Friday 13 October 2023

मुखौटों के पीछे छिपे असंख्‍य रावण


विजयदशमी के दिन हम हर साल धूमधाम से बुराई एवं असत्य के प्रतीक रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद आदि के पुतले जलाते हैं। समाज से बुराइयों को खत्म करने और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों पर चलने का भावनात्मक संकल्प लेते हैं। बावजूद इसके सवाल वहीं का वहीं है कि क्या हम वास्तव में रावण का अंत कर पाए। क्या रावण हमारे अंदर नहीं है। सच तो ये है कि रावण आज चप्पे-चप्पे में मौजूद है। वह पारिवारिक रिश्तों में भी है और सामाजिक जिम्मेदारियों में भी। कला, संस्कृति, साहित्य, शिक्षा व कानून-व्यवस्था में भी रावण के दर्शन किए जा सकते हैं। बल्कि, अब तो न्याय भी इसकी छाप लिए होने का आभास देता है। बस! हम उसे पहचान नहीं पा रहे हैं या यूं कह लीजिए की पहचानना ही नहीं चाहते। विचार कीजिए, यदि मुखौटों के भीतर छिपे रावण को हम पहचानेंगे नहीं तो उसे मार कैसे पाएंगे। क्या अपने अंदर बैठे रावण से दो-दो हाथ किए बिना हमें चारों ओर फैले पड़े रावणों से कभी मुक्ति मिल पाएगी।

मुखौटों के पीछे छिपे असंख्‍य रावण

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दिनेश कुकरेती

देवाधिदेव भगवान शंकर के पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित, सप्तऋषियों में से एक पुलस्त्य का पौत्र, महापंडित विश्रवा का पुत्र रावण ऋषिकुल में जन्म लेने के बाद भी राक्षस के रूप में ही याद किया जाता है। यह कर्मों की गति ही तो है। आज रावण संज्ञा नहीं, संज्ञेय है, परिभाष्य है। वह मात्र एक पात्र नहीं, चरित्र है। महज स्त्रीहर्ता नहीं, सुसंस्कार द्रोही है। घटना नहीं, परंपरा है और इसीलिए एकल नहीं, बहुल है, सर्वत्र है। घूसखोर, बेईमान, भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी, दंभी, क्रोधी, स्वार्थी, संस्कारहीन, विवेक सुप्त आदि सभी रावण के ही तो प्रतिरूप हैं। यदि तात्कालिक स्वार्थों में अंधे होकर हम इन रावणों को पहचान नहीं रहे या पहचानते हुए इस ओर आंखें मूंदे हुए हैं तो प्रकारांतर से यह एक और रावण के भ्रूण विकास की सूचना ही तो है। अगर आदमीयत, समाज एवं राष्ट्र की शुचिता की कोई अहमियत हमारे भीतर है तो इन बालिग-नाबालिग व गर्भस्थ रावणों को पहचानने के लिए अपनी क्षमता का विकास करना हमारा नैसर्गिक ही नहीं, नैतिक दायित्व भी है। 

विस्तार ही रावण का बीजमंत्र

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'सत्यमेव जयतेÓ रावण को नहीं सुहाता। इसमें उसे अपनी मौत दिखती है। चिरस्थायी मौत। कुल का नाश। भविष्य में कोई नामलेवा व पानीदेवा भी न बचे, ऐसा अंत। तब कैसे सह सकता है रावण सत्य की ही जीत की उद्घोषणा। राजनीति रावणी माया जाल का सबसे सुदृढ़ पाया है। इसके बहुत सारे प्रतिरूप हैं। कुछ आधे-अधूरे तो कुछ एक-दूसरे के परिपूरक। विस्तार ही रावण का बीजमंत्र है। भौतिक विस्तार, मानसिक विस्तार। क्योंकि जिस दिन उसके इस स्वच्छंद विस्तार पर कोई अंकुश लगेगा, उसी दिन से उसकी माया छंटनी शुरू होगी, दिग्विजय का सपना टूटेगा। अटल सामाजिक मूल्य फिर स्थापित होना शुरू होंगे।



सामाजिक विधानों से ऊपर है रावण

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रावण तो तीनों लोकों की सत्ता हासिल करने का भ्रम पाले बैठा है। अलग-अलग रूप और अपने-अपने दायरे में वह स्वयं को त्रिलोकपति समझने लगा है। इसलिए वह स्वयं को सामाजिक विधानों से ऊपर मानता है। रूढिय़ों को संस्कृति एवं संस्कारों का हिस्सा बताना रावणी कूटनीति का महत्वपूर्ण अंग है। जबकि संस्कृति एवं संस्कार वैमनस्य नहीं पनपाते। वह तो राष्ट्र के जीवन की जड़ें हैं। व्यक्ति पहले समाज और फिर राष्ट्र में बदलता ही संस्कृति एवं संस्कारों के सहारे है। अन्यथा आदिम युग से आज तक की विकास यात्रा कैसे संभव हो पाती। कैसे रावण पर राम की जीत की आशाएं जागतीं।

राम की पूजा, रावण का मोह

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हम राम को तो पूजते हैं, लेकिन अंतर्मन में रावण का मोह नहीं टूटता। अपने भीतर पूरी ईमानदारी से झांककर देखें तो महसूस करेंगे कि हमारे दिमाग में यह जो कुछ घुसता सा जा रहा है, वह हमारे अपने भीतर से उपजा हुआ नहीं है। हमें जो कुछ परोसा गया है और अभी भी परोसा जा रहा है, उसी की उपज है यह।



खंडित व्यक्तित्व का स्वामी है रावण

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रावण का प्रतीक एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। पश्चिम में मनोविज्ञान ने कई मनोरोगों की खोज की है, जिनमें एक है स्किजोफ्रेनिया यानी खंडित व्यक्तित्व। जब व्यक्तित्व अत्याधिक जटिल हो तो उसके दो नहीं, अनेक टुकड़े हो जाते हैं। हमारा सामाजिक जीवन एक दिखावा होता है। हम जैसे हैं, वैसे बाहर नहीं दिखा सकते, इसलिए हमें नकली चेहरे (मुखौटे) ओढऩे पड़ते हैं। जरूरत होने पर हम इन्हें बदल लेते हैं। धीरे-धीरे यह भी संभव है कि इस पाखंड में हम खुद को भी भुला बैठें।



फरेब के ही हो सकते हैं कई चेहरे

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हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद हमें उसका अर्थ नहीं मालूम कि रावण दशानन है। उसके दस चेहरे हैं। राम प्रामाणिक हैं। उन्हें हम पहचान सकते हैं, क्योंकि वह कोई धोखा अथवा फरेब नहीं हैं। रावण को पहचानना मुश्किल है। उसके अनेक चेहरे हैं। दस का मतलब ही अनेक है, क्योंकि दस से बड़ी कोई संख्या नहीं। दस आखिरी संख्या है और इसके आगे हम मनचाही संख्या जोड़ सकते हैं। रावण असुर है और हमारे चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती है, तब तक हमारे भी दशानन की तरह बहुत सारे चेहरे होते हैं। तब हम भूल जाते हैं कि हमारा स्वरूप क्या है। इस स्थिति में अपने भीतर मौजूद दशानन को हम कैसे जलाएं। ऐसा तो रावण को नकारने पर ही संभव हो पाएगा। ...और इसके लिए हमें रावण के अस्तित्व को नकारने का शुतुरमुर्गी तरीका अपनाने की जगह उसकी आंखों में आंखें डालकर उसे ही सच्चाई का दर्पण दिखाना होगा।













नवद्वार जीत लिए तो दशहरा हुआ

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दशहरा यानी विजयादशमी का पर्व नवरात्र के नौ दिन बाद आता है। नवरात्र और दशहरा ऐसे सांस्कृतिक उत्सव हैं, जो चैतन्य के देवी स्वरूप को पूरी तरह समर्पित हैं। इस पर्व के दिन जीवन के सभी पहलुओं के प्रति और जीवन में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं केप्रति अहोभाव प्रकट किया जाता है। नवरात्र के नौ दिन तमस, रजस और सत्व के गुणों से जुड़े हैं। पहले तीन दिन तमस के हैं, जब देवी रौद्र रूप में होती हैं, जैसे दुर्गा या काली। इसके बाद के तीन दिन देवी लक्ष्मी को समर्पित हैं। लक्ष्मी सौम्य हैं, पर भौतिक जगत से संबंधित हैं। आखिरी तीन दिन देवी सरस्वती यानी सत्व से जुड़े हैं। ये ज्ञान और बोध से संबंधित हैं। इन तीनों में जीवन समर्पित करने से जीवन को एक नया रूप मिलता है। 

अगर हम तमस में जीवन लगाते हैं तो हमारेजीवन में एक तरह की शक्ति आएगी। रजस में जीवन लगाने पर किसी अन्य तरीके से शक्तिशाली होंगे और सत्व में जीवन लगाने पर बिल्कुल अलग तरीके से शक्तिशाली बनेंगे। लेकिन, अगर हम इन सबसे परे चले जाएं तो फिर शक्तिशाली बनने की बात नहीं होगी, बल्कि हम मुक्ति की ओर चले जाएंगे। नवरात्र के बाद दसवां यानी अंतिम दिन दशहरा यानी विजयादशमी का होता है। इसके मायने हुए कि हमने इन तीनों पर विजय पा ली। इनमें से किसी के भी आगे घुटने नहीं टेके, बल्कि हर गुण के आर-पार देखा। हर गुण में भागीदारी निभाई, लेकिन अपना जीवन किसी गुण को समर्पित नहीं किया। अर्थात सभी गुणों को जीत लिया। यही विजयादशमी है। इसका संदेश यह है कि जीवन की हर महत्वपूर्ण वस्तु के प्रति अहोभाव और कृतज्ञता का भाव रखने से ही कामयाबी एवं विजय का वरण होता है। सरल शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि दशहरे का उत्सव शक्ति और शक्ति के समन्वय का उत्सव है। नवरात्र के नौ दिन मां भगवती की उपासना कर शक्तिशाली बना हुआ मनुष्य विजय प्राप्ति के लिए तत्पर रहता है। इस दृष्टि से दशहरा यानी विजय के लिए प्रस्थान का उत्सव आवश्यक भी है।



जहां विजय, वहीं विजयादशमी

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श्रीवाराह पुराणÓ में कहा गया है कि ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन बुधवार को हस्त नक्षत्र में समस्त नदियों में श्रेष्ठ गंगा नदी धरा पर अवतीर्ण हुई थी, जो दस पापों को नष्ट करने वाली है। इसीलिए इस तिथि को दशहरा कहते हैं। रावण के दस शीश थे और इसी दिन उसका हनन हुआ था, इसलिए भी यह त्योहार दशहरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ और वर्षा ऋतु की समाप्ति एवं शरद ऋतु के आगमन पर आश्विन शुक्ल दशमी को मनाया जाने लगा। दशहरा मनाने की परंपरा युगों से चली आ रही है। त्रेतायुग में श्रीराम ने लंकापति रावण का वध कर विजय का वरण किया था, इसलिए इसे विजयादशमी नाम से भी जाना जाता है। पुराणों में यह भी उल्लेख है कि विजयादशमी के दिन देवराज इंद्र ने महादानव वृत्तासुर पर विजय प्राप्त की थी। पांडवों ने भी विजयादशमी के दिन ही द्रौपदी का वरण किया। महाभारत के युद्ध का आरंभ भी विजयादशमी के दिन से ही माना जाता है। 'ज्योतिर्निबंधÓ नामक ग्रंथ में लिखा है कि आश्विन शुक्ल दशमी को तारा उदय होने के समय 'विजयÓ नामक मुहूर्त होता है, जो सर्वकार्य सिद्ध करने वाला माना गया है। इसीलिए इस त्योहार का नाम विजयादशमी पड़ा होगा। महर्षि भृगु ने कहा है कि इस दिन सभी राशियों में सायंकाल के समय विजय मुहूर्त में यात्रा करना उत्तम होता है, जो ग्यारहवां मुहूर्त है। जो जीत चाहते हैं, उन्हें इसी मुहूर्त में यात्रा करनी चाहिए। इसी तिथि को श्रीराम ने भगवती विजया का पूजन कर विजय प्राप्त की थी। इसीलिए इस दिन देवी विजया की पूजा परंपरा है। जिसकी वजह से इस त्योहार का नाम विजयादशमी पड़ा। 'चिंतामणिÓ नामक ग्रंथ में कहा गया है कि आश्विन शुक्ल दशमी के दिन तारों के उदय होने का जो समय है, उसका विजय से संबंध है, जो सारे काम और अर्थों को पूरा करने वाला है। 



वीरता के प्रादुर्भाव का दिन

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आश्विन शुक्ल दशमी को श्रीराम ने रावण तो देवी दुर्गा ने नौ रात्रि एवं दस दिन के युद्ध के बाद महिषासुर पर विजय की थी। दशहरा को दशहोरा भी कहते हैं, जिसके मायने हुए दसवीं तिथि। दशहरा वर्ष की तीन अत्यंत शुभ तिथियों में से एक है। अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल व कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा। इस दिन लोग शस्त्र-पूजा के साथ नया कार्य आरंभ करते हैं। मसलन अक्षर लेखन व नए उद्योग का आरंभ, बीज बोना आदि)। मान्यता है कि इस दिन जो कार्य आरंभ किया जाता है, उसमें विजय मिलती है। विजयादशमी को श्रीराम की विजय के रूप में मनाया जाए या दुर्गा पूजा के, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक एवं शौर्य की उपासक है। व्यक्ति एवं समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो, इसीलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों यानी काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है। 















उत्सव की तरह है जीवन

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नवरात्र के नौ दिनों के प्रति या जीवन के हर पहलू के प्रति उत्सव एवं उमंग का नजरिया रखना और उसे उत्सव की तरह मनाना सबसे महत्वपूर्ण है। अगर हम जीवन में हर चीज को एक उत्सव के रूप में लेंगे तो बिना गंभीर हुए जीवन में पूरी तरह शामिल होना सीख जाएंगे। असल में ज्यादातर लोगों के साथ दिक्कत यह है कि वह जिस चीज को बहुत महत्वपूर्ण समझते हैं, उसे लेकर हद से ज्यादा गंभीर हो जाते हैं। अगर उन्हें लगे कि वह चीज महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर उसके प्रति बिल्कुल लापरवाह हो जाएंगे और उसमें जरूरी भागीदारी भी नहीं दिखाएंगे। जीवन का रहस्य यही है कि हर चीज को बिना गंभीरता के देखा जाए, लेकिन उसमें पूरी तरह से भाग लिया जाए। बिल्कुल एक खेल की तरह।

तुलसी के शिष्यों ने की थी पहली रामलीला



महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण नौ हजार साल ईसा पूर्व से लेकर सात हजार साल ईसा पूर्व तक की मानी जाती है। यही कारण है रामलीला मंचन की शुरुआत के बारे में ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता। हालांकि, दक्षिण-पूर्व एशिया में कई पुरातत्वशास्त्री और इतिहासकारों को ऐसे प्रमाण मिले हैं, जो साबित करते हैं कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही रामलीला का मंचन हो रहा था। जावा के सम्राट 'वलितुंगÓ के एक शिलालेख में ऐसे मंचन का उल्लेख है। यह शिलालेख 907 ईस्वी का है। इसी प्रकार थाईलैंड के राजा 'ब्रह्मत्रयीÓ के राजभवन की नियमावली में रामलीला का उल्लेख है, जिसकी तिथि 1458 ईस्वी है।

तुलसी के शिष्यों ने की थी पहली रामलीला

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दिनेश कुकरेती

भारत में भी रामलीला के ऐतिहासिक मंचन का ईसा पू्र्व में कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। लेकिन, 1500 ईस्वी में गोस्वामी तुलसीदास ने जब आम बोलचाल की भाषा 'अवधीÓ में श्रीराम के चरित्र को 'रामचरितमानसÓ में चित्रित किया तो इस महाकाव्य के माध्यम से देशभर, खासकर उत्तर भारत में रामलीला का मंचन किया जाने लगा। कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास के शिष्यों ने शुरुआती रामलीला का मंचन काशी, चित्रकूट और अवध में किया। इतिहासविदों के अनुसार देश में मंचीय रामलीला की शुरुआत 16वीं सदी के आरंभ में हुई थी। इससे पहले राम बारात और रुक्मिणी विवाह के शास्त्र आधारित मंचन ही हुआ करते थे। वर्ष 1783 में काशी नरेश उदित नारायण सिंह ने हर साल रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया। 



चित्रकूट के मैदान में पहली रामलीला

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काशी में गंगा और गंगा के घाटों से दूर चित्रकूट मैदान में दुनिया की सबसे पुरानी मानी जाने वाली रामलीला का मंचन किया जाता है। मान्यता है कि यह रामलीला 500 साल पहले शुरू हुई थी। 16वीं शताब्दी में 80 वर्ष से भी अधिक की उम्र में गोस्वामी तुलसीदास ने अवधी भाषा में रामचरितमानस लिखी थी।

रामलीला के प्रकार

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मुखौटा रामलीला: मुखौटा रामलीला का मंचन इंडोनेशिया और मलेशिया में होता रहा है। इंडोनेशिया का 'लाखोनÓ, कंपूचिया का 'ल्खोनखोलÓ और म्यांमार का 'यामप्वेÓ, ऐसे कुछ स्थान हैं, जहां इसका आज भी मंचन होता है।

छाया रामलीला: जावा व मलेशिया में 'वेयांगÓ और थाईलैंड में 'नंगÓ ऐसी जगह है, जहां कठपुतली के माध्यम से छाया नाटक प्रदर्शित किया जाता है। विविधता और विचित्रता के कारण छाया नाटक के माध्यम से प्रदर्शित होने वाली रामलीला मुखौटा रामलीला से भी निराली है।

मूक अभिनय: यह संगीतबद्ध हास्य थियेटर है। इसमें रामलीला का सूत्रधार रामचरितमानस की चौपाई और दोहे गाकर सुनाता है और अन्य कलाकार बिना कुछ बोले रामायण की प्रमुख घटनाओं का मंचन करते हैं। इस शैली में रामलीला की झांकियां भी दिखाई जाती हैं और बाद में शहरभर में शोभायात्रा निकाली जाती है। 

ओपेरा (संगीतबद्ध गायन) शैली: उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में यह शैली विकसित हुई। इस रामलीला की खासियत है कि इसके संवाद क्षेत्रीय भाषा में न होकर ब्रज और खड़ी बोली में ही गाए जाते हैं। इसके लिए संगीत की विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया जाता है। 

रामलीला मंडली: मंडलियों के माध्यम से भी पेशेवर कलाकार रामलीला का मंचन करते हैं। स्टेज पर रामचरितमानस की स्थापना करके भगवान की वंदना होती है। इसमें सूत्रधार, जिसे व्यास भी कहा जाता है, रामलीला के पहले दिन की कथा सुनाता है और आगे होने वाली रामलीला का सार गाकर सुनाता है। ये कलाकार-मंडलियां भारत के कई राज्यों में रामलीला का मंचन करती हैं।



पौड़ी की रामलीला : विशिष्टता बनी विशेषता

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उत्तराखंड की रामलीलाओं में गढ़वाल मंडल मुख्यालय पौड़ी में होने वाली रामलीला का शीर्ष स्थान है। यूनेस्को की धरोहर बन चुकी यह ऐसी रामलीला है, जिसने विभिन्न संप्रदायों के लोगों को आपस में जोडऩे का काम तो किया ही, आजादी के बाद समाज में जागरुकता लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पारसी थियेटर शैली और राग-रागनियों पर आधारित इस रामलीला का वर्ष 1897 में पौड़ी में स्थानीय लोगों के प्रयास से कांडई गांव में पहली बार मंचन हुआ था। इसे वृहद स्वरूप देने का प्रयास वर्ष 1908 से भोलादत्त काला, अल्मोड़ा निवासी तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पूर्णचंद्र त्रिपाठी, क्षत्रिय वीर के संपादक कोतवाल सिंह नेगी व साहित्यकार तारादत्त गैरोला ने किया। विद्वतजनों के जुडऩे के कारण पौड़ी की रामलीला को एक नया स्वरूप मिला और आने वाले सालों में जहां रामलीला के मंचन में निरंतरता आई, वहीं इसमें अनेक विशिष्टताओं का समावेश होता भी चला गया। वर्ष 1943 तक पौड़ी में रामलीला का मंचन सात दिवसीय होता था, लेकिन फिर इसे शारदीय नवरात्र में आयोजित कर दशहरा के दिन रावण वध की परंपरा शुरू हुई।



शुरुआती दौर में रामलीला में प्रकाश व्यवस्था के लिए स्थानीय भीमल वृक्ष की लकड़ी (छिल्लों) का प्रयोग होता था। लेकिन, वर्ष 1930 में छिल्लों का स्थान पेट्रोमैक्स ने ले लिया। यह वह दौर था, जब गायन पक्ष में माइक के अभाव के कारण ऊंचे स्वर वाले गायकों को तरजीह दी जाती थी। यह पारसी थियेटर शैली का ही एक अंग है। वर्ष 1945 में नौटंकी शैली का स्थान पूरी तरह रंगमंच की पारसी शैली ने ले लिया। वर्ष 1957 में पौड़ी का विद्युतीकरण हुआ और रामलीला मंचन का स्वरूप भी निखरने लगा। धीरे-धीरे गीत नाट्य के जरिए इसके संगीत को विशुद्ध शास्त्रीयता से जोड़ा गया। स्क्रिप्ट में बागेश्री, विहाग, देश, दरबारी, मालकोस, जैजवंती, जौनपुरी जैसे प्रसिद्ध रागों पर आधारित रचनाओं का समावेश किया गया।

वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगरान के अनुसार रामलीला मंचन की एक विशेषता यह भी है कि इसमें गीतों के पद हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी, अवधी, ब्रज के अलावा अन्य देशज शब्दों की चौपाइयों में तैयार किए गए हैं। कुछ मार्मिक प्रसंगों की चौपाइयां ठेठ गढ़वाली में भी हैं। शब्द इतने सहज व आसान हैं कि गीतों के पद श्रोताओं तक सीधी लय बना लेते हैं। तब मंचन की जरूरी शर्त यानी संवाद की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। लोकरुचि के अनुसार इसमें समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। रावण के पात्र के रूप में किसी खूंखार राक्षसी चरित्र की बजाय एक आकर्षक, अभिमानी व बलशाली विद्वान का चित्रण, राम-लक्ष्मण-सीता के रूप में किशोरवय पात्र, जिनकी आवाज में गीतों के पद मधुरता की ऊंचाइयां छूने लगते हैं और कुछ प्रसंगों का नौटंकी शैली में प्रहसन के रूप में मंचन जैसी विशेषताएं इस रामलीला को अनूठा बनाती हैं। 

पूरे उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व करने वाली पौड़ी की रामलीला में हिंदुओं के साथ मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोग भी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करते रहे हैं। इनमें मोहम्मद सिद्दीक, सलारजंग, इलाहीबख्श हुसैन, हसीनन हुसैन व इमामउल्ला खां के साथ ईसाई समुदाय के विक्टर का नाम भी आदर से लिया जाता है। आज भी यह परंपरा अनवरत चली आ रही है। रामलीला का यह मंच अनेक कलाकार, संगीतकार, गायक और कवियों की साधनास्थली भी रहा है।  



मन को छू जाता है पार्श्‍व गायन

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पौड़ी की रामलीला की एक विशिष्टता इसका पाश्र्व गायन भी है। पहले रामलीला मंचन में पात्र स्वयं गाकर अभिनय भी करते थे। पाश्र्व गायन से रंगमंच पर कलाकार के सामने आने वाली कतिपय समस्याओं से उसे छुटकारा मिला और कलाकार अभिनय पर अधिक ध्यान देने लगे। शुरू में प्रायोगिक तौर पर किए जाने वाले पाश्र्व गायन के साथ मंचन की गुणवत्ता में इजाफा होने पर आज कुछ पात्रों को छोड़ बाकी सभी के लिए पाश्र्व गायन किया जाता है।


दृश्य के अनुरूप लगते हैं सैट

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साठ के दशक से रामलीला के कलापक्ष पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। खासकर, मंचन के दौरान दृश्य के अनुरूप सेट लगाने पर। इस दौर में भगवंत सिंह नेगी का दृश्य संयोजन और मंच निर्माण में विशेष योगदान रहता था। शुरू में मंच लकड़ी का बनाया जाता था, लेकिन वर्ष 1993 में पौड़ी नगर पालिका ने उसी स्थान पर एक विशाल स्थायी मंच का निर्माण करा दिया। मंच के लिए रामलीला कमेटी को यह जमीन कांडई गांव के कोतवाल सिंह नेगी के परिवार ने दान में दी थी। 

आरती में भावनृत्य का समावेश

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दृश्य के अनुरूप सेट लगाने के अनेक चर्चित अभिनव प्रयोगों में हनुमान का संजीवनी बूटी लाते समय हिमालय आकाश मार्ग से उड़ते हुए दिखाया जाना काफी लोकप्रिय हुआ। आज रामलीला में जितना महत्वपूर्ण इसका संगीत पक्ष है, उतना ही इसका कला पक्ष भी। कलापक्ष में ही आरती के दृश्य के साथ भावनृत्य भी आज पौड़ी की रामलीला की खास विशेषता बन गई है।

सबसे पहले शामिल हुए महिला पात्र

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पूरे उत्तराखंड में पौड़ी की रामलीला को ही यह श्रेय जाता है कि उसने महिला पात्रों को रामलीला मंचन में सर्वप्रथम शामिल किया। वर्ष 2002 में पहली बार यह प्रयोग किया गया, जो लोगों को इस कदर भाया कि आज सभी महिला पात्रों को महिलाएं ही अभिनीत करती हैं।

जिंक ऑक्साइड की जगह पेन केक

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रामलीला मंचन में मेकअप हमेशा एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहा है। कम प्रकाश व्यवस्था के कारण विद्युतीकरण होने के बाद भी मेकअप में जिंक ऑक्साइड का प्रयोग किया जाता था। लेकिन, बाद के वर्षों में वीडियोग्राफी के प्रचलन में आने के बाद अब जिंक ऑक्साइड का स्थान पेन केक ने ले लिया है।

आस्था के साथ आजादी का उल्लास

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यह ऐसी रामलीला है, जिसमें स्वतंत्रता के गीत भी उल्लास के साथ गूंजते हैं। स्व.मथुरा प्रसाद डोभाल का आजादी के बाद लिखा गीत 'स्वतंत्र भारत पुण्य भूमि में, रामराज्य आयाÓ इसके साथ ही रामलीला मंच पर धार्मिक आस्था की तस्वीरों के साथ नेताजी सुभाषचंद्र बोस की तस्वीर लगाना साबित करता है कि उस जमाने में रामलीला से जुड़े लोगों में आजादी के प्रति कितना जुनून रहा होगा।

निष्ठा एवं लगन की प्रतिमूर्ति

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इस ऐतिहासिक रामलीला को वर्तमान मुकाम तक पहुंचाने में कई लोगों का योगदान रहा है। विपरीत परिस्थितियों में भी पूरी निष्ठा एवं लगन से काम करने वाले इन लोगों में नरेंद्र सिंह भंडारी, दयासागर धस्माना, भूपेंद्र सिंह नेगी, नागमल सिंह नेगी, बच्ची सिंह, मोहन सिंह, ज्ञान विक्टर, मन्ना बाबू, सिताब सिंह कुंवर, सत्य प्रसाद काला, भगवंत सिंह नेगी, मदन सिंह नेगी, अजय नेगी, पूर्णचंद थपलियाल, सुंदर सिंह नेगी, नारायण दत्त थपलियाल, सुरेशचंद्र थपलियाल, उमाकांत थपलियाल, चिरंजीलाल शाह, मदनमोहन शाह, पीतांबर बहुखंडी शंकर सिंह नेगी, महिताब सिंह रावत, तारीलाल शाह, मथुराप्रसाद डोभाल आदि प्रमुख हैं।

ऐसे बनी यूनेस्को की धरोहर

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पौड़ी की इस ऐतिहासिक रामलीला को अंतरराष्ट्रीय पटल पर भी परखा गया है। कुछ वर्ष पूर्व यूनेस्को की ओर से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से जुड़ी तमाम विधाओं के संरक्षण की योजना बनाई गई। इसके तहत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली ने देशभर में रामलीलाओं पर शोध किया। फरवरी 2008 में केंद्र ने पौड़ी की रामलीला का दस्तावेजीकरण किया और साबित हुआ कि यह ऐतिहासिक धरोहर है। खुद यूनेस्को ने उसे यह मान्यता प्रदान की है।निश्चित रूप में एक सांस्कृतिक दस्तावेज के तौर पर इस रामलीला का देश की विरासत में शामिल होना किसी भी परिपाटी के लिए गौरव की बात है। 



दादर व कहरुवा के गीत, तबले की गमक

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उत्तराखंड की रामलीलाओं में कुमाऊं अंचल की गीत-नाट्य शैली में प्रस्तुत होने वाली रामलीला का विशेष स्थान है। पूर्व में विशुद्ध मौखिक परंपरा पर आधारित यह रामलीला पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोक मानस में रचती-बसती रही। कुमाऊं में रामलीला मंचन की शुरुआत 18वीं सदी के मध्यकाल के बाद हो चुकी थी। बताते हैं कि कुमाऊं में पहली रामलीला तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर स्व. देवीदत्त जोशी के सहयोग से 1860 में अल्मोड़ा नगर के बद्रेश्वर मंदिर में हुई। वर्ष 1940-41 में विख्यात नृत्य सम्राट पं.उदय शंकर ने छायाचित्रों के माध्यम से अल्मोड़ा नगर की रामलीला में नयापन लाने का प्रयास किया। हालांकि, यह रामलीला यहां की परंपरागत लीला से कई मायनों में भिन्न थी, लेकिन उनके छायाभिनय, उत्कृष्ट संगीत व नृत्य की छाप यहां की रामलीला पर साफ दिखती है।

दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के रिसर्च एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी बताते हैं कि कुमाऊं की रामलीला में बोले जाने वाले संवाद, धुन, लय, ताल व सुरों में एक तरफ पारसी थियेटर की छाप है, तो दूसरी ओर ब्रज के लोक गीतों और नौटंकी की झलक भी। संवादों को आकर्षक व प्रभावी बनाने के लिए कहीं-कहीं पर नेपाली भाषा व उर्दू गजल का सम्मिश्रण भी हुआ है। रावण कुल के दृश्यों में होने वाले नृत्य व गीतों में ज्यादातर कुमाऊंनी शैली का प्रयोग किया जाता है। रामलीला के गेय संवादों में प्रयुक्त गीत दादर, कहरुवा, चांचर व रूपक तालों में निबद्ध रहते हैं। हारमोनियम की सुरीली धुन और तबले की गमक के बीच पात्रों का गायन कर्णप्रिय लगता है। संवादों में रामचरित मानस के दोहों व चौपाईयों के अलावा कई जगह गद्य रूप में संवादों का प्रयोग होता है। यहां की रामलीला में वाचक अभिनय अधिक होता है, जिसमें पात्र एक ही स्थान पर खड़े होकर हाव-भाव प्रदर्शित कर गायन करते हैं। मंचन के दौरान नेपथ्य से गायन भी होता है। विविध दृश्यों में आकाशवाणी की उद्घोषणा भी की जाती है। रामलीला शुरू होने से पूर्व सामूहिक स्वर में राम वंदना का गायन किया जाता है। कुमाऊं की रामलीला की एक अन्य खासियत यह भी है कि इसमें अभिनय करने वाले सभी पात्र पुरुष होते हैं। हालांकि, अब कुछ जगह की रामलीलाओं में कोरस गायन व नृत्य के अलावा कुछ महिला पात्रों में लड़कियों को भी शामिल किया जाने लगा है। 

कुमाऊं अंचल में रामलीला मंचन की तैयारियां अमूमन जन्माष्टमी के दिन से शुरू हो जाती हैं। लकड़ी के खंभों व तख्तों से मंच तैयार होता है। कुछ स्थानों पर तो अब स्थायी मंच भी बन गए हैं। शारदीय नवरात्र के पहले दिन से रामलीला का मंचन शुरू होता है, जो दशहरा अथवा उसके एक-दो दिन बाद तक चलता है। संपूर्ण रामलीला में तकरीबन साठ से अधिक पात्र अभिनय करते हैं। यहां की रामलीला में प्रयुक्त पर्दे, वस्त्र, शृंगार सामग्री व आभषूण अमूमन मथुरा शैली के होते हैं। 



कुमाऊं में रामलीला मंचन की यह परंपरा अल्मोड़ा से विकसित होकर बाद में आसपास के अनेक स्थानों में चलन में आई। आज भी अल्मोड़ा नगर में लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) की रामलीला का आकर्षण कुछ अलग ही होता है। दशहरे के दिन नगर में रावण परिवार के डेढ़ दर्जन के करीब आकर्षक पुतलों को पूरे बाजार में घुमाया जाता है।

कुमाऊं अंचल की रामलीला को आगे बढ़ाने में पं.रामदत्त जोशी, ज्योर्तिविद बद्रीदत्त जोशी, कुंदनलान साह, नंदकिशोर जोशी, बांकेलाल साह, ब्रजेंद्रलाल साह आदि का विशेष योगदान रहा है। ब्रजेंद्र लाल साह ने रामलीला में आंचलिक पुट लाने के लिए कुमांऊनी व गढ़वाली भाषा में भी उसे रूपांतरित किया था। वहीं, वर्तमान में लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) के शिवचरण पांडे व हल्द्वानी के डॉ. पंकज उप्रेती समेत तमाम व्यक्ति, रंगकर्मी व कलाकार यहां की समृद्ध एवं परंपरागत रामलीला को सहेजने व संवारने के कार्य में जुटे हुए हैं।



दून की रामलीला : गेय शैली से नाट्य शैली की ओर

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वैसे तो रामलीला का आयोजन पूरे देश में होता है, मगर हम यहां दून की रामलीला की बात करेंगे। गुरु द्रोणाचार्य की इस नगरी में कई रामलीला समितियों का जन्म हुआ, किंतु समय के साथ ये समितियां समाप्त होती चली गईं। वर्तमान में यहां गिनती की ही रामलीला समितियां अस्तित्व में हैं। इन्हीं में से एक है श्री रामलीला कला समिति। यही वो समिति है, जिसने देहरादून में रामलीला की नींव डाली। वर्ष 1868 में लाला जमुनादास भगत ने तब इस रामलीला समिति का गठन किया था, जब देश गुलामी की बेडिय़ों में जकड़ा हुआ था। मूलरूप से देवगन, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) निवासी लाला जमुनादास भगत का परिवार 200 वर्ष पहले दून आया और यहीं का होकर रह गया। वर्ष 1850 में जन्मे लाला जमुनादास शुरू से आध्यात्मिक प्रकृति के थे। राम और कृष्ण की कहानियां सुनकर बड़े हुए जमुनादास बाल्यकाल से ही राम के चरित्र से प्रेरित थे। जब वह युवावस्था में पहुंचे तो उन्हें यह बात बहुत अखरी कि दून में कहीं भी ऐसा आयोजन नहीं होता, जो श्रीराम के चरित्र एवं उनकेजीवन से लोगों को परिचित कराए। इसके बाद उन्होंने दून में हर वर्ष आश्विन नवरात्र में रामलीला का आयोजन करने का निर्णय लिया। वर्ष 1868 में महज 18 वर्ष की आयु में कुछ दोस्तों के साथ उन्होंने रामलीला समिति बनाई, जिसे नाम दिया गया श्री रामलीला समिति। समिति के तत्वावधान में इसी वर्ष दून में पहली बार रामलीला का मंचन हुआ, जो 149 वर्षों से अनवरत जारी है। इस समिति की रामलीला नवरात्र के पहले दिन से शुरू होकर दशमी के बाद तीन-चार दिन तक चलती है। 



रूप बदला, स्वरूप नहीं

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इस समिति को भी समय के साथ रामलीला में काफी कुछ बदलाव करना पड़ा। मगर, स्वरूप आज भी 1868 वाला ही है। समिति के संरक्षक एवं पूर्व अध्यक्ष रविंद्रनाथ मांगलिक अब 76 वर्ष के हो चले हैं। वह लाला जमुनादास भगत के पोते हैं और दस वर्ष की आयु से समिति में अपना योगदान दे रहे हैं। बकौल रविंद्रनाथ, 'जब मैंने होश संभाला, तब रामलीला में दोहों और चौपाइयों का प्रयोग होता था। कलाकार भी स्थानीय होते थे और दोहे-चौपाइयों को याद करने के लिए महीनों अभ्यास किया करते थे। संगीत पक्ष में तबला और हारमोनियम का ही मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता था।Ó कहते हैं, तमाम लोगों को दोहे-चौपाइयों का मतलब आसानी से समझ नहीं आता था। इसलिए हमने एक प्रयोग किया और दोहे-चौपाइयों की जगह डायलॉग्स ने ले ली। यानी रामलीला का मंचन गेय शैली की बजाय नाट्य शैली में होने लगा। बाकी मूल स्वरूप में कोई छेड़छाड़ नहीं की गई। मंचन के दौरान कलाकार शुद्धता और मर्यादा का पूरा ख्याल रखते हैं। पिछले कुछ सालों से योग्य स्थानीय कलाकार नहीं मिल पा रहे हैं, इसलिए मथुरा-वृंदावन से पेशेवर कलाकार बुलाने पड़ते हैं। 

तालाब में लंका दहन

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इस रामलीला की दो बातें बड़ी ऐतिहासिक हैं। पहली यह कि राम शोभायात्रा का शुभारंभ आज भी शिवाजी धर्मशाला से होता है। दूसरी, समिति पिछले करीब सौ साल से झंडा बाजार स्थित तालाब में लंका दहन का आयोजन करती आ रही है। जो इस रामलीला का प्रमुख आकर्षण है। यह तालाब दरबार साहिब के ठीक सामने स्थित है। 



गढ़भाषा लीला रामायण

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चार अप्रैल 1977 को रेसकोर्स में गुणानंद 'पथिकÓ और साथियों ने 'गढ़ साहित्य संस्कृति विकास परिषदÓ की स्थापना की। इसका उद्देश्य गढ़वाली साहित्य-संस्कृति और गढ़वाली रामलीला प्रस्तुत करना था। रामलीला देहरादून के नगर निगम भवन में होती थी। इसमें पुतले नहीं जलाए जाते थे। वर्ष 1984 में इस रामलीला को उत्तरकाशी माघ मेले में आमंत्रित किया गया और 1990 में परिषद ने चिन्यालीसौड़ व ऋषिकेश में भी रामलीला की प्रस्तुति दी। इस रामलीला में प्रस्तुत की जाने वाली चौपाई और गीत गढ़वाली में होते थे, जिन्हें गाने के लिए विशेष धुन तैयार की गई थीं।  

ऋषि-सिद्धि की नौ रात्रियां



सनातनी परंपरा में ऋतुओं के संधिकाल में आने वाली नौ रात्रियों का विशेष महत्व बताया गया है। यूं तो नवरात्र साल में चार बार आते हैं, लेकिन प्रचलन में मार्च और सितंबर -अक्‍टूबर में पडऩे वाले वासंतिक व शारदीय नवरात्र  ही हैं। इनमें भी सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्र को ज्यादा अहमियत दी गई है। इसके साथ ही नवरात्र से रामलीला मंचन की परंपरा भी जुड़ी हुई है। जिसका मां दुर्गा की विदाई के साथ विजयादशमी को पारण होता है।

ऋषि-सिद्धि की नौ रात्रियां

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दिनेश कुकरेती 

वरात्र से नव अहोरात्र (विशेष रात्रि) का बोध होता है। रात्रि शब्द सिद्धि का प्रतीक माना जाता है। हमारे ऋषि-मुनियों ने रात्रि को दिन की अपेक्षा अधिक महत्व दिया है। यही कारण है कि दिवाली, होली, शिवरात्रि, नवरात्र जैसे उत्सवों को रात में ही  मनाने की परंपरा है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा काल में एक साल की चार संधियां हैं, जिनमें से मार्च व सितंबर में पडऩे वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। एक विक्रमी नववर्ष के पहले दिन यानी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (पहली तिथि) से नवमी तक और दूसरा इसके ठीक छह माह बाद आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से महानवमी तक। लेकिन, सिद्धि और साधना की दृष्टि से शारदीय नवरात्र को ही ज्यादा महत्व दिया गया। इन नवरात्र में लोग आध्यात्मिक और मानसिक शक्ति के संचय कोव्रत, संयम, नियम, यज्ञ, भजन, पूजन, योग-साधना आदि करते हैं। कुछ साधक तो इन रात्रियों में पूरी रात पद्मासन अथवा सिद्धासन में बैठकर आंतरिक त्राटक या बीज मंत्रों के जाप से विशेष सिद्धि प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। दरअसल, ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियां बढ़ जाती हैं। इसलिए इस अवधि में तन को स्वस्थ एवं शुद्ध रखने और मन की निर्मलता के लिए की जाने वाली प्रक्रिया को नवरात्र कहा गया। 



रात्रि का वैज्ञानिक महत्व

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मनीषियों ने रात्रि के महत्व को अत्यंत सूक्ष्मता के साथ वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में समझने और समझाने का प्रयत्न किया। वैसे भी यह सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य है कि रात्रि में प्रकृति के तमाम अवरोध खत्म हो जाते हैं। अगर दिन में आवाज दी जाए तो वह दूर तक नहीं जाती है, लेकिन रात्रि में दी गई आवाज बहुत दूर तक सुनी जा सकती है। इसके पीछे दिन के कोलाहल के अलावा एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढऩे से रोक देती हैं। ठीक इसी प्रकार मंत्र जाप की विचार तरंगों में भी दिन के समय अवरोध पड़ता है। इसीलिए ऋषि-मुनियों ने रात्रि का महत्व दिन की अपेक्षा बहुत अधिक बताया है। यही रात्रि का तर्कसंगत रहस्य है।



शरीर के नवद्वारों की साधना

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अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी नवरात्र नाम सार्थक है। चूंकि यहां रात गिनते हैं, इसलिए इसे नवरात्र कहा जाता है। रूपक के माध्यम से हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है और इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा है। इन मुख्य इंद्रियों में अनुशासन, स्वच्छता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नवद्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्व देने के लिए नौ दिन नौ दुर्गाओं को समर्पित किए गए हैं।

स्वच्छ तन, शुद्ध मन

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वैसे तो शरीर को सुचारू रखने के लिए हम प्रतिदिन विरेचन, सफाई या शुद्धि करते हैं, लेकिन अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छह माह के अंतराल में सफाई अभियान चलाया जाता है। इसमें सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि, साफ-सुथरे शरीर में शुद्ध-बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और मन शुद्ध होता है। क्योंकि स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वरीय शक्ति का स्थायी निवास होता है। 

साल में दो नहीं, चार नवरात्र

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बहुत कम लोग जानते होंगे कि वर्ष में दो नहीं, चार नवरात्र होते हैं। सनातनी पंचांग के अनुसार चैत्र यानी मार्च-अप्रैल में मां दुर्गा के पहले नवरात्र आते हैं, जिन्हें वासंतीय नवरात्र कहा जाता है। अश्विन मास यानी सितंबर-अक्टूबर में आने वाले नवरात्र को मुख्य नवरात्र (शारदीय नवरात्र ) कहते हैं। इन नवरात्र के बाद से ही देशभर में त्योहारों का दौर शुरू हो जाता है। इसकेअलावा एक वर्ष के भीतर दो गुप्त नवरात्र भी मनाए जाते हैं, जो गृहस्थों के लिए नहीं हैं। दोनों नवरात्र आषाढ़ यानी जून-जुलाई और माघ यानी जनवरी-फरवरी में आते हैं। दोनों गुप्त नवरात्र में ऋषि-मनीषी साधना और आराधना करते हैं।