Sunday 8 May 2022

हिमालय के रसीले जंगली फल

हिमालय के रसीले जंगली फल
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दिनेश कुकरेती
त्तराखंड के पर्वतीय अंचल को कुदरत ने बेपनाह खूबसूरती प्रदान की है। यहां प्रकृति ही नहीं, सभ्यता में, संस्कृति में, संस्कारों में, रीति-रिवाज एवं परंपराओं में जितनी स्निग्धता है, उतनी ही विविधता भी। यही वजह है कि दूर रहकर कठोर नजर आने वाला पहाड़ करीब जाने पर अंतर्मन को आल्हादित कर देता है। यह वही पहाड़ है, जो अनंतकाल से मानवता को नाना रूपों में सुख-समृद्धि बांटता रहा है और आज भी यह क्रम अनवरत जारी है। पहाड़ की उदारता देखिए कि  अपनी शरण में आए किसी भी जीव को उसने कभी भूखा-प्यासा नहीं सोने दिया। उसने अपने वनों को औषधीय संपन्नता प्रदान की तो उन्हें फूल-फलकर जन से जुडऩे का आशीष भी दिया। तभी तो हिमालय में पाए जाने वाले जंगली फल यहां की लोक संस्कृति में गहरे तक रच-बस गए। ये जंगली फल न केवल स्वाद, बल्कि सेहत की दृष्टि से भी बेहद अहमियत रखते हैं।  बेडू, तिमला, मेलू (मेहल), काफल, अमेस, दाडि़म, करौंदा, बेर, जंगली आंवला, खुबानी, हिंसर, किनगोड़, खैणु, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, गूलर, भमोरा, भिनु समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं। इन जंगली फलों में विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। अच्छी बात यह है कि इन्हीं गुणों की वजह से धीरे-धीरे ये पहाड़ की आर्थिकी से भी जुडऩे लगे हैं। दरअसल, जंगली फलों के साथ इनके पेड़, फूल, पत्ते, छाल व जड़ें विभिन्न औषधियों के निर्माण ही नहीं, रंग, चर्मशोधक आदि बनाने में भी सहायक हैं। बावजूद इसके ज्यादातर फलों की व्यावसायिक उपयोगिता के बारे में स्थानीय लोगों को जानकारी न होने के कारण वह बाजार से नहीं जुड़ पाए। अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो ये जंगली फल पहाड़ में विकास की एक नई परिभाषा गढ़ सकते हैं। आइए! कुछ प्रमुख जंगली फलों की खूबियों से हम भी परिचित हो लें।

खट्ठा-मीठा मनभावन काफल
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आप गर्मियों में उत्तराखंड आए और काफल (मिरिका एस्कुलेंटा) का स्वाद नहीं लिया तो समझिए यात्रा अधूरी रह गई। समुद्रतल से 1300 से 2100 मीटर की ऊंचाई पर मध्य हिमालय के जंगलों में अपने आप उगने वाला काफल एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण हमारे शरीर के लिए बेहद लाभकारी है। इसका छोटा-सा गुठलीयुक्त बेरी जैसा फल गुच्छों में आता है और पकने पर बेहद लाल हो जाता है। तभी इसे खाया जाता है। इसका खट्ठा-मीठा स्वाद मनभावन और उदर-विकारों में अत्यंत लाभकारी होता है। काफल अनेक औषधीय गुणों से भरपूर है। इसकी छाल का उपयोग जहां चर्मशोधन (टैनिंग) में किया जाता है, वहीं इसे भूख और मधुमेह की अचूक दवा भी माना गया है। फलों में एंटी-ऑक्सीडेंट गुण होने के कारण कैंसर व स्ट्रोक के होने की आशंका भी कम हो जाती है।
काफल ज्यादा देर तक नहीं रखा जा सकता। यही वजह है उत्तराखंड के अन्य फल जहां आसानी से दूसरे राज्यों में भेजे जाते हैं, वहीं काफल खाने के लिए लोगों को देवभूमि ही आना पड़ता है। काफल के पेड़ काफी बड़े और ठंडे छायादार स्थानों में होते हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में मजबूत अर्थतंत्र दे सकने की क्षमता रखने वाले काफल को आयुर्वेद में 'कायफलÓ नाम से जाना जाता है। इसकी छाल में मायरीसीटीन, माइरीसीट्रिन व ग्लाइकोसाइड पाया जाता है। इसके फलों में पाए जाने वाले फाइटोकेमिकल पॉलीफेनोल सूजन कम करने सहित जीवाणु एवं विषाणुरोधी प्रभाव के लिए जाने जाते हैं।

विटामिन-सी का खजाना किनगोड़
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किनगोड़ की झाडिय़ां पहाड़ में जंगलों और रास्तों के किनारे बहुतायत में दिख जाती हैं। समुद्रतल से 1200 से 2500 मीटर तक की ऊंचाई पर पाए जाने वाले किनगोड़ का वैज्ञानिक नाम बरबरीस एरिसटाटा है। आयुर्वेद में इसे दारुहल्दी के नाम से जाना जाता है और विभिन्न बीमारियों के निदान में इसका उपयोग होता है। विश्वभर में इसकी 656 और उत्तराखंड में लगभग 22 प्रजातियां पाई जाती हैं। पारंपरिक रूप से किनगोड़ त्वचा रोग, अतिसार, जॉन्डिस, आंखों के संक्रमण, मधुमेह समेत अन्य कई बीमारियों के निदान में लाभकारी पाया जाता है। पोषक तत्वों और मिनरल्स की बात करें तो इसमें प्रोटीन 3.3 प्रतिशत, फाइबर 3.12 प्रतिशत, कॉर्बोहाइडे्रट्स 17.39 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, विटामिन-सी 6.9 मिग्रा प्रति सौ ग्राम व मैग्नीशयम 8.4 मिग्रा प्रति सौ ग्राम पाया जाता है।
आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण में किनगोड़ का इतना महत्व है कि इसके एक ही पेड़ से न जाने कितने तत्व निकाल लिए जाते हैं। इसके फल में विटामिन-सी प्रचुर मात्रा में मिलता है, जो त्वचा और मूत्र संबंधी समस्याओं में अत्यंत लाभकारी है। लेकिन, इनके औषधीय गुणों से परिचित न होने के कारण आज तक किनगोड़ का फल बाजार में जगह नहीं बना पाया। जबकि, स्वाद के मामले में इस फल का कोई जवाब नहीं है। इसलिए बच्चे इसे बड़े चाव से खाते हैं।
हिमालयी रसबेरी का जवाब नहीं
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हिमालयी क्षेत्र में समुद्रतल से 750 से 1800 मीटर तक की ऊंचाई पर बहुतायत में पाया जाने वाला हिंसर (यलो रसबेरी या हिमालयन रसबेरी) बेहद जायकेदार फल है। यह भी जंगलों और पहाड़ी रास्तों पर अपने आप उगता है। हिंसर का वैज्ञानिक नाम रूबस इलिप्टिकस है, जो रोसेसी कुल का पौधा है। हिंसर में अच्छे औषधीय अवयवों के पाए जाने के कारण इसे विभिन्न रोगों के निवारण में परंपरागत औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है। प्राचीन समय से लेकर वर्तमान तक हिंसर के संपूर्ण वैज्ञानिक विश्लेषण और परीक्षण के उपरांत ही इसे एंटी ऑक्सीडेंट, एंटी ट्यूमर और घाव भरने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। अच्छी फार्माकोलॉजी एक्टिविटी के साथ-साथ हिंसर में पोषक तत्व, जैसे कॉर्बोहाइड्र्रेट, सोडियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, पोटेशियम, आयरन, जिंक और एसकारविक एसिड प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। इसमें विटामिन सी 32 प्रतिशत, मैगनीज 32 प्रतिशत, फाइबर 26 प्रतिशत और शुगर की मात्रा चार प्रतिशत तक आंकी गई है। इसके अलावा हिंसर का उपयोग जैम, जेली, विनेगर, वाइन, चटनी आदि बनाने में भी किया जा रहा है। यह मैलिक एसिड, सिटरिक एसिड, टाइट्रिक एसिड का भी अच्छा स्रोत है। यही वजह है कि धीरे-धीरे इसके फलों से बाजार भी परिचित होने लगा है।
तिमले का लाजवाब जायका
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मध्य हिमालय में समुद्रतल से 800 से 2000 मीटर की ऊंचाई तक पाया जाने वाला तिमला, एक ऐसा फल है, जिसे स्थानीय लोग, पर्यटक व चरवाहा बड़े चाव से खाते हैं। तिमला, जो पौष्टिक एवं औषधीय गुणों का भंडार है। मोरेसी कुल के इस पौधे का वैज्ञानिक नाम फिकस ऑरिकुलेटा है। तिमले का न तो उत्पादन किया जाता है और न खेती ही। यह एग्रो फॉरेस्ट्री के अंतर्गत स्वयं ही खेतों की मेंड पर उग जाता है। तिमला न केवल पौष्टिक एवं औषधीय महत्व का फल है, बल्कि पर्वतीय क्षेत्रों की पारिस्थितिकी में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है। पारंपरिक रूप में तिमले को कई शारीरिक विकारों, जैसे अतिसार, घाव भरने, हैजा व पीलिया जैसी गंभीर बीमारियों की रोकथाम में प्रयोग किया जाता है।

कई अध्ययनों के अनुसार तिमला का फल खाने से कई सारी बीमारियों के निवारण के साथ-साथ आवश्यक पोषक तत्वों की भी पूर्ति भी हो जाती है। इंटरनेशनल जर्नल फार्मास्युटिकल साइंस रिव्यू रिसर्च के अनुसार तिमला व्यावसायिक रूप से उत्पादित सेब और आम से भी बेहतर गुणवत्ता वाला फल है। पका हुआ फल ग्लूकोज, फ्रुक्टोज व सुक्रोज का भी बेहतर स्रोत माना गया है, जिसमें वसा व कोलस्ट्रोल नहीं होता। इसमें अन्य फलों की अपेक्षा काफी मात्रा में फाइबर और फल के वजन के अनुपात में 50 प्रतिशत तक ग्लूकोज पाया जाता है। वर्तमान में तिमले का उपयोग सब्जी, जैम, जैली और फॉर्मास्युटिकल, न्यूट्रास्युटिकल व बेकरी उद्योग में बहुतायत हो रहा है।

बारामासी फल रसीला बेडु
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प्रसिद्ध उत्तराखंडी लोकगीत 'बेडु पाको बारामासाÓ सुनते ही जीभ में बेडु(वाइल्ड फिग) के मीठे रसीले फलों का स्वाद घुल जाता है। बारामासा यानी बारह महीनों पाया जाने वाला। यह स्वादिष्ट जंगली फल उत्तरी-पश्चिमी हिमालय में निम्न से मध्यम ऊंचाई तक पाया जाता है। कई राज्यों में इसे सब्जी व औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। वैसे तो बेडु का संपूर्ण पौधा ही उपयोगी है, लेकिन इसकी छाल, जड़, पत्तियां, फल व चोप औषधीय गुणों से भरपूर हैं। पारंपरिक रूप से इसे उदर रोग, हाइपोग्लेसीमिया, टयूमर, अल्सर, मधुमेह व फंगस संक्रमण के निवारण के लिए प्रयोग किया जाता रहा है।
आयुर्वेद में बेडु के फल का गूदा कब्ज, फेफड़ों के विकार व मूत्राशय रोग विकार के निवारण में प्रयुक्त किया जाता है। जहां तक बेडु के फल की पौष्टिक गुणवत्ता का सवाल है तो इसमें प्रोटीन 4.06 प्रतिशत, फाइबर 17.65 प्रतिशत, वसा 4.71 प्रतिशत, कॉर्बोहाइड्रेट 20.78 प्रतिशत, सोडियम 0.75 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, कैल्शियम 105.4 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, पोटेशियम 1.58 मिग्रा प्रति सौ ग्राम, फॉस्फोरस 1.88 मिग्रा प्रति सौ ग्राम और सर्वाधिक ऑर्गेनिक मैटर 95.90 प्रतिशत तक पाए जाते हैं। बेडु के पके हुए फल में 45.2 प्रतिशत जूस, 80.5 प्रतिशत नमी, 12.1 प्रतिशत घुलनशील तत्व व लगभग छह प्रतिशत शुगर पाया जाता है।
घिंघारू में हैं अनेक गुण
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आड़ू और बेडू के साथ पहाड़ में घिंघारू (टीगस नूलाटा) की झाडिय़ां भी छोटे-छोटे लाल रंग के फलों से लकदक हो जाती हैं। मध्य हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में समुद्रतल से 3000 से 6500 फीट की ऊंचाई पर उगने वाला घिंघारू रोजैसी कुल का बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधा है। बच्चे इसके फलों को बड़े चाव से खाते हैं और अब तो रक्तवद्र्धक औषधि के रूप में इसका जूस भी तैयार किया जाने लगा है। विदेशों में इसकी पत्तियों को हर्बल चाय बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। पर्वतीय क्षेत्र के जंगलों में पाया जाने वाला उपेक्षित घिंघारू हृदय को स्वस्थ रखने में सक्षम है। उसके इस गुण की खोज रक्षा जैव ऊर्जा अनुसंधान संस्थान पिथौरागढ़ ने की है।
संस्थान ने इसके फूल के रस से हृदयामृत तैयार किया है। घिंघारू के फलों में उक्त रक्तचाप और हाइपरटेंशन जैसी बीमारी को दूर करने की क्षमता है। जबकि, इसकी पत्तियों से निर्मित पदार्थ त्वचा को जलने से बचाता है। इसे एंटी सनवर्न कहा जाता है। साथ ही पत्तियां कई एंटी ऑक्सीडेंट सौंदर्य प्रसाधन और कॉस्मेटिक्स बनाने के उपयोग में भी लाई जाती है। घिंघारू की छाल का काढ़ा स्त्री रोगों के निवारण में लाभदायी होता है। छोटी झाड़ी होने के बावजूद घिंघारू की लकड़ी की लाठियां व हॉकी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती हैं।
हिमालयन स्ट्राबेरी है भमोरा
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हिमालय क्षेत्रों में समुद्रतल से एक हजार से 3000 मीटर तक की ऊंचाई पर या जाने वाला एक महत्वपूर्ण फल है भमोरा। कॉरनेसेई कुल के इस पौधे का वैज्ञानिक नाम कॉर्नस कैपिटाटा है। वैसे तो भमोरे का फल विरले ही खाने को मिलता है, परंतु चरावाहे आज भी जंगलों में इसे बड़े चाव से खाते हैं। सितंबर से नवंबर के मध्य पकने के बाद भमोरे का फल स्ट्रॉबेरी की तरह लाल हो जाता है, इसलिए इसे हिमालयन स्ट्राबेरी भी कहते हैं। पौष्टिक और औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ यह बेहद स्वादिष्ट भी होता है।
वर्ष 2015 में अंतरराष्ट्रीय जनरल ऑफ फार्मटेक रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भमोरा में मधुनाशी गुण भी पाए जाते हैं। इसके फल में एक महत्वपूर्ण अवयव एन्थोसाइनिन अन्य फलों की तुलना में दस से 15 गुणा ज्यादा पाया जाता है। कई वैज्ञानिक अध्ययनों में यह भी बताया गया कि भमोरा में मौजूद टेनिन को कुनैन के विकल्प के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। भमोरे के फल में पौष्टिक गुणवत्ता की बात करें तो इसमें प्रोटीन 2.58 प्रतिशत, फाइबर 10.43 प्रतिशत, वसा 2.50 प्रतिशत, पोटेशियम 0.46 मिग्रा और फॉस्फोरस 0.07 मिग्रा प्रति सौ ग्राम तक पाया जाता है।