Tuesday, 1 September 2020

अलग लय-अलग ताल का कैनवास

चलिए! आपका परिचय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के ऐसे निर्देशकों से कराते हैं, जिन्होंने अपने दौर में चल रहे फिल्मी फार्मूले से हटकर एक अलग तरह का सिनेमा रचने का प्रयास किया।



अलग लय-अलग ताल का कैनवास
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दिनेश कुकरेती
सिनेमा को लेकर बहुत सी बातें हो सकती हैं। लेकिन, यहां हम आपका परिचय हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के ऐसे निर्देशकों से करा रहे हैं, जिन्होंने अपने दौर में चल रहे फिल्मी फार्मूले से हटकर एक अलग तरह का सिनेमा रचने का प्रयास किया। यह परवाह किए बगैर कि इसका टिकट खिड़की पर क्या हश्र होगा। ऐसी फिल्मों की यह कहकर आलोचना भी होती रही कि इन्हेंं देखने वाले हैं कितने, पर ये जुमले उनके हौसले को नहीं डिगा पाए। यह ठीक है कि यह फिल्में मुख्य धारा की फिल्मों जैसा व्यवसाय नहीं कर पाईं, लेकिन भारतीय
सिनेमा की पहचान की बात करें तो यह हमेशा अगली पांत में खड़ी मिलीं।

शुरूआत बासु चटर्जी से करते हैं। 70 और 80 के दशक में जब पर्दे पर यथार्थ से बहुत दूर जाकर सिनेमा रचने का लोकप्रिय चलन था, तब बासु चटर्जी ने जो फिल्में बनाईं, उनकी खासियत उनका कैनवास है। बासु दा की कोई भी फिल्म उठा लीजिए, उसके पात्र मध्यमवर्गीय परिवार से ही होंगे। इसलिए यह फिल्में आम दर्शकों को उनकी अपनी फिल्म लगती हैं। 

ऑफबीट फिल्में के बड़े हीरो अमोल पालेकर बासु दा के फेवरेट रहे। उनकी 'रजनीगंधाÓ, 'बातों-बातों मेÓ, 'चितचोरÓ और 'एक छोटी सी बातÓ जैसी सफल फिल्मों में हीरो अमोल ही थे। धर्मेंद्र और हेमा मालिनी को लेकर बनी फिल्म 'दिल्लगीÓ तो आज भी बेस्ट सिचुवेशन कॉमेडी और ड्रामा में रूप में याद की जाती है। 'खट्टा-मीठाÓ और 'शौकीनÓ जैसी फिल्में बानगी हैं कि कैसे थोड़े से बदलाव के साथ सिनेमा को खूबसूरत बनाया जा सकता है।
बासु भट्टाचार्य की फिल्मों में समाज के प्रति उनका निष्कर्ष स्पष्ट झलकता है। उन्होंने 'अनुभवÓ, 'तीसरी कसमÓ और 'आविष्कारÓ जैसी फिल्में बनाईं। 1997 में आई फिल्म 'आस्थाÓ इस बात का संकेत थी कि उन्हेंं अपने समय से आगे का सिनेमा रचना आता है। दो दशक से अधिक समय तक फिल्मों में सक्रिय रहे बासु भट्टाचार्य ने अपने फिल्म मेकिंग स्टाइल में कई प्रयोग किए। उनकी 'पंचवटीÓ, 'मधुमतीÓ व 'गृह प्रवेशÓ जैसी फिल्में टिकट खिड़की पर भले ही बहुत सफल न रही हों, लेकिन हर फिल्म एक मुद्दे पर विमर्श करती जरूर दिखी। बासु भट्टाचार्य का सिनेमा दर्शकों को हमेशा मुद्दों की ओर खींचता रहा।

ऑफबीट फिल्म
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जब ऑफबीट फिल्मों का जिक्र होता है, मणि कौल का नाम सबसे ऊपर आता है। पैसा कमाने के लिए फिल्म बनाना न तो उनका मकसद था, न हुनर ही। मणि कौल की शुरुआत उनकी फिल्म 'उसकी रोटीÓ से होती है। यह संकेत है कि वह कैसी फिल्में बनाने के लिए इंडस्ट्री में आए थे। ऋवकि घटक के छात्र रहे मणि कौल ने 'दुविधाÓ, 'घासीराम कोतवालÓ, 'सतह से उठता आदमीÓ, 'आषाढ़ का एक दिनÓ जैसी फिल्में बनाईं, जो साहित्य और सिनेमा की अनुपम संगम थीं।

मृणाल सेन की फिल्म बनाने की शैली ने भी हिंदी सिनेमा पर काफी असर डाला। उन्होंने 'कलकत्ता-71Ó, 'भुवन सोमÓ, 'एकदिन प्रतिदिनÓ व 'मृगयाÓ जैसी चॢचत फिल्मों समेत 30 से अधिक फिल्मों का निर्देशन किया। इन फिल्मों में तत्कालीन समाज का अक्स दिखता था। यह समाज के प्रति एक फिल्मकार की अघोषित जवाबदेही थी। मृणाल सेन ने 'एक अधूरी कहानीÓ, 'चलचित्रÓ, 'एक दिन अचानकÓ जैसी अलग किस्म की फिल्में भी रचीं। यह फिल्में उस दौर में बन रही ज्यादातर फिल्मों से विषय के मामले में पूरी तरह से अलग होती थीं।

एक शिल्प ऐसा भी
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सई परांजपे की फिल्म मेकिंग स्टाइल की विशेषता उसकी बुनावट और शिल्प है। उनकी फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक ना के बराबर होता है। दर्शक जब फिल्में देख रहा होता है तो वह फिल्म के पात्रों के साथ पूरी तरह से जुड़ जाता है। कॉमेडी फिल्म 'चश्मे बद्दूरÓ बनाने के साथ सई ने 'कथाÓ, 'स्पर्शÓ और 'दिशाÓ जैसी फिल्में बनाईं। उनकी फिल्म का हर पात्र दर्शकों को खुद की जिंदगी का ही हिस्सा लगता। खैर! धारा के विपरीत खड़े होने वाले सिनेमा पर चर्चा आगे भी जारी रहेगी।

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