I am a writer as well as a journalist. Being born in the Himalayan region, the Himalayas have always loved me. Sometimes I feel that I should cover the Himalayas within myself or I can get absorbed in the Himalayas myself. Whenever I try to write something, countless colors of Himalayas float before my eyes and then they come down on paper on their own.
Wednesday, 29 July 2020
प्रकृति का प्रतिबिंब पारंपरिक पहनावा
हम जो वस्त्र धारण करते हैं, उनका भी अपना लोक विज्ञान है। दरअसल, वस्त्र किसी भी क्षेत्र एवं समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि को परिलक्षित करते हैं। वस्त्रों से इतिहास के सूक्ष्म पहलुओं और संबंधित क्षेत्र के भौगोलिक परिवेश का आकलन भी होता है।
प्रकृति का प्रतिबिंब पारंपरिक पहनावा
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दिनेश कुकरेती
हर समाज की तरह उत्तराखंड का पहनावा (वस्त्र विन्यास) भी यहां की प्राचीन परंपराओं, लोक विश्वास, लोक जीवन, रीति-रिवाज, जलवायु, भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति, व्यवसाय, शिक्षा व्यवस्था आदि को प्रतिबिंब करता है। पहनावा किसी भी पहचान का प्रथम साक्ष्य है। प्रथम या प्रत्यक्ष जो दृष्टि पड़ते ही दर्शा देता है कि 'हम कौन हैं।Ó यही नहीं, प्रत्येक वर्ग, पात्र या चरित्र का आकलन भी वस्त्राभूषण या वेशभूषा से ही होता है। पहनावा न केवल विकास के क्रम को दर्शाता है, बल्कि यह इतिहास के सूक्ष्म पहलुओं के आकलन में भी सहायक है। आदिवासी जनजीवन से आधुनिक जनजीवन में निर्वस्त्र स्थिति से फैशन डिजाइन तक की स्थिति तक क्रमागत विकास देखने को मिलता है।
आदिम युग से शुरू होती है वस्त्र विन्यास की परंपरा
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इस हिसाब से देखें तो उत्तराखंड की वस्त्र विन्यास परंपरा आदिम युग से ही आरंभ हो जाती है। यहां विभिन्न जनजातियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्र एवं आभूषण धारण करने की परंपरा प्रचलन में रही है। मसलन कुमाऊं व गढ़वाल की बोक्सा, थारूअथवा जौहारी जनजाति की महिलाएं पुलिया, पैजाम, झड़तार छाड़ जैसे आभूषण धारण करती हैं। पुलिया अन्य क्षेत्रों में पैरों की अंगुलियों में पहने जाने वाले आभूषण हैं, जिनका प्रचलित नाम बिच्छू है। गढ़वाल में इन्हें बिछुआ तो कुमाऊं में बिछिया कहते हैं। इसके अलावा गले में पहनी जाने वाली सिक्कों की माला भी उत्तराखंड की सभी जनजातियों में प्रचलित है। गढवाल में इसे हमेल और कुमाऊं में अठन्नीमाला, चवन्नीमाला, रुपैमाला, गुलुबंद, लाकेट, चर्यों, हंसुली, कंठीमाला, मूंगों की माला जैसे नामों से जाना जाता है।
समय के साथ बदले रूप, रंग भी बदलते गए
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इसी तरह शिरोवस्त्र, पगड़ी, दुपट्टानुमा ओढऩी आदि भी प्राचीन परंपराओं की ही देन हैं। सूती, रेशमी और ऊनी वस्त्रों की कताई, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई व जरीदार काम न केवल तकनीकी विकास के क्रम को दर्शाते हैं, बल्कि विभिन्न नमूनों व डिजाइनों के प्रति रुचि एवं सृजनात्मकता का परिचय भी देते हैं। इसी के चलते समय के साथ हथकरघा उद्योगों का विकास हुआ। तब वस्त्रों को उनकी विशेषताओं के आधार पर अनेक नामों से जाना जाता था। जैसे-भांग के रेशे से निर्मित वस्त्र भंगोला, भेड़ आदि जानवरों की ऊन से निर्मित वस्त्र ऊनी व कपास के रेशों से निर्मित वस्त्र सूती कहलाते थे। कालांतर में शिक्षा, तकनीकी क्षेत्र में उन्नति और आवागमन के साधनों का प्रभाव वस्त्राभूषणों पर भी पड़ा। नतीजा, धीरे-धीरे लोग परंपरागत पहनावे का त्याग करने लगे। हालांकि, अब एक बार फिर लोग परंपराओं के संरक्षण के प्रति गंभीर हुए हैं और पारंपरिक वस्त्रों को आधुनिक कलेवर में ढालकर पहनने का चलन अस्तित्व में आ रहा है।
उत्तराखंड के पारंपरिक परिधान
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पारंपरिक रूप से उत्तराखंड की महिलाएं घाघरा व आंगड़ी और पुरुष चूड़ीदार पैजामा व कुर्ता पहनते थे। समय के साथ इनका स्थान पेटीकोट, ब्लाउज व साड़ी ने ले लिया। जाड़ों (सर्दियों) में ऊनी कपड़ों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ कार्यों के अवसर पर कई क्षेत्रों में आज भी शनील का घाघरा पहनने की रवायत है। गले में गलोबंद, चर्यो, जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल, कुंडल पहनने की परंपरा है। सिर में शीशफूल, हाथों में सोने या चांदी के पौंजी व पैरों में बिछुवे, पायजेब, पौंटा पहने जाते हैं। घर-परिवार के समारोहों में ही आभूषण पहनने की परंपरा है। विवाहित स्त्री की पहचान गले में चरेऊ पहनने से होती है। विवाह इत्यादि शुभ अवसरों पर पिछौड़ा पहनने का रिवाज भी यहां आम है।
उत्तराखंड के पारंपरिक परिधान
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कुमाऊं में पुरुष परिधान : धोती, पैजामा, सुराव, कोट, कुत्र्ता, भोटू, कमीज मिरजै, टांक (साफा) टोपी आदि।
कुमाऊं में स्त्री परिधान : घाघरा, लहंगा, आंगड़ी, खानू, चोली, धोती, पिछोड़ा आदि।
कुमाऊं में बच्चों के परिधान : झगुली, झगुल कोट, संतराथ आदि।
गढ़वाल में पुरुष परिधान : धोती, चूड़ीदार पैजामा, कुत्र्ता, मिरजई, सफेद टोपी, पगड़ी, बास्कट, गुलबंद आदि।
गढ़वाल में स्त्री परिधान : आंगड़ी, गाती, धोती, पिछौड़ा आदि।
गढ़वाल में बच्चों के परिधान : झगुली, घाघरा, कोट, चूड़ीदार पैजामा, संतराथ (संतराज) आदि।
उत्तराखंड में पहने जाने वाले आभूषण
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सिर में : शीशफूल, मांगटीका, सुहाग बिंदी, बांदी (बंदी)।
कानों में : मुर्खली (मुंदड़ा), कर्णफूल, तुग्यल, बाली, कुंडल, बुजनी (पुरुष कुंडल)।
नाक में : बुलाक, फुल्ली, नथ (नथुली)।
गले में : कंठी माला, तिलहरी, चंद्रहार, गुलोबंद, हंसुली (सूत), लाकेट, चर्यों।
हाथ में : पौंजी (पौंछी), कड़ा, अंगूठी, गोखले, धागुली।
कमर में : करधनी, तगड़ी, कमर ज्योड़ी।
पैरों में : झिंवरा, इमरती. पौंटा, पाजेब, अमीर तीतार, झांवर, बिछुवा।
आज भी है सनील के घाघरे का रिवाज
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उत्तराखंड की महिलाएं पहले घाघरा, आंगड़ी और पुरुष चूड़ीदार पैजामा व कुर्ता पहनते थे। अब इनका स्थान पेटीकोट, ब्लाउज व साड़ी ने ले लिया है। जाड़ों में ऊनी कपड़ों का प्रयोग होता है। जबकि, विवाह आदि मांगलिक कार्यों के मौके पर कई क्षेत्रों में आज भी सनील का घाघरा पहनने का रिवाज है। इसके साथ ही गले में गलोबंद, चर्यो व जै माला, नाक में नथ, कानों में कर्णफूल व कुंडल, सिर में शीशफूल, हाथों में सोने-चांदी के पौंजी और पैरों में बिछुए, पायजब व पौंटा भी पहने जाते हैं। खासकर विवाहित महिलाओं की पहचान तो गले में चर्यो पहनने से ही होती है।
टिहरी की नथ का कोई सानी नहीं
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जिस तरह उत्तराखंड मुख्य रूप से दो हिस्सों गढ़वाल और कुमाऊं में बंटा है, ठीक उसी तरह से उत्तराखंडी नथ भी दो प्रकार की होती है। इसमें भी टिहरी की नथ का कोई सानी नहीं। माना जाता है कि इस नथ का इतिहास राजशाही के दौर से शुरू होता है। तब राज परिवार की महिलाएं सोने की नथ पहना करती थीं। ऐसी मान्यता रही है कि जो परिवार जितना संपन्न होगा, वहां नथ भी उतनी ही भारी और बड़ी होगी। धन-धान्य की वृद्धि के साथ इसका आकार भी बढ़ता जाता था। हालांकि, बदलते दौर में युवतियों की पसंद भी बदली और भारी नथ की जगह स्टाइलिश एवं छोटी नथों ने ले ली। जबकि, दो दशक पूर्व तक नथ का वजन तीन से पांच या छह तोले तक भी हुआ करता था। इस नथ की गोलाई भी 35 से 40 सेमी तक रहती थी। टिहरी की नथ का क्रेज न सिर्फ पहाड़ों में है, बल्कि पारंपरिक गहनों के प्रेमी दूर-दूर से उत्तराखंड आकर अपनी बेटियों के लिए यह पारंपरिक नथ लेते हैं।
महिलाओं के लिए पूंजी की तरह है नथ
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टिहरी गढ़वाल की नथ सोने की बनती है और उस पर की गई चित्रकारी उसे दुनियाभर में मशहूर करती है। इसमें बहुमूल्य रुबी और मोती जड़े होते हैं। नथ की महत्ता इतनी ज्यादा है कि उसे हर उत्सव में पहनना अनिवार्य माना जाता है। इसी प्रकार कुमाऊंनी नथ भी लोगों के बीच बहुत पसंद की जाती है। सोने की बनी इस नथ को महिलाएं बायीं नाक में पहनती है। कुमाऊंनी नथ आकार में काफी बड़ी होती है, लेकिन इस पर डिजाइन कम होता है। बावजूद इसके यह बेहद खूबसूरत होती है। उत्तराखंडी महिलाओं के लिए पांरपरिक नथ एक पूंजी की तरह है, जिसे वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी संजोकर रखती हैं।
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