Friday, 11 September 2020

Olympia of D. Aikin, Orile of Astley

यादों के झरोखों से 
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डी.एकिन का ओलंपिया, एस्ले का ओरियंट 
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दिनेश कुकरेती 
आज का 'दिग्विजयÓ सिनेमा तीस के दशक में देहरादून की शान हुआ करता था। उस दौर में सिर्फ दो ही छविगृह दून में थे, एक 'ओलंपियाÓ और दूसरा 'ओरियंटÓ। दोनों ही १९२७ में बनकर तैयार हुए, लेकिन हिंदुस्तानी सिर्फ 'ओलंपियाÓ में ही एंट्री कर सकते थे। 'ओरियंटÓ सिर्फ अंग्रेजों के लिए था और यहां फिल्में भी इंग्लिश ही लगा करती थीं। बाद में इन दोनों छविगृहों के बीच गांधीपार्क के ठीक सामने सड़क की दूसरी ओर 'ओडियनÓ नाम से एक नया टॉकीज भी अस्तित्व में आया, लेकिन आज उसकी सिर्फ यादें बाकी हैं।
ओलंपिया वह ऐतिहासिक सिनेमाघर है, जिसने घंटाघर के ठीक सामने आरएस माधोराम की बिल्डिंग में आकार लिया। इसकी मालकिन थी डी.एकिन। सिनेमाघर के नीचे लाल इमली-धारीवाल की एजेंसी हुआ करती थी। पास ही बंगाली स्वीट शॉप के आगे पेट्रोल पंप था, जिसका टैंकर वहीं नीचे खुदवाया गया था। भारतीयों के लिए बने इस ४५० सीट वाले सिनेमाघर में तब केवल हिंदी फिल्में चला करती थीं। 
फिल्म निर्माता-निर्देशक एवं लेखक डा.आरके वर्मा बताते हैं कि उस दौर में 'कृष्ण जन्मÓ, 'मिसिंग ब्रेसलेटÓ (बाद में इसी से मिस्टर इंडिया बनी), 'भूल-भुलैयाÓ जैसी पारिवारिक फिल्मों ने टिकट खिड़की पर सफलता के झंडे गाड़े। वह बताते हैं कि ३० नवंबर १९२७ को ओलंपिया की मालकिन ने सरकार को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि 'यहां पर एक स्टूडियो खोला जाना चाहिए।Ó इसके १५ दिन बाद एमकेपी के अवैतनिक प्रबंधक बाबू एस.दर्शनलाल ने भी एक चिट्ठी लिखी, 'देहरादून में ओलंपिया भारतीयों के लिए है। यहां हिंदी फिल्में चलती हैं।Ó 

 
उन्होंने यह भी लिखा कि 'इंग्लैंड में दिखाई जाने वाली फिल्मों में भारत की गलत छवि पेश की जाती है।Ó यही 'ओलंपियाÓ वर्ष १९४८ में 'प्रकाश टॉकीजÓ हुआ और आज इसे 'दिग्विजयÓ सिनेमा के नाम से जानते हैं। वह बताते हैं कि १९२७ में ही 'ओलंपियाÓ से कुछ मीटर के फासले पर गांधी पार्क के सामने एस्ले नामक अंग्रेज ने प्लॉट खरीदकर ५०० सीट वाले 'ओरियंटÓ सिनेमा की स्थापना की। लेकिन, यहां भारतीयों के लिए 'नो एंट्रीÓ थी। इन दोनों सिनेमाघरों के बीच गांधीपार्क के ठीक सामने बाद में 'ओडियनÓ सिनेमा अस्तित्व में आया। २२६ सीट वाले इस हॉल में भी सिर्फ अंग्रेजी फिल्में लगा करती थीं। 

 
वर्ष १९४८ में यहां दो और सिनेमाघर बने, 'अमृतÓ और 'हॉलीवुडÓ। 'अमृतÓ में हिंदी और 'हॉलीवुडÓ में अंग्रेजी फिल्में लगा करती थीं। तब का 'अमृतÓ आज का 'नटराजÓ है, जबकि 'हॉलीवुडÓ कालांतर में 'चीनियाÓ थियेटर बना और फिर 'कैपरीÓ सिनेमा। अब इस हॉल की जगह कैपरी टेड्र सेंटर ने ले ली है। इसी कालखंड में मोती बाजार देहरादून का सबसे बड़ा सिनेमाघर अस्तित्व में आया। नाम था 'फिल्मिस्तानÓ और सीटे ६५०। यहां भी पारिवारिक फिल्में लगा करती थीं। जब यहां 'जय संतोषी मांÓ लगी तो, दर्शक स्टेज पर पैसे फेंका करते थे। रेलवे स्टेशन के समीप 'मिनर्वाÓ सिनेमाघर था, जो बाद में 'लक्ष्मीÓ सिनेमा बना और आज वहां लक्ष्मी पैलेस नाम से व्यावसायिक सेंटर है। सिनेमाघरों का अब नामोनिशान भी नहीं बचा।
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Through the windows of memories




Olympia of D. Aikin, Orile of Astley
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Dinesh Kukreti
Today's 'Digvijay' cinema used to be the pride of Dehradun in the thirties.  At that time only two imaginations were in Doon, one 'Olympia' and the other 'Orient'.  Both were ready in 1926, but Hindustani could only enter 'Olympia'.  'Orient' was only for the British and films were also used by English here.  Later on, on the other side of the road just opposite the GandhiPark, a new talkie named 'Odion' also came into existence, but today only its memories remain.

Olympia is the historic theater that took shape in RS Madhoram's building just opposite the Clock tower.  Its mistress was D. Ekin.  There used to be Lal Imli-Dhariwal's agency under the theater.  There was a petrol pump next to the Bengali Sweet Shop, whose tanker was dug down there itself.  In this 750-seat cinema hall meant for Indians, then only Hindi films were played.

 


Filmmaker-director and writer Dr. RK Verma says that family films such as 'Krishna Janma', 'Missing Bracelet' (later to become Mr. India), 'Bhool Bhulaiyaai', at that time, showed success flags at the ticket window.  He says that on 30 November 1926, the mistress of Olympia wrote a letter to the government, stating that 'a studio should be opened here.' 15 days later, MKP's unpaid manager Babu S. Darshan Lal also wrote a letter.  , 'Olympia in Dehradun is for Indians.  Hindi films run here.

He also wrote that 'the wrong image of India is presented in the films shown in England.' This is 'Olympia' in the year 1979 'Prakash Talkies' happened and today it is known as 'Digvijay' cinema.  He says that it was only in 1926 that a British-named Aisley bought a plot in front of Gandhi Park at a distance of a few meters from Olympia 4 and established a 500-seat Orient 4 cinema.  But, there was no entry for Indians here.  Between these two theaters, 'Odeon' cinema came into existence just before Gandhipark.  In this 224-seat hall, only English films were used.



In the year 1949, two more cinemas were built here, 'Amrit 4' and 'Hollywood'.  Used to film Hindi in 'Amrit' and English in 'Hollywood'.  The then 'Amrit' is today's 'Natraj', while 'Hollywood' became 'Chinaia' theater later and 'Capri' cinema.  Now this hall has been replaced by Capri Tedra Center.  It was in this period that Moti Bazaar Dehradun's largest cinema hall came into existence.  The name was 'Filmistan 4' and Cite 750.  Family films were also used here.  When 'Jai Santoshi Maa' started here, the audience used to throw money on the stage.  Close to the railway station was the 'Minerva' cinema, which later became 'Laxmi' cinema and today there is a commercial center called Laxmi Palace.  The cinematography is no longer available.

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