Sunday 29 January 2023

Culture is the reflection of nature

प्रकृति का ही प्रतिबिंब है संस्कृति

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दिनेश कुकरेती

ब न कोई वन नीति थी और न पर्यावरण से जुड़ी संस्थाएं, तब पर्यावरण संरक्षण हमारे नियमित क्रियाकलापों में था। हमने पीपल को अखंड सुहाग का प्रतीक मानते हुए पूजा तो भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना। बेल के वृक्ष में महादेव को देखा तो ढाक, पलाश, दूर्वा व कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजन का साधन बनाया। यहां तक कि जीवन का विभाजन भी प्रकृति को आधार मानकर किया। कहने का मतलब देह की रचना पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटक पृथ्वी, जल, सूर्य, वायु और आकाश से ही हुई।














उपनिषदों में उल्लेख है कि 'हे अश्वरूप धारी परमात्मा! बालू तुम्हारे उदरस्थ अर्धजीर्ण भोजन है। नदियां तुम्हारी नाडिय़ां हैं। पर्वत और पहाड़ तुम्हारे हृदय खंड हैं। समग्र वनस्पतियां, वृक्ष एवं औषधियां तुम्हारे रोम सदृश हैं। ये सभी हमारे लिए शिव बनें। हम नदी, वृक्षादि को तुम्हारे अंग स्वरूप समझकर इनका सम्मान और संरक्षण करते हैंÓ यानी जिस तरह धरती का संतुलन बनाए रखने को उसका 33 प्रतिशत भूभाग वनाच्छादित होना जरूरी है, उसी प्रकार प्राचीन काल में जीवन का एक तिहाई भाग प्राकृतिक संरक्षण को समर्पित था, ताकि मनुष्य प्रकृति को भली-भांति समझकर उसका समुचित उपयोग कर सके। कृष्ण की गोवर्द्धन पूजा की शुरुआत का लौकिक पक्ष भी यही है कि जन सामान्य मिट्टी, पर्वत, वृक्ष, वनस्पति का आदर करना सीखे। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण स्वयं को ऋतु स्वरूप, वृक्ष स्वरूप, नदी स्वरूप व पर्वत स्वरूप कहकर इनके महत्व को रेखांकित करते हैं।

प्रकृति के संरक्षक हैं वेद

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वेदों में प्रार्थना है कि पृथ्वी, जल, औषधि व वनस्पतियां हमारे लिए शांतिप्रद हों। ऐसा तभी हो सकता है, जब हम इनका सभी स्तरों पर संरक्षण करें। तभी भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण की इस विराट अवधारणा की सार्थकता है। समुद्र मंथन से वृक्ष जाति के प्रतिनिधि के रूप में कल्पवृक्ष का निकलना, देवताओं का उसे अपने संरक्षण में लेना, कामधेनु और ऐरावत हाथी का संरक्षण ऐसे उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि भारतीय संस्कृति में प्रकृति समाई हुई है। 

प्रकृति और शास्त्र एक-दूसरे के पूरक

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पूजा के कलश में सप्त नदियों का जल एवं सप्त भृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता है। इसलिए शास्त्रों में सर्वप्रथम भूमि व जल के पूजन की सलाह दी गई है। बात जैन धर्म की करें तो अणुव्रत का ग्यारहवां नियम है, "मैं पर्यावरण के प्रति जागरूक रहूंगा। न तो हरे-भरे वृक्ष काटूंगा, न पानी का अपव्यय ही करूंगा।" तात्पर्य यही है कि हमारा भौतिक वातावरण जीवों पर और जीव भौतिक वातावरण पर आश्रित हैं।

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Culture is the reflection of nature

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Dinesh Kukreti

When there was no forest policy and no environment-related institutions, then environmental protection was in our routine activities.  We considered Peepal as a symbol of unbroken marriage and considered the worship of Tulsi holy in the food.  Seeing Mahadev in the Bael tree, plants like Dhak, Palash, Durva and Kush were made the means of Navagraha worship.  Even the division of life was done considering nature as the basis.  It means to say that the body was created from the important components of the environment, earth, water, sun, air and sky.

It is mentioned in the Upanishads that 'O God in the form of a horse!  Sand is semi-perishable food in your stomach.  Rivers are your nadis.  The mountain and the mountains are parts of your heart.  All plants, trees and medicines are like your hair.  May all of them become Shiva for us.  We respect and protect the river, trees etc. considering them as your part. That is, just as 33 percent of the earth's area is required to be forested to maintain the balance, in the same way, in ancient times, one-third of the life was devoted to natural conservation, so that  Man can understand the nature properly and make proper use of it.  The cosmic side of the beginning of Krishna's Govardhan Puja is also that the general public should learn to respect soil, mountains, trees and vegetation.  In the Gita, Yogeshwar Shri Krishna underlines their importance by calling himself the form of the season, the form of the tree, the form of the river and the form of the mountain.

Vedas are the guardians of nature

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There is a prayer in the Vedas that earth, water, medicine and plants should be peaceful for us.  This can happen only when we protect them at all levels.  That is why this huge concept of environmental protection has significance in Indian culture.  The emergence of the Kalpavriksha as a representative of the tree species from the churning of the ocean, the deities taking it under their protection, the protection of Kamdhenu and the Airavat elephant are such examples, which show that nature is embedded in Indian culture.

Nature and science complement each other

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Worshiping the water of the seven rivers and the seven clays in the pot of worship communicates the feeling of keeping the river and the land sacred in the person.  That's why it has been advised in the scriptures to worship land and water first.  If we talk about Jainism, then the eleventh rule of Anuvrat is, "I will be aware of the environment. Neither will I cut green trees, nor will I waste water."  The meaning is that our physical environment is dependent on the living beings and the living beings are dependent on the physical environment.


Thursday 5 January 2023

हिमालय का स्विट्जरलैंड औली

हिमालय का स्विट्जरलैंड औली

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दिनेश कुकरेती
समान छूते चमकीले पहाड़, मीलों दूर तक पसरी बर्फ की चादर, दूर-दूर तक नजर आते बर्फीली चोटियों के दिलकश नजारे। यह सब देखने के लिए आपको स्विट्जरलैंड जाने की जरूरत नहीं, क्योंकि ऐसी जगह तो हमारे करीब ही मौजूद है और वह है विश्व प्रसिद्ध हिमक्रीड़ा स्थल औली। आप भी अगर बर्फ पर अठखेलियां करने के शौकीन हैं तो उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित औली से मुफीद और कोई जगह नहीं। यहां बर्फ पर स्कीइंग का आनंद लेने के लिए दुनियाभर से पर्यटक खिंचे चले आते हैं। औली की सुंदरता ही ऐसी है कि सिर्फ सर्दी ही नहीं, बल्कि हर मौसम में यहां पर्यटकों की भीड़ बनी रहती है। बर्फ की सफेद चादर ओढ़े पहाड़ों पर सूर्योदय का नजारा हो या सूर्यास्त का, औली हर पहर अलग ही रंगत बिखेरता नजर आता है। ऐसे में निर्णय करना मुश्किल हो जाता है कि इस सुंदरता का कौन-सा रंग सबसे खूबसूरत है। दिन के वक्त सूर्य की रोशनी से यहां हिमाच्छादित पहाड़ चांदी की सी चमक बिखेरते नजर आते हैं तो शाम के समय आप सूरज और चांद को धरती के बिल्कुल करीब महसूस कर सकते हैं। यहां बर्फ इतनी अद्भुत होती है कि आप उसे चख भी सकते हैं। पूरी दुनिया औली को बेहतरीन स्की रिजॉर्ट के रूप में जानती है, लेकिन जो लोग केवल कुदरत को करीब से निहारने का जुनून लिए होते हैं, उनके लिए औली किसी वरदान से कम नहीं है। यहां न केवल बर्फ, बल्कि भरपूर चमकती हरियाली, हरे-भरे खेत, छोटे-बड़े देवदार के पेड़ों केबीच ऊंची-नीची चट्टानों पर बिछी मुलायम हरी घास, पतले एवं घुमावदार रास्ते और जहां तक निगाहें घुमाओ, वहां तक पहाड़ ही पहाड़ नजर आते हैं। जो शीत ऋतु की शुरुआत के साथ चांदी की सी चमक बिखेरने लगते हैं।


औली से बेहतर ढलान और कहीं नहीं
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जोशीमठ से 16 किमी दूर समुद्रतल  से 9500 से लेकर 10500 फीट तक की ऊंचाई पर तीन किमी क्षेत्र में फैली हंै औली की बर्फ से लकदक खूबसूरत दक्षिणमुखी ढलानें। 1640 फीट की गहरी ढलान में स्कीइंग का जो रोमांच यहां है, वह दुनिया में दूसरी जगहों पर शायद ही हो। इसलिए औली की ढलानें स्कीयरों के लिए बेहद मुफीद मानी जाती हैं। यहां तक कि शिमला (हिमाचल प्रदेश) और गुलमर्ग (जम्मू-कश्मीर) की ढलानों से भी बेहतर हैं यह ढलानें।


इंटरनेशनल स्कीइंग रेस के लिए अधिकृत
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यह उत्तराखंड में स्थित एकमात्र स्थान है, जिसे फेडरेशन ऑफ इंटरनेशनल स्कीइंग (एफआइएस) ने स्कीइंग रेस के लिए अधिकृत किया हुआ है। वैसे वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद ही औली में राष्ट्रीय स्तर की स्कीइंग चैंपियनशिप का आयोजन शुरू कर दिया गया था, लेकिन इसे विशिष्ट पहचान वर्ष 2011 के सैफ विंटर गेम्स से मिली। इस दौरान यहां स्कीइंग की कई प्रतियोगिताएं आयोजित की गईं। दरअसल, एफआइएस के मानकों के अनुसार स्कीइंग रेस कराने के लिए केंद्रों में ढलान, बर्फ बनाने की वैकल्पिक व्यवस्था, विदेशी खिलाडिय़ों के ठहरने की समुचित व्यवस्था, संपर्क मार्ग आदि की स्थिति देखी जाती है। औली इन मानकों पर पूरी तरह खरा उतरता है। यहां स्कीइंग के लिए 1300 मीटर लंबा और 40 मीटर चौड़ा स्की ट्रैक है।


स्कीइंग का प्रशिक्षण केंद्र भी है औली
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औली में खिलाडिय़ों के लिए लिए स्की लिफ्ट है, जबकि दर्शकों और निर्णायकों के लिए खास ग्लास हाउस। इस हिमक्रीड़ा केंद्र में उत्तराखंड पर्यटन विभाग और गढ़वाल मंडल विकास निगम (जीएमवीएन) की ओर से जनवरी से मार्च के मध्य स्कीइंग का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। इसमें सात दिन का नॉन-सर्टिफिकेट और 14 दिन का सर्टिफिकेट कोर्स शामिल है। इसके अलावा निजी संस्थान भी यहां ट्रेनिंग देते हैं। स्की सीखते समय सामान और ट्रेनिंग के लिए 500 रुपये देने पडते हैं। यह राशि पर्यटकों के रहने, खाने व स्की सीखने के लिए आवश्यक सामान जुटाने में खर्च की जाती है।

सूरज को गले लगाते पहाड़
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यहां आप नंदा देवी के अलावा हाथी पर्वत, त्रिशूल, द्रोणागिरि, कामेट, नीलकंठ समेत बर्फ से लकदक अन्य चोटियों का बिल्कुल करीब से दीदार कर सकते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, मानो ये चोटियां हमारे हाथ की पहुंच में हैं। मंद-मंद ठंडी हवाओं का झोंका तन-मन में ताजगी से भर देता है। मन करता है ऊंचे-ऊंचे सफेद चमकीले पहाड़ों पर धुंध में लिपटे बादल और मीलों तक जमी बर्फ के नजारे को हमेशा के लिए स्मृतियों में कैद कर लें। यहां से पहाड़ सूरज को गले लगाते प्रतीत होते हैं। आप स्कीइंग के साथ ही नंदा देवी पर्वत के पीछे से सूर्योदय का नजारा देख लेंगे तो औली किसी ख्वाब-की दुनिया सा प्रतीत होगा। सूरज कभी गेहुंआ, कभी केसरिया, कभी नारंगी तो कभी लाल रंग की अद्भुत चमक का नजारा पेश करता है। यदि आप चांद और सूरज के अनूठे मिलन को देखना चाहते हैं तो तड़के इसका दीदार कर सकते हैं।
खास है औली का रोपवे
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एशिया में गुलमर्ग रोपवे को सबसे लंबा माना जाता है। इसके बाद औली-जोशीमठ रोपवे का नंबर है। करीब 4.15 किमी लंबे इस रोपवे की आधारशिला वर्ष 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रखी थी। जो वर्ष 1994 में बनकर तैयार हुआ। देवदार के घने जंगलों के बीच से यह रोपवे दस टॉवरों से होकर गुजरता है। जिग-जैक पद्धति पर बने इस रोपवे में आठ नंबर टॉवर से उतरने-चढऩे की व्यवस्था है।


पहली बार बर्नेडी ने की थी स्कीइंग
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वर्ष 1942 में गढ़वाल के अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर बर्नेडी औली पहुंचे थे। उन्हें यहां की नैसर्गिक सुंदरता इस कदर भायी कि सर्दी में दोबारा यहां पहुंच गए। बर्नेडी ने यहां की बर्फीली ढलानों पर पहली बार स्कीइंग की। वर्ष 1972 में आइटीबीपी (भारत-तिब्बत सीमा पुलिस) के डिप्टी कमांडेंट हुकुम सिंह पांगती ने भी कुछ जवानों के साथ औली में स्कीइंग की। आइटीबीपी के अधिकारियों को यहां की बर्फीली ढलानें बेहद पसंद आईं। 25 मार्च 1978 को यहां भारतीय पर्वतारोहण एवं स्कीइंग संस्थान की स्थापना हुई।


कैमरे में उतार लें 'स्लीपिंग ब्यूटीÓ
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बर्फबारी के बाद जब मौसम खुलता है तो औली की 'स्लीपिंग ब्यूटीÓ का आकर्षण हर किसी को सम्मोहित करता है। दरअसल, औली के ठीक सामने का पहाड़ बर्फ से ढकने पर लेटी हुई युवती का आकार ले लेता है। इस दृश्य को देखना और कैमरों में कैद करने के लिए पर्यटकों में होड़ लगी रहती है। इसे ही स्लीपिंग ब्यूटी के नाम से जानते हैं।

चेयर लिफ्ट का अनूठा रोमांच
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पर्यटक यहां होने वाली स्कीइंग स्पर्धा और आस-पास के कुदरती नजारों का भरपूर लुत्फ उठा सकते हैं। इसके लिए औली में 800 मीटर लंबी चेयर लिफ्ट की सुविधा भी है, जिसमें बैठकर औली का विहंगम दीदार किया जा सकता है। इस खुली चेयर लिफ्ट से सैर का अलग ही रोमांच है। यही नहीं, स्कीइंग देखने के लिए अलग-अलग स्थानों पर सात ग्लास हाउस भी बनाए गए हैं, जिनसे औली की खूबसूरत वादियों को निहारा जा सकता है। आप यहां स्कीइंग के अलावा रॉक क्लाइंबिंग, फॉरेस्ट कैंपिंग, घोड़े की सवारी आदि का भी मजा ले सकते हैं।


दुनिया की सबसे ऊंची कृत्रिम झील
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विश्व में सबसे अधिक ऊंचाई पर कृत्रिम झील औली में मौजूद है। 25 हजार किलो लीटर की क्षमता वाली इस झील का निर्माण वर्ष 2010 में किया गया था। बर्फबारी न होने पर इसी झील से पानी लेकर औली में कृत्रिम बर्फ बनाई जाती है। इसके लिए फ्रांस में निर्मित अत्याधुनिक मशीनें लगाई गई हैं।

ऐसे पहुंचें
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निकटतम हवाई अड्डा: देहरादून में स्थित जौलीग्रांट एयरपोर्ट, जो औली से लगभग 279 किमी की दूरी पर है। यहां से औली के लिए टैक्सी व बस सेवाएं आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। जौलीग्रांट एयरपोर्ट देश के सभी प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।

निकटतम रेलवे स्टेशन: औली से निकटतम रेलवे स्टेशन ऋषिकेश (लगभग 250 किमी) है। यहां से बस-टैक्सी के जरिये औली पहुंचा जा सकता हैै।

सड़क मार्ग: औली जोशीमठ से 16 किमी की दूरी पर है। राज्य परिवहन निगम के साथ ही प्राइवेट बसें जोशीमठ और ऋषिकेश (253 किमी) के बीच नियमित रूप से संचालित होती हैं। इसके अलावा हरिद्वार (277 किमी) व देहरादून (298 किमी) से भी हर समय बस-टैक्सी उपलब्ध रहती हैं। जोशीमठ से औली रोपवे, बस और टैक्सी से पहुंचा जा सकता है।

कब जाएं
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वैसे तो सालभर आप औली जा सकते हैं, लेकिन यदि आप स्कीइंग के इरादे से यहां जाना चाहते हैं तो नवंबर से मार्च के बीच का समय सबसे बेहतर रहेगा। दिसंबर से फरवरी के बीच भारी बर्फबारी होने के कारण यहां का वातावरण बेहद ठंडा रहता है। मई से नवंबर के बीच भी यहां गुलाबी ठंडक रहती है, इसलिए चाहें तो इस दौरान आउटडोर एक्टिविटीज में शामिल होकर रिलैक्स कर सकते हैं।

औली में चार मुख्य स्लोप
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दस नंबर स्लोप (सफेद) 900 मीटर लंबा
आठ नंबर स्लोप (नीला) 800 मीटर लंबा
टेंपल स्लोप (लाल) 400 मीटर लंबा (नौसिखियों के लिए)
कंपोजित स्लोप (समग्र ढलान) 3.1 किमी लंबा

ठहरने की व्यवस्था
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यहां पर्यटकों के ठहरने के लिए जीएमवीएन का भव्य गेस्ट हाउस और लगभग दो दर्जन हट्स हैं। इनमें से कुछ हट्स फाइबर ग्लास के हैं। सामान्य हट्स तो हनीमून मनाने वाले युगल या अन्य युवा दंपतियों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। यहां कमरों के अलावा डॉरमेट्री भी उपलब्ध हैं। साथ ही कैंटीन और अच्छे रेस्तरां भी हैं। इसके अलावा आइटीबीपी का भी अपना रेस्टोरेंट है। आप चाहें तो यहां घूमने के बाद ठहरने के लिए जोशीमठ जा सकते हैं। जोशीमठ में ढेरों होटल व गेस्ट हाउस हैं।

औली ही है संजीवनी शिखर
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औली की पौराणिक महत्ता किसी से छिपी नहीं है। कभी औली को संजीवनी शिखर के नाम से जाना जाता था। पौराणिक गाथाओं के अनुसार हनुमान जी जब संजीवनी लेने हिमालय की इस वीरान पहाड़ी पर आए तो उन्हें संजीवनी शिखर से ही द्रोणागिरी पर्वत पर संजीवनी बूटी का खजाना दिखा था। कालांतर में यहां हनुमान जी की मूर्ति स्थापित की गई।


जैसा मौसम, वैसा रंग
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औली अलग-अलग मौसम में अलग-अलग रूप दिखाता है। बरसात में हरियाली ओढ़े औली एक खूबसूरत नवयौवना के रूप में दिखती है तो शीतकाल में बर्फ की सफेद चादर ओढ़े औली की सादगी भी भव्य रूप में प्रकट होती है।

छानियों का पड़ाव
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औली में कभी क्षेत्र के विभिन्न गांवों की छानियां हुआ करती थीं। इन गांवों के लोग वसंत ऋतु में यहां अपने मवेशियों के साथ प्रवास करते थे। हालांकि, आज भी सलूड़-डुंग्रा क्षेत्र के ग्रामीण यहां छानियों में रहने आते हैं।

हर तरह के भोजन का ले सकते हैं लुत्फ
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औली में अस्थायी ढाबों के निर्माण और कूड़ा बिखेरने पर पूरी तरह प्रतिबंध है। यहां के होटल-रेस्टोरेंट में आपको हर तरह का लजीज खाना मिल जाएगा। ऑर्डर पर आप उत्तराखंडी व्यंजनों का लुत्फ भी ले सकते हैं। हां! मांसाहारी खाना केवल एक ही होटल में मिलता है।

20 से 30 हजार का टूर पैकेज
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औली ट्रिप के लिए कुछ ट्रेवलिंग वेब साइट्स पर 20 हजार से 30 हजार रुपये तक के टूर पैकेज उपलब्ध हैं। ये पैकेज लोगों की संख्या, औली में रुकने के दिन आदि सुविधाओं के आधार पर कम-ज्यादा भी हो सकते हैं। अगर आप दिल्ली से आ रहे हैं तो कम से पांच रात छह दिन का समय चाहिए।


गोरसों बुग्याल
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औली से तीन किमी ऊपर यह मीलों लंबा-चौड़ा चरागाही मैदान है, जो ओक और कोनिफर के जंगलों से घिरे होने के कारण अधिक मनोरम प्रतीत होता है। जाड़े के दिनों में यहां बर्फ जमी रहती है, जबकि गर्मी के दिनों में दर्जनों किस्म के ऐसे फूल खिले रहते हैं, जो आसानी से और कहीं देखने को नहीं मिलते।

छत्रकुंड
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गोरसों बुग्याल से एक और औली से चार किमी दूर जंगल के मध्य में स्थित इस स्थान पर साफ और मीठे पानी का एक छोटा-सा सरोवर है। हालांकि, छत्रकुंड में विशेष कुछ नहीं है, फिर भी यहां का शांत माहौल और सुहाना दृश्य तन-मन में ताजगी भर देता है।


जोशीमठ
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औली से 16 किमी दूर यह स्थान थोड़ा नीचे स्थित है। यहां के बारे में किंवदंती है कि आद्य शंकराचार्य ने यहीं पर दिव्य ज्योति के दर्शन किए थे और यहीं पर ज्योतिर्मठ की स्थापना की थी। कालांतर में ज्योतिर्मठ का अपभ्रंश 'जोशीमठÓ हो गया और यह पूरा क्षेत्र जोशीमठ कहा जाने लगा। प्राकृतिक सुषमा, पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पर्यटन की दृष्टि से अपना विशिष्ट महत्व रखने वाला यह स्थान बदरीनाथ, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी का प्रवेश द्वार भी है।