रहस्य का रूपकुंड
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दिनेश कुकरेती
चमोली जिले के सीमांत देवाल विकासखंड में समुद्रतल से 16499 फीट की ऊंचाई पर स्थित प्रसिद्ध नंदादेवी राजजात मार्ग पर नंदाघुंघटी और त्रिशूली जैसे विशाल हिम शिखरों की छांव में स्थित है मनोरम रूपकुंड झील। त्रिशूली शिखर (24 हजार फीट) की गोद में ज्यूंरागली दर्रे के नीचे 12 मीटर लंबी, दस मीटर चौड़ी और दो मीटर से अधिक गहरी हरे-नीले रंग की अंडाकार आकृति वाली यह झील साल में करीब छह माह बर्फ से ढकी रहती है। इसी झील से रूपगंगा की धारा भी फूटती है। झील की सबसे बड़ी खासियत है इसके चारों ओर पाए जाने वाले रहस्यमय प्राचीन नरकंकाल, अस्थियां, विभिन्न उपकरण, कपड़े, गहने, बर्तन, चप्पल आदि। इसलिए इसे रहस्यमयी झील का नाम दिया गया है।
कोई कहता है कि ये कंकाल किसी राजा की सेना के जवानों के हैं, तो कोई इनके तार सिकंदर के दौर से जोड़ता है। लेकिन, सच अभी भी भविष्य के आगोश में है। वैज्ञानिकों के नए शोध में बताया गया है कि ये नरकंकाल सिकंदर के जमाने से 250 साल पुराने हैं। क्योंकि, सिकंदर से पूर्व भी ग्रीक देशों के लोग भी यहां आए थे। इस शोध के लिए नरकंकालों के सौ सैंपल की ऑटोसोमल डीएनए, माइटोकॉन्ड्रियल और वाई क्रोमोसोम्स डीएनए जांच कराई गई। जिसमें पता चला कि ये ग्रीक लोगों के कंकाल हैं। साथ ही कुछ कंकाल स्थानीय लोगों के भी हैं। इस नतीजे तक पहुंचने के लिए शोध टीम ने आसपास के इलाकों के करीब 800 लोगों की भी डीएनए जांच की। इसी सेइन नरकंकालों के ग्रीक और स्थानीय लोगों के होने की पुष्टि हुईं। हालांकि, इससे पूर्व वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला था कि नरकंकाल सिकंदर की सेना की टुकड़ी के हो सकते हैं।
रहस्य से खुल रहे कई रहस्य
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बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों के अनुसार सैंपल की डीएनए जांच से ग्रीक डीएनए का मिलान हो रहा है। लेकिन, इसमें अभी और शोध की जरूरत है। इसके अलावा एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया जल्द ही एक प्रोजक्ट शुरू करने जा रहा है। देखना है कि आगे इन नरकंकालों को लेकर और क्या-क्या बातें सामने आती हैं।
पौराणिक मान्यता
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चमोली जिले में हर 12वें साल नौटी गांव से नंदा देवी राजजात का आयोजन होता है। इस यात्रा से संबंधित कथा के अनुसार अनुपम सुंदरी हिमालय (हिमवंत) पुत्री देवी नंदा (पार्वती) जब शिव के साथ रोती-बिलखती कैलास जा रही थीं, तब मार्ग में एक स्थान पर उन्हें प्यास लगी। नंदा के सूखे होंठ देख शिवजी ने चारों ओर नजरें दौड़ाईं, लेकिन कहीं भी पानी नहीं था। सो, उन्होंने अपना त्रिशूल धरती पर मारा, जिससे वहां पानी का फव्वारा फूट पड़ा। नंदा जब प्यास बुझा रही थीं, तब उन्हें पानी में एक रूपवती स्त्री का प्रतिबिंब नजर आया, जो शिव के साथ एकाकार था। नंदा को चौंकते देख शिव उनके अंतर्मन के द्वंद्व को समझ गए और बोले, यह तुम्हारा ही रूप है। तब से ही यह कुंड रूपकुंड, शिव अद्र्धनारीश्वर और यहां के पर्वत त्रिशूल व नंदाघुंघटी कहलाए। जबकि, यहां से निकलने वाली जलधारा का नाम नंदाकिनी पड़ा।
शोध कार्य में जुटे हैं देश-दुनिया के वैज्ञानिक
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रूपकुंड में नरकंकाल की खोज सबसे पहले वर्ष 1942 में नंदा देवी रिजर्व के गेम रेंजर हरिकृष्ण मधवाल ने की थी। मधवाल दुर्लभ पुष्पों की खोज में यहां आए थे। इसी दौरान अनजाने में वह झील के भीतर किसी चीज से टकरा गए। देखा तो वह एक कंकाल था। झील के आसपास और तलहटी में भी नरकंकालों का ढेर मिला। यह देख रेंजर मधवाल के साथियों को लगा मानो वे किसी दूसरे ही लोक में आ गए हैं। उनके साथ चल रहे मजदूर तो इस दृश्य को देखते ही भाग खड़े हुए।
इसके बाद शुरू हुआ वैज्ञानिक अध्ययन का दौर। 1950 में कुछ अमेरिकी वैज्ञानिक नरकंकाल अपने साथ ले गए। अब तक कई जिज्ञासु-अन्वेषक दल भी इस रहस्यमय क्षेत्र की ऐतिहासिक यात्रा कर चुके हैं। भूगर्भ वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों के एक दल ने भी यहां पहुंचकर अन्वेषण व परीक्षण किया। उत्तर प्रदेश वन विभाग के एक अधिकारी ने सितंबर 1955 में रूपकुंड क्षेत्र का भ्रमण किया और कुछ नरकंकाल, अस्थियां, चप्पल आदि वस्तुएं एकत्रित कर उन्हें परीक्षण के लिए प्रसिद्ध मानव शास्त्री एवं लखनऊ विश्वविद्यालय केमानव शास्त्र विभाग के डायरेक्टर जनरल डॉ. डीएन मजूमदार को सौंप दिया। बाद में डॉ. मजूमदार स्वयं भी यहां से अस्थियां आदि सामग्री एकत्रित कर अपने साथ ले गए।
उन्होंने इस सामग्री को 400 साल से कहीं अधिक पुरानी माना और बताया कि ये अस्थि अवशेष किसी तीर्थ यात्री दल के हैं। डॉ. मजूमदार ने 1957 में यहां मिले मानव हड्डियों के नमूने अमेरिकी मानव शरीर विशेषज्ञ डॉ. गिफन को भेजे। जिन्होंने रेडियो कॉर्बन विधि से परीक्षण कर इन अस्थियों को 400 से 600 साल पुरानी बताया। ब्रिटिश व अमेरिका के वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि अवशेषों में तिब्बती लोगों के ऊन से बने बूट, लकड़ी के बर्तनों के टुकड़े, घोड़े की साबूत रालों पर सूखा चमड़ा, रिंगाल की टूटी छंतोलियां और चटाइयों के टुकड़े शामिल हैं। याक के अवशेष भी यहां मिले, जिनकी पीठ पर तिब्बती सामान लादकर यात्रा करते हैं।
अवशेषों में खास वस्तु बड़े-बड़े दानों की हमेल है, जिसे लामा स्त्रियां पहनती थीं। वर्ष 2004 में भारतीय और यूरोपीय वैज्ञानिकों के एक दल ने भी संयुक्त रूप से झील का रहस्य खोलने का प्रयास किया। इसी साल नेशनल ज्योग्राफिक के शोधार्थी भी 30 से ज्यादा नरकंकालों के नमूने इंग्लैंड ले गए। बावजूद इसके रहस्य अब भी बरकरार है।
स्वामी प्रणवानंद ने जोड़े कन्नौज से तार
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रूपकुंड के वैज्ञानिक पहलू को प्रकाश में लाने का श्रेय हिमालय अभियान के विशेषज्ञ एवं अन्वेषक साधक स्वामी प्रणवानंद को जाता है। प्रणवानंद ने वर्ष 1956 में लगभग ढाई माह और वर्ष 1957 व 58 में दो-दो माह रूपकुंड में शिविर लगाकर नरकंकाल, अस्थि, बालों की चुटिया, चमड़े के चप्पल व बटुआ, चूडिय़ां, लकड़ी व मिट्टी के बर्तन, शंख के टुकड़े, आभूषणों के दाने आदि वस्तुएं एकत्रित कीं।
इन्हें वैज्ञानिक परीक्षण के लिए बाहर भेजा गया और वर्ष 1957 से 1961 तक इन पर शोध परीक्षण होते रहे। शोध के आधार पर ये नरकंकाल, अस्थियां आदि 650 से 750 वर्ष पुराने बताए गए। प्रणवानंद ने अपने अध्ययन के निष्कर्ष में रूपकुंड से प्राप्त अस्थियां आदि वस्तुओं को कन्नौज के राजा यशोधवल के यात्रा दल का माना है। जिसमें राजपरिवार के सदस्यों के अलावा अनेक दास-दासियां, कर्मचारी, कारोबारी आदि शामिल थे।
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Mysterious Roopkund
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Dinesh Kukreti
The picturesque Roopkund Lake is situated in the ridge of huge ice peaks like Nandaghunghati and Trishuli on the famous Nandadevi Rajajat Marg, situated at an altitude of 16499 feet above sea level in the marginal Dewal development block of Chamoli district. The lake is 12 meters long, ten meters wide and more than two meters deep green-blue oval in the lap of Trishuli peak (24 thousand feet), covered with snow for about six months in a year. The stream of Roopganga also erupts from this lake. The biggest feature of the lake is the mysterious ancient hell, bones, various tools, clothes, jewelry, utensils, slippers etc. found around it. Hence it has been named as the mysterious lake.
Some say that these skeletons belong to the soldiers of a king's army, then someone connects their wires with the era of Alexander. But, the truth is still in the future. According to new research by scientists, this hell is 250 years old from the time of Alexander. Because, even before Alexander, people from Greek countries also came here. For this research, autosomal DNA, mitochondrial and Y chromosomes DNA were tested for hundred samples of hellbears. In which it was revealed that these are skeletons of the Greeks. Also some skeletons belong to the local people. To reach this result, the research team also conducted DNA tests of around 800 people from nearby areas. These were confirmed as Greek and local people of these hells. However, earlier scientists had concluded that the hellfire may belong to Alexander's army contingent.
Many secrets are revealed by secrets
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According to the scientists of Birbal Sahni Puranaspati Vigyan Sansthan, Lucknow, the DNA testing of the sample is matching the Greek DNA. However, more research is still needed. Apart from this, Anthropological Survey of India is going to start a project soon. It is to be seen what other things come forward regarding these hells.
Mythological belief
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Nanda Devi Rajajat is organized from the village of Nauti every 12th year in Chamoli district. According to the legend related to this journey, Anupam Sundari, the Himalayan (Himwant) daughter, Devi Nanda (Parvati), was thirsting at a place on the way when she was going to Kailas weeping with Shiva. Seeing Nanda's dry lips, Shiva looked around, but there was no water anywhere. So, they hit their trident on the earth, causing a fountain of water to erupt there. When Nanda was quenching the thirst, he saw a reflection of a beautiful woman in the water, who was in harmony with Shiva. Seeing Nanda shocked, Shiva understood their duality and said, this is your form. Since then, this pool has been called Roopkund, Shiva Adradhanarishwar and the mountains Trishul and Nandaghunghati. Whereas, the water stream originating from here was named Nandakini.
Scientists of country and world are engaged in research work
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Narkankal was first discovered in Roopkund in the year 1942 by the game ranger Harikrishna Madhwal of Nanda Devi Reserve. Madhwal came here in search of rare flowers. During this time, he inadvertently bumped into something inside the lake. He was a skeleton when seen. Heaps of hell were found around the lake and also in the foothills. Seeing this, the colleagues of Ranger Madhwal felt as if they had come to some other world. The laborers running with them ran away on seeing this scene.
After this, the phase of scientific study started. In 1950, some American scientists took the hell out. So far, many inquisitorial teams have also made historical visits to this mysterious region. A team of geologists and experts also reached here and conducted investigation and testing. In September 1955, an officer of the Uttar Pradesh Forest Department visited the Roopkund area and collected some hell, bones, slippers, etc. and handed them over to Dr. D.N. . Later, Dr. Majumdar himself collected material from the bones and took it with him.
He considered this material to be more than 400 years old and said that these bone remains belong to a pilgrimage party. In 1957, Dr. Mazumdar sent samples of human bones found here to American human body specialist Dr. Giffen. Who tested these bones as 400 to 600 years old by radio carbon method. Scientists from the British and US also found that the remains included boots made of wool from Tibetans, pieces of wooden utensils, dry leather on horse-drawn carpets, broken rhinestone rings and pieces of mats. Yak's remains are also found here, on whose back Tibetans travel with luggage loaded.
The main item in the relic is the large-grain hamlets, which the Lama women wore. In 2004, a team of Indian and European scientists also jointly attempted to unravel the mystery of the lake. In the same year, researchers from National Geographic also took samples of more than 30 narcissists to England. Despite this, its mystery still remains.
Swami Pranavanand connected wires to Kannauj
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The credit for exposing the scientific aspect of Roopkund goes to Swami Pranavanand, an expert and investigative seeker of the Himalayan expedition. Pranavanand spent about two and a half months in the year 1956 and two months in the year 1957 and 58 by camping in Roopkund, hell, bone, hair pinch, leather slippers and wallets, bangles, wood and pottery, conch pieces, jewelery. Collected grains etc.
They were sent out for scientific testing and from 1957 to 1961 research on them continued. On the basis of research, these hell, bones, etc. were said to be 650 to 750 years old. In the conclusion of his study, Pranavananda considered the objects of bones, etc. obtained from Roopkund as the travel party of King Yashodhaval of Kannauj. Apart from the members of the royal family, there were many slaves, servants, businessmen etc.
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