सात रूपों में विराजमान हैं भगवान बदरी विशाल
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दिनेश कुकरेती
उत्तराखंड हिमालय में सप्त बदरी समूह के पौराणिक तीर्थों का बदरीनाथ धाम जितना ही माहात्म्य है। बदरीनाथ धाम की तरह इन तीर्थों में भी भगवान नारायण विभिन्न रूपों में वास करते हैं। 'स्कंद पुराणÓ के 'केदारखंडÓ में कहा गया है कि 'इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्, समूलहमस्य पांसुरे स्वाहाÓ (सर्वव्यापी परमात्मा विष्णु ने इस जगत को धारण किया है और वे ही पहले भूमि, दूसरे अंतरिक्ष और तीसरे द्युलोक में तीन पदों को सुशोभित करते है अर्थात वे ही सर्वत्र व्याप्त है)। सप्त बदरी समूह के इन सभी मंदिरों का स्थापना काल भी कमोबेश वही है, जो बदरीनाथ धाम का माना जाता है। इनमें कर्णप्रयाग के निकट आदि बदरी, पांडुकेश्वर में योग-ध्यान बदरी, जोशीमठ के निकट सुभांई गांव में भविष्य बदरी, उर्गम घाटी में ध्यान बदरी, जोशीमठ के निकट अणीमठ में वृद्ध बदरी, जोशीमठ में नृसिंह बदरी और बदरीशपुरी में विशाल बदरी यानी बदरीनाथ धाम स्थित हैं।
सप्त बदरी समूह के कुछ मंदिर सालभर दर्शनार्थियों के लिए खुले रहते हैं, जबकि बाकी में चारधाम सरीखी ही कपाट खुलने व बंद होने की परंपरा है। कहते हैं कि प्राचीन काल में जब बदरीनाथ धाम की राह बेहद दुर्गम एवं दुश्वारियों भरी थी, तब अधिकांश भक्त आदि बदरी धाम में भगवान नारायण के दर्शनों का पुण्य प्राप्त करते थे। लेकिन, कालांतर में सड़क बनने से बदरीनाथ धाम की राह आसान हो गई। एक मान्यता यह भी है किनृसिंह मंदिर जोशीमठ में भगवान नृसिंह के बायें हाथ की कलाई निरंतर कमजोर हो रही है। कलयुग की पराकाष्ठा पर जिस दिन यह कलाई टूटकर जमीन पर गिर जाएगी, उस दिन नर-नारायण (जय-विजय) पर्वत आपस में जुड़ जाएंगे। इसके बाद बदरीनाथ धाम की राह सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगी। तब भगवान बदरी नारायण सुभांई गांव स्थित भविष्य बदरी धाम में अपने भक्तों को दर्शन देंगे।
आस्था ही नहीं, आर्थिकी के केंद्र भी
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सप्त बदरी समूह के मंदिर महज आस्था के केंद्र ही नहीं, बल्कि पहाड़ के जीवन की धुरी भी हैं। इन मंदिरों से हजारों लोगों की आर्थिकी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से जुड़ी हुई है। यात्राकाल के छह महीने वे यहां पूजा-पाठ समेत विभिन्न आर्थिक गतिविधियां संचालित कर सालभर के लिए जीविकोपार्जन के साधन जुटा लेते हैं। देखा जाए तो इन मंदिरों का पहाड़ से पलायन रोकने में भी बहुत बड़ा योगदान है। इसके अलावा पहाड़ की संस्कृति एवं परंपराओं के प्रचार-प्रसार में भी सप्त बदरी और पंच केदार समूह के मंदिर पीढिय़ों से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं।
नारायण के नाना रूप
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कलयुग में श्रेष्ठ विशाल बदरी
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नर-नारायण पर्वत के आंचल में समुद्रतल से 3133 मीटर की ऊंचाई पर अवस्थित बदरीनाथ धाम देश के चार धामों में सर्वश्रेष्ठ तीर्थ स्थल है। मान्यता है कि आद्य शंकराचार्य ने आठवीं सदी में बदरीनाथ मंदिर का निर्माण कराया था। मंदिर के गर्भगृह में भगवान नारायण की चतुर्भुज मूर्ति विराजमान है। शालिग्राम शिला से बनी बनी यह मूर्ति ध्यानमुद्रा में है। कथा है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुंड से निकालकर मंदिर में स्थापित की थी। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तो उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरंभ कर दी। शंकराचार्य की प्रचार-यात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनंदा में फेंक गए। शंकराचार्य ने उसकी पुनस्र्थापना की। लेकिन, मूर्ति फिर स्थानांतरित हो गई, जिसे तीसरी बार तप्तकुंड से निकालकर रामानुजाचार्य ने स्थापित किया। मंदिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखंड दीप प्रज्ज्वलित रहता है, जो अचल ज्ञान-ज्योति का प्रतीक है। मंदिर के पश्चिम में 27 किमी की दूरी पर बदरीनाथ शिखर के दर्शन होते हैं, जिसकी ऊंचाई 7138 मीटर है।
योग-ध्यान बदरी
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वृद्ध बदरी
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भविष्य बदरी
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स्कंद पुराण के केदारखंड में कहा गया है कि कलयुग की पराकाष्ठा होने पर जोशीमठ के समीप जय-विजय नाम के दोनों पहाड़ आपस में जुड़ जाएंगे। राह अवरुद्ध होने से तब भगवान बदरी विशाल के दर्शन असंभव हो जाएंगे। ऐसे में भक्तगण समुद्रतल से 2744 मीटर की ऊंचाई पर स्थित भविष्य बदरी में ही भगवान के विग्रह का दर्शन-पूजन कर सकेंगे। भविष्य बदरी धाम जोशीमठ-मलारी मार्ग पर तपोवन से आगे सुभांई गांव के पास स्थित है। यहां पहुंचने के लिए तपोवन से चार किमी की खड़ी चढ़ाई देवदार के घने जंगल के बीच से तय करनी पड़ती है। कहते हैं कि यहां पर महर्षि अगस्त्य ने तपस्या की थी। वर्तमान में यहां पर पत्थर में अपने-आप भगवान का विग्रह प्रकट हो रहा है। इस मंदिर के कपाट बदरीनाथ के साथ ही खोलने की परंपरा है।
ध्यान बदरी
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पौराणिक आख्यानों के अनुसार इस स्थान पर इंद्र ने कल्पवास की शुरुआत की थी। कहते हैं कि जब देवराज इंद्र दुर्वासा के शाप से श्रीहीन हो गए, तब उन्होंने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए इस स्थान पर कल्पवास किया। तब से यहां कल्पवास की परंपरा चल निकली। कल्पवास में चूंकि साधक भगवान के ध्यान में लीन रहता है, इसलिए यहां पर भगवान का विग्रह भी आत्मलीन अवस्था में है। इसी कारण नारायण के इस विग्रह को ध्यान बदरी नाम से संबोधित किया गया। नारायण भक्तों के लंबे प्रवास ने यहां पर विष्णु मंदिर को जन्म दिया और इस मंदिर को सप्त बदरी के अंग के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। प्राचीन काल में इस स्थान पर देवताओं ने भगवान की तपस्या की। जिससे प्रसन्न होकर भगवान ने देवताओं को कल्पवृक्ष प्रदान किया। यह स्थान उर्गम धाटी के कल्पेश्वर क्षेत्र में स्थित है।
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गढ़वाल राज्य की राजधानी रही चांदपुरगढ़ी से तीन किलोमीटर आगे रानीखेत मार्ग पर प्राचीन मंदिरों का समूह दिखाई देता है, जो सड़क के दायीं ओर स्थित है। यही है सप्त बदरी में शामिल आदि बदरी धाम। कथा है कि इन मंदिरों का निर्माण स्वर्गारोहिणी यात्रा के दौरान पांडवों ने किया था। यह भी कहते हैं कि आठवीं सदी में शंकराचार्य ने यह मंदिर बनवाए थे। जबकि, एएसआइ (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) के अनुसार इनका निर्माण आठवीं से 11वीं सदी के बीच कत्यूरी राजाओं ने किया। कुछ वर्षों से एएसआइ ही इन मंदिरों की देखभाल कर रहा है। आदि बदरी मंदिर समूह कर्णप्रयाग से दूरी 11 किमी है। मूलरूप से इस समूह में 16 मंदिर थे, जिनमें अब 14 ही बचे हैं। प्रमुख मंदिर भगवान विष्णु का है, जिसकी पहचान इसका बड़ा आकार और एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित होना है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु एक मीटर ऊंची शालीग्राम की काली प्रतिमा विराजमान है। जो अपने चतुर्भुज रूप में खड़े हैं। इसके सम्मुख एक छोटा मंदिर गरुड़ महाराज का है। अन्य मंदिर सत्यनारायण, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, चकभान, कुबेर (मूर्तिविहीन), राम-लक्ष्मण-सीता, काली, शिव, गौरी व हनुमान को समर्पित हैं। इन प्रस्तर मंदिरों पर गहन एवं विस्तृत नक्काशी हुई है और हर मंदिर पर नक्काशी का भाव विशिष्ट एवं अन्य मंदिरों से अलग भी है। आदि बदरी धाम के पुजारी थापली गांव के थपलियाल होते हैं। इस मंदिर के कपाट साल में सिर्फ पौष मास में बंद रहते हैं और मकर संक्रांति पर्व पर श्रद्धालुओं दर्शनार्थ खोल दिए जाते हैं।
नारायण के प्रतिरूप नृसिंह बदरी
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चमोली जिले के ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) में स्थित नृसिंह मंदिर भगवान विष्णु के 108 दिव्य तीर्थों में से एक है। सप्त बदरी में से एक होने के कारण इस मंदिर को नृसिंह बदरी भी कहा जाता है। मान्यता है कि आद्य गुरु शंकराचार्य ने स्वयं यहां नृसिंह शालिग्राम की स्थापना की थी। यहां भगवान नृसिंह की लगभग दस इंच ऊंची शालिग्राम शिला से स्व-निर्मित प्रतिमा स्थापित है। इसमें भगवान नृसिंह कमल पर विराजमान हैं। उनके साथ बदरी नारायण, उद्धव और कुबेर के विग्रह भी स्थापित हैं। भगवान के दायीं ओर श्रीराम, माता सीता, हनुमानजी व गरुड़ महाराज और बायीं तरफ मां चंडिका (काली) विराजमान हैं। मान्यता है कि भगवान नृसिंह के बायें हाथ की कलाई निरंतर कमजोर हो रही है। जिस दिन कलाई टूटकर जमीन पर गिर जाएगी, उस दिन नर-नारायण (जय-विजय) पर्वत के आपस में मिलने से बदरीनाथ की राह सदा के लिए अवरुद्ध हो जाएगी। तब भगवान बदरी नारायण भविष्य बदरी में दर्शन देंगे। बदरीनाथ के कपाट बंद होने पर शंकराचार्य की गद्दी नृसिंह मंदिर में ही स्थापित होती है। कपाट खुलने से पूर्व हर साल मंदिर में एक विशेष अनुष्ठान संपन्न होता है।
बदरीनाथ और आसपास के दर्शनीय स्थल
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अलकनंदा के तट पर तप्त-कुंड, ब्रह्म कपाल, सर्प का जोड़ा, शेषनाग की छाप वाला शिलाखंड 'शेषनेत्रÓ, चरणपादुका, बर्फ से ढका नीलकंठ शिखर, माता मूर्ति मंदिर, देश का अंतिम गांव माणा, वेदव्यास गुफा, गणेश गुफा, भीम पुल, अष्ट वसुओं की तपोस्थली वसुधारा, लक्ष्मी वन, सतोपंथ (स्वर्गारोहिणी), अलकनंदा नदी का उद्गम एवं कुबेर का निवास अलकापुरी, सरस्वती नदी, बामणी गांव में भगवान विष्णु की जंघा से उत्पन्न उर्वशी का मंदिर। विशेषकर बदरीनाथ धाम में नारायण पर्वत की चोटी को निहारो तो लगता है कि मंदिर के ऊपर पर्वत की चोटी शेषनाग के रूप में अवस्थित है। शेषनाग के प्राकृतिक फन स्पष्ट देखे जा सकते हैं।
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