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दिनेश कुकरेती
वैसे तो गढ़वाल में लोकनृत्यों का खजाना बिखरा पड़ा है, लेकिन इनमें सबसे खास है पांडव (पंडौं) नृत्य। दरअसल पांडवों का गढ़वाल से गहरा संबंध रहा है। महाभारत के युद्ध से पूर्व और युद्ध समाप्त होने के बाद भी पांडवों ने गढ़वाल में लंबा समय व्यतीत किया। यहीं लाखामंडल में दुर्योधन ने पांडवों को उनकी माता कुंती समेत जिंदा जलाने के लिए लाक्षागृह का निर्माण कराया था। महाभारत के युद्ध के बाद कुल हत्या, गोत्र हत्या व ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए कृष्ण द्वैपायन महर्षि वेदव्यास ने पांडवों को शिव की शरण में केदारभूमि जाने की सलाह दी थी।
मान्यता है कि पांडवों ने केदारनाथ में महिष रूपी भगवान शिव के पृष्ठ भाग की पूजा-अर्चना की और वहां एतिहासिक केदारनाथ मंदिर का निर्माण किया। इसी तरह उन्होंने मध्यमेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ व कल्पनाथ (कल्पेश्वर) में भी भगवान शिव की पूजा-अर्चना कर मंदिरों का निर्माण किया। इसके बाद द्रोपदी समेत पांडव मोक्ष प्राप्ति के लिए बदरीनाथ धाम होते हुए स्वर्गारोहिणी के लिए निकल पड़े। लेकिन, युधिष्ठिर ही स्वर्ग के लिए सशरीर प्रस्थान कर पाए, जबकि अन्य पांडवों व द्रोपदी ने भीम पुल, लक्ष्मी वन, सहस्त्रधारा, चक्रतीर्थ व संतोपंथ में अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया था।
पांडवों के बदरी-केदार भूमि के प्रति इसी अलौकिक प्रेम ने उन्हें गढ़वाल का लोक देवता बना दिया। यहां कदम-कदम पर होने वाला पांडव नृत्य पांडवों के गढ़वाल क्षेत्र के प्रति इसी विशेष प्रेम को प्रदर्शित करता है।
सबसे विविधता पूर्ण पांडव नृत्य तल्ला नागपुर क्षेत्र में
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पांडव नृत्य का सबसे विविधता पूर्ण आयोजन रुद्रप्रयाग जिले के तल्ला नागपुर क्षेत्र में होता है। हर साल नवंबर और दिसंबर के मध्य यह पूरा क्षेत्र पांडवमय हो जाता है। अन्य क्षेत्रों, खासकर देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर का भी पांडव नृत्य एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है।
गांव की खुशहाली व अच्छी फसल की कामना का नृत्य
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गढ़वाल क्षेत्र में नवंबर और दिसंबर के दौरान खेतीबाड़ी का काम पूरा हो चुका होता है। इस खाली समय में लोग पांडव नृत्य में बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाते हैं। पांडव नृत्य कराने के पीछे लोग विभिन्न तर्क देते हैं। इनमें मुख्य रूप से गांव की खुशहाली व अच्छी फसल की कामना प्रमुख वजह हैं। लोक मान्यता यह भी है पांडव नृत्य करने के बाद गोवंश में होने वाला खुरपका रोग ठीक हो जाता है।
ब्याहता बेटियां और प्रवासी भी लौट आते हैं घर
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यह ऐसा अनुष्ठान है, जब गढ़वाल में भौगोलिक दृष्टि से दूर-दूर रहने वाली ब्याहता बेटियां अपने मायके लौट आती हैं। यानी पांडव नृत्य का पहाड़वासियों से एक गहरा पारिवारिक संबंध भी है। इस दौरान गांवों में प्रवासियों की भी चहल-पहल रहती है और बंद घरों के ताले खुल जाते हैं।
गांव के पांडव चौक में होता यह अनूठा नृत्य
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पांडव नृत्य के आयोजन से पूर्व इसकी रूपरेखा तय करने के लिए ग्रामीण पंचायत बुलाकर विचार-विमर्श करते हैं। तय तिथि को सभी ग्रामीण गांव के पांडव चौक (पंडौं चौरा) में एकत्रित होते हैं। पांडव चौक उस स्थान को कहा जाता है, जहां पांडव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल-दमाऊ, जो उत्तराखंड के पारंपरिक वाद्ययंत्र हैं, उनमें अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं। जैसे ही ढोली (औजी या दास) ढोल की पर विशेष धुन बजाते हैं, पांडव नृत्य में पांडवों की भूमिका निभाने वाले व्यक्तियों पर पांडव अवतरित हो जाते हैं। इन व्यक्तियों को पांडवों का पश्वा कहा जाता है।
हर वीर के अवतरित होने की विशेष थाप
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पांडव पश्वों के अवतरित होने के पीछे भी एक अनोखा रहस्य छिपा हुआ है, जिस पर शोध कार्य चल रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि पांडव पश्वा गांव वाले तय नहीं करते। वह ढोली के नौबत बजाने (एक विशेष थाप) पर स्वयं अवतरित होते हैं। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रोपदी के अवतरित होने की विशेष थाप होती है। लोक के जानकार बताते हैं कि पांडव पश्वा उन्हीं लोगों पर अवतरित होते हैं, जिनके परिवारों में वह पहले भी अवतरित होते आए हैं।
13 पश्वा करते हैं पांडव नृत्य
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इन आयोजनों में पांडव पश्वों के बाण निकालने का दिन, धार्मिक स्नान, मोरु डाली, मालाफुलारी, चक्रव्यूह, कमल व्यूह, गरुड़ व्यूह आदि सम्मिलित हैं। पाडव नृत्य में कुल 13 पश्वा होते हैं। इनमें द्रोपदी, भगवान नारायण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, हनुमान, अग्नि बाण, मालाफुलारी, भवरिक व कल्याल्वार शामिल हैं। नृत्य में इन सबका अहम योगदान रहता है। डॉ. विलियम एस. सैक्स की पुस्तक 'डांसिंग विद सेल्फÓ में पांडव नृत्य के हर पहलू को बड़े ही रोचक ढंग से उजाकर किया गया है।
लाखामंडल में पांडव नृत्य के अनूठे रंग
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पांडवों के बिना गढ़वाल के समाज, संस्कृति व परंपरा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यमुना घाटी में तो अनेक स्थान पांडवों के साथ कौरवों से भी जुड़े हुए हैं। इन्हीं में एक प्रमुख क्षेत्र है लाखामंडल। कहा जाता है कि लाखामंडल में कौरवों ने षड्यंत्र के तहत लाक्षागृह का निर्माण किया था। ताकि पांडवों को माता कुंती समेत जिंदा जलाया जा सके। लाखामंडल में आज भी सैकड़ों गुफाए हैं, जिनमें लाक्षागृह से सुरक्षित निकलकर पांडवों ने लंबा समय गुजारा था। जौनसार के इस इलाके के गांवों में हर वर्ष पांडव लीलाओं एवं नृत्य का आयोजन होता है।
जीवन शैली, खान-पान, हास्य, युद्ध, कृषि आदि की झांकी
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पांडव नृत्य कोई सामान्य नृत्य न होकर नृत्य, गीत व नाटकों का एक सम्मिलित स्वरूप है। इसमें ढोल की सबसे बड़ी भूमिका है। ढोली व सहयोगी वार्ताकार पांडवों की जीवन शैली, खान-पान, हास्य, युद्ध, कृषि जैसे अनेकों क्रियाकलापों को नृत्य-गीत व नाटिका के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। इस नृत्य में जहां हास्य-व्यंग्य शामिल है, वहीं युद्ध कौशल व पांडवों के कठिन जीवन, रोष-क्षोभ का भी समावेश होता है।
ढोली होता है नृत्य का सूत्रधार
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इस नृत्य-गीत व नाटिका के सफल संचालन का जिम्मा गांव के ढोली के हवाले होता है। ढोली ही वह लोग हैं, जो महाभारत की कथाओं के एकमात्र ज्ञाता हैं। वह गीत व वार्ताओं से पांडव नृत्य में समा बांध देते हैं। बीच-बीच में गांव के अन्य बुर्जुग, जिन्हें पांडवों की कहानियां ज्ञात होती हैं, वे भी लयबद्ध वार्ता व गायन के जरिये इसका हिस्सा बनते हैं।
बिना स्क्रिप्ट का अनूठा नृत्य
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महत्वपूर्ण बात यह कि पांडव नृत्य के लिए गायन की कोई पूर्व निर्धारित स्क्रिप्ट नहीं होती। ढोली अपने ज्ञान के अनुसार कथा को लय में प्रस्तुत करता है और उसी हिसाब से सुर व स्वरों में उतार-चढ़ाव लाया जाता है।
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