...तो वह सबसे पहले एवरेस्ट चूम लेता
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दिनेश कुकरेती
माउंट एवरेस्ट से मात्र छह हजार फीट नीचे घुटने मोड़कर बैठा विल्सन उस सर्वोच्च शिखर को ही निहार रहा था। पीलापन लिए उसकी नीली आंखों को देखने से लगता था, मानो वह इंतजार में बैठा हो और सोच रहा हो कि विश्व की सबसे ऊंची चोटी खुद उसके पास चली आएगी। विल्सन ठीक एक बरस इसी अवस्था में बैठा रहा। वर्ष 1935 के एवरेस्ट अभियान दल के नेता एरिक शिप्टन ने सबसे पहले विल्सन को इस अवस्था में देखा और उसकी मृत देह को विकृत होने से बचा लिया। विल्सन के निर्जीव शरीर से कुछ ही दूरी पर उसके तंबू का कैनवास पडा़ था। उसकी जेब से एक छोटी सी डायरी मिली, जिसमें उसके उस महान एवं अदम्य साहसपूर्ण अभियान का दैनिक विवरण क्रमवार दर्ज था। शिप्टन ने अपने कुलियों, जिनमें उनके साथ पहली बार एवरेस्ट अभियान दल में शामिल किए गए नवयुवक तेनजिंग भी थे, की मदद से विल्सन की देह को एक दरार में दफना दिया।
इंग्लैंड के यार्कशायर शहर के एक व्यापारी के पुत्र विल्सन को पर्वतारोहण की आरंभिक शिक्षा भी नहीं मिली थी और न ही हिमालयी पर्वतारोहण के संबंध में उसे कोई विशेष जानकारी ही थी। लेकिन, फिर भी वो सागरमाथा चूमने को निकल पडा़ एक खतरनाक सफर पर। विल्सन के मन में एवरेस्ट फतह करने की इच्छा तब जागृत हुई, जब वर्ष 1933 में होस्टन अभियान दल हवाई जहाज से माउंट एवरेस्ट पर विजय पाने में सफल रहा। उसने भी ठान ली कि वह हवाई जहाज से उड़कर, उसे माउंट एवरेस्ट पर ही किसी जगह उतारेगा और वहां से पैदल चलकर सागरमाथा चूमेगा। उसने साथियों के रोकने के बावजूद एक छोटा जहाज खरीदा और एक एक दिन यह कहकर कि वह भारत के रास्ते आस्ट्रेलिया जा रहा है, अपने अभियान पर निकल पडा़।
विल्सन जहाज में ईंधन भरने के लिए जब माध्य-पूर्व के एक हवाई अड्डे पर उतरा तो वहां के अधिकारियों ने उसके इरादे की भनक लग गई और उन्होंने विल्सन का पासपोर्ट जब्त कर लिया। मगर, बुलंद इरादों वाला विल्सन बिना पासपोर्ट के ही अपने जहाज पर गंतव्य की ओर बढ़ गया। इस बीच ब्रिटिश एयर मिनिस्ट्री को भी उसके अभियान की भनक लग चुकी थी। मिनिस्ट्री ने उसे अपने खौफनाक इरादों को रोकने की चेतावनी दी, पर विल्सन को भला कहां किसी की परवाह थी। वह बेखौफ अपने विमान से कराची होता हुआ पूर्णिया पहुंच चुका था। पूर्णिया से रवानगी वाले दिन प्रातः ही स्थानीय पुलिस ने उसके विमान को अपने कब्जे में ले लिया, जो उसे 21 दिन बाद वापस मिला। इस दौरान बरसात शुरू हो चुकी थी लेकिन हौंसले बुलंद हों तो बाधाएं कहां राह रोक पाती हैं। विल्सन ने भी ठान ली कि वह पैदल ही एवरेस्ट पर चढे़गा। इसके लिए वह दार्जिलिंग चला गया।
दार्जिलिंग से एवरेस्ट की दूरी 350 मील है, लेकिन इसे तय करने के लिए दुनिया के सर्वाधिक बीहड़ एवं ऊबड़-खाबड़ इलाके से होकर गुजरना होता है। तब तिब्बत होकर ही एवरेस्ट पर पहुंचा जा सकता था और विल्सन इस दुर्गम रास्ते से अकेले ही ना के बराबर सामान लेकर जाना चाहता था। यह जानते हुए भी कि इससे पूर्व दार्जिलिंग से एवरेस्ट जाने वाली इस राह पर कितने ही पर्वतारोही दल जान गंवा चुके थे। इस रास्ते कई दर्रों को पार करके ही सिक्किम से तिब्बत पहुंचा जा सकता था। एक चांदनी रात अपने सामान और तीन शेरपाओं के साथ विल्सन ने दार्जिलिंग छोड़ दिया। लगातार 25 दिन तक दुर्गम रास्तों को पार कर वह एक उजाड़ बर्फीली तेज हवाओं वाले इलाके में पहुंच गया, जहां से तिब्बत का बेहद ठंडा पठारी इलाका शुरू होता है।
वहां दो सप्ताह रुकने के बाद अपने उन शेरपाओं को लेकर विल्सन आखिरकार उस हिम चट्टान तक पहुंच गया, जहां से माउंट एवरेस्ट मात्र 12 मील दूर था। आगे की राह में बर्फ की खाइयां और 50 से 100 फीट ऊंचाई तक के हिमखंड खडे़ थे। इस दौरान दो गड्ढे ऐसे भी मिले, जो चारों ओर से जमी हुई बर्फ से ढके थे। उस स्थान पर वे सिर के ऊपर झूलते हिमपिंडों के नीचे से गुजरते हुए आगे बढे़। अब शेरपाओं का मनोबल डगमगाने लगा था, लेकिन अपनी धुन के पक्के आत्मविश्वासी विल्सन के मजबूत इरादे देखकर वे आगे बढ़ते रहे। अपने पिछले अभियान के तृतीय कैंप (21200 फीट) तक पहुंचते-पहुंचते आक्सीजन के अभाव में उनके फेफड़े दर्द करने लगे थे।
इस ऊंचाई से एवरेस्ट की चोटी मात्र तीन मील के फासले पर उनकी राह तक रही थी। विल्सन को अपने शेरपाओं के साथ अब मात्र 8000 फीट की ऊंचाई और चढ़नी थी। इस दौरान भाग्य ने भी उनका साथ दिया और उसे रसद सामग्री का बर्फ में दबा एक बडा़ थैला मिल गया। जिसे शायद पिछला अभियान दल छोड़ गया था। ऐसे में विल्सन अपनी सफलता को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हो गया था। हालांकि शेरपाओं की हिम्मत की मिसाल दूसरे लोगों में कम ही देखने को मिलती है, लेकिन विल्सन के सहयोगी शेरपा इस लंबी एवं कठिन यात्रा के दौरान बुरी तरह थकान की गिरफ्त में आ चुके थे। सर्दी और आक्सीजन की कमी से उनकी हालत बिगड़ती जा रही थी। साथ ही विल्सन से भी उन्हें भय होने लगा था, क्योंकि वह न तो ठीक से खाता था, न थकान ही महसूस करता था। बस! अपनी सूनी आंखों से अकेले पडे़-पडे़ एकटक एवरेस्ट के तुषार धवल शिखर को निहारता रहता था। इसके बावजूद उन्हें आशा थी कि आने वाली कठिनाइयों के मद्देनजर वह अपना पागलपनभरा अभियान जारी नहीं रख पाएगा और वापस लौट पडे़गा।
तीसरे कैंप के आगे 800 फीट ऊंची चट्टान खडी़ थी, जिस पर रस्सियों के अभाव में प्रक्षिशित पर्वतारोही टीम के बिना चढ़ पाना असंभव था और नार्थकोल तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता इस चट्टान के ऊपर से होकर ही था। इसके बावजूद विल्सन पूरी तरह आशावान था कि वह इस दुर्ग को भी भेद लेगा। शेरपाओं को जब उसका इरादा मालूम पडा़ तो वे डर से थर्र-थर्र कांपने लगे और विद्रोह कर बैठे। उन्होंने उसे काफी समझाया कि यदि वह किसी तरह हिम चट्टान पर चढ़ भी गया तो नार्थकोल तक अकेले नहीं पहुंच पाएगा। वहां से ऊपर जाने का रास्ता बर्फ की दो सौ फीट ऊंची संकरी चिमनीनुमा दरार से होकर जाता है। जिस पर चढ़ पाना एक पर्वतारोही टीम के बिना कतई संभव नहीं है। पर, विल्सन को तो सफलता के सिवा कुछ और नजर ही नहीं आ रहा था।
17 मई 1934 को विल्सन ने अपने कुलियों से हाथ मिलाया और यह कहकर कि वे दो सप्ताह तक उसके लिए रुके रहें, आगे बढ़ गया। इस सफर में उसने साथ जो सामान लिया, उसमें तीन पाव रोटी, दो टिन पारिज के अतिरिक्त एक छोटा टेंट, अल्टीमीटर, एक कैमरा एवं एक यूनियन जैक था, जिसे सर्वोच्च शिखर पर गाड़ने की तमन्ना वह मन में संजोए हुए था। बिना साजो-सामान के दुनिया की सबसे ऊंची चोटी फतह करने को निकले इस जिद्दी इंसान ने आखिर वह हिम चट्टान भी पार कर ली। उसकी इस असीम हिम्मत को देख शेरपाओं को पूरा विश्वास हो गया था कि वह एवरेस्ट की चोटी पर अवश्य पहुंच जाएगा। उन्होंने विल्सन का दो की बजाए तीन हफ्ते तक इंतजार किया, लेकिन अंततः निराश होकर वापस लौट पडे़।
उधर, चिमनीनुमा उस दरार, जिसके ऊपर नार्थकोल था, तक पहुंचते-पहुंचते विल्सन बहुत कमजोर हो गया था। वहां से मात्र 6000 फीट की ऊंचाई पर एवरेस्ट शिखर था। विल्सन उस दरार में घुस गया और एक दीवार से पीठ को सहारा देकर व सामने वाली दीवार से पैर अडा़कर हाथों के जोर से ऊपर खिसकने लगा। पूरे छह घंटे तक वह इसी तरह ऊपर खिसकता रहा और आखिरकार नार्थकोल तक पहुंच ही गया। जब विल्सन नार्थकोल पर खड़ा था, तब शायद ऊसे इल्म नहीं रहा होगा कि वही उसकी महानता का चरम उत्कर्ष है। नार्थकोल से ऊपर जाना अब विल्सन के बूते से बाहर था। यहां से ऊपर चढ़ने के लिए उचित जगह तलाशने में ही उसका पूरा दिन निकल गया। अंततः अपना छोटा तंबू गाड़कर वह उसमें घुस गया। उसके फेफड़े अब आक्सीजन मांग रहे थे।
अगली सुबह होते ही वह फिर चढा़ई चढ़ने लगा, किंतु कुछ ही ऊंचाई चढ़कर नीचे फिसल गया। इसी प्रयास में शाम हो आई। सूरज डूबता देख वह धीरे-धीरे तंबू में लौट आया। उस रात विल्सन ने पाव रोटी का आखिरी टुकड़ा और बची हुई पारिज पेट के हवाले कर दी। वह तूफानी रात थी। पर्वतों का धैर्य जवाब दे चुका था। तूफानी बर्फीली हवाओं ने विल्सन का तंबू उखाड़ फेंका। वह तो विल्सन बिना बिलंब किए बाहर आ गया, अन्यथा तंबू और वह एक साथ उड़ गए होते। वह खामोशी से पहले का तूफान था, जिससे लड़ते-लड़ते विल्सन में संघर्ष की शक्ति ही नहीं बची। वह घुटने मोड़कर वहीं बैठ गया। अगले दिन जब सूर्य उदय हुआ तो विल्सन ने अपनी हसरतभरी निगाहों से माउंट एवरेस्ट के सर्वोच्च शिखर को अंतिम बार निहारा और फिर निहारता ही रह गया।
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