पर्यावरण और जीवन एक-दूसरे के पूरक
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दिनेश कुकरेती
प्रत्येक
प्राणी अपने चारों ओर के वातावरण (बाह्य जगत) पर आश्रित रहता है, सामान्य
भाषा में यही पर्यावरण हुआ। पर्यावरण दो शब्दों 'परिÓ (चारों ओर) व 'आवरणÓ
(ढका हुआ) से मिलकर बना है। यानी किसी भी वस्तु या प्राणी को जो भी वस्तु
चारों ओर से ढके हुए है, वही उसका पर्यावरण है। सभी जीवित प्राणी अपने
पर्यावरण से निरंतर प्रभावित होते हैं और स्वयं भी उसे प्रभावित करते हैं।
संपूर्ण जैवमंडल को सुरक्षा कवच प्रदान करने वाले दो तत्व हैं। एक
प्राकृतिक (वायु, जल, वर्षा, भूमि, नदी, पर्वत आदि) और दूसरा मानवीय
(अप्राप्त की प्राप्ति में प्रकृति से प्राप्त संरक्षण)। इनमें किसी भी
प्रकार के असंतुलन का परिणाम विध्वंसकारी साबित हो सकता है। बीते वर्षों के
दौरान तरह-तरह की आपदाओं के रूप में हम इसकी झलक भी देख चुके हैं।
देखा
जाए तो पर्यावरण और जीवन का संबंध सनातन है। वेद, पुराण, उपनिषद व अन्य
पौराणिक ग्रंथों में समस्त जीव एवं वनस्पति जगत और मानव जीवन के परस्पर
सामंजस्य को पर्यावरण के रूप में परिभाषित किया गया है। कहा गया है कि
पर्यावरण के संरक्षण के लिए प्रकृति और मानव प्रकृति में उचित सामंजस्य का
होना जरूरी है।
'वृहदारण्यकÓ उपनिषद में कहा गया है, 'ओउम पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।Ó इसका स्पष्ट भाव है कि हम प्रकृति से उतना ही ग्रहण करें, जितना हमारे लिए आवश्यक हो और इससे प्रकृति की पूर्णता को क्षति भी न पहुंचे। परिवारों की बुजुर्ग महिलाएं आज भी इसी भाव से तुलसी की पत्तियां तोड़ती हैं।
'अथर्ववेदÓ में भी एक ऐसी ही प्रार्थना की गई है, 'यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु, मां ते मर्म विमृग्वरी या ते हृदयमर्पितम।Ó यानी 'हे भूमि माता! मैं जो तुम्हें हानि पहुंचाता हूं, शीघ्र उसकी क्षतिपूर्ति हो जाए। तुम्हें अत्याधिक गहराई तक खोदने (स्वर्ण-कोयला आदि) में हम सावधानी रखें। व्यर्थ खोदकर उसकी शक्ति को नष्ट न करें।Ó 'ईशावास्योपनिषदÓ के अनुसार इसका तात्पर्य यही हुआ कि 'हमें प्रकृति का उतना ही दोहन करना चाहिए, जितना कि जीवन के लिए जरूरी है और उससे प्रकृति का वास्तविक स्वरूप भी बरकरार रहे।Ó सही मायने में भारतीयता का अर्थ भी यही है, जो अपने आगोश में हरी-भरी वसुंधरा एवं उसमें लहलहाते फूल, गरजते बादल, नाचते मोर और कल-कल बहती नदियों को समेटे हुए है। भारतीय परंपरा में पृथ्वी को माता ही नहीं, वृक्ष एवं लताओं को भी देव-तुल्य माना गया है।
वेदों में पर्यावरण को जल, वायु, ध्वनि, वर्षा, खाद्य, मिट्टी, वनस्पति, वनसंपदा, पशु-पक्षी आदि रूपों में परिभाषित किया गया है। हम जानते हैं कि जीवित प्राणी के लिए वायु अत्यंत आवश्यक है। इसलिए ऋग्वेद (मंडल 10, सूक्त 186) में वायु के गुण बताते हुए कहा गया है, 'वात आ वातु भेषजं शंभु मयोभु न: हृदे, प्रण आयूंषि तारिषतÓ। (शुद्ध एवं ताजी वायु अमूल्य औषधि है, जो हमारे हृदय के लिए दवा के समान उपयोगी और आनंददायी है। वायु हमारी आयु को बढ़ाती है।) इसी तरह 'अथर्ववेदÓ में कहा गया है, 'पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं। मेघ वर्षा के रूप में पानी बहाकर पृथ्वी में गर्भाधान करते हैं और पृथ्वी भोजन एवं स्वास्थ्य देने वाली सभी वनस्पतियों को उत्पन्न करती है।Ó
आंतरिक और बाह्य : पर्यावरण के दो रूप
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वेद
दो प्रकार के पर्यावरण को शुद्ध रखने पर बल देते हैं, 'आंतरिकÓ और
'बाह्यÓ। सभी स्थूल वस्तुएं बाह्य और शरीर के अंदर व्याप्त सूक्ष्म तत्व
(मन एवं आत्मा) आंतरिक पर्यावरण का हिस्सा है। बाह्य पर्यावरण में घटित
होने वाली सभी घटनाएं मन में घटित होने वाले विचारों का ही प्रतिफल हैं।
'श्रीमद् भागवत गीताÓ में मन को अत्याधिक चंचल कहा गया है। यथा, 'चंचलं हि
मन: कृष्णं प्रमाथि बलवद्दृढम।Ó देखा जाए तो बाह्य एवं आंतरिक पर्यावरण
एक-दूसरे के अनुपाती हैं। आंतरिक पर्यावरण विशेषकर मन जितना अधिक शुद्ध
होगा, बाह्य पर्यावरण भी उतना ही अधिक शुद्ध होता चला जायेगा। यानी बाह्य
पर्यावरण की शुद्धि के लिए मन की शुद्धि प्रथम सोपान है।
प्रकृति का हर घटक पूजनीय
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वेदों में प्रकृति के प्रत्येक घटक को दिव्य स्वरूप प्रदान किया गया है। वह सभी हमारे लिए पूजनीय हैं और हम सभी का दायित्व है कि मन, वचन, कर्म से उनका संरक्षण करें। ताकि प्रकृति का संतुलन न डगमगाए। लेकिन, आज हम बाह्य चकाचौंध के वशीभूत होकर इन समस्त मान्यताओं को भुला बैठे हैं। 'ऐतेरेयोपनिषदÓ में कहा गया है, 'इमानि पंचमहाभूतानि पृथिवीं, वायु:, आकाश:, आपज्योतिषि।Ó यानी ब्रह्मांड का निर्माण पांच तत्वों पृथ्वी, वायु, आकाश, जल व अग्नि से मिलकर हुआ है। इन तत्वों में किसी भी प्रकार का असंतुलन सुनामी, ग्लोबल वार्मिंग, भूस्खलन, भूकंप जैसी दैवीय आपदाओं को जन्म देता है।
एक पेड़ दस पुत्रों के समान
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'पद्म
पुराणÓ में एक पेड़ को दस पुत्रों के समान (दशपुत्रसमो द्रुम:) माना गया
है। इसके मायने यही हुए कि हमें अपने पुत्र या पुत्री के समान ही वृक्षों
की देखभाल करनी चाहिए। वनों को विनाश से बचाने के लिए 'ऋग्वेदÓ का भी
निर्देश है कि, 'वनानि न: प्रजहितानिÓ। इसी तरह शतपथ ब्राह्मण में जल को
अमृत (अमृत वा आप:) की संज्ञा दी गई है। जबकि, 'अथर्ववेदÓ का पृथ्वीसूक्त
'शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तुÓ कहते हुए जल तत्व की शुद्धता को स्वस्थ जीवन
के लिए नितांत आवश्यक मानता है। 'पद्म पुराणÓ जल प्रदूषण की कड़ी भर्त्सना
करते हुए कहता है, 'सुकूपानां तड़ागानां प्रपानां च परंतप, सरसां चैव
भैत्तारो नरा निरयगामिन:।Ó (वह व्यक्ति जो तालाब, कुआं अथवा झील के जल को
प्रदूषित करता है, वह नरकगामी होता है।) कहने का तात्पर्य पृथ्वी एवं
अंतरिक्ष के कण-कण की पूजा जहां परमात्मा की सर्वव्यापकता के दृष्टांत को
प्रतिपादित करती है, वहीं स्वस्थ पर्यावरण की कल्पना को भी मूर्त रूप देती
है।
जो हमारे चारों ओर, वही पर्यावरण
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आज
जिसे पारिस्थितिकीय तंत्र कहते हैं, उसमें भी रचना एवं कार्य की दृष्टि से
विभिन्न जीवों और वातावरण की मिली-जुली इकाई का ही स्वरूप-विश्लेषण किया
जाता है। गिलबर्ट के अनुसार, 'पर्यावरण वह सब-कुछ है, जो किसी वस्तु को
चारों ओर से घेरे हुए है और उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।Ó ईजे रास के
शब्दों में, 'पर्यावरण कोई बाह्य शक्ति है, जो हमको प्रभावित करती है।
पर्यावरण और जीवन का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। पर्यावरण के बिना जीवन
संभव नहीं और जीवन के बिना पर्यावरण।Ó
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