Saturday, 5 September 2020

वीरभद्र में बिखरे कुषाण कालीन पुरावशेष

 

वीरभद्र में बिखरे कुषाण कालीन पुरावशेष

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दिनेश कुकरेती
ऋषिकेश में पशुलोक के समीप गंगा व रंभा नदी के तट पर स्थित प्राचीन श्री वीरभद्रेश्वर मंदिर के पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (एएसआइ) की ओर से उत्खनित पुरास्थल के 11 राष्ट्रीय स्मारकों की सूची में शामिल होने के बाद अब तीर्थनगरी को ऐतिहासिक पहचान भी मिल गई है। पुराणों में श्री वीरभद्रेश्वर महादेव मंदिर के राजा दक्ष प्रजापति के यज्ञ विध्वंस से जुड़े होने का उल्लेख है। इसी मंदिर के निकट वर्ष 1973 से 1975 तक एएसआइ की ओर से पुरातत्वविद् एनसी घोष की देख-रेख में उत्खनन का कार्य किया गया। इस दौरान यहां एक शैव मंदिर, विशाल हवन कुंड और प्राचीन भवनों के अवशेष प्राप्त हुए। 


 

इसके अलावा तीन सांस्कृतिक चरणों, जिनमें पहली सदी से आठवीं सदी के बीच के कुषाण कालीन मृदभांड, ईंट, सिक्के और पशुओं की जली हुई अस्थियों के अवशेष प्राप्त हुए। इन प्राचीन अवशेषों को एएसआइ ने यहां संरक्षित किया था। वर्ष 2000 के आसपास इन अवशेषों को बेहतर ढंग से सुरक्षित कर एएसआइ की ओर से यहां टिन शेड का निर्माण किया गया। अब इस उत्खनन स्थल को केंद्र सरकार ने 11 राष्ट्रीय स्मारकों की सूची में शामिल किया है। इस पहल से यह स्थल पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र तो बनेगा ही, इतिहास के छात्रों व शोधकर्ताओं के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा।



उत्खनन में मिले थे तीन कालखंडों के अवशेष
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-प्रारंभिक चरण में कच्ची ईंटों से निर्मित दीवार के अवशेष प्राप्त हुए। जो कि पहली सदी से तीसरी सदी तक के हैं।
-मध्य चरण में पकी हुई ईटों के टुकड़ों से निर्मित फर्श व शैव मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए। यह चौथी सदी से लेकर पांचवीं सदी तक के हैं।
-अंतिम (परवर्ती) चरण में पकी हुई ईंटों से निर्मित आवासीय संरचनाएं प्रकाश में आईं। यह सातवीं सदी से लेकर आठवीं सदी तक के हैं।



दो हजार साल से अधिक पुराना इतिहास
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वीरभद्र क्षेत्र का इतिहास दो हजार साल से भी अधिक पुराना है। यहां खुदाई में मिली वस्तुओं से पता चलता कि वीरभद्र एक एतिहासिक एवं पौराणिक नगर था। इन पर 'भद्र मित्रस्य द्रोणी घाटेÓ (द्रोणी (दून) की ओर से इस घाट का रक्षक भद्रमित्र था) खुदा हुआ था। वीरभद्रेश्वर मंदिर उत्तर कुषाण कालीन इंटिकाओं से निर्मित था और इसकी भद्रपीठ पर शिवलिंग विराजमान था। पुराणों के अनुसार स्वयं शिव के भैरव वीरभद्र ने इस शिवलिंग की स्थापना की थी। खुदाई वाले स्थान की बुनियाद को देखकर कहा जा सकता है कि यहां कई कक्षों वाला विशाल शिव मंदिर रहा होगा। वर्तमान में यहां मंदिर के अवशेषों के नाम पर केवल बुनियाद ही सुरक्षित है। यज्ञ का चबूतरा, नंदी बैल का स्थान, भगवान शिव और देवी देवताओं की मूर्तियों को पुरातत्व विभाग ने अपने संरक्षण में ले लिया है।


उत्तर गुप्तकाल तक प्रसिद्ध शैवतीर्थ रहा वीरभद्र क्षेत्र
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पहले वीरभद्र क्षेत्र वैसा नहीं था, जैसे आज है। आज यहां सीमा डेंटल कॉलेज है, कई आश्रम हैं, टिहरी विस्थापितों की बस्ती है। गुप्तकाल में यह प्रसिद्ध शैवतीर्थ था और मान्यता इसकी 800 ईस्वी यानी उत्तर गुप्तकाल तक बनी रही। जिस समय चीनी यात्री ह्वेनसांग (युवान-च्वांङ) ह्वेनसांग मायापुरी (मो-यू-लो) का भ्रमण कर रहा था, उस समय यहां भी बौद्ध व ङ्क्षहदू धर्म के अनुयायियों का मठ-मंदिर युक्त एक महानगर था।

शिव ने यहां शांत किया था वीरभद्र का क्रोध
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पौराणिक कथा है कि राजा दक्ष की ओर से कनखल (हरिद्वार) में आयोजित विराट यज्ञ में भगवान शिव को आमंत्रित न किए जाने से नाराज सती ने यज्ञ कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। भगवान शिव को जब इस बात का पता चला तो वह कुपित हो गए और अपना केस तोड़कर वीरभद्र नामक गण की उत्पत्ति की।

वीरभद्र ने राजा दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया। तब भगवान शिव ने ऋषिकेश में गंगा तट पर वीरभद्र के क्रोध को शांत कर उन्हें यहां लिंग रूप में स्थापित किया था। कालांतर में यह लिंग वीरभद्र हादेव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस लिंग के एक हिस्से में (60 प्रतिशत) शिव हैं और दूसरे हिस्से में (40 प्रतिशत) वीरभद्र।

वीरभद्र के पास गंगा में मिलती है रंभा
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तीर्थनगरी में बहने वाली रंभा नदी का 'स्कंद पुराणÓ के केदारखंड में जिक्र आया है। यह नदी काले की ढाल के पास रंभा कुंड (संजय झील) से निकलती है और चार-पांच किमी की दूरी तय कर वीरपुर खुर्द स्थित वीरभद्र महादेव मंदिर के पास गंगा में मिलती है। रम्भा व गंगा नदी के संगम पर प्राचीन दुर्ग था। इसी के अवशेषों के ऊपर वीरभद्रेश्वर मंदिर निर्मित है। मंदिर का संचालन निरंजनी अखाड़ा करता है।




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