Thursday, 23 July 2020

गढ़वाल के विलक्षण वाद्य डौंर-थाली/Garhwal's unique musical instrument Dounar-Thali

गढ़वाल के विलक्षण वाद्य डौंर-थाली
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दिनेश कुकरेती
ढोल-दमाऊ के बाद डौंर-थाली गढ़वाल के प्रमुख वाद्य माने गए हैं। डौंर (डमरू) शिव के डमरू का ही एक रूप है। जागर (घडियाला) यानी देवनृत्यों में जागरी (डौंर्या या वादक) ढोल की तरह ही डमरू को लाकड़ (सोटे) और हाथ से बजाता है। जबकि, डौंर्या का सहयोगी (जो कि कांसे की होती है) को बायें हाथ के अंगूठे पर थाली को टिकाकर दायें हाथ से उस पर लाकुड़ का प्रहार करता है। डौंर-थाली वादन से एक अद्भुत ध्वनि उत्पन्न होती है, जिससे देवी-देवता और पितर अपने पश्वों (खास महिला या पुरुष) पर अवतरित हो उठते हैं। महत्वपूर्ण यह कि डौंर कभी अकेला नहीं बजता, बल्कि इसके साथ संगत के लिए कांसे की थाली का होना अनिवार्य है।


दोनों घुटनों के बीच रखकर बजता है डौंर
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चर्म वाद्यों में डौंर ही एकमात्र ऐसा वाद्य है, जिसे ढोल की तरह कंधे से नहीं लटकाया जाता। डमरू से मिलते-जुलते इस वाद्य को दोनों घुटनों के बीच इस तरह स्थिर किया जाता है कि ऊपर की पुड़ी को दायें हाथ की यष्टिका और नीचे की पूड़ी को घुटने के नीचे से होते हुए बायें हाथ से बजाया जा सके। घुटनों के दबाव और यष्टिका के प्रकीर्ण प्रहार से डौंर से अमूमन गुरु गंभीर नाद उद्धृत होती है, जो सर्वथा रौद्र एवं लोमहर्षक होती है। खास बात यह कि डौंर-थाली वादन केवल पुरोहित ही करते हैं।

डौंर में 22 से लेकर 84 ताल बजने तक का उल्लेख
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चपटे वर्गाकार डमरूनुमा आकार वाला यह वाद्य सांदण या खमेर की लकड़ी से बनाया जाता है। इसके दोनों सिरों पर बकरे, घुरड़ या काकड़ की खाल मढ़ी जाती है। कुमाऊं में डौंर का प्रचलन कम है, लेकिन गढ़वाल का यह लोकजीवन में रचा-बसा प्रमुख वाद्य है। डौंर का प्रयोग स्थानीय देवी-देवताओं के जागर लगाने (आह्वान) में किया जाता है। लोक वाद्यों के जानकार डौंर में 22 तरह की तालों का उल्लेख करते हैं। जबकि, कुछ लोक वादकों ने डौंर में 36 और 84 ताल बजाए जाने का उल्लेख किया है।

डौंर का सहायक वाद्य कांसे की थाली
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कांसे की थाली को स्थानीय भाषा में लोक गायक 'कंसासुरी थालÓ नाम से पुकारते हैं। सहायक वाद्य के रूप में इसका प्रयोग मात्र जागरों में किया जाता है। डौंर की ताल पर इसे पयां की लकड़ी के पतले सोटों से बजाया जाता है। देवी-देवताओं के जागर (आह्वान गीत) के अलावा इसका अन्य अवसरों पर वाद्य के रूप में प्रयोग नहीं के बराबर देखा गया है। अभी तक इसे सिर्फ पुरुष ही बजाते आ रहे हैं।

अलग ही अंदाज में बजाई जाती है थाली
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गढ़वाल क्षेत्र में कांसे की थाली को बजाने का तरीका अलग ही है। इसके लिए पतीले के आकार वाली तांबे की तौली (बर्तन) में आधे से अधिक पानी भर लिया जाता है। तौली को जमीन पर मोटे कपड़े के गोल छल्ले के ऊपर रखा जाता है। ताकि हिलने या थाली को बजाते समय वह गिर न जाए। तौली के मुंह पर ऊपर से कांसे की थाली उल्टी रखी जाती है और फिर  बायें हाथ से पकड़कर उससे तौली पर प्रहार किया जाता है। इस ताल को पूर्णता देने के लिए थाली की पीठ पर दायें हाथ से लकड़ी के पतले सोटे से प्रहार करते हैं। इस प्रक्रिया से एक सम्मोहित करने वाली ताल उत्पन्न होती है।

पाथा पर रखकर भी बजती है थाली
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कई इलाकों को कांसे की थाली को तांबे के बर्तन की बजाय पाथा (पुराने समय में अनाज तौलने वाला लकड़ी का बर्तन) के ऊपर रखा जाता है। पाथा में चावल भरे जाते हैं, ताकि वह पलटे नहीं।
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Garhwal's unique musical instrument Dounar-Thali
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Dinesh Kukreti
After Dhol-Damau, Dounar-Thali is considered to be the principal instrument of Garhwal.  Dounar (damru) is a form of Shiva's damru.  In Jagran (Ghadiyala) i.e. devotionals, the Jagari (dounarya or maestro) plays the drum with lacquer (sote) and hands like a drum.  Whereas, Daundya's colleague (who is of bronze) hits the plate on the thumb of the left hand with the right hand to hit Lakud.  A wonderful sound is produced by the recitation of the plate, due to which the deities and ancestors are incarnated on their bodies (special women or men).  The important thing is that the horn never rings alone, but it is mandatory to have a bronze plate to be compatible with it.


It rings between two knees
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In leather instruments, the only instrument which is not hung from the shoulder like a drum is the instrument.  Similar to Damru, this instrument is stabilized between the two knees in such a way that the upper forearm can be played with the right hand and the lower puri under the knee with the left hand.  The pressure of the knees and the jab of the Yashtika is quoted from the door by Guru, a serious sound, which is utterly rougher and waxy.  The special thing is that only the priests perform the double-plate playing.

Mention of 22 to 84 rhythm in the Dounar
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This flat-shaped, flat-shaped drum is made from sandal or Khmer wood.  On both its ends, goat, grunt or Kakad skins are worn.  In Kumaon, the prevalence of horn is low, but in Garhwal, it is a prominent instrument in folk life.  Doors are used to awaken (invoke) the local deities.  Knowledgeable folk folk refer to 22 types of locks in the Dounar.  Whereas, some folk players have mentioned playing 36 and 84 rhythms in the Dounar.

Brass plate
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Folk singers call Kansa Thali in the local language under the name 'Kansasuri Thal'.  As an auxiliary instrument, it is used only in the conscious.  It is played with thin wooden pieces of pian on the rhythm of the drum.  Apart from the Jagar (invocation song) of the Gods and Goddesses, it has been seen as not being used as an instrument on other occasions.  So far only men have been playing it.


The plate is played in a different style
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The method of playing the bronze plate in the Garhwal region is different.  For this, more than half the water is filled in a pot shaped copper towel.  The towels are placed on the ground on top of round rings of coarse cloth.  So that it does not fall while moving or while playing the plate.  The bronze plate is placed vomit on the mouth of the towel and then holding it with the left hand, it strikes the towel.  In order to give fullness to this rhythm, with the right hand on the back of the plate, we hit it with a thin string of wood.  This process produces a hypnotic rhythm.

The plate rings even after placing it on the path
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In many areas, a bronze plate is placed over a patha (an old grain wooden weighing vessel) rather than a copper vessel.  Rice is filled in the path so that it does not turn.

2 comments:

  1. बहुत सुंदर जानकारी ।

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  2. बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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