एशिया की सबसे लंबी धार्मिक यात्रा नंदा राजजात
दिनेश कुकरेती
श्रीनंदा
देवी राजजात। उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में दुर्गम राहों से पैदल
गुजरने वाली एशिया की सबसे लंबी धार्मिक, आध्यात्मिक, भावपूर्ण एवं
रोमांचक यात्रा। यह यात्रा सीमांत चमोली जनपद के नौटी गांव से आरंभ होकर
दुर्गम रास्तों, घाटियों एवं पर्वतमालाओं से गुजरती हुई त्रिशूल पर्वत के
आधार में स्थित होमकुंड में पूजा-अर्चना के बाद वापस नौटी पहुंकर विराम
लेती है। तकरीबन 280 किलोमीटर के इस सफर में 19 पडा़व आते हैं, जिनमें पांच
निर्जन हैं। हालांकि वर्ष 2014 की राजजात में बीस पडा़व बनाए गए थे। ऐसा
भाद्रपद सप्तमी तिथि के एक दिन आगे खिसके होने के कारण किया गया। क्योंकि,
परंपरा के अनुसार वेदनी कुंड में ही सप्तमी को पितृ तर्पण किया जाता है।
राजजात की शुरुआत कब हुई, इसकी जानकारी देने वाले कोई दस्तावेज मौजूद नहीं। लेकिन, पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर राजजात की शुरुआत निश्चित रूप सेआठवीं शताब्दी में हो चुकी थी। वैसे जनश्रुतियां राजजात को प्रारंभ करने का श्रेय राजा अजयपाल को देती हैं। लेकिन, देखा जाए तो अजयपाल राजजात को प्रारंभ नहीं, बल्कि पुन: प्रारम्भ करने वाले नरेश हैं। क्योंकि कन्नौज के राजा यशोधवल की राजजात में रूपकुंड दुर्घटना 1150 ईस्वी से पहले हो चुकी थी। जबकि, अजयपाल के 1499 ईस्वी से पूर्व चांदपुरगढ़ का शासक होने के प्रमाण मिलते हैं।
बहरहाल! उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार सन् 2014 से पूर्व सन् 1845, सन् 1865, सन् 1886, सन् 1905, सन् 1925, सन् 1951, सन् 1968 और सन् 1987 के बाद सन् 2000 में ही राजजात के आयोजन की जानकारी मिल पाई है।
पौराणिक मान्यता के अनुसार राजजात गढ़वाल नरेश द्वारा आयोजित की जाती थी, इसलिए इसे राजजात यानी राजा की यात्रा कहा गया। इतिहासकारों द्वारा देवाल, वेदनी, कैला विनायक से प्राप्त मूर्तियों को आठवीं से दसवीं सदी का माना गाया तो इस धार्मिक यात्रा की प्राचीनता की पुष्टि भी इसी समय से की जाने लगी। कहते हैं कि गढ़वाल के चमोली जनपद में स्थित चांदपुरगढी़ के राजा भानुप्रताप भगवान बदरी विशाल के उपासक थे। देवताओं से वार्तालाप करने के लिए उनके पास श्रीयंत्र था। इसलिए उन्हें बोलांदा बदरी (बोलने वाला बदरीनाथ) भी कहा जाता था। बोलांदा बदरी को भगवान बदरीनाथ ने देवी का संदेश दिया कि वह राजा कनकपाल से अपनी पुत्री का विवाह कर दे। इसी से उनकी वंशबेल आगे बढे़गी। जब यह विवाह संपन्न हुआ तो राजा कनकपाल को राज्य के साथ ईष्ट देवी के रूप में नंदा की भी प्राप्ति हुई। भानुप्रताप के बाद जब कनकपाल चांदपुरगढी़ के राजा बने तो उन्होंने आपने छोटे भाइयों को चांदपुरगाढी़ के पास ही बसाया। यह गांव कालांतर में कांसुवा गांव के नाम से जाना जाने लगा। कांसुवा शब्द कान्सा या कणसा का अपभ्रंश है। गढ़वाली में कान्सा का मतलब छोटा होता है।
इसी कांसुवा गांव से होता है राजजात का श्रीगणेश। हालांकि कहते इसे नौटी की जात हैं। इसके पीछे कहानी है कि राजा ने अपने राजगुरु को नौटी गांव में बसाया, जो नौटियाल कहलाए। 18वीं सदी में चांदपुरगढी़ के तृतीय राजा पूरणपाल ने गढी़ स्थित श्रीयंत्र की पूजा अर्चना कर उसे गुरु ग्राम नौटी में भूमिगत कर दिया। इसकी पूजा का भार नौटियालों को सौंपा गया। तभी से नंदा नौटियालों की ईष्ट देवी और धियाण यानी बेटी मानी जाने लगी। इसी धियाण को ससुराल कैलास के लिए विदा करने से पूर्व कुलसारी के मंदिर समूह के बीच स्थित श्रीयंत्र की पूजा-अर्चना की जाती है।
इससे पूर्व सिमली तल्ला चांदपुर में पूजा संबंधी बैठक के दौरान समिति का गठन किया जाता है। जिसके अध्यक्ष राजवंशीय कुंवरों में से और मंत्री नौटी गांव से होते हैं। इस बीच देवी स्वरूप चौसिंग्या खाडू यानी चार सींग वाला मेढा कुंवरों की थोकदारी में जन्म लेता है। कहते हैं कि प्रत्येक बारह साल बाद क्षेत्र में जब-जब भगोती नंदा के दोष लगने का आभास होता है, कांसुवा के राजकुंवर राजजात की मनौती के रूप में रिंगाल की राजछंतोली और चौसिंग्या खाडू के साथ नंदा देवी सिद्धपीठ नौटी पहुंचते हैं। यहां अनुष्ठानपूर्वक देवी की सुवर्ण प्रतिमा को प्राण प्रतिष्ठा कर रिंगाल की छंतोली में रखा जाता है और शुभ मुहूर्त पर अपने पहले पडा़व ईडा़ बधाणी के लिए प्रस्थान करती है श्री नंदा देवी राजजात। लोक की बेटी नंदा के प्रति आस्था का अपार जनसमूह उमड़ने लगता है। जनसमूह चौंसिग्या खाडू को लेकर लोकवाद्यों के साथ आगे बढ़ता है। मान्यता है कि एक समय ईडा़ बधाणी के पधान यानी मुखिया जमनू जदौडा़ गुसाईं को नंदा ने वचन दिया था कि वह ससुराल जाने से पूर्व उसके घर की पूजा अवश्य स्वीकार करेगी।उसी वचन को निभाने देवी ईडा़ बधाणी पहुंचती है। मार्ग में ल्यूयसा, सिंगली, चौंडली, हेलुरी आदि स्थानों पर नंदा का स्वागत सत्कार होता है। धियाण को खाली हाथ ससुराल न भेजे जाने की परंपरा का निर्वाह यहां पर भी किया जाता है। मार्ग में देवी को श्रृंगार सामग्री व दक्षिणा भेंट स्वरूप प्रदान की जाती है और राह आस्था पथ में तब्दील हो जाता है।
ईडा़ बधाणी में विश्राम के बाद अगले दिन नंदा फिर नौटी लौटती है। सभी आगंतुकों का भव्य
अभिनंदन होता है। स्थान-स्थान पर लोग राजजात का हिस्सा बनते हैं। रिठोली, नांदाखाला,जाख में नंदा की पूजा होती है। 10 किमीके इस संपूर्ण यात्रापथ को स्वागत पथ के रूप में महसूस किया जा सकता है। नौटी से विदाई के बाद राजजात कांसुवा की तरफ बढ़ने लगती है। आगे-आगे चौसिंग्या खाडू और पीछे राजछंतोलीय लिए राजगुरुओं के प्रतिनिधि । नौटी से कांसुवा के लिए विदाई का यहदृश्य अत्यंत मार्मिकहोता है।हर किसी की आंखों में आंसू झरने लगते हैं। वातावरण भावुक हो उठता है। देवी भी अपने परिजनों से गले मिलकर भावभीनी विदाई लेती हैं। मार्ग में मलेठी व नैणी की छंतोलियां जात का हिस्सा बनती हैं। बैनोली की नंदाचौंरी यानी चबूतरे में जब नंदा की डोली पहुंचती है तो इस स्थल का स्वरूप एक भव्य मेले में परिवर्तित हो जाता है। देवी पर पुष्प वर्षा होने लगती है। कन्याएं जल कलश लेकर मंगलमय यात्रा की कामना करती हैं। विदाई का यह दृश्य यात्रा के विदाई पथ में होने का आभास कराने लगता है। कांसुवा में राजकुंवर देवी की पूजा-अर्चना करते हैं। यहीं पर यात्रा के पथ-प्रदर्शक मेढे एवं पवित्र रिंगाल की राजछंतोलियों की पूजा-अर्चना की जाती है।
यात्रा का अगला पडा़व सेम है। समुद्रतल से 1530 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यह बारह थोकी ब्राह्मणों का गांव है। गांव में स्थित महादेवघाट मंदिर में विधि-विधान पूर्वक नंदा की पवित्र छंतोलीड्यूंडी ब्राह्मणों को सौंप दी जाती है। यात्रा आगे बढ़ते हुए आटागाड को पार कर गढ़वाल राज्य की तत्कालीन राजधानी चांदपुरगढ़ पहुंचती है। यहां जात का स्वागत राजवंशी कुंवर परंपरागत ढंग से करते हैं। शाही पूजा होती है, जिसके साक्षी हजारों लोग बनते हैं। यहां पर कैलापीर में देवी का भव्य मंदिर और चांदपुरगढी़ में गढ़वाल राज्य की राजधानी के अवशेष हैं। नवीं से 15वीं सदी तक यह पंवार राजाओं की राजधानी रही। यहीं गैरोली की छंतोली का मिलन राजजात से होता है। यात्रा आगे बढ़ते हुए तोप होकर सेम पहुंचती है, जहां चमोली व सेम की छंतोली नंदाचौक में इंतजार कर रही होती हैं। सेम के लोगों की नंदा के प्रति आस्था देखिए कि वे राजजात में आए हर यात्री को नंदा के रूप में ही देखते हैं और उसकी आदर-खातिर करते हैं। यहां नंदा को पारंपरिक अनाज, च्यूडा़, फल-सब्जियां भेंट की जाती हैं। ऐसा प्रतीत होने लगता है मानो हम आतिथ्य पथ से गुजर रहे हैं।
सेम से आगे कोटी तक उत्साह ही उत्साह है। धारकोट तक चढा़ई है। यहां से घंडियाल और सिमतोली गांवों से पूजा-अर्चना के बाद यात्रा सिमतोली धार पहुंचती है, जहां मां भगवती की कोटि-कोटि पूजा-अर्चनाएं की जाती हैं। संभवतः इसीलिए धार के दूसरी तरफ स्थित गांव का कोटि नाम पडा़। कोटि की समुद्र तल से ऊंचाई 1630 मीटर है। उत्तर-मध्य काल में चांदपुरगढ़, तोप गांव व कोटी में गढ़ सेनाएं रहती थीं। कोटी में खंडूडा़, रतूडा़, चुलाकोट व थापली गांव की छंतोलियां और बगोली के लाटू देवता यात्रा में शामिल होते हैं। केदारू, चूला, घतौडा़की छंतोलियां भी इसी स्थल पर यात्रा का हिस्सा बनती हैं। संपूर्ण वातावरण आगे की यात्रा के लिए उत्साहभरा दिखता है। लंबी-लंबी कतार में सम्मिलित हो रहा प्रत्येक व्यक्ति उत्साह से लवरेज नजर आता है और संपूर्ण पथ उत्साह पथ बन जाता है।
कोटी के बाद देवी का आगला पडा़व भगोती है। कहते हैं यह भगोती नंदा के मायके का अंतिम पडा़व है। भगोती नंदा का यह सबसे प्रिय स्थल होने के कारण उसी के नाम पर इसका नाम भगोती पडा़। कोटी से भगोती के बीच 12 किमी का फासला है। मायके का अंतिम गांव होने के कारण यहां पर विदाई का मार्मिक दृश्य साकार होता है। बेटी से मिलने को पूरा गांव उमड़ पड़ता है। संपूर्ण जात में सभी लोगों में सौहार्द का वातावरण दिखाई देता है। अलग-अलग जाति-धर्मा के लोध द्वारा एक ही लक्ष्य के साथ आगे बढ़ने की इच्छालि इस पथ को सौहार्द पथ बनाती है।
अगले दिन यात्रा भगोती से कुलसारी के लिए प्रस्थान करती है। देवी के मायके से ससुराल सीमा में प्रवेश की मान्यता के कारण यात्रा का एक बार फिर गर्मजोशी के साथ स्वागत-अभिनंदन होता है। मार्ग में स्वागत के लिए जगह-जगह तोरणद्वार, साज-सज्जा और हजारों लोगों की बहुरंगी वेशभूषा एवं पोशाकों के कारण रंगपथ से गुजरने का-सा अहसास होने लगता है। कुलसारी नंदा के ससुराल क्षेत्र का पहला पडा़व है। देवी के काली रूप में होने से इस क्षेत्र का नाम कुलसारी पडा़। यहां के निवासी कुलसारा ब्राह्मण कहलाते हैं। परंपरा के अनुसार जात हमेशा आमावस्या के दिन कुलसारी पहुंचती है। अमावस्या की रात्रि को कुलसारी स्थित भूमिगत काली यंत्र को निकालकर पूजा-अर्चना की जाती है। इस स्थान से बुटोला थोकदारों, सयाणों का सहयोग भी जात के लिए लिया जाता है। कुलसारी के बाद अगला पडा़व है चेपड़्यूं। जात थराली पहुंचती है। इस यात्रा पथ के साथ-साथ विपरीत दिशा की ओर बढ़ने वाली पिंडर नदी के स्वर और नदी के आसपास बिखरा नैसर्गिक सौंदर्य अभिभूत कर देने वाला है। नदी के आसपास बसे गांवों के खेत-खलिहानों के दृश्य यात्रा की थकान में पुनः स्फूर्ति प्रदान करते हैं। थराली में इस अवसर पर भव्य मेला आयोजित होता है। थराली के सामने ही देवराडा़ गांव है। लोक मान्यताओं के अनुसार यहां राजराजेश्वरी नंदा वर्ष में छह महीने रहती हैं। बाकी के छह महीने उनका प्रवास कुरुड़ (दशोली) में होता है।
अब बढ़ते हैं नवें पडा़व नंदकेसरी की ओर। चेपड़्यूं से पांच किमी की यात्रा पर स्थित इस पडा़व को वर्ष 2000 की राजजात में पडा़व के रूप में शामिल किया गया। यह राजजात का इंद्रधनुषी पडा़व है। इस स्थल से जात में उत्तराखंड के दोनों क्षेत्रों गढ़वाल-कुमाऊं केश्रद्धालुओं,सैलानियों व पर्यटकों का मिलन होता है। पिंडर नदी पर बने पुल पर दोनों ओर की जात एकसार हो जाती हैं। कुमाऊं से चली छंतोलियां चनोदा, लोबांज, कौसानी, गरुड़, बैजनाथ, ग्वालदम होते हुए नंदकेसरी पहुंचती हैं। इस भावपूर्ण मिलन से भावविभोर होकर गढ़वाल-कुमाऊं से आईं छंतोलियां अब आगे बढ़ती हैं और यह अकल्पनीय व दुर्लभ मिलन पूरी राजजाता का साक्षी बन जाता है। नंदकेसरी को इस हिमालयी महाकुंभ में दो संस्कृतियों का मिलन केंद्र कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।
चलो, गढ़वाल-कुमाऊं की जात के मिलन की सांस्कृतिक परंपरा का निर्वाह भी कर लिया।अब इस सांस्कृतिक पथ पर आगे बढे़ं। पिंडर नदी का प्रवाह ग्रामीण अंचल की सुंदरता और हरियाली को खुद में समेटकर मनमोहक दृश्य उत्पन्न कर रहा है। जागर और लोकवाद्यों की मधुर लहरियों के बीच नंदा को विदाई दी जा रही है। देवाल में भी माहौल अन्य पडा़वों सरीखा ही है। वही उत्साह, वही सौहार्द, वही सत्कार। और... पूर्णा से देवाल होते हुए ही रात्रि विश्राम के लिए जात फल्दिया गांव पहुंचती है।
नंदकेसरी से फल्दिया तक यात्रियों को तकरीबन दस किमी का सफर तय करना पड़ता है। फल्दिया गांव पहुंचने पर जात में शामिल सभी छंतोलियों का पारंपरिक रूप से पूजन होता है। मांगलिक गीतों से नंदा की स्तुति की जाती है। गांव में प्रवेश करने से पूर्व हाटकल्याणी, उलंग्रा आदि स्थानों पर भी पूजा की जाती है।
फल्दिया गांव के बाद जात का अगला पडा़व है मुंदोली। समुद्रतल से 1750 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मुंदोली तक पहुंचने के लिए जात को दस किमी का सफर तय करना होता है। जात में लोगों की संख्या बढ़ जाती है। पीछे रह गए लोग इसा पडा़व तक जित में अवश्य शामिल हो जाते हैं। अब जात हिमालयी क्षेत्र की ओर प्रवेश करने के पथ पर अग्रसर है। नदी घाटी पीछे छूट चुकी है और सामने नजर आ रही हैं पर्वत श्रृंखलाएं। जिज्ञासाएं बढ़ने लगी हैं, इसलिए यह पथ जिज्ञासा पथ में परिवर्तित हो गया है। जात का रात्रि विश्राम मुंदोली में होता है। यहां भूमिपाल व जैपाल देवता के चौक में देव डोलियों को रखा जाता है। इस दौरान मुंदोली की महिलाएं मन को हर्षाने वाले झौडा़ लोकनृत्य के साथ पारंपरिक गीत गाकर यात्रियों की आगवानी करती हैं। चारों दिशाओं में आनंद बरसने लगता है।
दशोली की नंदा राजराजेश्वरी और दशमद्वारके साथ विभिन्न क्षेत्रों से आ रही छंतोलियां एवं मुख्य जात मुंदोली से चलकर अगले पडा़व वाण की ओर प्रस्थान करती है। हल्की उतराई और फिर चढा़ई के साथ वाण तक पहुंचने का अत्यंत सुरम्य मार्ग है यह। बांज-बुरांश व सुरई के वृक्षों के मध्य से गुजरते हुए मन में ताजगी और तन में स्फूर्ति आ जाती है। प्रकृति के अनूठे सौंदर्य से यह पथ प्रकृति पथ का आभास कराने लगता है। वाण गांव का अपना आलग ही महत्व है। जात के मार्ग पर आबादी वाला यह अंतिम गांव है। यहां से कुछ आगे चलकर ही हिम श्रृंखलाओं के दर्शन होने लगते हैं। दुरूह भौगोलिक स्थिति के कारण यहां पर उपजाऊ भूमि की कमी है। डोलियों और छंतोलियों के मिलन का अंतिम पडा़व होने के कारण यहां से विभिन्न क्षेत्रों से आईं डोली-छंतोली एक साथ आगे बढ़ती हैं। मुंदोली से वाण की दूरी तकरीबन 15 किमी बैठती है। वाण में ही नंदा के धर्म भाई लाटू देवता का प्रसिद्ध मंदिर है। जिसके कपाट नंदा राजजात के समय पूजा-अर्चना को सिर्फ एक दिन के लिए खुलते हैं। नंदा का अपने भाई लाटू से मिलन अभिभूत कर देने वाली अनुभूति है। यहां से आगे लाटू का निसाण यानी ध्वज ही राजजात की अगुआई करता है।
वाण में पडा़व के बाद राजजात का दूसरा चरण आरंभ होता है। यहां से जात उच्च हिमालयी क्षेत्र के निर्जन एवं दुर्गम पडा़वों के लिए अग्रसर होती है। देखा जाए तो प्रकृति प्रदत्त नयनाभिराम सौंदर्य से साक्षात्कार इसी पडा़व के बाद आरंभ होता है। मखमली बुग्यालों में छाई अप्रतिम हरितिमा, नगाधिराज हिमालय के चमकते हिमशिखर और उन पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों के दृश्य सहज ही मन को आकर्षित कर लेते हैं। यहां से आगे की यात्रा प्रकृति प्रेमियों के अनुकूल होती है, अंतिम गांव वाण के बाद हिमशिखरों को स्पर्श करने की कल्पना आगे के पथ को रोमांच पथ का रूप प्रदान करती है। वाण से 10किमी की दूरी तय कर जात गैरोली पातल पहुंङाती है। गैरोली की राह पर बुग्यालों का सिलसिला भी आरंभ हो जाता है। घनी वनस्पतियों के जंगल अब पीछे छूट जाते हैं। आगे की ऊंची पहाडी़ भूमि में घने पेड़ नहीं, बल्कि सिर्फ हरी मखमली घास के बुग्याल ही यहां दिखाई पड़ते हैं। यही वास्तव में वृक्ष रेखा है। इससे आगे के स्थल मई से सितंबर तक ही बिना हिम के रहते हैं।
गैरोली पातल में ठहरने की जगह कम होने के कारण अधिकांश यात्री अगले पडा़व की ओर रुख करना ही बेहतर समझते हैं। महज तीन किमी के फासले पर है यह पडा़व, जिसे बुग्यालों का स्वप्नलोक यानी वेदनी बुग्याल कहा जाता है। समुद्रतल से 3354 मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस स्वप्नलोक का सौंदर्य मन को मोह लेता है। खूबसूरत पश्चिमी-उत्तरी ढलान पर फैला यह बुग्याल एशिया के सबसे खूबसूरत बुग्यालों में से एक है। नंदा घुंघटी व त्रिशूल हिमशिखरों के निकट होने का पहला अहसास वेदनी में ही होता है। वेदनी बुग्याल के मध्य में वेदनी कुंड स्थित है, जहां जात के दौरान सप्तमी पूजन एवं राजकुंवरों द्वारा पितृ तर्पण की परंपरा है। मान्यता है कि वेदों की रचना इसी स्थान पर की गई, इसलिए इसका नाम वेदनी पडा़।
अब चौदहवें पडा़व की ओर कदम बढा़एं, जिसे हम पातर नचौण्यां के नाम से जानते हैं। कहते हैं कि इस स्थान पर कन्नौज के राजा यशधवल ने राजजात के दौरान मान्यताओं की अनदेखी करते हुए नर्तकियों को नचाया था। इससे देवी के रुष्ट होने पर सभी नर्तकियां शिलाओं में परिवर्तित हो गईं। तभी से इस स्थान का नाम पातर नचौण्यां पडा़। इससे पूर्व तक इसका नाम निरालीधार था। यहां पर भी विशेष पूजा-अर्चना के बाद रात्रि विश्राम होता है। इस बडे़ क्षेत्र में फैले औषधीय पादप, ब्रह्मकमल आदि की सुगंध हवा में महसूस की जा सकती है। हिमालयी क्षेत्र में फैले हरे-भरे घास के मैदानों का सौंदर्य आगे की कठिन राह को आनंद पथ में परिवर्तित कर देता है। घास के मैदानों में बिखरे मखमली फूल और चमकदार जलधाराएं इस पथ में आनंद की अनुभूति कराती हैं।
पातर नचौण्यां में रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन जात शिला समुद्र के लिए प्रस्थान करती है। इसी पथ में जात के दो प्रमुख आकर्षण रहस्यमयी झील रूपकुंड और यात्रा का सर्वाधिक ऊंचाई वाला स्थल ज्यूंरागली पड़ते हैं। रूपकुंड के आसपास बिखरे सदियों पुराने नरकंकाल जहां अज्ञात रहस्य का बोध कराते हैं, वहीं 17500 फीट की ऊंचाई पर स्थित ज्यूंरागली हिमालय के निकट होने का अहसास कराती है। यहां तक पहुंचते-पहुंचते सांसें उखड़ने लगती हैं और बढ़ता चला जाता है रोमांच। सूर्योदय के समय नंदा घुंघटी का नजारा दीये की लौ जैसा दिखाई देता है। यह अलौकिक दृश्य रोमांच की इस यात्रा में एक और रहस्य को जन्म देता है, जो एक सुखद स्वप्न के सच होने जैसा है। प्रकृति के इस अद्भुत साक्षात्कार के कारण मन को असीम शांति मिलती है। थकान का अहसास तक नहीं रहता। इस रहस्य पथ पर आगे बढ़ते हुए हम शिला समुद्र पहुंचते हैं, जहां विशेष पूजा-अर्चना होती है। इस स्थान पर बडी़-बडी़ शिलाएं हैं। हिमनद के खिसकते रहने से और मौसम परिवर्तन होने पर बर्फ के पिघलने से चट्टानें यत्र-तत्र बिखर जाती हैं। शायद इसीलिए इस स्थल का नाम शिला समुद्र है। शिला समुद्र के ऊपरी भाग में शौला समुद्र के नाम का हिमनद भी इस नामकरण का कारण हो सखता है। इसी हिमनद से नंदाकिनी नदी निकलती है।
अब राजजात अपने चरमोत्कर्ष पर है। हम नंदा को विदाई देने उसके ससुराल यानी होमकुंड की चौखट पर पहुंच चुके हैं। आस्था के शिखर त्रिशूल एवं नंदा घुंघटी की तलहटी में स्थित है आस्था का यह कुंड। यहां पूजा, अनुष्ठान व हवन के बाद नंदा जात का पथ प्रदर्शक मेंढा भी भेंट, स्वर्णाभूषण, खाद्य सामग्री आदि से सुसज्जित कर कैलास के लिए छोड़ दिया जाता है। पवित्र कुंड के यहां स्थित होने पर ही इस स्थान का नाम होमकुंड रखा गया है। जात के विसर्जन और चौसिंग्या खाडू की भावपूर्ण विदाई के बाद यात्री तत्काल चंदनियां घट की ओर चल पड़ते हैं। यह राजजात का वापसी मार्ग है। शिला समुद्र से होमकुंड तक केरल ङो का सौंदर्य बिखरा पडा़ है। हिम श्रृंखलाओं के आधार को स्पर्श करने के कारण इस पथ को हिमपथ के रूप में देखा जा सकता है। यह स्थान नंदा के गण चंदनियां का है, इसीलिए इसका नाम चंदनीयां घट पडा़।। चंदनियांकोट पर्वत शिखर इसके ऊपर है, जहां से नंदाकिनी का उद्गम होता है।
चंदनियां घट के बाद अगला पडा़व सुतोल है । निरंतर प्रकृति के बीचृकई दिन गुजारने के बाद यात्रा आबादी की ओर बढ़ती है। ऐसा प्रतीत होता है कि हर यात्री यात्रा के अनुभवों पर शांति के साथ चिंतन करता हुआ आगे बढ़ रहा है। सीधी ढलान और घनी वनस्पतियों के बीच इस मार्ग पर सभी को एकाग्र होना पड़ता है इसलिए यह पथ शांतिपथ में तब्दील हो जाता है। सुतोल पहुंचने के लिए ढलान उतरनी होती है। यह बेहद खातरनाक राह है। आगे बढ़ते हुए बुग्यालों का विस्तार सिमटता जाता है। हरी मखमली घास के साथ अब झाडि़यां एवं भोजपत्र के वन आरंभ होते हैं। जहां भोजपत्र का वन समाप्त होता है, वहां से बांज का घना वन शुरू हो जाता है। सुतोल से कुछ पहले एक जगह से दूर बस्ती के दर्शन होते हैं। चार-पांच दिनों तक निर्जन स्थलों की यात्रा के बाद किसी बस्ती को देखना अत्यन्त सुखद लगता है। सुतोल से चार किमी ऊपर तातडा़ नामक स्थान पर द्योसिंह देवता का मंदिर है। यह सुतोल वासियों के भू-देवता हैं। रूपगंगा और नंदाकिनी के संगम पर बसे सुतोल गांव के लोग यात्रियों का स्वागत-सत्कार करते हैं।
सुतोल गांव से जात नंदाकिनी पथ पर घाट की ओर बढ़ती है। नंदाकिनी नदी और प्रकृति की सुंदरता के मध्य सभी लोग थकान बिसराने का प्रयास करते हैं। घाट नंदाकिनी घाटी के मध्य बसा एक छोटा सा कस्बा है। यहां प्रमुख तीर्थमार्गों के समान चट्टी जैसी समस्त सुविधाएं मौजूद हैं। सुतोल से घाट की राह भी मनमोहक है। नंदाकिनी नदी का पुल पार करते ही रास्तेभर चीड़ व कैल के घने जंगल से गुजरना सुखद लगता है। यात्रा की सफलता का संतोष भी सभी के चेहरों पर साफ झलकता है।
अब यात्रा समापन की ओर है और हम विश्व की इस अनूठी, अलौकिक एवं अद्भुत यात्रा के सदस्य के रूप में खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अधिकांश यात्री अपनी सुविधा के अनुसार अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर चुके हैं। विधि-विधान के साथ अन्य यात्री नौटी की ओर प्रस्थान करते हैं। यह पथ कर्मपथ की अनुभूति प्रदान करते हुए सभी को उनके कर्तव्य की ओर ले जाता है। और...यात्रा पुनः बारह बरस बाद होने वाली आगामी जात के स्वागत पथ में मिलने के संकल्प के साथ विराम लेती है।
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