सा होती हैं। वह अखाड़े के शाही स्नान के दौरान अपने क्रम के अनुसार एकल वस्त्र यानी अग्नि वस्त्र के साथ स्नान करती हैं। इसे अभ्रत स्नान या मूसल वस्त्र स्नान भी कहते हैं। शाही जुलूस और पेशवाई के समय भी यह सभी अवधूतानी धर्म की मर्यादा में रहती हैं और अग्नि वस्त्र के साथ शामिल होती हैं।

जमीन का बिछौना, एक वक्त का भोजन

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नागा संन्यासी को केवल जमीन पर ही सोते हैं और इस नियम का पालन हर नागा साधु को करना होता है। इसके साथ वह 24 घंटे में केवल एक ही बार भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के लिए वो एक दिन में सिर्फ सात घरों से ही भिक्षा ले सकते हैं। अगर इन सात बार में भिक्षा न मिले तो उन्हें भूखा ही रहना पड़ता है। नागा संन्यासी अगर वस्त्र धारण करना चाहे तो सिर्फ गेरुवा वस्त्र ही पहन सकता है और केवल भस्म का ही उसका श्रृंगार है।

Friday 2 April 2021

एक हजार साल में 11वीं बार 14 अप्रैल को मेष संक्रांति

एक हजार साल में 11वीं बार 14 अप्रैल को मेष संक्रांति

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दिनेश कुकरेती

कुंभ का संयोग कब व कहां बनेगा, यह गुरु और सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है। जब सूर्य मेष राशि और गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं, तब हरिद्वार कुंभ का आयोजन होता है। कथा है कि समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश को पाने के लिए देव-दानवों में 12 दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस संघर्ष के दौरान पृथ्वी में चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन व नासिक) पर कलश छलक पड़ा। इससे सर्वप्रथम अमृत की बूंदें हरिद्वार में बह रही पतित पावनी गंगा में गिरीं। जब यह अमृत छलका, तब सूर्य व चंद्र मेष राशि और गुरु कुंभ राशि में भ्रमण कर रहे थे। तभी से हर 12 वर्ष के अंतराल में हरिद्वार कुंभ का आयोजन होता है।

खगोलीय गणना के अनुसार सूर्य की गति भी हर 70 साल के अंतराल में परिवर्तित हो जाती है। सूर्य एक अंश रोज चलता है और 30 दिन में 30 अंश पार कर लेता है। लेकिन, 70 साल के अंतराल में मेष संक्रांति एक दिन के बाद शुरू होती है। यही मेष संक्रांति इस बार 14 अप्रैल को पड़ रही है, जो हरिद्वार कुंभ पर्व के मुख्य स्नान की तिथि है। हालांकि, बीते एक हजार वर्षों के दौरान कुंभ मेले के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो यह हमेशा ही ऐसा नहीं रहा। इस लंबे कालखंड में मेष संक्रांति की तिथि में लगातार परिवर्तन होता रहा है। 2021 ईस्वी में पड़ रहा यह बारहवां कुंभ है, जब 14 अप्रैल को मेष संक्रांति होने से यही कुंभ पर्व का मुख्य स्नान होगा। 

ज्योतिषाचार्य डॉ. सुशांत राज कहते हैं कि 21वीं सदी के इस दूसरे कुंभ से पूर्व बीते हजार वर्षों के दौरान हरिद्वार में 86 कुंभ हो चुके हैं। अब तक के दस कुंभ पर्वों के दौरान मेष संक्रांति 14 अप्रैल को पड़ती रही है और इस बार भी पड़ रही है। लेकिन, 1001 ईस्वी में यह एक अप्रैल और 1108 ईस्वी में दो अप्रैल को पड़ी थी। महत्वपूर्ण बात देखिए कि इस कालखंड में 11 अप्रैल को छोड़कर एक से 14 अप्रैल तक की सभी तारीख में कुंभ स्नान हुआ। 11 अप्रैल को कभी भी कुंभ स्नान का मुहूर्त नहीं निकला।

बीते हजार वर्षों में कब, किस तारीख को हुआ कुंभ का मुख्य स्नान

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-वर्ष 1001, 1013, 1025, 1037, 1049, 1062, 1072, 1084 व 1096 में एक अप्रैल

-वर्ष 1108, 1120 व 1132 में दो अप्रैल

-वर्ष 1144, 1156, 1167 व 1179 में तीन अप्रैल

-वर्ष 1191, 1203, 1215, 1227, 1239, 1250, 1262, 1274, 1286 व 1298 में चार अप्रैल

-वर्ष 1310, 1322, 1333, 1345, 1357, 1369, 1381 व 1393 में पांच अप्रैल

-वर्ष 1403, 1416, 1428, 1440 व 1452 में छह अप्रैल

-वर्ष 1464, 1476 व 1488 में सात अप्रैल

-वर्ष 1500, 1511 व 1523 में आठ अप्रैल

-वर्ष 1535, 1547, 1559, 1571, 1583, 1594, 1606, 1618, 1630, 1642, 1654, 1666, 1677 व 1689 में नौ अप्रैल

-वर्ष 1701, 1713, 1725, 1737, 1744, 1760, 1772, 1784 व 1796 में दस अप्रैल

-वर्ष 1808, 1820, 1832 व 1844 में 12 अप्रैल

-वर्ष 1855, 1867, 1879 व 1891 में 13 अप्रैल

-वर्ष 1903, 1915, 1927, 1938, 1950, 1962, 1974, 1986, 1998, 2010 और अब 2021 में 14 अप्रैल

सबसे कम बार बुधवार को हुए मुख्य स्नान

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बीते एक हजार वर्षों में 12-12 बार सोमवार, मंगलवार, शनिवार व रविवार को कुंभ के मुख्य स्नान हुए। जबकि, बुधवार को दस, गुरुवार को 13 और शुक्रवार को 14 बार मुख्य स्नान पर्व पड़े। इस बार मुख्य स्नान फिर बुधवार को पड़ रहा है।

11 वर्ष में होता है हर आठवां कुंभ

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प्राचीन काल में विद्वानों ने ब्रह्मांड को बारह भागों में विभाजित कर प्रत्येक भाग को पृथक राशिनाम प्रदान किया। सूर्यादि नवग्रहों के इन राशि चक्रों से गुजरने को ही ग्रहों का गोचर (गमन या चलना) कहा जाता है। सभी ग्रहों का भ्रमणकाल भी अलग-अलग है। इनमें सूर्य सभी बारह राशियों को पार करने में एक वर्ष का समय लेता है, जबकि चंद्रमा लगभग 27 दिन तीन घंटे। इसी तरह गुरु को बारह राशियों का चक्र भेदने में लगभग 12 वर्ष लगते हैं। यही वजह है कि चारों स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन व नासिक) पर एक कुंभ के बाद दूसरा कुंभ 12 साल के अंतराल में पड़ता है। हालांकि, गुरु की पूर्ण गति ठीक बारह वर्ष नहीं होती और वह राशियों की परिक्रमा में 11 वर्ष 11 महीने व 27 दिन (4332.5 दिन) का समय लेता है। इसके चलते सातवें और आठवें कुंभ के बीच यह अंतर बढ़ते-बढ़ते लगभग एक वर्ष का हो जाता है। इस तरह हर आठवां कुंभ 12 के बजाय 11 वर्ष में होता है।

ब्रह्म के रहस्य से परिचित कराता है कुंभ

ब्रह्म के रहस्य से परिचित कराता है कुंभ
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दिनेश कुकरेती

नातन धर्म की मान्यता है कि संसार के सभी प्राणियों में आत्मा का वास है, लेकिन इनमें मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो इस लोक में पाप एवं पुण्य, दोनों कर्म भोग सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। सनातनी परंपरा में चार मुख्य संप्रदाय बताए गए हैं। पहला वैष्णव, जो विष्णु को परमेश्वर मानता है। दूसरा शैव, जो शिव को परमेश्वर मानता है। तीसरा शाक्त, जो देवी को परमशक्ति मानता है और चौथा स्मार्त, जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों का एक समान मानता है। बावजूद इसके ज्यादातर सनातनी स्वयं को किसी भी संप्रदाय में वर्गीकृत नहीं करते।

उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म (ब्रह्मा नहीं) ही परम तत्व है। ब्रह्म ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है और सृष्टि का आधार है। इसी से सृष्टि की उत्पत्ति होती है और नष्ट होने पर सृष्टि इसी में विलीन हो जाती है। व्‍याकरणाचार्य स्‍वामी दिव्‍येश्‍वरानंद कहते हैं कि ब्रह्म एक और सिर्फ एक ही है। वही विश्वातीत भी है और विश्व से परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ है। वही कालातीत, नित्य व शाश्वत है और वही परम ज्ञान भी है। वह कहते हैं कि ब्रह्म के दो रूप हैं, परब्रह्म व अपरब्रह्म। 

परब्रह्म असीम, अनंत और रूप-शरीर विहीन है। वह सभी गुणों से परे है, फिर भी उसमें अनंत सत्य, अनंत चित और अनंत आनंद है। ब्रह्म की पूजा नहीं की जाती, क्योंकि वह पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। प्रणव अक्षर ओउम् ब्रह्म वाक्य है, जिसे सनातनी परंपरा में परम पवित्र शब्द माना गया है। मान्यता है कि ओउम् की ध्वनि पूरे ब्रह्मांड में गुंजायमान है। ध्यान में गहरे उतरने पर वह सुनाई देती है।













ब्रह्म की परिकल्पना वेदांत दर्शन का केंद्रीय स्तंभ है और सनातन धर्म की विश्व को अनुपम देन है। देखा जाए तो ब्रह्म ऐसा रहस्य है, जिसे दुनिया के हर मत-संप्रदाय को मानने वाला व्यक्ति जानना चाहता है और समझना चाहता है। उसकी यही जिज्ञासा उसे खींच लाती है कुंभ जैसे अनूठे अनुष्ठानों में। मानवीयता का जो भाव कुंभ में देखने को मिलता है, वह और कहीं संभव नहीं। कुंभ में दुनिया का सबसे बड़ा आकर्षण विश्व कल्याण का वह भाव है, जो 'सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामय:Ó का संदेश पूरे मानव समाज को देता है। 

Friday 19 March 2021

दून के रंगमंच का सुनहरा अतीत

कभी पूरे उत्तर भारत में दून के रंगमंच की धाक हुआ करती थी। यह वह दौर है, जब लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी, मुंबई, चंडीगढ़, सहारनपुर, भारत भवन भोपाल जैसे शहरों में स्थानीय नाट्य संस्थाओं की ओर से नाटकों के सफल प्रदर्शन के फलस्वरूप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) का ध्यान दून की ओर भी आकृष्ट हुआ। रामलीला से आरंभ होकर दून का रंगमंच पहले कोलकाता की कोरिन्यियन ड्रामा कंपनी और फिर साधुराम महेंद्रू के लक्ष्मण ड्रामेटिक क्लब के पारसी नाटकों से होता हुआ 70 के दशक (1961 से 1970) तक पहुंचा। यहीं से दून के रंगमंच का स्वर्णिम काल शुरू होता है, जो 90 के दशक (1981 से 1990) तक बदस्तूर जारी रहा। इस कालखंड में यहां की कई नाट्य संस्थाओं व रंगकर्मियों ने राष्ट्रीय फलक पर न सिर्फ अपनी कला का लोहा मनवाया, बल्कि दून के रंगमंच को अलग पहचान भी दिलाई। इस सफलता में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही नेहरू युवा केंद्र की। हम भी रंगमंच के इसी सुनहरे अतीत से परिचित हो लें- 












दून के रंगमंच का सुनहरा अतीत

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दिनेश कुकरेती

ब्बे के दशक में देहरादून के नेहरू युवा केंद्र को रंगकर्मियों के बीच 'मंडी हाउसÓ के नाम से ख्याति प्राप्त थी। तब रंगमंच की समस्त गतिविधियां इसी केंद्र से संचालित हुआ करती थीं। यह दौर इस मायने में भी अविस्मरणीय है कि अमरदीप चड्ढा के बाद हिमानी शिवपुरी, श्रीश डोभाल, चंद्रमोहन व अरविंद पांडे को इसी दौरान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश मिला। इसी अवधि में अशोक चक्रवर्ती, अविनंदा, एवी राणा, अवधेश कुमार, सहदेव नेगी, ज्योतिष घिल्डियाल, ज्ञान गुप्ता, टीके अग्रवाल, सतीश चंद्र, तपन डे, दीपक भट्टाचार्य, अजय चक्रवर्ती, धीरेंद्र चमोली, रामप्रसाद सुंद्रियाल, गजेंद्र वर्मा, दादा अशोक चक्रवर्ती, अतीक अहमद, रमेश डोबरियाल, सुरेंद्र भंडारी, दुर्गा कुकरेती जैसे मंझे हुए रंगकर्मियों की मजबूत जमात भी खड़ी हुई। लेकिन, नेहरू युवा केंद्र के बंद होते ही नाट्य संस्थाओं के साथ रंगकर्मी भी बिखर-से गए। आज क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों व वीडियो एलबमों की व्यस्तता के चलते कलाकारों के पास समय का अभाव है। इसका सीधा असर रंगमंच पर भी पड़ा। हालांकि, इस सबके बावजूद दून में वरिष्ठजनों का अनुभव और युवाओं की ऊर्जा रंगमंच की जोत जलाए हुए है। वरिष्ठ रंगकर्मी ज्योतिष घिल्डियाल कहते हैं कि रंगमंच मानवीय है। जब तक जीवन है, रंगमंच भी है। वह बीमार पड़ सकता है, थक सकता है, पर मर नहीं सकता। वरिष्ठ रंगकर्मी यमुनाराम कहते हैं कि रंगमंच को संतुष्टि तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर संभावनाएं तलाश कर नए आयाम जुटाने होंगे।

चरित्र में जान फूंक देते थे दादा

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दून के रंगमंच को दादा अशोक चक्रवर्ती के बिना पूर्ण नहीं माना जा सकता। नाटक 'बर्फ की मीनारÓ में उनका विलियम का चरित्र दर्शकों को आज भी याद है। नाटक 'बर्फ की मीनारÓ व 'तलछटÓ के दिल्ली समेत कई स्थानों पर सफल प्रदर्शन किए गए। वर्ष 1978 में उन्होंने रंगकर्मियों के साथ मिलकर 'वातायनÓ संस्था की स्थापना की और पूरी तरह नाटकों को समर्पित हो गए। उनके निर्देशन में 'शंबूक की हत्याÓ, 'मैन विदाउट शैडोÓ व 'निशाचरÓ जैसे बहुचर्चित नाटकों का अनेक स्थानों पर प्रदर्शन हुआ। कैंसर जैसे असाध्य रोग के बावजूद उन्होंने अपने जीवन के अंतिम नाटक 'अंधा भोजÓ का निर्देशन किया। बांग्ला नाटक 'रातेर अथितिÓ का ङ्क्षहदी अनुवाद उन्हीं के सहयोग से पूर्ण हो पाया था। एनएसडी जाने के इच्छुक रंगकर्मी दादा से ही प्रशिक्षण लेते थे। एक समय ऐसा भी आया, जब दादा नुक्कड़ को समर्पित हो गए। 'दृष्टिÓ नाट्य संस्था के माध्यम से उन्होंने पूरे उत्तराखंड में जनजागरण अभियान चलाया। 'उत्तराखंड नाट्य परिसंघÓ की परिकल्पना को वर्ष 2003 में दादा ने ही मूर्तरूप दिया। जिसका उद्देश्य उत्तराखंड में रंग शिथिलता को तोडऩा व सार्थक एवं सक्रिय रंग आंदोलन का सूत्रपात करना था।














'प्रह्लादÓ से मानी जाती है गढ़वाली रंगमंच की शुरुआत

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गढ़वाली रंगमंच की शुरुआत वर्ष 1930 से मानी जाती है। वर्ष 1930 में भवानी दत्त थपलियाल ने पहली बार गढ़वाली नाटक 'प्रह्लादÓ की प्रस्तुति दी। हालांकि, वर्ष 1912 में उन्होंने 'जय-विजयÓ और वर्ष 1914 में 'प्रह्लादÓ नाटक की रचना कर दी थी। लेकिन, कतिपय कारणों के चलते वर्ष 1930 से पूर्व इनका मंचन नहीं हो पाया। इसी बीच वर्ष 1932 में चार गैल्यों (साथियों) द्वारा रचित एवं अभिनीत नाटक 'पांखूÓ का उत्तरकाशी के माघ मेले में पहली बार मंचन हुआ। इन चार गैल्यों में से एक सत्यप्रसाद रतूड़ी थे। हालांकि, थोड़ा पीछे जाएं तो टिहरी राज्य के तत्कालीन रेजीडेंट शैमियर ने टिहरी में एक नाट्य क्लब की स्थापना कर ली थी। रियासत के सभी अधिकारी इस नाट्य क्लब के सदस्य होते थे। वर्ष 1921 तक इस क्लब के लिए प्रेक्षागृह भी बन गया, लेकिन नाटकों का मंचन इससे पूर्व से होने लगा था। अगस्त 1917 में टिहरी में नाटक 'सत्य हरिश्चंद्रÓ का पूर्वाभ्यास शुरू हो गया था और दो माह बाद इसे टिहरी में पारसी शैली में अभिनीत किया गया। नाट्य गृह बनने से टिहरी में नाटकों के लेखन व मंचन में तेजी आई और आने वाले वर्षों में 'यहूदी की बेटीÓ, 'खूबसूरत बलाÓ, 'सफेद खूनÓ, 'दानवीर कर्णÓ जैसे कुछ नाटकों का मंचन हुआ। वर्ष 1932 में विश्वंभर दत्त उनियाल रचित नाटक 'बसंतीÓ ने 'प्रह्लादÓ जैसी ही लोकप्रियता हासिल की। 

गढ़वाली के कुछ प्रमुख नाटक

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'भारी भूलÓ व 'मलेथा की कूलÓ  (जीत सिंह नेगी), 'खाडू लापताÓ, 'अंछर्यूं को तालÓ, 'दुर्जन की कछड़ीÓ व 'घरजवैंÓ (ललित मोहन थपलियाल), 'दूणो जनमÓ व 'कीड़ू की ब्वैÓ (किशोर घिल्डियाल), 'जंकजोड़Ó व 'अर्धग्रामेश्वरÓ (राजेंद्र धस्माना), 'कंस वधÓ, 'कंसानुक्रमÓ व 'स्वयंवरÓ (कन्हैयालाल डंडरियाल), 'मंगतू बौल्याÓ (स्वरूप ढौंडियाल), 'कफनÓ व 'लिंडर्या छ््वाराÓ (डॉ. कुसुम नौटियाल), 'जीतू बगड्वालÓ (ब्रजेंद्र शाह)
















ब्रह्मा ने नाटक रचा तो विश्वकर्मा ने रंगमंच

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रंगमंच शब्द 'रंगÓ और 'मंचÓ के मेल से बना है। रंग, जिसके तहत दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवार, छत और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है। साथ ही अभिनेताओं की वेशभूषा और सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है। मंच, जिसके तहत दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊंचा रखा जाता है। जबकि, दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला या नाट्यशाला कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। 'ऋग्वेदÓ के कतिपय सूत्रों में यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का इशारा पाते हैं। माना जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा पाकर लोगों ने नाटक की रचना की होगी और इसी से नाट्यकला का विकास हुआ। यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया। 

'नाट्यशास्त्रÓ में नाटकों के विकास की प्रक्रिया व्यक्त करते हुए भरतमुनि कहते हैं, नाट्यकला की उत्पत्ति दैवीय है। दुखरहित सतयुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने ब्रह्माजी से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की, जिससे देवता अपना दुख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें। फलस्वरूप ब्रह्माजी ने 'ऋग्वेदÓ से कथोपकथन, 'सामवेदÓ से गायन, 'यजुर्वेदÓ से अभिनय और 'अथर्ववेदÓ से रस लेकर नाटक का निर्माण किया। रंगमंच के निर्माण का दायित्व निभाया देवशिल्पी विश्वकर्मा ने।