आचरण में संस्कृति तो व्यवहार में समृद्धि
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दिनेश कुकरेती
राज्य गठन के इन बीस वर्षों में संस्कृति को लेकर बहुत-सी बडी़-बडी़ बातें हुईं। संस्कृति को रोजी-रोटी से जोड़ने के लिए सांस्कृतिक उन्नयन के कसीदे पढे़ गए। कहा गया कि हम अपनी लोक विरासत को समृद्ध कर दुनिया के अंतिम छोर तक उसका प्रसार करेंगे। ताकि वह आर्थिकी का मजबूत आधार बन सके। ऐसा सोचना-बोलना गलत भी नहीं था। हम देखते हैं कि देश के जो भी क्षेत्र सांस्कृतिक रूप में समृद्ध हैं, वहां सांस्कृतिक पर्यटन भी उतना ही समृद्ध हुआ है। लेकिन, यह भी सच है इसके पीछे कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में राज्य की सोच अवश्य परिलक्षित होती है। इसके विपरीत उत्तराखंड में सांस्कृतिक उन्नयन को शायद ही कभी राज्य के स्तर से गंभीर प्रयास हुए हुए होंगे। यहां तक कि हम तो संस्कृति विभाग का ढांचा भी ठीक से खडा़ नहीं कर पाए। जबकि, हम खुद को वैदिक कालीन संस्कृति का संवाहक मानते हैं।
बीते बीस सालों का सांस्कृतिक दृष्टि से मूल्यांकन करें तो पाते हैं कि इस कालखंड में हमने दो-एक गीतों पर ठुमके लगाने के सिवा कोई गंभीर पहल नहीं की। उत्तर प्रदेश में रहते हुए हम जिस अलग "सांस्कृतिक पहचान" की दुहाई दिया करते थे, अपने घर में हमने उससे भी किनारा कर लिया। वह तो शुक्र है लोक के उन संवाहकों का, जो निःस्वार्थ एवं समर्पण भाव से संस्कृति के संरक्षण में जुटे हुए हैं। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने हमारी उम्मीद को टूटने नहीं दिया और भरोसा दिलाते रहे हैं कि इस रात की सुबह जरूर होगी।
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देखा जाए तो संस्कृति किसी भी समाज के गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का ही नाम है। वह संस्कृति ही है, जो संबंधित समाज के सोचने-विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप संबंधित समाज की ओर से दीर्घकाल तक अपनाई गई पद्धतियों का ही परिणाम है। लेकिन, अफसोस! हम ऐसा कर पाने में असफल रहे और अब सोच का दायरा थोडा़ विकसित हुआ तो बगलें झांक रहे हैं।
कृ धातु से हुई संस्कृति शब्द की उत्पत्ति
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संस्कृति शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा 'कृÓ (करना) धातु से हुई है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं 'प्रकृतिÓ (मूल स्थिति), 'संस्कृतिÓ (परिष्कृत स्थिति) और 'विकृतिÓ (अवनति स्थिति)। जब 'प्रकृतÓ यानी कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो 'विकृतÓ हो जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए 'कल्चरÓ शब्द का प्रयोग होता है, जो लैटिन भाषा के 'कल्ट या कल्टसÓ से लिया गया है। इसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहां तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द 'संस्कृतिÓ।
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संस्कृति का अर्थ है उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य को स्वभावगत रूप से प्रगतिशील प्राणी माना गया है। वह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरंतर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी
प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, आचार-विचार, नवीन अनुसंधान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊंचा उठकर सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता से मनुष्य की भौतिक प्रगति सूचित होती है, जबकि संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति। मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही संतुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, क्योंकि शरीर के साथ मन और आत्मा भी जुड़ा हुआ है।
भौतिक उन्नति से शरीर की भूख तो मिट सकती है, लेकिन मन और आत्मा की नहीं। इन्हें संतुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, वही संस्कृति है। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौंदर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र, वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक जीवन जीने के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इसी प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक सम्यक कृति संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।
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संस्कृति जीवन के निकट से जुड़ी है। यह कोई बाह्य वस्तु नहीं है और न कोई आभूषण ही, जिसे मनुष्य प्रयोग कर सके। यह सिर्फ रंगों का स्पर्श मात्र भी नहीं है। यह वह गुण है, जो हमें मनुष्य बनाता है। संस्कृति परंपराओं से, विश्वासों से, जीवन शैली से, आध्यात्मिक पक्ष से और भौतिक पक्ष से निरंतर जुड़ी हुई है। यह हमें जीवन का अर्थ तो बताती ही है, जीवन जीने का सलीका भी सिखाती है। सार रूप में कहें तो मानव ही संस्कृति का निर्माता है और संस्कृति मानव को मानव बनाती है।
मैं नहीं, हम के भाव का बोध कराती है संस्कृति
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संस्कृति का एक मौलिक तत्व है, धार्मिक विश्वास और उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति। संस्कृति सिखाती है कि हमें धार्मिक पहचान का सम्मान करना चाहिए। साथ ही सामयिक प्रयत्नों से भी परिचित होना चाहिए, जिनसे अंत:धार्मिक विश्वासों की बातचीत हो सके, जिन्हें प्राय: अंत:सांस्कृतिक वार्तालाप कहा जाता है। विश्व जैसे-जैसे जुड़ता चला जा रहा है, हम अधिक से अधिक वैश्विक हो रहे हैं और अधिक व्यापक वैश्विक स्तर पर जी रहे हैं। हम यह नहीं सोच सकते कि जीने का एक ही तरीका होता है और वही सत्य मार्ग है। सह-अस्तित्व की आवश्यकता ने विभिन्न संस्कृतियों और विश्वासों के सह-अस्तित्व को भी आवश्यक बना दिया है। इसलिए इससे पहले कि हम इस प्रकार की कोई गलती करें, बेहतर होगा कि अन्य संस्कृतियों को जानने के साथ अपनी संस्कृति को भी भली प्रकार समझें। दूसरी संस्कृतियों के बारे में हम तभी चर्चा कर सकते हैं, जब हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों को भली प्रकार समझने के काबिल हो जाएं।
जो समाज को जोडे़, वही संस्कृति
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सत्य, शिव और सुंदर- ये तीन शाश्वत मूल्य हैं, जो संस्कृति से निकट से जुड़े हुए हैं। यह संस्कृति ही है जो हमें दर्शन और धर्म के माध्यम से सत्य के निकट लाती है। यह हमारे जीवन में कलाओं के माध्यम से सौंदर्य प्रदान करती है और सौंदर्य की अनुभूति करने वाला मानव बनाती है। वह संस्कृति ही है, जो हमें नैतिक मानव बनाने के साथ दूसरे मानवों के निकट संपर्क में लाती है। साथ ही हमें प्रेम, सहिष्णुता और शांति का पाठ पढ़ाती है।
ऐसे जीवन में उतरेगी संस्कृति
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* उत्तराखंड को ब्रह्मा, विष्णु, महेश समेत समस्त देवी-देवताओं, यक्ष, किन्नर, गंधर्वों और ऋषि-मुनियों का आदिकालीन निवास माना गया है। यहां चारधाम और सप्त बदरी-पंच केदार समेत तमाम ऐसे ऐतिहासिक एवं पौराणिक मठ-मंदिर हैं, जो किसी न किसी देवता और ऋषि-मुनि से जुडे़ हुए हैं। गंगा की समस्त धाराओं और यमुना का उद्गम भी यहीं है। बावजूद इसके इन स्थलों के बारे में स्वयं उत्तराखंड के लोगों को शायद ही विस्तार में जानकारी हो। जबकि, यही जानकारी न केवल इन स्थलों के विकास का कारक बनेगी, बल्कि धार्मिक पर्यटन एवं तीर्थाटन को भी मजबूत आधार देगी।
*वीर भडो़ं की इस धरती का अपना विशिष्ट एवं गौरवशाली इतिहास रहा है। यहां गढो़ं के रक्षकों यानी गढ़पतियों को भड़ कहा जाता है। इन्हें लोक में देवताओं के जैसा सम्मान प्राप्त है। कई क्षेत्रों में तो ये गढ़पति इष्ट देव के रूप में पूजे जाते हैं। गढ़वाल का "बावन गढो़ं का देश" नाम भी इन्हीं गढ़पतियों एवं गढो़ं के कारण ही पडा़। अगर इन गढो़ं को अलग-अलग पर्यटन सर्किट से जोड़ने की पहल हो तो राज्य की आर्थिकी का बडा़ भार ये अपने ऊपर ले सकते हैं।
*उत्तराखंड के तमाम लोक वाद्य उपेक्षा के चलते म्यूजियम की शोभा बढा़ रहे हैं। यहां ढोल जैसा धरती का सबसे पुराना वाद्य भी धीरे-धीरे लुप्तप्राय श्रेणी में आ गया है और इसे बजाने वाले भी रोजी-रोटी की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर गए अथवा उन्होंने दूसरे काम-धंधे अपना लिए। अगर हमने इन वाद्यों के संरक्षण और इन्हें प्रचलन में लाने की कोशिश की होती तो ऐसी नौबत ही न आती। यह न भूलें कि तबला भी कभी ऐसी ही स्थिति में पहुंच गया था, लेकिन आज वही तबला देश-दुनिया में हजारों घरों को चमका रहा है। लिहाजा उत्तराखंड में ऐसी कोशिश की जानी चाहिए, उजड़ते पहाड़ को निश्चित रूप से संबल मिलेगा।
*वैदिक कालीन संस्कृति के वाहक उत्तराखंड के लोकगीत-नृत्य भी उतने ही पुराने हैं, जितना कि हमारी सभ्यता का इतिहास। लेकिन, अन्य प्रदेशों की तरह इन्हें विश्व फलक पर पहचान दिलाने के प्रयास ही नहीं हुए। इसीलिए हमारे लोक कलाकारों की दशा आज भी बेहद दयनीय है। यदि इन लोकगीत-नृत्यों को प्रश्रय दिया जाए तो ऐसी कोई वजह नहीं, जो ये आर्थिकी का संबल न बन सकें।
*पहाड़ की बारहनाजा पद्धति आदिकाल से ही समृद्ध रही है। इसमें न केवल मनुष्य के भोजन की जरूरतें पूरी होती हैं, बल्कि मवेशियों के लिए भी चारे की कमी नहीं रहती। इसमें सिर्फ बारह प्रकार के अनाज ही नहीं, बल्कि तरह-तरह के रंग-रूप, स्वाद और पौष्टिकता से परिपूर्ण दलहन, तिलहन, शाक-भाजी, मसाले व रेशा मिलाकर 20-22 प्रकार के अनाज आते हैं। हम कह सकते हैं कि यह सिर्फ फसलें न होकर पहाड़ की एक पूरी कृषि संस्कृति है। बारहनाजा का एक और फायदा यह है कि आगर किसी कारण एक फसल न हो पाए तो दूसरी से उसकी पूर्ति हो जाती है। सरकार यदि इस पद्धति को प्रोत्साहित करे तो पहाड़ में कभी अन्न की कमी होगी ही नहीं। बस जरूरत है मजबूत इच्छाशक्ति की और पहाड़ के उन लोगों से प्रेरणा लेने की, जिनकी बदौलत आज भी बारहनाजा पद्धति अस्तित्व में है।
*पौराणिक ट्रैक रूटों को विकसित और संसाधनों से लैस कर भी हम उत्तराखंड में समृद्धि के द्वार खोल सकते हैं। आखिर यही ट्रैक तो सदियों से उत्तराखंड में जीवन का संचार करते रहे हैं। सोचिए, देश-दुनिया से जितने ज्यादा लोगों का प्रवाह उत्तराखंड की ओर होगा, उतने ही यहां रोजगार के संसाधन भी विकसित होंगे। सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्नता हासिल करने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी है।
*लोक भाषाएं किसी भी संस्कृति की प्रथम पहचान हैं। पंजाबी, गुजराती, मराठी, तमिल, मलियाली, बांग्ला आदि भाषाएं इसका प्रमाण हैं। लोक भाषाएं न केवल लोक को न जानने-समझने में मददगार होती हैं, बल्कि संबंधित क्षेत्र की ब्रांडिंग का काम भी करती हैं। बावजूद इसके हम गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनसारी भाषा के संरक्षण के प्रति आज तक गंभीर नहीं हो पाए। नई पीढी़ को तो हमने अपनी लोकभाषाओं से विलग ही कर दिया। इस दिशा में गंभीरता से मनन किए जाने की जरूरत है।
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