Wednesday 29 July 2020

प्रकृति का प्रतिबिंब पारंपरिक पहनावा


हम जो वस्त्र धारण करते हैं, उनका भी अपना लोक विज्ञान है। दरअसल, वस्त्र किसी भी क्षेत्र एवं समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि को परिलक्षित करते हैं। वस्त्रों से इतिहास के सूक्ष्म पहलुओं और संबंधित क्षेत्र के भौगोलिक परिवेश का आकलन भी होता है।

प्रकृति का प्रतिबिंब पारंपरिक पहनावा
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दिनेश कुकरेती
हर समाज की तरह उत्तराखंड का पहनावा (वस्त्र विन्यास) भी यहां की प्राचीन परंपराओं, लोक विश्वास, लोक जीवन, रीति-रिवाज, जलवायु, भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, शिक्षा व्यवस्था आदि को प्रतिबिंब करता है। पहनावा किसी भी पहचान का प्रथम साक्ष्य है। प्रथम या प्रत्यक्ष जो दृष्टि पड़ते ही दर्शा देता है कि 'हम कौन हैं।Ó यही नहीं, प्रत्येक वर्ग, पात्र या चरित्र का आकलन भी वस्त्राभूषण या वेशभूषा से ही होता है। पहनावा न केवल विकास के क्रम को दर्शाता है, बल्कि यह इतिहास के सूक्ष्म पहलुओं के आकलन में भी सहायक है। आदिवासी जनजीवन से आधुनिक जनजीवन में निर्वस्त्र स्थिति से फैशन डिजाइन तक की स्थिति तक क्रमागत विकास देखने को मिलता है।

आदिम युग से शुरू होती है वस्त्र विन्यास की परंपरा
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इस हिसाब से देखें तो उत्तराखंड की वस्त्र विन्यास परंपरा आदिम युग से ही आरंभ हो जाती है। यहां विभिन्न जनजातियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्र एवं आभूषण धारण करने की परंपरा प्रचलन में रही है। मसलन कुमाऊं व गढ़वाल की बोक्सा, थारूअथवा जौहारी जनजाति की महिलाएं पुलिया, पैजाम, झड़तार छाड़ जैसे आभूषण धारण करती हैं। पुलिया अन्य क्षेत्रों में पैरों की अंगुलियों में पहने जाने वाले आभूषण हैं, जिनका प्रचलित नाम बिच्छू है। गढ़वाल में इन्हें बिछुआ तो कुमाऊं में बिछिया कहते हैं। इसके अलावा गले में पहनी जाने वाली सिक्कों की माला भी उत्तराखंड की सभी जनजातियों में प्रचलित है। गढवाल में इसे हमेल और कुमाऊं में अठन्नीमाला, चवन्नीमाला, रुपैमाला, गुलुबंद, लाकेट, चर्यों, हंसुली, कंठीमाला, मूंगों की माला जैसे नामों से जाना जाता है।

समय के साथ बदले रूप, रंग भी बदलते गए
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इसी तरह शिरोवस्त्र, पगड़ी, दुपट्टानुमा ओढऩी आदि भी प्राचीन परंपराओं की ही देन हैं। सूती, रेशमी और ऊनी वस्त्रों की कताई, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई व जरीदार काम न केवल तकनीकी विकास के क्रम को दर्शाते हैं, बल्कि विभिन्न नमूनों व डिजाइनों के प्रति रुचि एवं सृजनात्मकता का परिचय भी देते हैं। इसी के चलते समय के साथ हथकरघा उद्योगों का विकास हुआ। तब वस्त्रों को उनकी विशेषताओं के आधार पर अनेक नामों से जाना जाता था। जैसे-भांग के रेशे से निर्मित वस्त्र भंगोला, भेड़ आदि जानवरों की ऊन से निर्मित वस्त्र ऊनी व कपास के रेशों से निर्मित वस्त्र सूती कहलाते थे। कालांतर में शिक्षा, तकनीकी क्षेत्र में उन्नति और आवागमन के साधनों का प्रभाव वस्त्राभूषणों पर भी पड़ा। नतीजा, धीरे-धीरे लोग परंपरागत पहनावे का त्याग करने लगे। हालांकि, अब एक बार फिर लोग परंपराओं के संरक्षण के प्रति गंभीर हुए हैं और पारंपरिक वस्त्रों को आधुनिक कलेवर में ढालकर पहनने का चलन अस्तित्व में आ रहा है।

उत्तराखंड के पारंपरिक परिधान
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पारंपरिक रूप से उत्तराखंड की महिलाएं घाघरा व आंगड़ी और पुरुष चूड़ीदार पैजामा व कुर्ता पहनते थे। समय के साथ इनका स्थान पेटीकोट, ब्लाउज व साड़ी ने ले लिया। जाड़ों (सर्दियों) में ऊनी कपड़ों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ कार्यों के अवसर पर कई क्षेत्रों में आज भी शनील का घाघरा पहनने की रवायत है। गले में गलोबंद, चर्यो, जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल, कुंडल पहनने की परंपरा है। सिर में शीशफूल, हाथों में सोने या चांदी के पौंजी व पैरों में बिछुवे, पायजेब, पौंटा पहने जाते हैं। घर-परिवार के समारोहों में ही आभूषण पहनने की परंपरा है। विवाहित स्त्री की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। विवाह इत्यादि शुभ अवसरों पर पिछौड़ा पहनने का रिवाज भी यहां आम है।

उत्तराखंड के पारंपरिक परिधान
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कुमाऊं में पुरुष परिधान : धोती, पैजामा, सुराव, कोट, कुत्र्ता, भोटू, कमीज मिरजै, टांक (साफा) टोपी आदि।
कुमाऊं में स्त्री परिधान : घाघरा, लहंगा, आंगड़ी, खानू, चोली, धोती, पिछोड़ा आदि।
कुमाऊं में बच्चों के परिधान : झगुली, झगुल कोट, संतराथ आदि।
गढ़वाल में पुरुष परिधान : धोती, चूड़ीदार पैजामा, कुत्र्ता, मिरजई, सफेद टोपी, पगड़ी, बास्कट, गुलबंद आदि।
गढ़वाल में स्त्री परिधान : आंगड़ी, गाती, धोती, पिछौड़ा आदि।
गढ़वाल में बच्चों के परिधान : झगुली, घाघरा, कोट, चूड़ीदार पैजामा, संतराथ (संतराज) आदि।

उत्तराखंड में पहने जाने वाले आभूषण
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सिर में : शीशफूल, मांगटीका, सुहाग बिंदी, बांदी (बंदी)।
कानों में : मुर्खली (मुंदड़ा), कर्णफूल, तुग्यल, बाली,  कुंडल, बुजनी (पुरुष कुंडल)।
नाक में : बुलाक, फुल्ली, नथ (नथुली)।
गले में : कंठी माला, तिलहरी, चंद्रहार, गुलोबंद, हंसुली (सूत), लाकेट, चर्यों।
हाथ में : पौंजी (पौंछी), कड़ा, अंगूठी, गोखले, धागुली।
कमर में : करधनी, तगड़ी, कमर ज्योड़ी।
पैरों में : झिंवरा, इमरती. पौंटा, पाजेब, अमीर तीतार, झांवर, बिछुवा।

आज भी है सनील के घाघरे का रिवाज
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उत्तराखंड की महिलाएं पहले घाघरा, आंगड़ी और पुरुष चूड़ीदार पैजामा व कुर्ता पहनते थे। अब इनका स्थान पेटीकोट, ब्लाउज व साड़ी ने ले लिया है। जाड़ों में ऊनी कपड़ों का प्रयोग होता है। जबकि, विवाह आदि मांगलिक कार्यों के मौके पर कई क्षेत्रों में आज भी सनील का घाघरा पहनने का रिवाज है। इसके साथ ही गले में गलोबंद, चर्यो व जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल व कुंडल, सिर में शीशफूल, हाथों में सोने-चांदी के पौंजी और पैरों में बिछुए, पायजब व पौंटा भी पहने जाते हैं। खासकर विवाहित महिलाओं की पहचान तो गले में चर्यो पहनने से ही होती है।

टिहरी की नथ का कोई सानी नहीं
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जिस तरह उत्तराखंड मुख्य रूप से दो हिस्सों गढ़वाल और कुमाऊं में बंटा है, ठीक उसी तरह से उत्तराखंडी नथ भी दो प्रकार की होती है। इसमें भी टिहरी की नथ का कोई सानी नहीं। माना जाता है कि इस नथ का इतिहास राजशाही के दौर से शुरू होता है। तब राज परिवार की महिलाएं सोने की नथ पहना करती थीं। ऐसी मान्यता रही है कि जो परिवार जितना संपन्न होगा, वहां नथ भी उतनी ही भारी और बड़ी होगी। धन-धान्य की वृद्धि के साथ इसका आकार भी बढ़ता जाता था। हालांकि, बदलते दौर में युवतियों की पसंद भी बदली और भारी नथ की जगह स्टाइलिश एवं छोटी नथों ने ले ली। जबकि, दो दशक पूर्व तक नथ का वजन तीन से पांच या छह तोले तक भी हुआ करता था। इस नथ की गोलाई भी 35 से 40 सेमी तक रहती थी। टिहरी की नथ का क्रेज न सिर्फ पहाड़ों में है, बल्कि पारंपरिक गहनों के प्रेमी दूर-दूर से उत्तराखंड आकर अपनी बेटियों के लिए यह पारंपरिक नथ लेते हैं।

महिलाओं के लिए पूंजी की तरह है नथ
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टिहरी गढ़वाल की नथ सोने की बनती है और उस पर की गई चित्रकारी उसे दुनियाभर में मशहूर करती है। इसमें बहुमूल्य रुबी और मोती जड़े होते हैं। नथ की महत्ता इतनी ज्यादा है कि उसे हर उत्सव में पहनना अनिवार्य माना जाता है। इसी प्रकार कुमाऊंनी नथ भी लोगों के बीच बहुत पसंद की जाती है। सोने की बनी इस नथ को महिलाएं बायीं नाक में पहनती है। कुमाऊंनी नथ आकार में काफी बड़ी होती है, लेकिन इस पर डिजाइन कम होता है। बावजूद इसके यह बेहद खूबसूरत होती है। उत्तराखंडी महिलाओं के लिए पांरपरिक नथ एक पूंजी की तरह है, जिसे वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी संजोकर रखती हैं।

Tuesday 28 July 2020

कलसी में बिखरे हैं मौर्यवंश के अवशेष

देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर का प्रवेश द्वार कलसी में न केवल मौर्यवंशी सभ्यता का केंद्र रहा है, बल्कि यहां द्वापरयुगीन सभ्यता के भी प्रमाण मिले हैं। माना जाता है कि पांडु पुत्रों ने लंबा समय यहां व्यतीत किया था। पौराणिक ग्रंथों में जिस विराटनगर का उल्लेख हुआ है, वह कलसी ही था।

कलसी में बिखरे हैं मौर्यवंश के अवशेष
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दिनेश कुकरेती
समुद्रतल से 780 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कलसी (कालसी) देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर काप्रवेश द्वार माना जाता है। देहरादून से 56 किमी दूर यमुना और टोंस नदी के संगम पर स्थित यह स्थान प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्मारकों, साहसिक खेलों और पिकनिक स्थलों के लिए प्रसिद्ध है। महाभारत काल में कलसी पर राजा विराट का शासन रहा और तब इसकी राजधानी विराटनगर हुआ करती थी। महाभारत में उल्लेख है कि अज्ञातवास काल में पांडव वेश बदलकर राजा विराट के महल में ही रहे थे। कलसी में यमुना नदी के किनारे अशोक के शिलालेख प्राप्त होने से इस बात की पुष्टि होती है कि यह क्षेत्र कभी काफी संपन्न रहा होगा। सातवीं सदी में इस क्षेत्र को 'सुधनगरÓ के रूप में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी देखा था। यही सुधनगर बाद में कलसी के नाम से जाना गया। लगभग 800 वर्ष पूर्व दून क्षेत्र की बंजारा जाति के लोग यहां आ बसे और इसी के साथ यह क्षेत्र गढ़वाल के राजा को कर देने लगा। कुछ समय बाद इस ओर इब्राहिम बिन महमूद गजनवी का हमला हुआ।

लोकप्रिय आकर्षण 'अशोकन रॉक एडिक्टÓ
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भारतीय पुरालेखों में से एक 'अशोकन रॉक एडिक्टÓ कलसी का अति महत्वपूर्ण स्मारक और लोकप्रिय पर्यटक आकर्षणों में से एक है। यह वह पत्थर है, जिस पर मगध के मौर्यवंशी सम्राट अशोक की 14वीं राजाज्ञा को 253 ईस्वी पूर्व में उत्कीर्ण किया गया है। इसे वर्ष 1860 में जॉन फॉरेस्ट प्रकाश में लाए। प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण यह राजाज्ञा बौद्ध-धर्म के मुख्य सिद्धांतों का संग्रह है, जिसमें अहिंसा पर सबसे अधिक बल दिया गया है। दस फीट लंबी, आठ फीट चौड़ी और दस फीट ऊंची इस संरचना को एक हाथी की रूपरेखा के साथ उत्कीर्ण किया गया है। उसके दो पैरों के बीच 'गजतमेÓ शब्द अंकित है। हाथी को आकाश से उतरता दिखाया गया है, इससे माता के गर्भ में भगवान बुद्ध के आने का आभास होता है। अशोक के ओडिशा स्थित धौली (कलिंग) शिलालेख में भी हाथी की आकृति उकेरी गई है, जो उसके बौद्ध धर्मानुयायी होने का द्योतक है। कलसी में पांच यवन (ग्रीक) राजाओं आंतिओचुस, मैगस, आंतिगोनुस, टॉलेमी और अलेक्जेंडर के नाम भी चट्टान पर उत्कीर्ण हैं।
 
अशोक की लोक कल्याणकारी सोच
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मौर्य सम्राट अशोक की गणना विश्व के महानतम शासकों में होती है। उसने अपने विशाल साम्राज्य में अनेक स्तूपों, विहारों, शिलालेखों, स्तंभ लेखों व गुहा लेखों की स्थापना कराई। इनके माध्यम से वह देश में लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना को मूर्त स्वरूप प्रदान करना चाहता था। अभी तक अशोक के14 शिलालेख, सात स्तंभ लेख और तीन गुहा लेख  ही भारत के विभिन्न स्थानों पर मिले हैं, जिनसे तात्कालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों पर व्यापक रूप से प्रकाश पड़ता है।

हिंदी में भी अनुदित है शिलालेख
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 मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में लिखा कलसी का शिलालेख भारतीय
पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है। यह लिपि बायीं ओर से दाहिनी ओर को उसी तरह लिखी जाती थी, जैसे अन्य विभिन्न भारतीय भाषाओं कि लिपियां लिखी जाती हैं। लेकिन, उस समय अक्षरों के ऊपर शिरोरेखा का प्रयोग बिल्कुल नहीं किया जाता था। कलसी के शिलालेख को हिंदी में भी अनुदित किया गया है, ताकि जिज्ञासुजन व अध्येता मौर्य सम्राट के मंगलकारी संदेशों व उद्घोषणाओं का निहितार्थ भली-भांति समझ सकें।

इतिहास का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य
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चक्रवर्ती सम्राट अशोक (ईसा पूर्व 304 से ईसा पूर्व 232) शक्तिशाली मौर्य राजवंश के महान सम्राट रहे हैं। उनका पूरा नाम देवानांप्रिय (देवताओं का प्रिय) अशोक मौर्य  था। अशोक ने ईसा पूर्व 269 से 232 तक प्राचीन भारत में राज किया। उनका साम्राज्य आज के संपूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान व म्यांमार के अधिकांश भूभाग तक फैला था। जो कि आज तक के इतिहास में सबसे विशाल भारतीय साम्राज्य माना जाता है। अशोक विश्व के सभी महान एवं शक्तिशाली सम्राटों व राजाओं में हमेशा शीर्ष पर रहे। इसलिए उन्हें 'चक्रवर्ती सम्राटÓ यानी 'सम्राटों का सम्राटÓ कहा जाता है। यह सम्मान भारत में केवल सम्राट अशोक को ही हासिल हो पाया।
जहां धर्मलेख, वहां अशोक का राज्य
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अशोक के लिए कहीं-कहीं 'अशोकवर्धनÓ नाम भी मिलता है। उसके एक धर्मलेख में उसे 'मगध का राजाÓ कहा गया है। लेकिन, उसके साम्राज्य के लिए उसके लेखों में ज्यादातर 'पृथ्वीÓ या 'जंबूद्वीपÓ शब्द ही मिलते हैं। अशोक की राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) में थी। अशोक के धर्मलेख भारत में जिस भी स्थान पर मिले, वहां उसका राज्य निश्चित रूप से रहा। उसने अपने लेखों में 'अपराजितÓ राज्यों का भी स्पष्ट उल्लेखकिया है। दक्षिण भारत के चोल, पांड्य, केरल व ताम्रपर्णी (श्रीलंका) देश अशोक के साम्राज्य के बाहर थे। उसके लेखों में एशिया के कई यवन (यूनानी) राजाओं और मिस्र के तुरमाय या तुलमाय (टॉलमी) राजा का भी उल्लेख मिलता है।

कलिंग युद्ध ने बदली जीवन की धारा
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कलिंग विजय के पश्चात अशोक ने अपने जीवन में कोई दूसरा युद्ध नहीं लड़ा। यह युद्ध महान मौर्य सम्राट अशोक और राजा अनंत पद्मनाभन के बीच 262 ईसा पूर्व कलिंग (वर्तमान ओडिशा) में लड़ा गया था। युद्ध में कुल 15 लाख योद्धाओं ने बलिदान दिया। इनमें एक लाख मौर्य योद्धा भी शामिल थे। विजय के बावजूद इस मार-काट ने अशोक के हृदय में युद्ध के प्रति घृणा उत्पन्न कर दी और वह आचार्य उपगुप्त की शरण में अहिंसा के रास्ते पर चल पड़े। उन्होंने मौर्य साम्राज्य की क्षेत्रीय विस्तार नीति को पूरी तरह से रोक दिया और आगे का अपना पूरा जीवन बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में व्यतीत किया।

हिमालय पार के परिंदों की आरामगाह
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कलसी का एक और आकर्षण है आसन बैराज, जो विभिन्न लुप्तप्राय प्रवासी परिंदों की आरामगाह के रूप में जाना जाता है। आसन और यमुना नदी के संगम बिंदु पर स्थित आसन बैराज चार वर्ग किमी में फैली आद्र्रभूमि है। आइयूसीएन (अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ) की रेड डाटा बुक ने यहां के पक्षियों को दुर्लभ प्रजाति घोषित किया है। सर्दियों के मौसम में हिमालय पार के प्रवासी परिंदे यहां आराम करते हैं। अक्टूबर के अंत में पर्यटक यहां आकर्टिक क्षेत्र के प्रवासी परिंदों को देख सकते हैं। यहां
परिंदों को देखने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से नवंबर और फरवरी से मार्च के बीच माना जाता है।




















Monday 27 July 2020

आजादी की थाती, 73 साल पुरानी एक पाती


आजादी की थाती, 73 साल पुरानी एक पाती
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दिनेश कुकरेती
पतझड़ शुरू हो चुका था और डालियों की शाखाओं पर फूटने लगे थे नवांकुर। शीत के आगोश से मुक्त हो रही धरा का यौवन निखरने लगा था। चारों दिशाओं में गूंज रहा था मधुमास का मधुर संगीत। बावजूद इसके लोगों के चेहरों पर उदासी थी। वे इस वासंती उल्लास में भी घुटन-सी महसूस कर रहे थे। इसी बीच फरवरी 1947 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट रिचार्ड एटली ने घोषणा की कि सरकार तीन जून 1948 से भारत को पूर्ण स्वराज का अधिकार प्रदान कर देगी। फिर क्या था, पूरे देश में उल्लास की लहर दौड़ पड़ी और तन-मन में थिरकने लगा वसंत। मित्र-परिचितों को भेजी जाने लगीं शुभकामनाओं से भरी पाती।
फरवरी 1947 में ही लार्ड लुई माउंटबेटन को भारत का आखिरी वायसराय नियुक्त किया गया। उन पर भारत को स्वतंत्रता दिलाने की जिम्मेदारी थी। माउंटबेटन 15 अगस्त की तारीख को शुभ मानते थे, क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब 15 अगस्त 1945 को जापानी आर्मी ने आत्मसमर्पण किया था, तब वे अलाइड फोर्सेज के कमांडर थे। उन्होंने भारत की आजादी की तिथि तीन जून 1948 से पीछे ले जाकर 15 अगस्त 1947 कर दी। यह खबर सुनते ही दो सौ साल से गुलामी की बेडिय़ों में जकड़े भारतवासी खुली हवा में सांस लेने को मचल उठे। बेसब्री इतनी थी कि खुशी मनाने के लिए 15 अगस्त तक का इंतजार करना भी भारी पड़ रहा था। सो, उत्सवों का सिलसिला-सा चल पड़ा।

रंगीन होने लगी थीं खुशियां
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वैसे भी फाल्गुन उल्लासभरा महीना होता है। प्रकृति हरीतिमा की चादर ओढ़ नवयौवना बनकर झूमने लगती है। रंग-बिरंगे फूलों से महकने लगती हैं दसों दिशाएं और गूंजने लगते हैं फाग के गीत। फिर यह तो ऐसा मौका था, जब होली स्वतंत्रता की दूत बनकर आई थी। एक तरह से यह आजादी देशवासियों के लिए होली का प्रेमोपहार था। जाहिर है खुशियां रंगीन होनी ही थीं। सो, प्रबुद्ध लोगों की ओर से मित्र-परिचितों को चिट्ठियों के जरिये बधाई संदेश भेजे जाने लगे।

विश्वबंधु नैथाणी की ओर से भेजा गया प्रेमोपहार
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ऐसे ही शुभकामना पत्र सात मार्च 1947 को मानव आश्रम बरेली (उत्तर प्रदेश) के मंत्री विश्वबंधु नैथाणी की ओर भी भेजे गए। जो उन्होंने अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ के प्रधान जगजीवन राम, संस्थापक डॉ.धर्मप्रकाश व कार्यकर्ता प्रधान एचजे खांडेकर के सहयोग से छपवाए थे। इस पत्र में एक तरफ नूतन वर्ष का अभिनंदन और होली के 'प्रेमोपहारÓ स्वरूप कविता छपी हुई थी तो दूसरी ओर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी व पंडित जवाहरलाल नेहरू के उद्गार थे। हालांकि, अंतर्देशीय पत्र में आजादी की पुरानी तिथि जून 1948 अंकित है, क्योंकि इनकी छपाई ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली की घोषणा के तुरंत बाद हो गई थी।


यह था पाती का मजमून
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अंग-अंग में मानवता का रंग चढ़ाकर लाली, भेदभाव के ईंधन वन को खाक बना मतवाली, मां के बंधन खोली-खोली, मंगल घट में सुखरस घोली, स्वतंत्रता की दूती बनकर आई अभिनव होली, रोली का उपहार लिए हम वंदनमणि का हार लिए हम, देते हैं हम स्वतंत्र युग में प्रेमभरा यह अभिनंदन।

Friday 24 July 2020

दुनिया का अद्भुत सलाद है रैमोड़ी


दुनिया का अद्भुत सलाद है रैमोड़ी
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दिनेश कुकरेती
प्रकृति के करीब होने के कारण पहाड़ में हमेशा ही स्वास्थ्यवद्र्धक खानपान की परंपरा रही है। हालांकि, शहरी संस्कृति के प्रभाव में आकर लोगों ने इस परंपरा को भुला दिया, लेकिन अंतराल के गांवों में लोग आज भी प्राकृतिक खानपान का लुत्फ लेते हैं। पहाड़ की एक ऐसी ही डिश है रैमोड़ी। इसे आप दुनिया का अद्भुत सलाद भी कह सकते हैं। 'रै मोड़ीÓ या 'रै मुड़ीÓ यानी फूल-पत्ती व कलियों को छुरी से बिना काटे इस तरह तोडऩा-मरोडऩा, जैसे छाछ (मट्ठा) बिलोने की रै (मथनी) घूमती है। चलिए! इस बार हम भी रैमोड़ी का जायका लेते हैं।



चौपाल और रैमोड़ी एक-दूसरे के पूरक
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---------------------एक जमाने में गांवों में लोग मिल-जुलकर चौपाल में रैमोड़ी खाते थे। वसंत के आगमन पर खेतों के आसपास और जंगल में तरह-तरह की हरी कलियां और फूल खिल आते थे। तब महिलाएं व बच्चे इन्हें एक स्थान पर इकट्ठा कर बड़ी थाली (परात) में सजाते थे। इस सामग्री को मिश्रित करने का भी एक अलग तरीका हुआ करता था। इसे छुरी से काटने के बजाय, हाथ से ऐसे तोड़ा-मरोड़ा जाता था, जिससे सारी विविधता (फूल-पत्तियां व कलियों) का कीमा न बने। साथ ही स्वाद में भी विविधता रहनी चाहिए। यही है दुनिया का अद्भुत सलाद रैमोड़ी।


महिलाएं ही होती हैं रैमोड़ी की विशेषज्ञ
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रैमोड़ी बनाने की विशेषज्ञ महिलाएं ही होती थीं। इसमें जरूरत के हिसाब से नमक, मिर्च मिलाकर चटपटा बनाने के लिए लोग नींबू का खट्टा व थोड़ा-सा घर का चुलू या सरसों का कच्चा तेल भी डालते थे। सब लोग मिल-जुलकर बड़ी शांति, प्रेम व भाईचारे से आनंदित व उत्साहित होकर रैमोड़ी का जायका लेते थे। रैमोड़ी खाने की एक बड़ी वजह शरीर में पौष्टिक तत्वों की जरूरत को पूरा करना भी होता था। साथ ही हंसी-खुशी का माहौल बना रहता था, सो अलग।

रैमोड़ी में प्रयुक्त होने वाली सामग्री
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बुरांस के फूल, प्याज की हरी पत्तियां छोटे-छोटे प्याज सहित, लहसुन की हरी पत्तियां, हरा धनिया, मूली की छोटी एवं बहुत मुलायम पत्तियां, लाही (तोरिया) व मटर के पौधे, घाल्डा, घेंडुड़ी, तोमड़ी, कुरफली व गुरियाल के फूल की कलियां, मुलायम फलियां, साकिना व बुढ़णी के फूल, कंडरा की जड़ें, तिलण्या, चकोतरा, नींबू आदि।



सालभर बनी रहती है रोग प्रतिरोधक क्षमता
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रैमोड़ी से हालांकि पेट नहीं भरता, लेकिन हंसी-खुशी, मेल-मुलाकात के माहौल में मानसिक खुराक जरूर मिल जाती है। इन जैविक विविधतायुक्त वनस्पतियों के प्राकृतिक स्वाद से सालभर के लिए शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बनी रहती है। सबसे अच्छी बात यह कि आप हर नए सीजन में नियमित रूप से रैमोड़ी का जायका ले सकते हैं।

छछिंडा जैसा स्वाद कहां



छछिंडा जैसा स्वाद कहां
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दिनेश कुकरेती
कभी पहाड़ी खानपान में छछिंडा (छंचेरा) खास व्यंजन हुआ करता था। घर में जिस दिन ताजा छाछ (मट्ठा) बनती थी, उस दिन चटखारेदार खाने-पीने के शौकीन लोगों की जीभ छछिंडा खाने को मचली उठती थी। अब तो अंतराल के गांवों के चुनिंदा घरों में ही छछिंडा पकाया जाता है। कुमाऊं अंचल में इसे छसिया कहा जाता है। ...तो आइए! हम भी छछिंडा का जायका लें।
छछिंडा बनाने के लिए पहले डेगची या पतीली में पानी उबाल लें। फिर निर्धारित मात्रा में साफ किया हुआ झंगोरा अच्छी तरह धोकर खौलते पानी में डालें। साथ ही कौंचा या करछी को तेज गति से घुमाएं, क्योंकि झंगोरा बर्तन की तली में बहुत तेजी से चिपकता है। सो, करछी चलाने में लापरवाही बिल्कुल न करें। आंच न ज्यादा तेज हो, न बिल्कुल कम। इतनी कि उबाल रुके नहीं।
जब झंगोरा अधपका हो जाए और पानी कम होने लगे तो उसमें झंगोरा की मात्रा से दोगुना या अधिक छाछ डाल दें। साथ में लहसुन, नमक, मिर्च व हलके मसाले डालकर अच्छी तरह हिलाते रहें। आंच थोड़ी कम कर सकते हैं। छछिंडा थिरकने लगे तो समझिए पककर तैयार है। बस, अब एक-दो मिनट के लिए बर्तन को ढक लें और फिर आंच बंद कर दें। इसके बाद बर्तन चूल्हे से उतारकर थोड़ा-सा इंतजार कीजिए और फिर लीजिए स्वादिष्ट एवं पौष्टिक छछिंडा का जायका।
अपनी पुस्तक 'उत्तराखंड में खानपान की संस्कृतिÓ में विजय जड़धारी लिखते हैं, आप चाहें तो चावल का छछिंडा भी बना सकते हैं। यह भी वैसे ही बनता है, जैसे कि झंगोरे का छछिंडा। खास बात यह कि छछिंडा छाछ ही नहीं, दही के साथ भी बनाया जा सकता है। लेकिन, दही में पानी मथने के बाद ही उसे छछिंडा बनाने के उपयोग में लाएं।

फ्राय या भुड़का झंगोरा
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आपने झंगोरा बनाया और उसमें से कुछ हिस्सा बच गया तो उसे फेंके नहीं, बल्कि साफ-सुथरे बर्तन में फ्रिज या हवादार स्थान पर रख दें। दोबारा भूख लगने पर इसे बासी खाने के बजाय फ्राय करके खाया जाए तो मजा आ जाएगा। इसके लिए बासी झंगोरे को बारीक चूरकर उसमें जरूरत के हिसाब से नमक, हल्दी, मिर्च और धनिया पाउडर मिला लें। अब लोहे की कढ़ाई को गर्म कर उसमें घी या शुद्ध सरसों का तेल डालें। फिर जख्या, फरण व राई-सरसों में से कोई भी तड़का लगाकर झंगोरे के चूरे को उसमें छौंक लें। हां, तड़का के लिए जख्या, फरण, राई या सरसों की मात्रा सामान्य से अधिक हो। कौंचे या पलटा से झंगोरे को अच्छी तरह मिलाएं या कढ़ाई को दोनों हाथों से पकड़कर हिलाते हुए पलटें। हल्के पानी के छींटे भी मार सकते हैं। अब इसे थोड़ी देर ढक्कन रखकर हल्की भाप दें। फिर पलटें, ताकि कढ़ाई की तली में ज्यादा न लगे। तैयार है भुड़का झंगोरा। हालांकि, कढ़ाई में चिपकी झंगोरे की परत खाने में और भी मजेदार और कुरकुरी लगती है। इसके साथ साग या दाल की भी जरूरत नहीं पड़ती। बस! थोड़ी दही या छाछ डाल लीजिए, मन प्रसन्न हो जाएगा।

Thursday 23 July 2020

प्रेम, लगाव एवं सहयोग की विरासत थडिय़ा/Legacy of love, attachment and cooperation

प्रेम, लगाव एवं सहयोग की विरासत थडिय़ा
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दिनेश कुकरेती
उत्तराखंड के गढ़वाल अंचल का भूगोल जितना आकर्षक है, उतनी ही मनोहारी हैं यहां की लोक परंपराएं। ऐसा भी कह सकते हैं कि गढ़वाल की लोक संस्कृति, यहां के लोग और प्रकृति एक-दूसरे में समाए हुए हैं। इसकी झलक यहां के लोकगीत व  लोकनृत्यों में स्पष्ट देखी जा सकती है। गढ़वाल के लोक वाद्य, लोक गीत, लोक नृत्य और शिल्प इतने समृद्ध हैं कि उनमें डूब जाने को मन करता है। खासकर यहां के गीत-नृत्यों में तो
कमाल की विविधता और आकर्षण है। ऐसे ही एक प्रसिद्ध पारंपरिक गीत-नृत्य से हम आपका परिचय करा रहे हैं, जिसे थडिय़ा कहा जाता है। हालांकि, तेज रफ्तार जिंदगी में नई पीढ़ी इस पारंपरिक नृत्य से बहुत दूर चली गई है, लेकिन अंतराल के गांवों में थडिय़ा नृत्य आज भी उसी उत्साह से होता है, जैसा तीन दशक पूर्व तक हुआ करता था।

'थाड़Ó से हुई 'थडिय़ाÓ की उत्पत्ति
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'थडिय़ाÓ शब्द की उत्पत्ति 'थाड़Ó से हुई है, जिसका अर्थ है आंगन या चौक। थोड़ा बड़े अर्थों में इसे खलिहान भी बोल सकते हैं। यानी घर के आंगन में आयोजित होने वाले संगीत और नृत्य के उत्सव को थडिय़ा कहा जाता है। थडिय़ा उत्सव का आयोजन वसंत ऋतु में घरों के आंगन में किया जाता है। वसंत में रातें लंबी होती है, इसलिए गांव के लोग मनोरंजन के लिए मिल-जुलकर थडिय़ा का आयोजन करते हैं।

मंडाण का पूरक नहीं है थडिय़ा नृत्य
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कुछ लोग मंडाण को थडिय़ा नृत्य का पूरक मानते हैं। जबकि, दोनों नृत्य एक-दूसरे से भिन्न हैं। दरअसल, थडिय़ा नृत्य में जहां गांव के सभी लोग मिलकर गायन और नृत्य की जिम्मेदारी लेते हैं, वहीं मंडाण में गीत गाने और वाद्य यंत्रों का संचालन करने वाले विशेष लोग होते हैं, जिन्हें औजी (दास) कहा जाता है। बाकी लोग नृत्य में साथ होते हैं। मंडाण की एक विशेषता यह भी है कि इस आयोजन में शामिल होने के लिए गांव की ब्याहता बेटियों को भी मायके आमंत्रित किया जाता है। इस दौरान मनोहारी गीतों और तालों के साथ गांव के लोग कदम-से-कदम मिलाकर नृत्य का आनंद लेते हैं। जबकि, थडिय़ा नृत्य के साथ-साथ प्रेम, लगाव व सहयोग की सामूहिक विरासत को संजोए हुए है।
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Legacy of love, attachment and cooperation
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Dinesh Kukreti
The folk traditions of Garhwal region of Uttarakhand are as attractive as they are attractive.  It can also be said that the folk culture, people and nature of Garhwal are embedded in each other.  A glimpse of this can be seen clearly in folk songs and folk dances.  The folk instruments, folk songs, folk dances and crafts of Garhwal are so rich that one wants to drown in them.  Especially the song-dances here have amazing variety and charm.  We are introducing you to one such famous traditional song and dance, which is called Thadiya.  Although a new generation in fast-paced life has gone far away from this traditional dance, Thadiya dance in the interurban villages continues with the same enthusiasm as it used to be three decades ago.

'Thad' originated from 'Thadiya'
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The word 'Thadiya' derives from 'Thad', which means courtyard or chowk.  It can also be called a barn in a slightly larger sense.  That is, the festival of music and dance to be held in the courtyard of the house is called Thadiya.  Thadiya festival is organized in the courtyard of the houses in the spring.  The nights are long in the spring, so the villagers organize tadia together for entertainment.

 Thadiya dance is not a complement to Mandana
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Some consider Mandana to be a complement of Thadiya dance.  Whereas, the two dances are different from each other.  In fact, in Thadiya dance where all the people of the village take responsibility for singing and dancing together, in Mandana, there are special people who sing songs and perform musical instruments, called auji (slaves).  The rest are together in the dance.  Another feature of Mandana is that the married girls of the village are also invited to attend this event.  During this time, the villagers enjoy dancing together step by step with captivating songs and rhythms.  Whereas, Thadiya cherishes the collective legacy of love as well as love, affection and cooperation.


गढ़वाल के विलक्षण वाद्य डौंर-थाली/Garhwal's unique musical instrument Dounar-Thali

गढ़वाल के विलक्षण वाद्य डौंर-थाली
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दिनेश कुकरेती
ढोल-दमाऊ के बाद डौंर-थाली गढ़वाल के प्रमुख वाद्य माने गए हैं। डौंर (डमरू) शिव के डमरू का ही एक रूप है। जागर (घडियाला) यानी देवनृत्यों में जागरी (डौंर्या या वादक) ढोल की तरह ही डमरू को लाकड़ (सोटे) और हाथ से बजाता है। जबकि, डौंर्या का सहयोगी (जो कि कांसे की होती है) को बायें हाथ के अंगूठे पर थाली को टिकाकर दायें हाथ से उस पर लाकुड़ का प्रहार करता है। डौंर-थाली वादन से एक अद्भुत ध्वनि उत्पन्न होती है, जिससे देवी-देवता और पितर अपने पश्वों (खास महिला या पुरुष) पर अवतरित हो उठते हैं। महत्वपूर्ण यह कि डौंर कभी अकेला नहीं बजता, बल्कि इसके साथ संगत के लिए कांसे की थाली का होना अनिवार्य है।


दोनों घुटनों के बीच रखकर बजता है डौंर
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चर्म वाद्यों में डौंर ही एकमात्र ऐसा वाद्य है, जिसे ढोल की तरह कंधे से नहीं लटकाया जाता। डमरू से मिलते-जुलते इस वाद्य को दोनों घुटनों के बीच इस तरह स्थिर किया जाता है कि ऊपर की पुड़ी को दायें हाथ की यष्टिका और नीचे की पूड़ी को घुटने के नीचे से होते हुए बायें हाथ से बजाया जा सके। घुटनों के दबाव और यष्टिका के प्रकीर्ण प्रहार से डौंर से अमूमन गुरु गंभीर नाद उद्धृत होती है, जो सर्वथा रौद्र एवं लोमहर्षक होती है। खास बात यह कि डौंर-थाली वादन केवल पुरोहित ही करते हैं।

डौंर में 22 से लेकर 84 ताल बजने तक का उल्लेख
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चपटे वर्गाकार डमरूनुमा आकार वाला यह वाद्य सांदण या खमेर की लकड़ी से बनाया जाता है। इसके दोनों सिरों पर बकरे, घुरड़ या काकड़ की खाल मढ़ी जाती है। कुमाऊं में डौंर का प्रचलन कम है, लेकिन गढ़वाल का यह लोकजीवन में रचा-बसा प्रमुख वाद्य है। डौंर का प्रयोग स्थानीय देवी-देवताओं के जागर लगाने (आह्वान) में किया जाता है। लोक वाद्यों के जानकार डौंर में 22 तरह की तालों का उल्लेख करते हैं। जबकि, कुछ लोक वादकों ने डौंर में 36 और 84 ताल बजाए जाने का उल्लेख किया है।

डौंर का सहायक वाद्य कांसे की थाली
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कांसे की थाली को स्थानीय भाषा में लोक गायक 'कंसासुरी थालÓ नाम से पुकारते हैं। सहायक वाद्य के रूप में इसका प्रयोग मात्र जागरों में किया जाता है। डौंर की ताल पर इसे पयां की लकड़ी के पतले सोटों से बजाया जाता है। देवी-देवताओं के जागर (आह्वान गीत) के अलावा इसका अन्य अवसरों पर वाद्य के रूप में प्रयोग नहीं के बराबर देखा गया है। अभी तक इसे सिर्फ पुरुष ही बजाते आ रहे हैं।

अलग ही अंदाज में बजाई जाती है थाली
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गढ़वाल क्षेत्र में कांसे की थाली को बजाने का तरीका अलग ही है। इसके लिए पतीले के आकार वाली तांबे की तौली (बर्तन) में आधे से अधिक पानी भर लिया जाता है। तौली को जमीन पर मोटे कपड़े के गोल छल्ले के ऊपर रखा जाता है। ताकि हिलने या थाली को बजाते समय वह गिर न जाए। तौली के मुंह पर ऊपर से कांसे की थाली उल्टी रखी जाती है और फिर  बायें हाथ से पकड़कर उससे तौली पर प्रहार किया जाता है। इस ताल को पूर्णता देने के लिए थाली की पीठ पर दायें हाथ से लकड़ी के पतले सोटे से प्रहार करते हैं। इस प्रक्रिया से एक सम्मोहित करने वाली ताल उत्पन्न होती है।

पाथा पर रखकर भी बजती है थाली
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कई इलाकों को कांसे की थाली को तांबे के बर्तन की बजाय पाथा (पुराने समय में अनाज तौलने वाला लकड़ी का बर्तन) के ऊपर रखा जाता है। पाथा में चावल भरे जाते हैं, ताकि वह पलटे नहीं।
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Garhwal's unique musical instrument Dounar-Thali
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Dinesh Kukreti
After Dhol-Damau, Dounar-Thali is considered to be the principal instrument of Garhwal.  Dounar (damru) is a form of Shiva's damru.  In Jagran (Ghadiyala) i.e. devotionals, the Jagari (dounarya or maestro) plays the drum with lacquer (sote) and hands like a drum.  Whereas, Daundya's colleague (who is of bronze) hits the plate on the thumb of the left hand with the right hand to hit Lakud.  A wonderful sound is produced by the recitation of the plate, due to which the deities and ancestors are incarnated on their bodies (special women or men).  The important thing is that the horn never rings alone, but it is mandatory to have a bronze plate to be compatible with it.


It rings between two knees
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In leather instruments, the only instrument which is not hung from the shoulder like a drum is the instrument.  Similar to Damru, this instrument is stabilized between the two knees in such a way that the upper forearm can be played with the right hand and the lower puri under the knee with the left hand.  The pressure of the knees and the jab of the Yashtika is quoted from the door by Guru, a serious sound, which is utterly rougher and waxy.  The special thing is that only the priests perform the double-plate playing.

Mention of 22 to 84 rhythm in the Dounar
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This flat-shaped, flat-shaped drum is made from sandal or Khmer wood.  On both its ends, goat, grunt or Kakad skins are worn.  In Kumaon, the prevalence of horn is low, but in Garhwal, it is a prominent instrument in folk life.  Doors are used to awaken (invoke) the local deities.  Knowledgeable folk folk refer to 22 types of locks in the Dounar.  Whereas, some folk players have mentioned playing 36 and 84 rhythms in the Dounar.

Brass plate
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Folk singers call Kansa Thali in the local language under the name 'Kansasuri Thal'.  As an auxiliary instrument, it is used only in the conscious.  It is played with thin wooden pieces of pian on the rhythm of the drum.  Apart from the Jagar (invocation song) of the Gods and Goddesses, it has been seen as not being used as an instrument on other occasions.  So far only men have been playing it.


The plate is played in a different style
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The method of playing the bronze plate in the Garhwal region is different.  For this, more than half the water is filled in a pot shaped copper towel.  The towels are placed on the ground on top of round rings of coarse cloth.  So that it does not fall while moving or while playing the plate.  The bronze plate is placed vomit on the mouth of the towel and then holding it with the left hand, it strikes the towel.  In order to give fullness to this rhythm, with the right hand on the back of the plate, we hit it with a thin string of wood.  This process produces a hypnotic rhythm.

The plate rings even after placing it on the path
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In many areas, a bronze plate is placed over a patha (an old grain wooden weighing vessel) rather than a copper vessel.  Rice is filled in the path so that it does not turn.

Tuesday 21 July 2020

अनुपम वास्तु शिल्प : पैठाणी का राहु मंदिर

अनुपम वास्तु शिल्प : पैठाणी का राहु मंदिर
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दिनेश कुकरेती
यह सनातनी संस्कृति की खूबसूरती ही है कि उसमें जिस आदर भाव के साथ देवताओं की पूजा होती है, उसी भाव से असुरों की भी। चलिए! आपको उत्तराखंड के एक ऐसे ही अद्भुत मंदिर के दर्शन कराते हैं, जहां छाया ग्रह माने जाने वाले राहु की पूजा होती है। पौड़ी जिले में थलीसैण ब्लॉक की कंडारस्यूं पट्टी के पैठाणी गांव में स्योलीगाड (रथ वाहिनी) व नावालिका (पश्चिमी नयार) नदी के संगम पर स्थित यह मंदिर संपूर्ण गढ़वाल में अपने अनुपम वास्तु शिल्प के लिए जाना जाता है। गढ़वाल के प्रवेश द्वार कोटद्वार से लगभग 150 किमी और जिला मुख्यालय पौड़ी से महज 46 किमी की दूरी पर स्थित यह संभवत: देश का इकलौता मंदिर है, जहां राहु की पूजा होती है और वह भी भगवान शिव के साथ। जनश्रुतियों के अनुसार आद्य शंकराचार्य ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। कहते हैं कि जब शंकराचार्य दक्षिण से हिमालय की यात्रा पर आए तो उन्हें इस क्षेत्र में राहु के प्रभाव का आभास हुआ। इसके बाद उन्होंने पैठाणी में राहु मंदिर का निर्माण शुरू किया। कुछ लोग इसे पांडवों द्वारा निर्मित भी मानते हैं। पर्वतीय अंचल में स्थित यह मंदिर बेहद भव्य एवं खूबसूरत है, जिसके दीदार को देश-दुनिया से पर्यटक एवं श्रद्धालु पैठाणी पहुंचते हैं।


इसी स्थान पर गिरा था राहु का सिर
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पुराणों में कथा आती है कि राहू ने समुद्र मंथन से निकले अमृत का छल से पान कर लिया था। यह देख भगवान विष्णु ने सुदर्शन से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। कहते हैं राहु का कटा हुआ सिर उत्तराखंड के पैठाणी नामक गांव में जिस स्थान पर गिरा, वहां एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस मंदिर में भगवान शिव के साथ राहु की धड़विहीन मूर्ति स्थापित है। मंदिर की दीवारों के पत्थरों पर आकर्षक नक्काशी की गई है, जिनमें राहु के कटे हुए सिर व सुदर्शन चक्र उत्कीर्ण हैं। इसी वजह से इसे राहु मंदिर नाम दिया गया।


'राष्ट्रकूटÓ पर्वत से बना राठ, 'पैठीनसिÓ गोत्र से पैठाणी
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 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में उल्लेख है कि राष्ट्रकूट पर्वत की तलहटी में रथ वाहिनी व नावालिका नदी के संगम पर राहु ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, जिस वजह से यहां राहु मंदिर की स्थापना हुई।राष्ट्रकूट पर्वत के नाम पर ही यह राठ क्षेत्र कहलाया। साथ ही राहु के गोत्र 'पैठीनसिÓ के कारण कालांतर में इस गांव का नाम पैठाणी पड़ा।


राहु के साथ शिव मंदिर के रूप में भी मान्यता
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 मंदिर के गर्भगृह में स्थापित प्राचीन शिवलिंग और मंदिर की शुकनासिका पर भगवान शिव के तीनों मुखों का अंकन इसके शिव मंदिर होने की ओर इशारा करते हैं। महाशिवरात्रि और सावन के प्रत्येक सोमवार को महिलाएं यहां बेलपत्र चढ़ाकर भगवान शिव की पूजा करती हैं। सबसे अहम बात यह कि यहां पर राहु से संबंधित किसी भी पुरावशेष की प्राप्ति नहीं हुई। वहीं, केदारखंड के कर्मकांड भाग में वर्णित श्लोक 'ú भूर्भुव: स्व: राठेनापुरादेभव पैठीनसि गोत्र राहो इहागच्छेदनिष्ठÓ के अनुसार कई विद्वान इसके राहु मंदिर होने का प्रबल साक्ष्य मानते हैं। मान्यता है कि राहु ने ही इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना की थी।


महेश्वर महावराह जैसी है त्रिमुखी हरिहर की दुर्लभ प्रतिमा
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मंदिर के शिखर शीर्ष पर विशाल आमलसारिका स्थापित है। अंतराल के शीर्ष पर निर्मित शुकनासिका के अग्रभाग पर त्रिमूर्ति का अंकन और शीर्ष में अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक गज व सिंह की मूर्ति स्थापित की गई है। मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर स्थित मंदिरों का शिखर क्षितिज पट्टियों से सज्जित पीढ़ा शैली में निर्मित है। शिवालय के मंडप में वीणाधर शिव की आकर्षक प्रतिमा के साथ त्रिमुखी हरिहर की एक दुर्लभ प्रतिमा भी स्थापित है। प्रतिमा के मध्य में हरिहर का समन्वित मुख सौम्य है, जबकि दायीं ओर अघोर और बायीं ओर वराह का मुख अंकन किया गया है। इस प्रतिमा की पहचान पुरातत्वविद महेश्वर महावराह की प्रतिमा से करते है। अपने आश्चर्यजनक लक्षणों के कारण यह प्रतिमा गढ़वाल हिमालय ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारत की दुर्लभ प्रतिमाओं में से एक है।




आठवीं-नवीं सदी के बीच का प्रतीत होता है मंदिर
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वास्तु शिल्प एवं प्रतिमाओं की शैली के आधार पर पैठाणी का यह शिव मंदिर और प्रतिमाएं आठवीं-नवीं सदी के बीच के प्रतीत होते हैं। मंदिर की पौराणिकता के साथ आज तक कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। हां! मंदिर की ऊपरी शिखा कुछ झुकी हुई जरूर प्रतीत होती है। मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण में है।


पश्चिमाभिमुखी है यह मंदिर
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पत्थरों से बने एक ऊंचे चबूतरे पर मुख्य मंदिर का निर्माण किया गया है। इसके चारों कोनों पर एक-एक कर्ण प्रासाद बनाए गए हैं। पश्चिम की ओर मुख वाले मुख्य मंदिर की तलछंद योजना में वर्गाकार गर्भगृह के सामने कपिली या अंतराल की ओर मंडप का निर्माण किया गया है। कला पट्टी वेदीबंध के कर्णों पर ही गोल गढ़ी गई है और उत्तर-पूर्वी व दक्षिण कर्णप्रासादों की चंद्रालाओं के मध्य पत्थरों पर नक्काशी की गई है। मंदिर के बाहर व भीतर गणेश, चतुर्भुजी चामुंडा आदि देवी-देवताओं की प्राचीन पाषाण प्रतिमाएं स्थापित हैं।


मूंग की खिचड़ी का लगता है भोग
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ग्रह दोष निवारण में विश्वास रखने वाले लोग बड़ी संख्या में राहु की पूजा के लिए यहां पहुंचते हैं। खास बात यह कि राहु को यहां मूंग की खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। भंडारे में श्रद्धालु भी मूंग की खिचड़ी को ही प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं।