वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा का मैं प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं। तब केदारघाटी में मैंने जो हालात देखे, वह हृदय को द्रवित कर देने वाले थे। इन्हीं हालात को समेटती चंद कविताएं-
आपदा की कविताएं
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(एक)
इस दु:ख की कोई सीमा नहीं
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तनु-
पांच साल की बच्ची
रोज पापा को फोन लगाती है,
पर दूसरी तरफ से
कोई जवाब नहीं आता
तनु फिर अगले दिन का
इंतजार करती है,
पापा से मिलने की
ढेरों कल्पनाओं संग
वह दिनभर खेलती है,
छोटी बहन पीहू को खिलाती है
और शाम को-
फिर फोन लगाने बैठ जाती है।
तनु की दादी नहीं है
लेकिन-
उसके तिहत्तर साल के दादा
चुपचाप यह सब देखते रहते हैं
और-
पोंछते रहते हैं आंसू।
वह जानते हैं कि
तनु के पापा कभी नहीं आएंगे,
पर उससे कह नहीं सकते,
टूट जाएगा मासूम का बालमन।
हालांकि,
जानते हैं कि एक दिन तनु
उनसे पूछेगी,
दादा-
क्या केदारघाटी की तबाही
लील गई थी पापा को।
और तब...
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(दो)
नदी
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नदी जीवन देती है
जीवन में उल्लास भी घोलती है।
जब आप अकेले होते हैं
कोई नहीं होता
सुख-दु:ख बांटने वाला
तब कल-कल, छल-छल बहती हुई
चट्टानों से अठखेलियां करती
नदी के पास चले जाइए।
चुपचाप उसके किनारे बैठकर
निहारिए उसके निर्मल जल को-
कितना आनंद मिलता है।
आप भूल बैठेंगे
सारे भौतिक सुख
अपना-पराया, तेरे-मेरे का भाव।
नदी के मन में ईष्र्या नहीं है
और-
न कोई राग-द्वेष ही
उसे यह भी नहीं मतलब कि
आप क्या सोचते हैं उसके बारे में।
उसने तो जबसे बहना सीखा है-
बांटती ही चली गई स्नेह।
वह तो हम हैं-
जो नहीं समझ पाए उसके मनोभाव
बांधने की कोशिश करने लगे
उसका अविरल बहाव,
कब्जाने लगे उसके शांत तट
और, भूल गए कि-
नदी कितनी भी उदार क्यों न हो,
पर कभी अपने तट नहीं छोड़ती
जब होने लगती है उसे घुटन
तो छटपटाने लगती है।
अफसोस-
हम कभी नहीं समझ पाए
उसकी छटपटाहट
इसलिए वह विकराल हो उठी
तोड़ दिए सारे बंधन-
लील गई जीवन के सारे सुख।
अब नदी शांत है-
उड़ेल रही है अपना दुलार।
हो सके तो कोशिश करना,
उसे समझने की
ताकि-
फिर कभी न देखनी पड़े
केदारघाटी जैसी त्रासदी...
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(तीन)
जिम्मेदारी
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यह भरोसा ही तो है
जिसने कमजोर नहीं होने दी
आस्था की डोर,
सदियां गुजरने के बाद भी।
सिर के ऊपर तने हुए-
खतरों को देख भी-
हम पहाड़ के नीचे से निकलते हैं।
दुर्गम रास्तों और-
उफनाती नदियों को पार करते हैं।
इसी प्रकार जारी है
हमारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी की यात्रा।
किंतु-
इस दंभ में हम यह जरूर भूल गए कि
प्रकृति और हमारे बीच के रिश्ते की
कुछ मर्यादाएं हैं।
इसलिए-
जब सहसा कोई हादसा घटता है तो-
भगवान पर डाल देते हैं,
उसकी जिम्मेदारी...।
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(चार)
सबक
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मनुष्य दलदल में न फंसे
इसलिए भगवान स्वयं केदार जा बसे।
सोचा होगा-
यहां कोई नहीं आएगा
और आया भी तो
दर्शन कर लौट जाएगा।
पर, इंसान और भी चालाक निकला-
दर्शन करने गया और-
वहीं ठौर बना लिया।
बसा लिया अपनी तमाम बुराइयों
और गंदगियों का नगर।
और फिर-
अभिशप्त होने लगी
ग्लेशियरों से निकलने वाली
मंदाकिनी, सरस्वती और दूध गंगा।
मनुष्य ने उनके किनारों को भी नहीं बख्शा
और-
केदारधाम ग्लेशियरों के मुहाने पर बसता चला गया।
तो क्या हम भविष्य के खतरों को लेकर
सचमुच अंजान थे।
क्या मंदाकिनी के नीचे चट्टान पर
रामबाड़ा बसाने की कोई जगह थी।
किसी ने भी तो नहीं सोचा।
क्या आगे भी मनुष्य-
ऐसी गलतियां दोहराएगा।
आज...यही सोचने का समय है।
आपदा से सबक लेने का समय है...।
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@दिनेश कुकरेती
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