Saturday 23 September 2017

आत्मिक सुख बिना आजादी कैसी

आत्मिक सुख बिना आजादी कैसी
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दिनेश कुकरेती
एक कहानी है कि किसी राजा ने बोलते तोते को सोने के पिंजरे में बंद कर दिया। वह उसे खाने को अच्छे-अच्छे व्यंजन देता, लेकिन कुछ दिन बाद तोता मर गया। मंत्री ने राजा  को तोते की मृत्यु का कारण उसकी आजादी छीन लेना बताया। राजा को अपने किए पर पछतावा हुआ और उसका हृदय परिवर्तन हो गया। अब वह रोजाना सुबह-सुबह जंगल में जाता, पक्षियों को दाना-पानी देता और उनको चहचहाते हुए सुनता। पहले पक्षी उससे दूर रहते थे, लेकिन धीरे-धीरे वह राजा के समीप बैठने लगे और कुछ दिन बाद तो पक्षी कभी राजा के सिर पर बैठ जाते तो कभी कंधे और भुजाओं पर। राजा को अब लगने लगा कि यही है आत्मिक सुख और किसी के साथ रहकर उनके विचारों को जानने एवं समझने का सही तरीका। सच कहें तो यह आत्मिक सुख ही असली आजादी है।
इतिहास के पन्ने पलटें तो आजादी मिलने से पहले आजादी के यही मायने हुआ करते थे, लेकिन अब स्थितियां बदल गई हैं। प्रसिद्ध कथाकार जितेन ठाकुर कहते हैं कि आज गरीब आदमी के लिए आजादी का अर्थ गरीबी से आजादी है, तो अशिक्षित व्यक्ति के लिए अशिक्षा से आजादी। कहने का मतलब हर वर्ग और व्यक्ति के लिए आजादी के अलग-अलग मायने हैं। लेकिन, वर्तमान में जिस आजादी की सबको सबसे ज्यादा जरूरत है, वह है बेकारी, महंगाई व भ्रष्टाचार से आजादी। असल में जिस अर्थ एवं भाव के साथ हमने आजादी की लड़ाई लड़ी और हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने हमें जो 'अर्थÓ दिया, हम कहीं-न-कहीं उससे भटक गए हैं। कुव्यवस्था की विडंबना ने उसे विद्रूप बना दिया है।
कथाकार मुकेश नौटियाल कहते हैं, एक दौर वह भी था, जब वीर योद्धाओं में दीवानों की तरह मंजिल पा लेने का हौसला तो था, लेकिन बर्बादियों का खौफ न था। दीवानों की तरह आजादी के ये परवाने भी मंजिलों की ओर बढ़ते चले गए। बड़े से बड़े जुल्म-औ-सितम भी उनके कदमों को न रोक सके। अपने हौसलों से हर मुश्किल का सीना चीरते हुए वे आजादी की मंजिल की तरफ बढ़ते ही चले गये। हम आजाद हुए तो कितना कुछ बदल गया। लेकिन, क्या ही अच्छा होता कि हमारी समाज को गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अज्ञानता और अंधविश्वास की गुलामी से आजाद करने वाली भी सोच होती।  अली सरदार जाफरी लिखते हैं, 'कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी, खंजर आजाद है सीनों में उतरने के लिए, मौत आजाद है लाशों पे गुजरने के लिए।Ó
वर्तमान का परिदृश्य ऐसा ही तो है। जरा इन आंकड़ों पर गौर फरमाएं, 15 अगस्त 1947 को भारत न सिर्फ विदेशी कर्जों से मुक्त था, बल्कि इसके उलट ब्रिटेन पर उसका 16.62 करोड़ रुपये का कर्ज था। लेकिन, आज देश पर 50 अरब रुपये से भी ज्यादा का विदेशी कर्ज है। आजादी के समय जहां एक रुपये के बराबर एक डॉलर होता था, वहीं आज एक डॉलर की कीमत 61 रुपये तक पहुंच गई है। महंगाई पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है और जल्द ही इस स्थित में सुधार को प्रयास नहीं हुए तो हम मानसिक गुलामी के साथ आर्थिक गुलामी के चंगुल में भी फंस जाएंगे। साहित्यकार सुनील भट्ट कहते हैं कि हम अंग्रेजों के बंधनों से तो आजाद हो गए, लेकिन कुसंस्कारों के बन्धन से कब आजाद होंगे। हमारी आजादी का अर्थ केवल अंग्रेजी चंगुल से छुटकारा पाने का नाम नहीं था। सही मायने में आजादी तो उस पूर्ण स्वतंत्रता का नाम है, जब लोग परस्पर घुल-मिलकर रहें। तभी हम दिमागी गुलामी से भी आजाद हो पाएंगे।

कौन आजाद हुआ, किसके माथे से...
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साहित्यकार डॉ. कुटज भारती कहते हैं कि हम अंगे्रजों के गुलाम भले ही न हों, लेकिन आज भी आम आदमी को भूख से आजादी है न बीमारी से ही। शिक्षा के अभाव में आबादी का बड़ा हिस्सा अंधेरे का गुलाम बना हुआ है। हम न तो कन्या भ्रूण हत्या रोक पाए हैं, न बाल विवाह और दहेज को लेकर महिलाओं का उत्पीडऩ ही। इससे पूरा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। जहां तक दलितों और आदिवासियों के शोषण और तिरस्कार का सवाल है, इसके लिए दिखाने को कानून तो बहुत से हैं, पर हकीकत में ये तबके आजादी से कोसों दूर हैं।
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