Monday 14 March 2022

गोधूलि की बेला में फूलों से महक जाती है दहलीज


गोधूलि की बेला में फूलों से महक जाती है दहलीज

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दिनेश कुकरेती

कैसा मनमोहक नजारा है। कंदराएं बुरांश की लालिमा और गांव आडू़ व खुबानी के गुलाबी-सफेद फूलों से दमक रहे हैं। दूर पहाड़ों के घर-आंगन ऋतुरैंण और चैती गायन में डूब गए हैं। गोधूलि की बेला में नौनिहाल फ्योंली, बुरांश, मेलू, बासिंग, कचनार, आडू़, खुबानी, पुलम आदि के फूल चुनकर लौट आए हैं। अब इन फूलों को वो रिंगाल की टोकरी में सजाकर हर घर की देई (देहरी) पर बिखेर रहे हैं और गा रहे हैं, 'फूलदेई थाली, फूलदेई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार, फूले द्वार...फूल देई-छम्मा देई।Ó 

हर घर से मिलता है आशीष

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बचपन में हम भी ऐसे ही फूलों की टोकरी सजाकर गांव के घर-घर घूमा करते थे। इस टोकरी में गेहूं-जौ की नन्हीं बालियां भी होती थीं। जिस घर की देहरी पर हम फूल डालते, उस घर से हमें आशीर्वाद के साथ पीतल का सिक्का, गुड़, चावल व सई खाने को मिलते और खिलखिला उठते हमारे चेहरे। शायद इसीलिए बैशाख संक्रांति तक चलने वाले फूलदेई को बच्चों का त्योहार कहा जाता है। आज भी दूर-दराज के गांवों में बेटियां रोज गोधूलि बेला में पड़ोसियों की दहलीज पर फूल डालकर गाती हैं, 'फूलदेई-फूलदेई फूल संगरांद, सुफल करो नयो साल तुमुक श्री भगवान, रंगीला-सजीला फूल ऐ गीं, डाला-बोटला हर्या ह्वेगीं, पौन-पंछी दौड़ी गैना, डाल्यूं फूल है सदा रैन।Ó

चैत में ब्याहता बेटी को भेजी जाती है भिटोली

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कई गांवों में बच्चों के अलावा परिवार के सभी लोग अपने घरों में बोई गई हर्याल (हरियाली) की टोकरियों को गांव के चौक पर इकट्ठा कर उसकी सामूहिक पूजा करते हैं। फिर हर्याल को अपनी देहरी पर सजाया जाता है। चैत के महीने पहाड़ में ब्याहता बेटियों (धियाण) को कलेवा देने का रिवाज भी है। कुमाऊं में इसे भिटोली (भेंट) कहा जाता है। एक दौर में यह मायके वालों के पास बेटी की कुशलक्षेम पूछने का बहाना भी हुआ करता था। तब भाई कलेवा या भिटोली लेकर बहन के मायके जाता था। बहन खुशी-खुशी अपने आस-पड़ोस में इस कलेवा को बांटती थी। हालांकि, यह परंपरा अब रस्मी हो चली है।

घर-आंगन में चैती गायन की धूम

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इसके अलावा पहले गांव में दास (ढोल-दमाऊ वादक) घर-घर जाकर शुभकामनाएं देते थे। इस दौरान वे चैती गायन करते थे, यथा- 'तुमरा भंडार भरियान, अन्न-धनल बरकत ह्वेन, औंद रयां ऋतु मास, औंद रयां सबुक संगरांद। फूलदेई-फूलदेई फूल संगरांद।Ó (तुम्हारे भंडार भरे रहें, अन्न-धन की वृद्धि हो, ऋतु और महीने आते रहें, सबके लिए सक्रांति का पर्व खुशियां लेकर आता रहे)। इसी दिन के बाद वे गांव की हर धियाण के ससुराल दान मांगने के लिए जाते थे।

Sunday 6 March 2022

रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ















रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ

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होली के जैसे रंग ब्रजमंडल में हैं, कमोवेश वैसे ही देवभूमि उत्तराखंड में भी। बावजूद इसके पर्वतीय अंचल में होली गीतों के प्रस्तुतिकरण और उनके गायन-वादन में पहाड़ की मूल सुंगध साफ महसूस की जा सकती है। शास्त्रीयता और गीतों की विविधता उत्तराखंड की होली को विशिष्टता प्रदान करती है। यहां होली गायक की अवधि सबसे लंबी होती है, खासकर पिथौरागढ़ में तो यह रामनवमी तक गाई जाती है। आइए! आपको भी होली के इसी बहुरंगी स्वरूप से परिचित कराएं-

दिनेश कुकरेती

होली वसंत का यौवनकाल है और ग्रीष्म के आगमन का सूचक भी। ऐसे में कौन भला इस उल्लास में डूबना नहीं चाहेगा। फिर भारतीय परंपरा में तो त्योहार चेतना के प्रतीक माने गए हैं। वे जीवन में आशा, आकांक्षा, उत्साह व उमंग का ही संचार नहीं करते, बल्कि मनोरंजन, उल्लास व आनंद देकर उसे सरस भी बनाते हैं। वसंत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है और फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु अमृतप्राण हो उठती है। इसलिए होली को 'मन्वंतरांभÓ भी कहा गया है। यह 'नवान्नवेष्टिÓ यज्ञ भी है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्राचीन आर्यजन नए गेहूं व जौ की बालियों से अग्निहोत्र का प्रारंभ करते थे, जिसे कर्मकांड परंपरा में 'यवग्रहणÓ यज्ञ का नाम दिया गया। संस्कृत में अन्न की बाल को होला कहते हैं। जिस उत्सव में नई फसल की बालों को अग्नि पर भूना जाता है, वह होली है। अग्नि जलाकर उसके चारों ओर नृत्य करना आदिकालीन प्रथा है।

होली से अनेक कथाएं जुड़ी हैं। एक है प्रह्लाद एवं होलिका की कथा। सुप्रसिद्ध कवियत्री महादेवी वर्मा इसकी व्याख्या इस तरह करती हैं, 'प्रह्लाद का अर्थ परम आह्लाद या परम आनंद है। किसान के लिए नए अन्न से अधिक आनंददायी और क्या हो सकता है। अपनी फसल पाकर और मौसम की प्रतिकूलताओं से मुक्त होकर आत्मविभोर किसान नाचता है, गाता है और अग्निदेव को नवान्न की आहुति देता है।Ó दूसरी कथा ढूंडा नामक राक्षसी की है, जो बच्चों को बहुत पीड़ा पहुंचाती थी। एक बार वह पकड़ी गई और लोगों ने क्रोध में आकर उसे जिंदा जला दिया। इसी घटना की स्मृति में होली जलाई जाती है। यदि ढूंडा को ठंड नामक राक्षसी मान लें तो बच्चों के कष्ट और राक्षसी के जलने की खुशी की बात सहज समझ में आ जाती है।














बहरहाल! कारण कुछ भी हों, लेकिन होली का उत्सव आते ही संपूर्ण देवभूमि राधा-कृष्ण के प्रणय गीतों से रोमांचित हो उठती है। होली प्रज्ज्वलित करने से लेकर रंगों के खेलने तक यही उसका रूप जनमानस को आकर्षित करता है। आज भी रंगों की टोली प्रेयसी के द्वार पर आ धमकती है तो वही गीत मुखरित हो उठता है, जो कहते हैं कृष्ण ने राधा के द्वार खड़े होकर उनसे कहा था, 'रसिया आयो तेरे द्वार खबर दीजौ।Ó

अध्यात्म से उल्लास की ओर 

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उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में शास्त्रीय संगीत पर आधारित बैठकी होली गायन की परंपरा 150 साल से चली आ रही है। यह होली विभिन्न रागों में चार अलग-अलग चरणों में गाई जाती है, जो होली के टीकेतक चलती है। पहला चरण पौष के प्रथम रविवार को आध्यात्मिक होली 'गणपति को भज लीजे मनवाÓ से शुरू होकर माघ पंचमी के एक दिन पूर्व तक चलता है। माघ पंचमी से महाशिवरात्रि के एक दिन पूर्व तक के दूसरे चरण में भक्तिपरक व शंृगारिक होली गीतों का गायन होता है। तीसरे चरण में महाशिवरात्रि से रंगभरी एकादशी के एक दिन पूर्व तक हंसी-मजाक व ठिठोली युक्त गीतों का गायन होता है। रंगभरी एकादशी से होली के टीके तक मिश्रित होली की स्वरलहरियां चारों दिशाओं में गूंजती रहती हैं। विदित रहे कि पहले से तीसरे चरण तक की होली सायंकाल घर के भीतर गुड़ के रसास्वादन के बीच पूरी तन्मयता से गाई जाती है। चौथे चरण में बैठी होली के साथ ही खड़ी होली गायन का भी क्रम चल पड़ता है। इसे चीर बंधन वाले स्थानों अथवा सार्वजनिक स्थानों पर वाद्य यंत्रों के साथ लयबद्ध तरीके से गाया जाता है। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि पहाड़ में बैठकी होली गीत गायन का जनक रामपुर के उस्ताद अमानत उल्ला को माना जाता है। उन्होंने ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1860 में सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से इसकी शुरुआत की थी। तब से अब तक लोक के संवाहक इस परंपरा का बदस्तूर निर्वहन करते आ रहे हैं। 














इन शास्त्रीय रागों पर होता है गायन

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पहाड़ में बैठकी होली का गायन शास्त्रीय रागों पर आधारित होता है। यह होलियां पीलू, भैरवी, श्याम कल्याण, काफी, परज, जंगला काफी, खमाज, जोगिया, देश विहाग, जै-जैवंती आदि शास्त्रीय रागों पर विविध वाद्य यंत्रों के बीच गाई जाती हैं।


















ब्रज के गीतों में पहाड़ की सुगंध

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पर्वतीय अंचल में गाए जाने वाले होली गीत हालांकि ब्रज से आए प्रतीत होते हैं, लेकिन यहां आकर ये लोक के रंग में इस कदर रचे-बसे कि स्थानीय लोक परंपरा का अभिन्न अंग बन गए। यही विशेषता उत्तराखंड खासकर कुमाऊं की बैठ (बैठकी) होलियों की भी है। शास्त्रीय रागों पर आधारित होने के बावजूद इनके गायन में शिथिलता दिखाई देती है। जिससे शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक के सुर में अपना सुर जोड़ देता है। गढ़वाल अंचल के श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी और उससे लगे इलाकों में भी होली का कुमाऊं जैसा स्वरूप ही नजर आता है। यहां की होली में भी मेलू (मेहल) के पेड़ की डाली को होलिका के प्रतीक रूप में जमीन में गाड़कर प्रतिष्ठित करने और होली गाने का चलन है। एक जमाने में गढ़वाल की राजधानी रहे श्रीनगर और पुरानी टिहरी के राजदरबारों में भी होली गायन की समृद्ध परंपरा विद्यमान रही है। गढ़वाल में होली को होरी कहा जाता है और सभी होरी गीतों में ब्रजमंडल के ही गीतों का गढ़वालीकरण किया हुआ लगता है। अमूमन सभी होली गीतों में कहीं-कहीं गढ़वाली शब्द मिलते हैं, शेष पदावली ब्रजभाषा या खड़ी बोली की रहती है। हालांकि, गढ़वाल में प्रचलित होली गीतों में ब्रज की तरह कृष्ण-राधा या कृष्ण ही मुख्य विषय नहीं होते। यहां अंबा, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण आदि कई विषयवस्तु के रूप में प्रयुक्त होते हैं और सबका समान आदर गढ़वाली होली के नृत्यगीतों में होता है।

 

खड़ी-बैठ होली के रंग

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कुमाऊं की होली में ब्रज और उर्दू का प्रभाव साफ झलकता है। मुगलों, राजे-रजवाड़ों के मेल-मिलाप से ये परंपरा बनी। कुमाऊं की होली गायकी को लोकप्रिय बनाने में जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दाÓ का अहम योगदान रहा। यहां प्रचलित होली के तीन भेद बताए गए हैं। जैसे बैठ होली बैठकों में शास्त्रीय ढंग से गाई जाती है, तो खड़ी होली में ढोल-नगाड़ा होता है और पूरा समूह झोंक के साथ नाचता है। महिला होली इन दोनों का मिश्रित रूप है। इसमें स्वांग भी है, ठुनक-मुनक भी है और गंभीर अभिव्यक्तियां भी। लेकिन, सबसे ज्यादा जो दिखता है, वो है देवर-भाभी का मजाक। जैसे-'मेरो रंगीलो देवर घर ऐरों छो, कैं होणी साडी कैं होणी जंफर, मी होणी टीका लैंरो छो, मेरो रंगीलो देवर।Ó हालांकि समय के साथ पीढिय़ों से चली आ यह परंपरा अब कुछ सिमट सी गई है। 

श्रृंगार व दर्शन का उल्लास

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गढ़वाल में जब होल्यार किसी गांव में प्रवेश करते हैं तो गाते हुए नृत्य करते हैं, 'खोलो किवाड़ चलो मठ भीतर, दरसन दीज्यो माई अंबे, झुलसी रहो जी। तीलू को तेल कपास की बाती, जगमग जोत जले दिन-राती, झुलसी रहो जी।Ó इष्ट देव व ग्राम देवता की पूजा के बाद होल्यार गोलाकार में नाचते-गाते हैं। यह अत्यंत जोशीला नृत्य गीत है, जिसमें उल्लास के साथ श्रृंगार का भी समावेश दिखाई देता है। ऐसा ही नृत्य-गीतेय शैली का एक भजन गीत है, जिसमें उल्लास के साथ मां भवानी की स्तुति की जाती है। यथा, 'हर हर पीपल पात, जय देवी आदि भवानी, कहां तेरो जनम निवास, जय देवी आदि भवानी।Ó श्रृंगार व दर्शन प्रधान यह गीत भी होली में प्रसिद्ध है, 'चंपा-चमेली के नौ-दस फूला, पार ने गुंथी हार शिव के गले में बिराजे।Ó श्रृंगार व उत्साह से भरे इस गीत में होल्यार ब्रज की होली का दृश्य साकार करते हैं। यथा-'मत मारो मोहनलाला पिचकारी, काहे को तेरो रंग बनो है, काहे की तेरी पिचकारी, मत मरो मोहन पिचकारी।Ó जब होल्यारों की टोली होली खेल चुकी होती है, तब आशीर्वाद वाला यह नृत्य-गीत गाया जाता है, 'हम होली वाले देवें आशीष, गावें-बजावें देवें आशीष।Ó
















यह गीत भी हैं प्रसिद्ध

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-ऐ गे बसंत ऋतु, ऐगेनी होली, आमू की डाली में कोयल बोली।

-उडिगो छो अबीर-गुलाल, हिमाला डाना लाल भयो, केसर रंग की बहार, हिमाला डाना लाल भयो।

-बांज-बुरांश का कुमकुम मारो, डाना-काना रंग दे बसंती नारंगी। 

-तुम विघ्न हरो महाराज, होली के दिन में।

-मुबारक हो मंजरी फूलों भरी, ऐसी होली खेलें जनाब अली।

-चंद्रबदन खोलो द्वार, कि हर मनमोहन ठाडे।

माघ पंचमी से शुरू हो जाती है होली

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होली का पर्व फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाता है। पहले दिन होलिका दहन होता है, जबकि दूसरा दिन धुलेंडी के नाम है। इस दिन लोग एक-दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं और ढोल की थाप पर होली के गीत गाते हुए घर-घर जाकर लोगों को रंग लगाते हैं। एक-दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है।

राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है। राग यानी संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही, पर इनको उत्कर्ष तक पहुंचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपने चरम पर होती है। फाल्गुन में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। इसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है और शुरू हो जाता है फाग एवं धमार का गायन। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा बिखरने लगती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूं की बालियां इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी सारे संकोच और रूढिय़ां भूलकर ढोलक-झांझ-मंजीरों की धुन पर नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। होली के दिन आम्र मंजरी और चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा महात्म्य माना गया है।

अनूठा था होली का मुगलिया अंदाज

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इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था, लेकिन अधिकांशत: यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। जैमिनी के 'पूर्वमीमांसा सूत्रÓ और कथा गार्ह सूत्र, 'नारद पुराणÓ और 'कथा गाह्र्य सूत्रÓ 'नारद पुराणÓ, 'भविष्य पुराणÓ आदि प्राचीन ग्रंथों में भी होली का उल्लेख मिलता है। संस्कृत साहित्य में वसंत ऋतु और वसंतोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। प्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। 

सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की। इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। इस काल में बादशाह अकबर का जोधाबाई और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। शाहजहां के समय तक होली खेलने का मुगलिया अंदाज बदल चुका था। उस दौर में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।

विजयनगर की राजधानी रही हंपी के 16वीं सदी के एक चित्रफलक पर भी होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमार- राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दंपती को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। 16वीं सदी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपती को बगीचे में झूला झूलते दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएं नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। 17वीं सदी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है।

मिठास, मिजाज और अल्हड़पन

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देश के विभिन्न हिस्सों में होली का गायन अमूमन मार्च-अप्रैल तक होता है। इस समय काफी राग को गाने का प्रचलन है। बनारस घराने की विशिष्टता पूर्वी अंग है, जहां दादरा गाया जाता है। इसमें ज्यादा मिठास, मिजाज और अल्हड़पन का समावेश दिखता है। पीलू व काशी धुनें भी यहां गाई जाती हैं। अवधी होली में उलारा धुनों की खास अहमियत है। इसी पर आधारित होली गीत 'होरी खेले रघुवीरा अवध मेंÓ काफी प्रचलित है। 'रंग डारूंगी नंद के लालन पेÓ, 'कैसी धूम मचाईÓ, 'आंखें भरत गुलाल रसिया ना मारे रेÓ जैसे गीत भी पूर्वी अंग में प्रचलित होली गीतों में से हैं। जबकि, ब्रज में होली गीत कृष्ण पर ही केंद्रित होते हैं। वहां के गीतों में खुलापन है और लीला वर्णन ज्यादा है। रसिया होली धुनों पर ही गीत गाए जाते हैं। 'आज बिरज में होरी रे रसियाÓ जैसे होली गीत ब्रज में प्रसिद्ध हैं। राजस्थान में परंपरा एवं उत्साह को तवज्जो दी जाती है। यहां के होली गीत ब्रज से मिलते-जुलते हैं। इसी समय से गांवों में फाग और चैती गायन शुरू हो जाता है। उत्तर प्रदेश और बिहार के गांवों में जोगीरा का गायन होता है। यहां शब्दों में खुलापन मिलता है। 

साहित्य में होली

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-श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है।

-हर्ष की 'प्रियदर्शिकाÓ, कालीदास के 'कुमारसंभवÓ और 'मालविकाग्निमित्रमÓ में रंग नामक उत्सव का वर्णन है।

-चंदवरदाई की 'पृथ्वीराज रासोÓ में होली का वर्णन है।

-संस्कृत के भारवि और माघ जैसे प्रसिद्ध कवियों ने वसंत की खूब चर्चा की है।

-महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर 78 पद लिखे हैं।

-सूफी संत निजामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुरशाह जफर जैसे कवियों ने भी होली पर खूब लिखा है।

संगीत में होली

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-शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है। धु्रपद, छोटा व बड़ा खयाल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है।

-कथक नृत्य के साथ धमार, धु्रपद और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली कई सुंदर बंदिशें होली के गीतों पर हैं। इनमें चलो गुइंयां आज खेलें होरी कन्हैया घर और खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होली सखी जैसी बंदिशें काफी लोकप्रिय हैं।

-बसंत, बहार, हिंडोल जैसे कई राग हैं, जिनमें होली के गीत प्रमुखता से गाए जाते हैं।

-उपशास्त्रीय संगीत के अंतर्गत चैती, दादरा, ठुमरी आदि में भी होली गीत खूब गाए जाते हैं।