Wednesday, 15 July 2020

हरिद्वार से पुराना है कोटद्वार



हरिद्वार से पुराना है कोटद्वार
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दिनेश कुकरेती
कोटद्वार कस्बा कब अस्तित्व में आया होगा, इस बारे में ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है। दौलू जागरी के जागरों से जान पड़ता है कि कोटद्वार का इतिहास बहुत पुराना है। हालांकि, हमारे पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है, जो कोटद्वार को एक वैदिक नगर के रूप में प्रतिष्ठित करता हो। महाकवि कालीदास ने भी अपने ग्रंथों में न तो कोटद्वार का जिक्र किया है, न हरिद्वार का ही। हां! सातवीं सदी में भारत आए चीनी यात्री ह्वैनसांग ने जरूर गंगाद्वार और मायापुर का जिक्र किया है, किंतु हरिद्वार के बारे में कुछ नहीं कहा। ह्वैनसांग मंडावार, गंगाद्वार व मायापुर भी गए। साथ ही उन्होंने गंगा के किनारे सौ मील आगे की यात्रा भी की और वहां के एक सुंदर नगर का वर्णन किया। यह नगर श्रीनगर या उत्तरकाशी हो सकता है। कनिंघम ने भी उन्नीसवीं सदी में ह्वैनसांग की तरह देश का भ्रमण किया। उन्होंने उत्तराखंड को ब्रह्मपुर लिखा है और तब यहां कत्यूरी राज होने का उल्लेख किया है। गढ़वाल में धनपुर और पोखरी स्थित तांबे की खानों का उल्लेख भी उनके दस्तावेजों में है। कनिंघम के अनुसार ह्वैनसांग ने कोटद्वार को मंडावर से 50 मील दूर बताया है, लेकिन हरिद्वार का कहीं जिक्र नहीं किया। पर, इसमें कोई शंका नहीं कि कोटद्वार और हरिद्वार, दोनों नगर मुगलकाल में विद्यमान थे।
कई विद्वानों का मानना है कि पौराणिक कौमुद तीर्थ कोटद्वार ही है। विद्वानों के अनुसार "स्कंद पुराण" में वर्णित कौमुद तीर्थ के लक्षण एवं दिशाए इस स्थान को कौमुद तीर्थ होने का गौरव देते है। स्कंद पुराण के अध्याय ११९ के श्लोक छह में कौमुद तीर्थ के चिह्नों के बारे में बताया गया है कि- "तस्य चिह्नं प्रवक्ष्यामि यथा तज्जायते परम, कुमुदस्य तथा गन्धो लक्ष्यते मध्यरात्रके।" अर्थात महारात्रि में कुमुद यानी बबूल के पुष्प की गंध लक्षित होती है। प्रमाण के लिए आज भी इस स्थान के चारों और बबूल के वृक्ष विद्यमान हैं। कौमुद तीर्थ के विषय में कहा गया है कि पूर्वकाल में इस तीर्थ में कौमुद यानी कार्तिक पूर्णिमा को चंद्रमा ने भगवान शंकर को तप कर प्रसन्न किया था, इसलिए इस स्थान का नाम कौमुद पड़ा। संभवतः कौमुद द्वार होने के कारण ही इस शहर का कोटद्वार नाम पड़ा। लेकिन, अंग्रेजों के सही उच्चारण न कर पाने के कारण वह इसे कोड्वार कहकर पुकारने लगे, जिसे उन्होंने सरकारी अभिलेखों में कोड्वार ही दर्ज किया। बाद में इसका अपभ्रंश रूप कोटद्वार नाम प्रसिद्ध हुआ।कोटद्वार शब्द का संधि विच्छेद करें तो कोट माने "पहाड़" और द्वार माने "दरवाजा" होता है यानी पहाड़ का प्रवेश द्वार। पहले कोटद्वार से होते हुए ही गढ़वाल की राह खुलती थी। सो, कस्बे का कोटद्वार नाम पड़ने के पीछे यह एक बडी़ वजह हो सकती है। प्रचलित मान्यता भी यही है कि पहाड़ का प्रवेश द्वार होने के कारण इस नगर को कोटद्वार नाम मिला। यहां यह बता देना भी प्रासंगिक होगा कि कोटद्वार का कण्वाश्रम व मोरध्वज के साथ कोई-न-कोई संबंध जरूर रहा। "सत्यपथ" के संपादक ललिता प्रसाद नैथानी आपनी पुस्तक "मालिनी सभ्यता के खंडहर" में लिखते हैं कि पुराने जमाने में बदरीनाथ धाम की यात्रा कण्वाश्रम होते हुए ही शुरू होती थी। यात्री कण्वाश्रम से व्यासघाट और व्यासघाट से केदारनाथ व बदरीनाथ जाते थे।
केदार-बदरी की यात्रा से पहले कण्वाश्रम के दर्शन यात्रियों के लिए शुभ माने जाते थे। यह वह दौर है, जब हरिद्वार का कोई अस्तित्व नहीं था। असल में हरिद्वार कोई पौराणिक नगर नहीं है। हरिद्वार की चलती तो वहां रेल पहुंचने के बाद हुई। जबकि, कण्वाश्रम की ख्याति तो बदरीनाथ की ही भांति पुराकाल से ही रही है। महाकवि कालीदास ने अभिज्ञान शाकुंतलम में कण्वाश्रम और मालिनी नदी का जैसा समदृष्ट वर्णन किया है, वैसा बिना देखे संभव ही नहीं है।
बौद्धकाल में ह्वैनसांग की यात्रा के दौरान भी कोटद्वार क्षेत्र अस्तित्व में था, मोरध्वज का किला इसका प्रमाण है। ह्वैनसांग और कनिंघम ने मंडावर से 50 मील उत्तर में कोटद्वार का अस्तित्व बताया है। उनके लेखों से मालूम होता है कि कोटद्वार हरिद्वार से बहुत पुराना नगर है। मुगलकाल में तो कोटद्वार एक खाता-पीता क्षेत्र हुआ करता था। तब गढ़वाल की सरहद बढा़पुर तक थी और हरिद्वार, कनखल, चंडीघाट व लालढांग क्षेत्र भी गढ़वाल में ही था। उस दौरान गढ़वाल के राजा ने कोटद्वार क्षेत्र में कई जागीर अपने जागीरदारों को बख्शी हुई थीं। औरंगजेब के जमाने के 16वीं सदी के एक दस्तावेज से ज्ञात होता है कि तब चौकी-कोटद्वार वहां था, जहां पुरिया नैथानी को महाराज फतेपति शाह ने दो हजार बीघा भूमि जागीर में दी थी। पुरिया नैथानी के वंशज आज भी जशोधरपुर में रह रहे हैं। चौकी यानी चौकीघाटा आज भी मौजूद है।
यही चौकीघाटा वर्ष 1924 तक भरपूर मंडी हुआ करता था, लेकिन 1924 की बाढ़ ने इस मंडी का अस्तित्व मिटा डाला। इसके अवशेष अब भी वहां देखे जा सकते हैं। उक्त दस्तावेज में मौजूद नेगियों और भंडारियों के दस्तखत प्रमाण हैं कि चौकी-कोटद्वार मालिनी नदी के तट पर रहा होगा। राजा भीम सिंह का गांव भीमसिंहपुर और उनकी संतानें आज भी मौजूद हैं, लेकिन भंडारियों के बारे में फिलहाल कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
19वीं सदी के आरंभ में गोरख्याणी ने गढ़वाल और भाबर को तहस-नहस कर उसकी तस्वीर ही बदल डाली थी। वर्ष 1816 में गोरख्याणी का पराभव हुआ और अंग्रेज़ी राज ने दस्तक दी। कोटद्वार-भाबर तब उजाड़ अवस्था में पहुंच चुका था। खैर! वर्ष 1879 में डिप्टी कमिश्नर ग्रास्टन ने गढ़वाल भाबर को दोबारा बसाने की शुरुआत की। खोह नदी के बायीं ओर सिद्धबली मंदिर और खाम बागीचे के बीच पुराना कोटद्वार बसाया गया, जिसके भग्नावशेष आज भी अपने प्रारंभिक काल की गाथाएं सुना रहे हैं। तब यह भू-भाग बीहड़ जंगलों से घिरा था और यहां तकरीबन दो हजार की आबादी निवास करती थी। लेकिन, यह कोटद्वार भी कालांतर में खोह में आई बाढ़ की भेंट चढ़ गया।
इस बीच वर्ष 1892 में कोटद्वार में रेल आ चुकी थी। हिमालय क्षेत्र का प्रवेश द्वार होने के नाते कोटद्वार रेल मार्ग का उपयोग हिमालय क्षेत्र से लकडी़ परिवहन के लिए किया गया था। प्रथम यात्री ट्रेन यहां वर्ष 1901 में आई। वर्ष 1917 में खाम सुपरिटेंडेंट पं. गंगा दत्त जोशी ने खोह नदी के पश्चिम में नए सिरे से कोटद्वार बसाना शुरू किया। बावजूद इसके वर्ष 1930 तक यहां कुछ ही मकान बन पाए थे और शिक्षा के नाम पर एकमात्र प्राइमरी स्कूल था। सही मायने में कोटद्वार को पूरी तरह व्यवस्थित करने का श्रेय डिप्टी कमिश्नर बर्नार्ड को जाता है। सन् 1939 में उन्होंने कोटद्वार के लिए एक प्लान तैयार किया, जो वर्ष 1943 में कार्यान्वित हो पाया। इसमें जीएमओयू के संस्थापक उमानंद बड़थ्वाल का भी योगदान रहा। वर्ष 1949 में नोटिफाइड एरिया कमेटी बनने के बाद वर्ष 1951 में कोटद्वार नगर का प्रबंधन नगर पालिका समिति के हाथ में आ गया। तब कोटद्वार की आबादी 8148 थी।  धीरे-धीरे कोटद्वार की तरक्की के द्वार खुलते गए और यह एक सुविधा-संपन्न शहर बनता चला गया। आज कोटद्वार गढ़वाल ही नहीं उत्तराखंड का भी प्रमुख शहर है।
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