Wednesday 30 November 2022

तब का मदारी, अब का मदारी


किस्सागोई

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तब का मदारी, अब का मदारी
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दिनेश कुकरेती
ह उस दौर की बात जब मोबाइल नहीं आया था। टेलीविजन में भी चैनलों की भरमार नहीं हुआ करती थी। दूरदर्शन ही तब एकमात्र लोकप्रिय चैनल था, लेकिन इसके लिए बीसियों दफा एंटीना घुमाना पड़ता था। हां, लोग सिनेमा खूब देखते थे। इसके साथ ही वीसीआर पर फिल्म देखने का भी अच्छा-खासा क्रेज था। कभी-कभी हम रात में तीन-तीन फिल्म देख लिया करते थे। लेकिन, सबसे ज्यादा मजा नुक्कडो़ं पर खेल-तमाशे देखने में आता था। खासकर काला जादू का खेल देखने में। कहीं पर डुगडुगी बजती और हम पास से गुजर रहे होते तो कदम खुद-ब-खुद ठिठक जाते। उस दौर में काला जादू का कितना रोमांच होता था, यह हमारी पीढी़ ही जानती है। जब तक खेल चलता, भय मिश्रित कौतुहल बना रहता था। मदारी और जमूरे के बीज गजब की ट्वीनिंग रहती थी।

मदारी कड़कदार आवाज में कहता, "सब अपने-अपने हाथ खोल दो।"

जमूरा जवाब देता, "खोल दिए उस्ताद।"

मदारी कहता, "कहां खोले हैं, देख नहीं रहे कई लोगों के हाथ अब भी बंधे हुए हैं।" 

उसका तीर सही निशाने पर लगता और डर के सब हाथ खोल देते। असल में मदारी अपनी बात इतने कान्फिडेंस के साथ कहता कि हमारे पास सोचने-समझने के लिए कुछ बचता ही नहीं था।

वह फिर दोहराता, "जिसके जेब में पैसे हैं और वह उन्हें छिपा रहा है तो उसे कसम हैं भगवान की। फिर न कहना कि मुंह से खून कैसे आ गया।"

हम खुद को कोसते कि क्यों आ गए तमाशा देखने और फिर चुपचाप जेब से कुछ पैसे निकालकर जमूरे की फैलाई झोली में डाल देते।
मदारी को इतनेभर से ही संतोष नहीं होता था। वह भीड़ के बीच से किसी को बुलाता और सम्मोहित कर उसके दोनों हाथ आपस में चिपका देता।
हालांकि, तब मालूम नहीं था कि हाथ सचमुच चिपकते हैं या नहीं, लेकिन उम्र बढ़ने के साथ पता चला कि वह, जिसके हाथ चिपकते थे, मदारी का ही आदमी होता था, जिसे वह भीड़ का हिस्सा बना दिया करता था।
मदारी कुछ बुदबुदाता और धीरे-धीरे उस व्यक्ति पर बेहोशी छा जाती। मदारी उसे चित्त जमीन पर लेटा देता। फिर चिल्लाकर कहता, "जमूरे! देख रहे हो इसे, क्या हाल हो गया।"

जमूरा जवाब देता, "हां, उस्ताद, देख भी रहा हूं और महसूस भी कर रहा हूं।"

"क्या महसूस कर रहे हो" उस्ताद पूछता।

जमूरा कहता, "उस्ताद! बता नहीं सकता, बेचारा...।"

यह सुन हम बगलें झांकने लगते। समझ नहीं आता कि आखिर माजरा क्या है। तभी जमीन पर चित्त लेटे व्यक्ति की तंद्रा टूटने लगती और साथ ही वह चिल्लाने भी लगता। यहां तक कि हाथ बंधे होने के बावजूद मदारी की ओर बढ़ता। ऐसा प्रतीत होता, मानो उसे मारने दौड़ रहा है। उसके माथे पर चिंता की लकीरें उभरी हुई होतीं। मदारी उसे समझाने का प्रयास करता तो वह और आक्रामक हो जाता और चिल्लाते हुए कहता, "मेरे हाथ खोल..., फिर बताता हूं तुझे।" 

हमारी इतनी तो समझ में आता कि कुछ गड़बड़ जरूर है, लेकिन क्या गड़बड़ है, यह नहीं समझ पाते और नजरें चुराते हुए चुपचाप वहां से खिसक लेते।

मितरों! आज हम डिजिटल युग में जरूर पहुंच गए हैं, पर न तो मदारियों से पीछा छूटा, न हमने जमूरे का आवरण त्यागने की ही कोशिश की। अब लगता है कि वह मदारी इन मदारियों से लाख गुना बेहतर था। वह तो सिर्फ तमाशा दिखाता था, पर इन्होंने तो देश को ही तमाशा बना दिया है। मदारी ने हमारी आंखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम सच और झूठ में फर्क तक नहीं कर पा रहे।

Thursday 17 November 2022

कहानी (गूगल पे)


कहानी

गूगल पे

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दिनेश कुकरेती

'सुनिए जी...' - बंद दरवाजे के बाहर से आवाज आई।

मनीष ने दरवाजा खोला तो सामने नीतू खडी़ थी।नीतू पति के साथ उसी मकान के एक कमरे में किराये पर रहती है, जिसमें मनीष भी किरायेदार है। पति मेहनत-मजूरी करता है और नीतू स्वयं दो-तीन घरों में किचन का काम। उम्र 27-28 साल से ज्यादा नहीं होगी। दो छोटे-छोटे बच्चे भी हैं नीतू के, लेकिन उसका चुलबुलापन इसका एहसास ही नहीं होने देता।

मनीष ने नीतू पर दृष्टि डाली तो वह सिर झुकाए याचक की-सी मुद्रा में बोली- 'पैसे भिजवाने थे अपने घर समस्तीपुर। ससुर की तबीयत खराब है। आप गूगल पे कर दोगे क्या?' उसकी मुट्ठी में दो-तीन मुडे़-तुडे़ नोट नजर आ रहे थे।

'किसे करना है गूगल पे?' - मनीष ने पूछा

'समस्तीपुर में हमारे घर के पास ही रहता है वह। नाम तो मुझे मालूम नहीं'- नीतू ने कहा। 

मनीष ने नीतू से उसका नंबर लेकर गूगल पे एप में फीड किया तो उसमें राजीव कुमार नाम शो हो रहा था। 

'क्या राजीव कुमार है उसका नाम?' - मनीष ने पूछा

'पता करती हूं', यह कहते हुए नीतू ने घर पर फोन लगाया तो दूसरी ओर से उसके देवर ने पडो़सी का नाम राजीव कुमार होने की बात स्वीकारी।

'...तो पैसे सीधे घर क्यों नहीं भेज रही हो?' - मनीष ने कहा

'घर में छोटा फोन है, खाली बात करने के लिए। उससे गूगल पे नहीं होता। इसलिए इस आदमी को पैसे भेजने पड़ते हैं। ससुर के लिए दवाइयां लानी हैं। तबीयत ज्यादा खराब है। लेकिन, कह रहे थे कि पैसे नहीं हैं उनके पास। मुझसे पैसे भेजने को कहा है। अब उनसे कैसे कहूं कि पैसे तो मेरे पास भी नहीं हैं। दो-तीन घरों में काम करके तो जैसे-तैसे महीने की गाडी़ चल पाती है।' - नीतू बोली

'...तो क्या ये आदमी दे देगा उन्हें पैसे। कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं करेगा? - मनीष ने आशंका जताते हुए पूछा

'तभी तो 1550 रुपये भिजवा रही हूं। इसमें से 50 रुपये वो रख लेगा और बाकी मेरे ससुर को देगा। वो सबसे ऐसे ही लेता है।' - नीतू ने बताया
'क्या...? गूगल पे के भी पैसे लेता है वो', मनीष ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा

'नहीं। हमारे यहां पैसे वाले लोग गरीबों से ऐसे ही तकाजा वसूलते हैं। ये तो फिर भी 50 रुपये ही ले रहा है। कई तो सौ-डेढ़ सौ भी ले लेते हैं।' - नीतू बोली

मनीष हतप्रभ था। फिर उसने चुपचाप नीतू के 1550 रुपये गूगल पे से ट्रांसफर कर दिए। नीतू ने भी मुट्ठी में बंद रुपये मनीष के हाथ में थमा दिए।

इसके बाद भी नीतू ने दो बार फिर मनीष से गूगल पे के जरिये पैसे भिजवाए, 50-50 रुपये कर समेत। मनीष हर बार गूगल पे तो कर देता है, लेकिन उसके बाद कई दिन व्यथित रहता है। नीतू की विवशता और समाज के इस संवेदनहीन बर्ताव को देखकर। कैसे लोग हैं वो, जो दूसरे की विवशता का फायदा उठाने में जरा-भी नहीं हिचकते। मैं स्वयं मनीष की जुबानी नीतू की दास्तान सुनकर व्यथित हूं, लेकिन सिवाय अफसोस व्यक्त करने के, कुछ नहीं कर सकता।
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Google pay

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Dinesh Kukreti

'Listen sir...' came a voice from outside the closed door.

When Manish opened the door, Neetu was standing in front of him. Neetu lives with her husband on rent in a room in the same house, in which Manish is also a tenant.  Husband works hard and Neetu herself does kitchen work in two-three houses.  Age will not be more than 27-28 years.  Neetu also has two small children, but her flirtatiousness does not let her realize it.

When Manish looked at Neetu, she bowed her head and said in a beggar's posture - 'We wanted to send the money to our home in Samastipur.  Father-in-law's health is bad.  What will you do on Google?  Two-three twisted notes were visible in his fist.

'Who has to do Google Pay?'  Manish asked

He lives near our house in Samastipur.  I don't know the name'- Neetu said.

When Manish took her number from Neetu and fed it in the Google Pay app, a show named Rajeev Kumar was happening in it.

'Is his name Rajeev Kumar?'  Manish asked

Saying 'I know', Neetu called at home and on the other side, her brother-in-law accepted that the name of the neighbor was Rajeev Kumar.

'...then why are you not sending the money directly home?'  Manish said

'There is a small phone in the house, to talk empty.  It doesn't work on Google.  That's why this man has to send money.  Have to bring medicines for father-in-law.  Health is very bad.  But, they were saying that they do not have money.  I have been asked to send money.  Now how can I tell them that I don't even have money.  By working in two-three houses, somehow the car can run for a month.  Neetu said

'...so will this man give them the money?  Will someone mess up somewhere?  Manish asked apprehensively.

That's why I am sending Rs 1550.  Out of this, he will keep 50 rupees and will give the rest to my father-in-law.  He takes the most like this.  Neetu told

'what...?  He also takes money from Google Pay,' Manish expressed surprise.

'No.  In our country, people with money collect similar demands from the poor.  Still he is taking 50 rupees only.  Some even take 100-150.'  Neetu said

Manish was bewildered.  Then he quietly transferred Rs 1550 to Neetu from Google Pay.  Neetu also handed over the money in her hand to Manish.

Even after this, Neetu twice again got Manish to send money through Google Pay, Rs.50-50 including tax.  Manish does it on Google every time, but after that remains distressed for many days.  Seeing Neetu's helplessness and this insensitive behavior of the society.  What kind of people are they, who do not hesitate to take advantage of others' helplessness.  I myself am distressed to hear Neetu's story from Manish's mouth, but cannot do anything except express regret.