उत्तराखंडी लोक के आद्यकवि एवं प्रख्यात लोक गायक जीत सिंह नेगी को समर्पित। उनके गीत हमेशा उत्तराखंडी लोक को थिरकाते रहेंगे।
जिनके गीतों पर झूमते हैं खेल-खलिहान
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दिनेश कुकरेती
उनके हाथों से कलम चली और कागज गीतों की खुशबू से महक उठे। कंठ से सुर फूटे तो डांडी-कांठी झूम उठीं। कदमों की आहट पर पर खेत-खलिहान थिरकने लगे। वह आगे बढ़ते गए और माटी की महक से लोक खिलखिला उठा। कवि, गीतकार, गायक, संगीकार, रंगकर्मी, नृत्य निर्देशक, नाट्य निर्देशक, संवाद लेखक जैसी तमाम उपमाएं उनके कद के सामने बौनी पडऩे लगीं। ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व है गढ़वाली के आद्यकवि जीत सिंह नेगी का।
हम आपको उस दौर में लिए चलते हैं, जब ग्रामोफोन व रेडियो के सिवा मनोरंजन का कोई साधन नहीं था। लेकिन, तब यह सेाधन भी पैसे वालों के पास ही हुआ करते थे। रेडियो रखना समृद्धि का सूचक था तो ग्रामोफोन विलासिता का। वर्ष 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरंभ हुआ। तब वह जीत सिंह नेगी ही थे, जिन्हें रेडियो पर प्रथम बैच का 'गीत गायकÓ होने का श्रेय मिला। तिबारियां लोक के सुरों में थिरकने लगीं और झूम उठे खेत-खलिहान। लोक को उसका मसीहा जो मिल गया था।
नेगी जी के कंठ से फूटे हृदयस्पर्शी स्वर 'तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा घसियारी का भेष मा, खुद मा तेरी सड़क्यूं पर मी रोणु छौं परदेस माÓ जब घसेरियों के कानों में पड़े तो उनकी आंखें छलछला उठीं। लोकगीतों के इतिहास में यह ऐसी कालजयी रचना है, जिसने लोकप्रियता की सारी सीमाएं लांघ डालीं। हर उत्तराखंडी के हृदय में गीत के रूप में 'जीतÓ धड़कने लगा।
लोक के समंदर में हलचल पैदा करने वाला यह अकेला गीत नहीं था। इससे बहुत पहले वर्ष 1949 में नेगीजी 'यंग इंडियाÓ ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग करा चुके थे। उस जमाने में ग्रामोफोन की शोभा बने ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए। बाद के वर्षों में तो नेगीजी उत्तराखंड की आवाज बन गए। उनके हर गीत में पहाड़ का प्रतिबिंब झलकता है।
अभावों से अभिशप्त प्रवासी पहाड़ी के विकल करुण जीवन के संयोग-वियोग के सैकड़ों गीत नेगी जी ने लिखे। इनमें निश्चल, सहज और नैसर्गिक प्रेम की अभिव्यंजना होती है। गीतों के अलावा नेगीजी ने कई कालजयी नाटकों की रचना भी की। 'मलेथा की कूलÓ, 'भारी भूलÓ, 'जीतू बगड्वालÓ उनके प्रसिद्ध नाटक हैं, जिनका देश के कई शहरों में मंचन हो चुका है। आखिरी समय तक उनकी बूढ़ी आंखें सपना देखती रहीं, एक समृद्ध संस्कृति का, एक खुशहाल उत्तराखंड का। हालांकि, वृद्धावस्था में कदम डगमगाने लगे थे, लेकिन, कभी संकल्प नहीं डिगा, कलम नहीं थमी।
नेगी जैसा कोई नहीं था
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गढ़वाल के सांस्कृतिक कार्यकलापों में लोकगायक जीत सिंह नेगी के नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही। गढ़वाली गीतों की धुन बनाने और सजाने-संवारने में उनकी विशिष्टता को लोक साहित्य समिति उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सचिव विद्यानिवास मिश्र ही नहीं, आकाशवाणी दिल्ली के तत्कालीन चीफ प्रोड्यूसर (म्यूजिक) ठाकुर जयदेव सिंह ने भी मान्यता दी थी। यही नहीं, उनके गीतों की व्यापकता और लोकप्रियता को भारतीय जनगणना सर्वेक्षण विभाग ने भी प्रमाणित किया था।
कब तक सिसकती रहेगी दुधबोली
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सात वर्ष पूर्व मुझे प्रसिद्ध लोकगायक जीत सिंह नेगी के साक्षात्कार का मौका मिला था। संभवत: यह नेगीजी का अंतिम साक्षात्कार था। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ लोक का जिक्र होते ही नेगीजी कहने लगे, 'हम कहां जाना चाहते थे और कहां पहुंच गए। कहां खो गई वह अपण्यास (अपनापन)। सोचा था अपने राज्य में अपनी परंपराएं समृद्ध होंगी। रीति-रिवाजों के प्रति लोगों का अनुराग बढ़ेगा। लेकिन, यहां तो उल्टी गंगा बहने लगी। कला और कलाकार, दोनों ही आहत हैं। दुधबोली सिसक रही है, पर उसके आंसू किसी को नजर नहीं आते हैं। सब अपने में मस्त हैं, न संस्कृति की चिंता है, न संस्कारों की ही।Ó यह कहते-कहते 'सुर सम्राटÓ जीत सिंह नेगी अतीत की गहराइयों में खो गए।
अब मेरी उत्कंठा बढऩे लगी थी, पर कुछ बोला नहीं। बल्कि, यूं कहें कि बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई। खैर! नेगीजी ने ही खामोशी तोड़ी और कहने लगे, 'बड़ी पीड़ा होती है, जब अपनों की करीबी भी बेगानेपन का अहसास कराती है। सबकी आंखों पर स्वार्थ का पर्दा पड़ा हुआ है। फिर वह नेता हों या अफसर, किसी का उत्तराखंड से कोई लेना-देना नहीं। सोचा था अपने राज में अपनी भाषा-संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। गढ़वाली-कुमाऊंनी को सम्मान मिलेगा। लेकिन, हुआ क्या। इन दस सालों में हम गढ़वाली-कुमाऊंनी को दूसरी राजभाषा बनाने का साहस तक नहीं जुटा पाए। न ठोस संस्कृति नीति बनी, न फिल्म नीति ही।
नेगीजी का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट कर रहा था। लग रहा था, जैसे उत्तराखंड खुद अपनी पीड़ा बयां कर रहा है। कहने लगे, 'मैंने पैसा कमाने के बारे में कभी नहीं सोचा। मेरा उद्देश्य हमेशा ही लोक संस्कृति की समृद्धि रहा। लेकिन, आज संस्कृति को मनोरंजन का साधन मात्र मान लिया गया है। क्या ऐसे बचेगी संस्कृति।Ó
नेगीजी गीतों में बढ़ती उच्छृंखलता व हल्केपन से भी बेहद आहत हैं। वह कहते हैं, 'गीतों का अपनी जमीन से कटना संस्कृति के लिए बेहद नुकसानदायक है। इससे न गंभीर कलाकार पैदा होंगे, न कला का ही संरक्षण होने वाला।Ó उनके मुताबिक कवि तो युगदृष्टा-युगसृष्टा होता है। वह इतिहास ही नहीं संजोता, भविष्य का मार्गदर्शन भी करता है।
बातों का सिलसिला चलता रहा। मजा भी आ रहा था। इच्छा हो रही थी कि नेगीजी कहते रहें और मैं सुनता रहूं। लेकिन, समय की पाबंदियां हैं। सो, मैंने भी जाने की इजाजत मांगी। धीरे-धीरे बाहर तक छोडऩे के लिए आए और विदा लेते वक्त यह कहना भी नहीं भूले कि अब तुम ही कुछ कर सकते हो, अपनी संस्कृति के लिए। अपनी बोली-भाषा के लिए।
जीवन वृत्त
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नाम : जीत सिंह नेगी
जन्म तिथि : 2-2-1925
निधन : आषाढ़ कृष्ण अमावस्या 21 जून 2020
माता-पिता : रूपदेई देवी-सुल्तान सिंह नेगी
जन्म स्थान : ग्राम अयाल पट्टी पैडुलस्यूं पौड़ी गढ़वाल
वैवाहिक स्थिति : विवाहित बच्चे : एक पुत्र, दो पुत्रियां
शिक्षा : इंटरमीडिएट
प्राथमिक शिक्षा : कंडारा, पौड़ी गढ़वाल
मिडिल : मेमियो, म्यांमार
मैट्रिक : गवर्नमेंट कालेज पौड़ी गढ़वाल
इंटरमीडिएट : डीएवी कालेज देहरादून
निवास : 108/12, धर्मपुर देहरादून
रचनाएं (गढ़वाली में)
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प्रकाशित
गीत गंगा : गीत संग्रह
जौंल मगरी : गीत संग्रह
छम घुंघुरू बाजला : गीत संग्रह
मलेथा की कूल : ऐतिहासिक गीत नाटक
भारी भूल : सामाजिक नाटक
अप्रकाशित
जीतू बगड्वाल : ऐतिहासिक गीत नाटिका
राजू पोस्टमैन : एकांकी
रामी : गीत नाटिका
पतिव्रता रामी : हिंदी नाटक
राजू पोस्टमैन : एकांकी हिंदी रूपांतर
मंचित नाटक
भारी भूल : वर्ष 1952 में गढ़वाल भातृ मंडल मुंबई के तत्वावधान में प्रथम बार इस गढ़वाली नाटक का सफल मंचन हुआ। मुंबई के प्रवासी गढ़वालियों का यह पहला बड़ा नाटक था। 1954-55 में हिमालय कला संगम दिल्ली के मंच से इस नाटक का सफल निर्देशन व मंचन।
मलेथा की गूल : मंचन प्रथम बार 1970 देहरादून में। फिर 1983 में पर्वतीय कला मंच के तत्वावधान में देहरादून में पांच प्रदर्शन। चंडीगढ़, दिल्ली, टिहरी, मसूरी एवं मुंबई में 18 बार मंचन।
जीतू बगड्वाल : पर्वतीय कला मंच के तत्वावधान में 1984 में देहरादून में मंचन। 1986 में देहरादून में ही नाटिका के आठ प्रदर्शन। 1987 में चंडीगढ़ में पुन: चार प्रदर्शन।
रामी : 1961 में टैगोर शताब्दी के अवसर पर नरेंद्र नगर में सफल मंचन। इसके अलावा मुंबई, दिल्ली, मसूरी, मेरठ, सहारनपुर आदि नगरों में मंचन।
राजू पोस्टमैन : गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के तत्वावधान में टैगोर थियेटर में इस ङ्क्षहदी-गढ़वाली मिश्रित एकांकी का मंचन। मुरादाबाद, देहरादून समेत अन्य शहरों में सात बार मंचन।
आकाशवाणी से प्रसारित
-'जीतू बगड्वालÓ व 'मलेथा की कूलÓ नाटिका का आकाशवाणी नजीबाबाद से प्रसारण। 1954 से अब तक आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ व नजीबाबाद से पांच-छह सौ बार गढ़वाली गीतों का प्रसारण
-'रामीÓ गीत नाटिका का दिल्ली दूरदर्शन से पहली बार हिंदी रूपांतरण
-गढ़वाली लोकगीतों व नृत्यों का 1950 से लेकर अब विभिन्न नगरों में प्रदर्शन
उपलब्धियां
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1. गढ़वाली लोकगीतों की विभिन्न लुप्त, अद्र्धलुप्त धुनों के संवद्र्धक, रचियता एवं स्वर सम्राट। अन्य पहाड़ी प्रदेशों की मिलती-जुलती मधुर धुनों के समावेश से उत्तराखंड परिवार की धुनों में अभिवृद्धि की। प्राचीन, लुप्त व विस्मृत धुनों को अपनी मौलिक प्रतिभा से पुनर्जीवित किया। उमड़ते-घुमड़ते बादलों, रिमझिम फुहारों, झरनों, गाड-गदेरों की कलकल, फूलों की मुस्कान, पंछियों का कलरव आदि प्रकृति के विभिन्न रूप बिंबवत उनके गीतों में सन्निहित हैं। यथा-'मेरा मैता का देश ना बास घुघूती, ना बास घुघूती घूर-घूरÓ। नेगी जी के मुख से निकलने वाले गढ़वाली लोकगीतों के प्रत्येक शब्द में बसे मधुर सुरों को सुनकर मनुष्य ही क्या पशु-पक्षी भी अपना गंतव्य भूल जाते हैं।
2. प्रथम गढ़वाली लोक गीतकार, जिन्होंने गढ़वाली लोकगीतों की सर्वप्रथम 'हिज मास्टर व्हाइस एंड ऐंजिल न्यू रिकार्डिंगÓ कंपनी में छह गीतों की रिकार्डिंग की।
3. गढ़वाली लोकगीतों के माध्यम से गढ़वाल के प्राचीन व आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विचारों को वहां के जनजीवन से जोड़कर नाटक व गीतों में पिरो अभिव्यक्त किया।
4. भविष्य की पीढ़ी के गीतकारों के लिए गढ़वाली लोकगीतों के स्वर, ताल, लय व धुन को शोध के विषय का मार्ग प्रशस्त किया।
5. गढ़वाली लोकगीतों व नाटकों के माध्यम से रचनाकारों को उनके जीवन-यापन से जोडऩे के लिए मार्गदर्शन किया। उनकी कई रचनाओं के आज चलचित्र भी बन रहे हैं।
सांस्कृतिक गतिविधियां
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-वर्ष 1942 में छात्र जीवन से ही गढ़वाल की सांस्कृतिक राजधानी पौड़ी के नाट्य मंचों से स्वरचित गढ़वाली गीतों के सस्वर पाठ से गायन जीवन का शुभारंभ। प्रारंभ से ही आकर्षक सुरीली धुनों में लोकगीत गाकर लोकप्रिय हो गए थे।
-वर्ष 1949 में 'यंग इंडियाÓ ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग। ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए।
-वर्ष 1954 में मुंबई से ही फिल्म कंपनी मूवी इंडिया द्वारा निर्मित 'खलीफाÓ चलचित्र में सहायक निर्देशक की भूमिका निभाई। उन्हीं दिनों फिल्म 'चौदहवीं रातÓ, जो मुंबई की 'मून आर्ट पिक्चरÓ ने बनाई थी, उसमें भी सहायक निर्देशक के रूप में काम किया।
-नेशनल ग्रामोफोन रिकार्डिंग कंपनी मुंबई में भी सहायक संगीत निर्देशक के पद पर कार्य किया।
-वर्ष 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरंभ होने पर प्रथम बैच के 'गीत गायकÓ।
-1955 में ही दिल्ली की रघुमल आर्य कन्या पाठशाला में छात्राओं को सांस्कृतिक दिशा देन हेतु रंगारंग कार्यक्रमों का निर्देशन। इसी वर्ष कानपुर में चीनी प्रतिनिधि मंडल के स्वागत समारोह में पर्वतीय जन विकास समिति के तत्वावधान में सांस्कृतिक दल का नेतृत्व। इसके अलावा गढ़वाल भूमि सुधार से संबंधित दिल्ली स्थित प्रवासी गढ़वालियों के वृहद् सम्मेलन में प्रगतिवादी एवं कृषि उत्थान संबंधी गढ़वाली गीतों के माध्यम से जनजागरण में प्रमुख योगदान।
-1955-56 में सरस्वती महाविद्यालय दिल्ली के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशन।
-1956 में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पं.गोविंद बल्लभ पंत द्वारा उद्घाटित पर्वतीय लोकगीत-नृत्य से भरपूर सांस्कृतिक समारोह में गढ़वाल की टोली का नेतृत्व। इसी वर्ष लैंसडौन में बुद्ध जयंती समारोह के अवसर पर धार्मिक प्रेरणाप्रद गीतों के गायन कार्यक्रम में भाग लिया। साथ ही अन्य नगरों में गढ़वाली लोकगीतों की गीत संध्या आयोजित करते हुए भ्रमण।
-1957 में लोक साहित्य समिति उत्तर प्रदेश के सचिव विद्यानिवास मिश्र द्वारा विशेष रिकार्डिंग के लिए स्वरचित गढ़वाली लोकगीतों के गायन का निमंत्रण, गीतों की स्वीकृति और उनकी रिकार्डिंग।
-1957 व 1964 में एचएमवी एवं कोलंबिया ग्रामोफोन कंपनी के लिए स्वयं गाकर आठ गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग, जो अत्यधिक प्रचलित हुए और सराहे गए।
-1957 में सूचना विभाग व लोक साहित्य समिति द्वारा संचालित सांस्कृतिक कार्यक्रम लखनऊ में गढ़वाल की ओर से पर्वतीय कार्यक्रम की प्रस्तुति। साथ ही गढ़वाली भाषा कविता पाठ में सक्रिय भाग लिया।
-1957 में लैंसडौन में प्रथम ग्रीष्म कालीन उत्सव में कवि सम्मेलन और सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया। इसी मौके पर गढ़वाल सांस्कृतिक विकास समिति के सदस्य निर्वाचित।
-1957 में देहरादून में आयोजित ऐतिहासिक विराट सांस्कृतिक सम्मेलन में गढ़वाल की लोकगीत-नृत्य टोली का नेतृत्व। तत्पश्चात इसी संस्था के कला सचिव निर्वाचित।
-1960 में पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून के मंच से लोकगीत एवं नृत्यों का आयोजन व प्रदर्शन
-1962 में पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून के मंच से लोकगीत एवं नृत्यों का प्रदर्शन।
-1963 में हरिजन सेवक संघ देहरादून के तत्वावधान में राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए पर्वतीय बाल कलाकारों को प्रशिक्षित कर लोकगीत व नृत्यों का अभूतपूर्व आयोजन। इस कार्यक्रम के उद्घोषक भी बाल कलाकार ही बनाए गए।
-1964 में श्रीनगर गढ़वाल में हरिजन सेवक संघ के लिए मनोरम कार्यक्रम का निर्देशन।
-1966 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई के तत्वावधान में उत्तराखंड के लोकगीत व नृत्य के कार्यक्रम में गढ़वाली सांस्कृतिक टोली का नेतृत्व।
-1970 में मसूरी शरदोत्सव के अवसर पर शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं की रंगारंग कार्यक्रम प्रतियोगिताओं में निर्णायक।
-1972 में गढ़वाल सभा मुरादाबाद के मंच पर देहरादून की अपनी सांस्कृतिक टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति।
-1976 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई के लिए वहीं के गढ़वाली कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशन।
-1979 में मसूरी टीवी टावर के उद्घाटन के अवसर पर दिल्ली दूरदर्शन के लिए अपनी टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतिकरण।
-1979 में सेंट्रल डिफेंस एकाउंट्स के शताब्दी समारोह के अवसर पर रंगारंग कार्यक्रम में सक्रिय भाग। इसी वर्ष मसूरी शरदोत्सव के अवसर पर अपनी सांस्कृतिक टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुति।
-1980 में गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के तत्वावधान में 'टैगोर थियेटरÓ में सांस्कृतिक टोली का नेतृत्व एवं रंगारंग कार्यक्रमों की प्रस्तुति।
-1982 में पर्वतीय कला मंच के गठन के बाद देहरादून में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के चार प्रदर्शन और इसी वर्ष गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के मंच पर भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों के चार प्रदर्शन।
-1983 में पर्वतीय कला मंच के सचिव मनोनीत।
-1986 में गढ़वाली समाज कानपुर के गढ़वाली कवि सम्मेलन की अध्यक्षता।
-1987 में भारत सरकार द्वारा संचालित उत्तर मध्य सांस्कृतिक क्षेत्र द्वारा आयोजित इलाहाबाद में संपन्न सांस्कृतिक समारोह में पर्वतीय कला मंच की टोली का नेतृत्व।
-1987 में ही दृष्टि बाधितार्थ राष्ट्रीय संस्थान देहरादून में आयोजित संगीत, गायन, नृत्य और नाटक की प्रतियोगिता में निर्णायक।
सम्मान
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-रघुमल आर्य कन्या पाठशाला दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए 1955 में सम्मानित।
-1956 में गढ़वाली गीतों के प्रथम संग्रह गीत गंगा के लिए अखिल गढ़वाल सभा देहरादून द्वारा सम्मानित।
-1956 में प्रांतीय रक्षा दल देहरादून द्वारा आयोजित खेलकूद व सांस्कृतिक प्रतियोगिता के अवसर पर जिलाधीश मोहम्मद बट द्वारा सम्मानित।
-1955 में पर्वतीय जन विकास संस्था दिल्ली की ओर गढ़वाली लोक संगीत के लिए सम्मानित।
-1956 में सरस्वती महाविद्यालय दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सम्मानित।
-1957 में आचार्य नरेंद्र देव शास्त्री व सांसद भक्तदर्शन के हाथों प्रशस्ति पत्र।
-पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून की ओर से 1958 में गणतंत्र दिवस के मौके पर लोकगीतों के रंगारंग कार्यक्रमों के लिए सम्मानित।
-1962 में साहित्य सम्मेलन चमोली द्वारा 'लोकरत्नÓ की उपाधि।
-1970 में 'मलेथा की कूलÓ नाटक के सफल मंचन के लिए हिमालय कला संगम देहरादून की ओर से सम्मानित।
-1979 में डिफेंस एकाउंट्स रिर्केशन क्लब सीडीए देहरादून की ओर से सम्मानित।
-1980 में लोक संगीत स्वर परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर आकाशवाणी नजीबाबाद की ओर से प्रशस्ति पत्र।
-1984 में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर दून मनोरंजन क्लब की ओर से जिलाधीश अतुल चतुर्वेदी के हाथों सम्मानित।
-1990 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई द्वारा 'गढ़ रत्नÓ
-1995 में उत्तरप्रदेश संगीत अकादमी द्वारा अकादमी पुरस्कार, नागरिक परिषद संस्थान देहरादून द्वारा 'दूनरत्नÓ।
-1999 में उत्तराखंड महोत्सव देहरादून में 'मील का पत्थरÓ सम्मान।
-2000 में अल्मोड़ा संघ की ओर से प्रथम 'मोहन उप्रेती लोक संस्कृतिÓ पुरस्कार।
-2003 देहरादून के 18 सामाजिक संगठनों की ओर से सामूहिक नागरिक अभिनंदन।
-2011 में डा.शिवानंद फाउंडेशन की ओर से 'डा.शिवानंद नौटियाल स्मृति सम्मानÓ।
-2016 में 'दैनिक जागरणÓ की ओर से आयोजित 'स्वरोत्सवÓ में 'लाइफ टाइम अचीवमेंटÓ सम्मान
जुड़ाव
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-मनोरंजन क्लब पौड़ी-गढ़वाल
-हिमालय कला संगम, दिल्ली
-पर्वतीय जन कल्याण समिति, दिल्ली
-गढ़वाल भ्रातृ मंडल, मुंबई
-हिमालय कला संगम, देहरादून
-पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन, देहरादून
-पर्वतीय कला मंच, देहरादून
-सरस्वती महाविद्यालय, दिल्ली
-शैल सुमन, मुंबई
-अखिल गढ़वाल सभा, देहरादून
-गढ़वाल रामलीला परिषद, देहरादून
-गढ़वाल साहित्य मंडल, दिल्ली
-उत्तर प्रदेश हरिजन सेवक समाज, देहरादून
-भारत सेवक समाज, देहरादून
एलबम
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-रवांई की राजुला
-गढ़वाली सिनेमा में योगदान
-'मेरी प्यारी ब्वैÓ के संवाद और गीत लिखे।
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जिनके गीतों पर झूमते हैं खेल-खलिहान
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दिनेश कुकरेती
उनके हाथों से कलम चली और कागज गीतों की खुशबू से महक उठे। कंठ से सुर फूटे तो डांडी-कांठी झूम उठीं। कदमों की आहट पर पर खेत-खलिहान थिरकने लगे। वह आगे बढ़ते गए और माटी की महक से लोक खिलखिला उठा। कवि, गीतकार, गायक, संगीकार, रंगकर्मी, नृत्य निर्देशक, नाट्य निर्देशक, संवाद लेखक जैसी तमाम उपमाएं उनके कद के सामने बौनी पडऩे लगीं। ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व है गढ़वाली के आद्यकवि जीत सिंह नेगी का।
हम आपको उस दौर में लिए चलते हैं, जब ग्रामोफोन व रेडियो के सिवा मनोरंजन का कोई साधन नहीं था। लेकिन, तब यह सेाधन भी पैसे वालों के पास ही हुआ करते थे। रेडियो रखना समृद्धि का सूचक था तो ग्रामोफोन विलासिता का। वर्ष 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरंभ हुआ। तब वह जीत सिंह नेगी ही थे, जिन्हें रेडियो पर प्रथम बैच का 'गीत गायकÓ होने का श्रेय मिला। तिबारियां लोक के सुरों में थिरकने लगीं और झूम उठे खेत-खलिहान। लोक को उसका मसीहा जो मिल गया था।
नेगी जी के कंठ से फूटे हृदयस्पर्शी स्वर 'तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा घसियारी का भेष मा, खुद मा तेरी सड़क्यूं पर मी रोणु छौं परदेस माÓ जब घसेरियों के कानों में पड़े तो उनकी आंखें छलछला उठीं। लोकगीतों के इतिहास में यह ऐसी कालजयी रचना है, जिसने लोकप्रियता की सारी सीमाएं लांघ डालीं। हर उत्तराखंडी के हृदय में गीत के रूप में 'जीतÓ धड़कने लगा।
लोक के समंदर में हलचल पैदा करने वाला यह अकेला गीत नहीं था। इससे बहुत पहले वर्ष 1949 में नेगीजी 'यंग इंडियाÓ ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग करा चुके थे। उस जमाने में ग्रामोफोन की शोभा बने ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए। बाद के वर्षों में तो नेगीजी उत्तराखंड की आवाज बन गए। उनके हर गीत में पहाड़ का प्रतिबिंब झलकता है।
अभावों से अभिशप्त प्रवासी पहाड़ी के विकल करुण जीवन के संयोग-वियोग के सैकड़ों गीत नेगी जी ने लिखे। इनमें निश्चल, सहज और नैसर्गिक प्रेम की अभिव्यंजना होती है। गीतों के अलावा नेगीजी ने कई कालजयी नाटकों की रचना भी की। 'मलेथा की कूलÓ, 'भारी भूलÓ, 'जीतू बगड्वालÓ उनके प्रसिद्ध नाटक हैं, जिनका देश के कई शहरों में मंचन हो चुका है। आखिरी समय तक उनकी बूढ़ी आंखें सपना देखती रहीं, एक समृद्ध संस्कृति का, एक खुशहाल उत्तराखंड का। हालांकि, वृद्धावस्था में कदम डगमगाने लगे थे, लेकिन, कभी संकल्प नहीं डिगा, कलम नहीं थमी।
नेगी जैसा कोई नहीं था
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गढ़वाल के सांस्कृतिक कार्यकलापों में लोकगायक जीत सिंह नेगी के नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही। गढ़वाली गीतों की धुन बनाने और सजाने-संवारने में उनकी विशिष्टता को लोक साहित्य समिति उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सचिव विद्यानिवास मिश्र ही नहीं, आकाशवाणी दिल्ली के तत्कालीन चीफ प्रोड्यूसर (म्यूजिक) ठाकुर जयदेव सिंह ने भी मान्यता दी थी। यही नहीं, उनके गीतों की व्यापकता और लोकप्रियता को भारतीय जनगणना सर्वेक्षण विभाग ने भी प्रमाणित किया था।
कब तक सिसकती रहेगी दुधबोली
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सात वर्ष पूर्व मुझे प्रसिद्ध लोकगायक जीत सिंह नेगी के साक्षात्कार का मौका मिला था। संभवत: यह नेगीजी का अंतिम साक्षात्कार था। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ लोक का जिक्र होते ही नेगीजी कहने लगे, 'हम कहां जाना चाहते थे और कहां पहुंच गए। कहां खो गई वह अपण्यास (अपनापन)। सोचा था अपने राज्य में अपनी परंपराएं समृद्ध होंगी। रीति-रिवाजों के प्रति लोगों का अनुराग बढ़ेगा। लेकिन, यहां तो उल्टी गंगा बहने लगी। कला और कलाकार, दोनों ही आहत हैं। दुधबोली सिसक रही है, पर उसके आंसू किसी को नजर नहीं आते हैं। सब अपने में मस्त हैं, न संस्कृति की चिंता है, न संस्कारों की ही।Ó यह कहते-कहते 'सुर सम्राटÓ जीत सिंह नेगी अतीत की गहराइयों में खो गए।
अब मेरी उत्कंठा बढऩे लगी थी, पर कुछ बोला नहीं। बल्कि, यूं कहें कि बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई। खैर! नेगीजी ने ही खामोशी तोड़ी और कहने लगे, 'बड़ी पीड़ा होती है, जब अपनों की करीबी भी बेगानेपन का अहसास कराती है। सबकी आंखों पर स्वार्थ का पर्दा पड़ा हुआ है। फिर वह नेता हों या अफसर, किसी का उत्तराखंड से कोई लेना-देना नहीं। सोचा था अपने राज में अपनी भाषा-संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। गढ़वाली-कुमाऊंनी को सम्मान मिलेगा। लेकिन, हुआ क्या। इन दस सालों में हम गढ़वाली-कुमाऊंनी को दूसरी राजभाषा बनाने का साहस तक नहीं जुटा पाए। न ठोस संस्कृति नीति बनी, न फिल्म नीति ही।
नेगीजी का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट कर रहा था। लग रहा था, जैसे उत्तराखंड खुद अपनी पीड़ा बयां कर रहा है। कहने लगे, 'मैंने पैसा कमाने के बारे में कभी नहीं सोचा। मेरा उद्देश्य हमेशा ही लोक संस्कृति की समृद्धि रहा। लेकिन, आज संस्कृति को मनोरंजन का साधन मात्र मान लिया गया है। क्या ऐसे बचेगी संस्कृति।Ó
नेगीजी गीतों में बढ़ती उच्छृंखलता व हल्केपन से भी बेहद आहत हैं। वह कहते हैं, 'गीतों का अपनी जमीन से कटना संस्कृति के लिए बेहद नुकसानदायक है। इससे न गंभीर कलाकार पैदा होंगे, न कला का ही संरक्षण होने वाला।Ó उनके मुताबिक कवि तो युगदृष्टा-युगसृष्टा होता है। वह इतिहास ही नहीं संजोता, भविष्य का मार्गदर्शन भी करता है।
बातों का सिलसिला चलता रहा। मजा भी आ रहा था। इच्छा हो रही थी कि नेगीजी कहते रहें और मैं सुनता रहूं। लेकिन, समय की पाबंदियां हैं। सो, मैंने भी जाने की इजाजत मांगी। धीरे-धीरे बाहर तक छोडऩे के लिए आए और विदा लेते वक्त यह कहना भी नहीं भूले कि अब तुम ही कुछ कर सकते हो, अपनी संस्कृति के लिए। अपनी बोली-भाषा के लिए।
जीवन वृत्त
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नाम : जीत सिंह नेगी
जन्म तिथि : 2-2-1925
निधन : आषाढ़ कृष्ण अमावस्या 21 जून 2020
माता-पिता : रूपदेई देवी-सुल्तान सिंह नेगी
जन्म स्थान : ग्राम अयाल पट्टी पैडुलस्यूं पौड़ी गढ़वाल
वैवाहिक स्थिति : विवाहित बच्चे : एक पुत्र, दो पुत्रियां
शिक्षा : इंटरमीडिएट
प्राथमिक शिक्षा : कंडारा, पौड़ी गढ़वाल
मिडिल : मेमियो, म्यांमार
मैट्रिक : गवर्नमेंट कालेज पौड़ी गढ़वाल
इंटरमीडिएट : डीएवी कालेज देहरादून
निवास : 108/12, धर्मपुर देहरादून
रचनाएं (गढ़वाली में)
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प्रकाशित
गीत गंगा : गीत संग्रह
जौंल मगरी : गीत संग्रह
छम घुंघुरू बाजला : गीत संग्रह
मलेथा की कूल : ऐतिहासिक गीत नाटक
भारी भूल : सामाजिक नाटक
अप्रकाशित
जीतू बगड्वाल : ऐतिहासिक गीत नाटिका
राजू पोस्टमैन : एकांकी
रामी : गीत नाटिका
पतिव्रता रामी : हिंदी नाटक
राजू पोस्टमैन : एकांकी हिंदी रूपांतर
मंचित नाटक
भारी भूल : वर्ष 1952 में गढ़वाल भातृ मंडल मुंबई के तत्वावधान में प्रथम बार इस गढ़वाली नाटक का सफल मंचन हुआ। मुंबई के प्रवासी गढ़वालियों का यह पहला बड़ा नाटक था। 1954-55 में हिमालय कला संगम दिल्ली के मंच से इस नाटक का सफल निर्देशन व मंचन।
मलेथा की गूल : मंचन प्रथम बार 1970 देहरादून में। फिर 1983 में पर्वतीय कला मंच के तत्वावधान में देहरादून में पांच प्रदर्शन। चंडीगढ़, दिल्ली, टिहरी, मसूरी एवं मुंबई में 18 बार मंचन।
जीतू बगड्वाल : पर्वतीय कला मंच के तत्वावधान में 1984 में देहरादून में मंचन। 1986 में देहरादून में ही नाटिका के आठ प्रदर्शन। 1987 में चंडीगढ़ में पुन: चार प्रदर्शन।
रामी : 1961 में टैगोर शताब्दी के अवसर पर नरेंद्र नगर में सफल मंचन। इसके अलावा मुंबई, दिल्ली, मसूरी, मेरठ, सहारनपुर आदि नगरों में मंचन।
राजू पोस्टमैन : गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के तत्वावधान में टैगोर थियेटर में इस ङ्क्षहदी-गढ़वाली मिश्रित एकांकी का मंचन। मुरादाबाद, देहरादून समेत अन्य शहरों में सात बार मंचन।
आकाशवाणी से प्रसारित
-'जीतू बगड्वालÓ व 'मलेथा की कूलÓ नाटिका का आकाशवाणी नजीबाबाद से प्रसारण। 1954 से अब तक आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ व नजीबाबाद से पांच-छह सौ बार गढ़वाली गीतों का प्रसारण
-'रामीÓ गीत नाटिका का दिल्ली दूरदर्शन से पहली बार हिंदी रूपांतरण
-गढ़वाली लोकगीतों व नृत्यों का 1950 से लेकर अब विभिन्न नगरों में प्रदर्शन
उपलब्धियां
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1. गढ़वाली लोकगीतों की विभिन्न लुप्त, अद्र्धलुप्त धुनों के संवद्र्धक, रचियता एवं स्वर सम्राट। अन्य पहाड़ी प्रदेशों की मिलती-जुलती मधुर धुनों के समावेश से उत्तराखंड परिवार की धुनों में अभिवृद्धि की। प्राचीन, लुप्त व विस्मृत धुनों को अपनी मौलिक प्रतिभा से पुनर्जीवित किया। उमड़ते-घुमड़ते बादलों, रिमझिम फुहारों, झरनों, गाड-गदेरों की कलकल, फूलों की मुस्कान, पंछियों का कलरव आदि प्रकृति के विभिन्न रूप बिंबवत उनके गीतों में सन्निहित हैं। यथा-'मेरा मैता का देश ना बास घुघूती, ना बास घुघूती घूर-घूरÓ। नेगी जी के मुख से निकलने वाले गढ़वाली लोकगीतों के प्रत्येक शब्द में बसे मधुर सुरों को सुनकर मनुष्य ही क्या पशु-पक्षी भी अपना गंतव्य भूल जाते हैं।
2. प्रथम गढ़वाली लोक गीतकार, जिन्होंने गढ़वाली लोकगीतों की सर्वप्रथम 'हिज मास्टर व्हाइस एंड ऐंजिल न्यू रिकार्डिंगÓ कंपनी में छह गीतों की रिकार्डिंग की।
3. गढ़वाली लोकगीतों के माध्यम से गढ़वाल के प्राचीन व आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विचारों को वहां के जनजीवन से जोड़कर नाटक व गीतों में पिरो अभिव्यक्त किया।
4. भविष्य की पीढ़ी के गीतकारों के लिए गढ़वाली लोकगीतों के स्वर, ताल, लय व धुन को शोध के विषय का मार्ग प्रशस्त किया।
5. गढ़वाली लोकगीतों व नाटकों के माध्यम से रचनाकारों को उनके जीवन-यापन से जोडऩे के लिए मार्गदर्शन किया। उनकी कई रचनाओं के आज चलचित्र भी बन रहे हैं।
सांस्कृतिक गतिविधियां
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-वर्ष 1942 में छात्र जीवन से ही गढ़वाल की सांस्कृतिक राजधानी पौड़ी के नाट्य मंचों से स्वरचित गढ़वाली गीतों के सस्वर पाठ से गायन जीवन का शुभारंभ। प्रारंभ से ही आकर्षक सुरीली धुनों में लोकगीत गाकर लोकप्रिय हो गए थे।
-वर्ष 1949 में 'यंग इंडियाÓ ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग। ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए।
-वर्ष 1954 में मुंबई से ही फिल्म कंपनी मूवी इंडिया द्वारा निर्मित 'खलीफाÓ चलचित्र में सहायक निर्देशक की भूमिका निभाई। उन्हीं दिनों फिल्म 'चौदहवीं रातÓ, जो मुंबई की 'मून आर्ट पिक्चरÓ ने बनाई थी, उसमें भी सहायक निर्देशक के रूप में काम किया।
-नेशनल ग्रामोफोन रिकार्डिंग कंपनी मुंबई में भी सहायक संगीत निर्देशक के पद पर कार्य किया।
-वर्ष 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरंभ होने पर प्रथम बैच के 'गीत गायकÓ।
-1955 में ही दिल्ली की रघुमल आर्य कन्या पाठशाला में छात्राओं को सांस्कृतिक दिशा देन हेतु रंगारंग कार्यक्रमों का निर्देशन। इसी वर्ष कानपुर में चीनी प्रतिनिधि मंडल के स्वागत समारोह में पर्वतीय जन विकास समिति के तत्वावधान में सांस्कृतिक दल का नेतृत्व। इसके अलावा गढ़वाल भूमि सुधार से संबंधित दिल्ली स्थित प्रवासी गढ़वालियों के वृहद् सम्मेलन में प्रगतिवादी एवं कृषि उत्थान संबंधी गढ़वाली गीतों के माध्यम से जनजागरण में प्रमुख योगदान।
-1955-56 में सरस्वती महाविद्यालय दिल्ली के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशन।
-1956 में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पं.गोविंद बल्लभ पंत द्वारा उद्घाटित पर्वतीय लोकगीत-नृत्य से भरपूर सांस्कृतिक समारोह में गढ़वाल की टोली का नेतृत्व। इसी वर्ष लैंसडौन में बुद्ध जयंती समारोह के अवसर पर धार्मिक प्रेरणाप्रद गीतों के गायन कार्यक्रम में भाग लिया। साथ ही अन्य नगरों में गढ़वाली लोकगीतों की गीत संध्या आयोजित करते हुए भ्रमण।
-1957 में लोक साहित्य समिति उत्तर प्रदेश के सचिव विद्यानिवास मिश्र द्वारा विशेष रिकार्डिंग के लिए स्वरचित गढ़वाली लोकगीतों के गायन का निमंत्रण, गीतों की स्वीकृति और उनकी रिकार्डिंग।
-1957 व 1964 में एचएमवी एवं कोलंबिया ग्रामोफोन कंपनी के लिए स्वयं गाकर आठ गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग, जो अत्यधिक प्रचलित हुए और सराहे गए।
-1957 में सूचना विभाग व लोक साहित्य समिति द्वारा संचालित सांस्कृतिक कार्यक्रम लखनऊ में गढ़वाल की ओर से पर्वतीय कार्यक्रम की प्रस्तुति। साथ ही गढ़वाली भाषा कविता पाठ में सक्रिय भाग लिया।
-1957 में लैंसडौन में प्रथम ग्रीष्म कालीन उत्सव में कवि सम्मेलन और सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया। इसी मौके पर गढ़वाल सांस्कृतिक विकास समिति के सदस्य निर्वाचित।
-1957 में देहरादून में आयोजित ऐतिहासिक विराट सांस्कृतिक सम्मेलन में गढ़वाल की लोकगीत-नृत्य टोली का नेतृत्व। तत्पश्चात इसी संस्था के कला सचिव निर्वाचित।
-1960 में पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून के मंच से लोकगीत एवं नृत्यों का आयोजन व प्रदर्शन
-1962 में पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून के मंच से लोकगीत एवं नृत्यों का प्रदर्शन।
-1963 में हरिजन सेवक संघ देहरादून के तत्वावधान में राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए पर्वतीय बाल कलाकारों को प्रशिक्षित कर लोकगीत व नृत्यों का अभूतपूर्व आयोजन। इस कार्यक्रम के उद्घोषक भी बाल कलाकार ही बनाए गए।
-1964 में श्रीनगर गढ़वाल में हरिजन सेवक संघ के लिए मनोरम कार्यक्रम का निर्देशन।
-1966 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई के तत्वावधान में उत्तराखंड के लोकगीत व नृत्य के कार्यक्रम में गढ़वाली सांस्कृतिक टोली का नेतृत्व।
-1970 में मसूरी शरदोत्सव के अवसर पर शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं की रंगारंग कार्यक्रम प्रतियोगिताओं में निर्णायक।
-1972 में गढ़वाल सभा मुरादाबाद के मंच पर देहरादून की अपनी सांस्कृतिक टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति।
-1976 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई के लिए वहीं के गढ़वाली कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशन।
-1979 में मसूरी टीवी टावर के उद्घाटन के अवसर पर दिल्ली दूरदर्शन के लिए अपनी टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतिकरण।
-1979 में सेंट्रल डिफेंस एकाउंट्स के शताब्दी समारोह के अवसर पर रंगारंग कार्यक्रम में सक्रिय भाग। इसी वर्ष मसूरी शरदोत्सव के अवसर पर अपनी सांस्कृतिक टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुति।
-1980 में गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के तत्वावधान में 'टैगोर थियेटरÓ में सांस्कृतिक टोली का नेतृत्व एवं रंगारंग कार्यक्रमों की प्रस्तुति।
-1982 में पर्वतीय कला मंच के गठन के बाद देहरादून में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के चार प्रदर्शन और इसी वर्ष गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के मंच पर भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों के चार प्रदर्शन।
-1983 में पर्वतीय कला मंच के सचिव मनोनीत।
-1986 में गढ़वाली समाज कानपुर के गढ़वाली कवि सम्मेलन की अध्यक्षता।
-1987 में भारत सरकार द्वारा संचालित उत्तर मध्य सांस्कृतिक क्षेत्र द्वारा आयोजित इलाहाबाद में संपन्न सांस्कृतिक समारोह में पर्वतीय कला मंच की टोली का नेतृत्व।
-1987 में ही दृष्टि बाधितार्थ राष्ट्रीय संस्थान देहरादून में आयोजित संगीत, गायन, नृत्य और नाटक की प्रतियोगिता में निर्णायक।
सम्मान
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-रघुमल आर्य कन्या पाठशाला दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए 1955 में सम्मानित।
-1956 में गढ़वाली गीतों के प्रथम संग्रह गीत गंगा के लिए अखिल गढ़वाल सभा देहरादून द्वारा सम्मानित।
-1956 में प्रांतीय रक्षा दल देहरादून द्वारा आयोजित खेलकूद व सांस्कृतिक प्रतियोगिता के अवसर पर जिलाधीश मोहम्मद बट द्वारा सम्मानित।
-1955 में पर्वतीय जन विकास संस्था दिल्ली की ओर गढ़वाली लोक संगीत के लिए सम्मानित।
-1956 में सरस्वती महाविद्यालय दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सम्मानित।
-1957 में आचार्य नरेंद्र देव शास्त्री व सांसद भक्तदर्शन के हाथों प्रशस्ति पत्र।
-पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून की ओर से 1958 में गणतंत्र दिवस के मौके पर लोकगीतों के रंगारंग कार्यक्रमों के लिए सम्मानित।
-1962 में साहित्य सम्मेलन चमोली द्वारा 'लोकरत्नÓ की उपाधि।
-1970 में 'मलेथा की कूलÓ नाटक के सफल मंचन के लिए हिमालय कला संगम देहरादून की ओर से सम्मानित।
-1979 में डिफेंस एकाउंट्स रिर्केशन क्लब सीडीए देहरादून की ओर से सम्मानित।
-1980 में लोक संगीत स्वर परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर आकाशवाणी नजीबाबाद की ओर से प्रशस्ति पत्र।
-1984 में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर दून मनोरंजन क्लब की ओर से जिलाधीश अतुल चतुर्वेदी के हाथों सम्मानित।
-1990 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई द्वारा 'गढ़ रत्नÓ
-1995 में उत्तरप्रदेश संगीत अकादमी द्वारा अकादमी पुरस्कार, नागरिक परिषद संस्थान देहरादून द्वारा 'दूनरत्नÓ।
-1999 में उत्तराखंड महोत्सव देहरादून में 'मील का पत्थरÓ सम्मान।
-2000 में अल्मोड़ा संघ की ओर से प्रथम 'मोहन उप्रेती लोक संस्कृतिÓ पुरस्कार।
-2003 देहरादून के 18 सामाजिक संगठनों की ओर से सामूहिक नागरिक अभिनंदन।
-2011 में डा.शिवानंद फाउंडेशन की ओर से 'डा.शिवानंद नौटियाल स्मृति सम्मानÓ।
-2016 में 'दैनिक जागरणÓ की ओर से आयोजित 'स्वरोत्सवÓ में 'लाइफ टाइम अचीवमेंटÓ सम्मान
जुड़ाव
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-मनोरंजन क्लब पौड़ी-गढ़वाल
-हिमालय कला संगम, दिल्ली
-पर्वतीय जन कल्याण समिति, दिल्ली
-गढ़वाल भ्रातृ मंडल, मुंबई
-हिमालय कला संगम, देहरादून
-पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन, देहरादून
-पर्वतीय कला मंच, देहरादून
-सरस्वती महाविद्यालय, दिल्ली
-शैल सुमन, मुंबई
-अखिल गढ़वाल सभा, देहरादून
-गढ़वाल रामलीला परिषद, देहरादून
-गढ़वाल साहित्य मंडल, दिल्ली
-उत्तर प्रदेश हरिजन सेवक समाज, देहरादून
-भारत सेवक समाज, देहरादून
एलबम
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-रवांई की राजुला
-गढ़वाली सिनेमा में योगदान
-'मेरी प्यारी ब्वैÓ के संवाद और गीत लिखे।
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