Monday, 17 August 2020

चटनी जो मुंह में पानी ला दे


चटनी जो मुंह में पानी ला दे

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दिनेश कुकरेती

उत्तराखंडी खान-पान की परंपरा में चटनी को विशेष महत्व दिया गया है। पहाड़ी प्रदेश होने के कारण यहां तकरीबन दस प्रकार की चटनियां प्रचलन में हैं। इनमें हरी पत्तियों की चटनी, भड़पकी (भाड़ या गर्म राख में पकाई गई) चटनी, फलों की चटनी व दलहन-तिलहन की चटनी खास पसंद की जाती हैं। आइए! कुछ खास तरह की चटनियों से आपका परिचय कराते हैं और यह भी बताते हैं कि इन्हें कैसे बनाया जाता है।

हरी चटनी
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हरी चटनी का जिक्र आते ही मुंह में पानी आ जाता है। इसका रंग जितना आकर्षक है, उतनी ही मनमोहक इसकी खुशबू भी होती है। इसके लिए हरा धनिया, पुदीना व लहसुन के पत्तों की जरूरत पड़ती है। चाहे तो अदरक भी मिला सकते हैं। पहले पत्तों को साफ करने के बाद अच्छी तरह धोकर सिल-बट्टे में पीस लें। एकाध टमाटर व लहसुन-प्याज भी इसमें मिला सकते हैं। साथ ही स्वादानुसार नमक, हरी मिर्च व मसाले भी मिला लें। वैसे मसाले न भी हों तो काम चल जाएगा। यह चटनी भूख बढ़ाती है और रोगियों के लिए भी उपयुक्त होती है।


भट की चटनी (घुरयुंट)
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लोहे की कढ़ाई या तवा अच्छी तरह गर्म कर उसमें दो-एक मुट्ठी काले या भूरे भट डाल लें। उन्हें सूती कपड़े से चट-पट हिलाते रहें और जब भट तड़-तड़ की आवाज करने लगें तो नीचे उतार लें। भुने भट को सिल-बट्टे या मिक्सी में पीस लें। साथ में थोड़ा हरा पुदीना भी मिला सकते हैं। नमक-मिर्च जरूरत के हिसाब से मिलाएं। चटनी न ज्यादा पतली हो, न ज्यादा सख्त ही। खट्टापन लाने के लिए इसमें नींबू, चेरी या छोटे टमाटर डाल सकते हैं। नाश्ते या खाने में जायका आ जाएगा। कुमाऊं में यह चटनी 'घुरयुंटÓ नाम से प्रसिद्ध है।


तिल की चटनी
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सफेद, काले या भूरे तिल की चटनी भी भट की तरह भूनकर बनाई जाती है। भूनने में सावधानी बरतने की जरूरत है, क्योंकि ज्यादा देर भूनने पर चटनी कड़वी हो जाएगी। जायका लाने के लिए इसमें हरा धनिया व पुदीना भी मिलाया जा सकता है।

भंगजीर की खास चटनी
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भंगजीर तिलहन प्रजाति में आती है, जो सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में ही पैदा होती है। इसकी चटनी भी भूनकर बनाई जाती है। कुमाऊं में इसे भंगीरा कहते हैं। भंगजीर काली भी होती है। भंगजीर आसानी से भुन जाती है, इसलिए इससे जलने से बचाना चाहिए। यह पीसने में भी आसन होती है और देखने में सफेद यानी नारियल की चटनी की तरह लगती है। हरा धनिया, पुदीना या अन्य पत्ते डालने पर चटनी का कलर अर्द्धसफेद हो जाता है। स्वाद एवं गुणवत्ता में इसका जवाब नहीं।

 

भांग की चटनी
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पहाड़ में खेतों में उगाई जाने वाली भांग के दाने मोटे-मोटे होते हैं। इसलिए इन्हें भूनने में तिल या भंगजीर की अपेक्षा ज्यादा समय लगता है। भांग का दाना सख्त होता है इसलिए उसे अच्छी तरह पीसना चाहिए। तासीर गर्म होने के कारण भांग की चटनी सर्दियों के लिए ही ज्यादा मुफीद है। वैसे तासीर ठंडी करने के लिए आप इसमें हरा धनिया व पुदीना मिला सकते हैं।

 

चुलू की चटनी 

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चुलू की चटनी गर्मियों में खाई जाने वाली मशहूर चटनी है। इसे बनाने के लिए पके चुलू या खुमानी का गूदा ढेलों से अलग कर लें। फिर उसमें पुदीना, लहसुन व प्याज मिलाकर सिल-बट्टे में अच्छे से पीस लें। इसके बाद हल्का नमक, मिर्च व सामान्य मसाला मिला लें। चटनी लसपसी बननी चाहिए। यदि चुलू ज्यादा खट्टे हैं तो खट्टापन दूर करने के लिए उसमें थोड़ा चीनी या गुड़ मिला लें। यह चटनी रोटी के साथ तो अच्छी लगती ही है, आप इसके साथ भात-झंगोरा भी खा सकते हैं। यानी दाल-सब्जी का काम भी चटनी कर लेती है।

भड़पकी चटनी
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चूल्हे के भाड़ या गर्म राख के अंदर आलू के छोटे-छोटे दाने ढक दीजिए। 20 मिनट से भी कम समय में आलू पक जाएगा। आलू के एक चौथाई हिस्से के बराबर टमाटर भी इसी तरह भून लें। फिर दोनों चीजों का अच्छी तरह छिलका उतारकर उसमें हरी या भुनी मिर्च, नमक व हल्के मसाले मिला लें। यदि थोड़ा भुना हुआ अदरक भी हो तो सोने पे सुहागा। सभी को  सिल-बट्टे में पीस लें। तैयार है भड़पकी गैस नाशक चटनी।
 

सुंट्या
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सुंट्या एक प्रकार की खट्टी-मीठी चटनी है। इसके लिए गर्म तेल में धनिया या लाल मिर्च तलकर उसमें गुड़ या इमली का पानी उबाल लें। साथ ही छुआरा, अदरक, नारियल गिरी व किशमिश को बारीक काटकर तब तक कौंचे से घुमाते रहें, जब तक कि मिश्रण गाढ़ा होकर पक न जाए। सुंट्या गढ़वाल में पितृपक्ष के दौरान बनने वाला विशेष व्यंजन है। इसे लोग खूब चटखारे लेकर खाते हैं। यह पाचन के लिए अच्छा माना जाता है। हालांकि, शादी या अन्य अवसरों पर सुंट्या को वर्जित माना गया है।

काली खटाई 

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 खट्टे के शौकीन लोग गलगल के रस को खूब पकाकर रख लेते हैं। पकाने पर यह रस जम जाता है। इसी को काली खटाई कहते हैं। इसे लंबी अवधि तक रखा जा सकता है। खट्टे की जरूरत पडऩे पर इसके बहुत छोटे टुकड़े इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इसी तरह दालिमू (दाडि़म) के बीजों से भी खटाई बनाई जाती है। कुमाऊं के ग्रामीण इलाकों में काली खटाई को दाडि़म का चूक कहते हैं। यह कब्ज, उल्टी-दस्त रोकने में सहायक है।
 

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