डरा रहा कोरोना, समझा रहा कोरोना
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कोरोना के अनेक रूप हैं, बुरे भी और अच्छे भी। एक तरफ कोरोना महामारी, त्रासदी, आपदा, भय, विषाद आदि-आदि रूपों में हमारे सामने है, वहीं इसने पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक जीने के तौर-तरीके भी पूरी तरह बदल डाले। कोरोना ने हमें प्रकृति की अहमियत समझाई तो स्वयं को प्रकृति के अनुरूप ढालने के लिए प्रेरित भी किया। कोरोना ने बताया कि सादगी, संयम, सद्प्रयास, हौसला और सकारात्मक दृष्टिकोण से हम बड़ी से बड़ी चुनौती का भी सहज भाव से मुकाबला कर सकते हैं। बस! हमें धैर्य को नहीं टूटने देना है, अंधकार देर-सवेर खुद-ब-खुद छंट जाएगा।
दिनेश कुकरेती
महामारी कोई भी हो, हर कालखंड में उसका कमोबेश यही स्वरूप रहा है। ऐसी ही चुनौतियों से तब भी मानवता का जूझता पड़ा, जैसी आज हमारे सामने खड़ी हैं। हां! यह जरूर है कि साधन-संसाधनों की स्थिति में समय के साथ-साथ बदलाव आया है। आज हम समझ पा रहे हैं कि प्रकारांतर से यह मानवीय भूल का ही नतीजा है। जबकि, पहले संक्रामक बीमारियों को दैवीय प्रकोप की परिणति मान लिया जाता था और मनुष्य चुनौतियों से लडऩे के बजाय नियति के शरणागत हो जाता था। आज बहुत हद तक ऐसा नहीं है। हम जितनी शिद्दत से कोविड-19 के खतरों को महसूस कर रहे हैं और उसी गंभीरता से इससे लडऩे के लिए लगातार खुद को तैयार भी कर रहे हैं। हम जानते हैं कि इस महामारी का पूरी तरह खात्मा तब तक संभव नहीं, जब तक कि कोई प्रामाणिक वैक्सीन अस्तित्व में नहीं आ जाती। सो, तब तक इससे बचने को हमने अपनी जीवनचर्या को ही आमूलचूल बदल डाला है। यह अलग बात है कि इस बदलाव से तमाम विसंगतियां भी सामने आ रही हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि इन्हीं विसंगतियों के बीच से रास्ता भी निकलना है।
जरा थोड़ी देर गंभीरता से मनन कीजिए, पता चल जाएगा कि कोरोना ने न केवल स्वास्थ्य के सामने चुनौतियां खड़ी की हैं, बल्कि समाज, शिक्षा, संस्कृति, खान-पान, अर्थ, व्यापार, पर्यटन, तीर्थाटन आदि, सभी को बुरी तरह प्रभावित किया है। कोरोना ऐसा दुश्मन है, जो हम चैलेंज भी कर रहा है और लड़ाई में मुकाबले के लिए खुद को तैयार करने के अवसर भी दे रहा है। वह समझा रहा है कि लड़ाई को जीतने के लिए सबसे पहले हमें अपना इम्यूनिटी सिस्टम (प्रतिरोधक क्षमता) मजबूत करना होगा। ...और ऐसा प्रकृति के करीब रहकर ही संभव है। चलताऊ भोजन (फास्ट फूड) की संस्कृति हमें मुकाबले में टिके नहीं रहने देगी। हमारी समझ में आ गया है कि तरक्की का मतलब जमीन छोड़ देना नहीं है। प्रकृति ने जो फूड चेन हमारे लिए नियत की है, अंतत: वही हमें बीमारियों से लडऩे की ताकत देती है। हमारे लिए दुपहिया-चौपहिया जितना जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है खुशी-खुशी पैदल चलना। एसी की शीतलता से ज्यादा जरूरत हमारे लिए खिड़की से आनी वाले ताजा हवा के झोंको की है। भले ही उसमें मौसमानुकूल वातावरण की गर्माहट या शीतलता क्यों न समाई हुई हो।
कोरोना ने हमें यह सोचने को भी मजबूर किया कि भोग-विलास की तमाम जरूरतों के बावजूद मनुष्य की अंतिम लड़ाई पेट के लिए ही है। कोठियों में रहने वाला हो या झोपड़ी में, गेहूं-चावल के बगैर किसी की भी गुजर संभव नहीं। हां! क्वालिटी और कीमत में अंतर जरूर हो सकता है। इसलिए जरूरी है कि हम कृषि क्षेत्र एवं किसानों को सशक्त करने के लिए कार्य करें। यह न भूलें कि आपात काल में सिर्फ किसान ही हमारी उम्मीदों को जिलाए रख सकता है। पूरी दुनिया में अगर लॉकडाउन सफल हो पाया तो यह किसान की मेहनत का ही परिणाम था। इस अवधि में पूरी मानवता गेहूं-चावल के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रही। सबका ध्येय एक ही रहा कि कोई भूखा न रहे।
इस महामारी ने यह भी समझाया कि हमें समाज के प्रति उदार होना चाहिए। यही हमारे मनुष्य होने की पहचान भी है। एक-दूसरे का हाथ बंटाने और कमजोर लोगों की मदद करने से ही समाज परिस्थितियों का मुकाबला करने में सक्षम होता है। भोगवादी संस्कृति के बावजूद लॉकडाउन की अवधि में इसकी झलक व्यापक स्तर पर देखने को मिली। सक्षम लोग खुलकर जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आए और लाखों लोगों का जीवन बचाने के साथ ही उनकी उम्मीदों को भी मुरझाने नहीं दिया। वहीं, हमने यह भी प्रत्यक्ष देखा कि एक कल्याणकारी राज्य के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की क्या अहमियत है और इसे मजबूत किया जाना क्यों जरूरी है। संकट की इस घड़ी में जहां मुनाफा बटोरेने वाले तमाम निजी अस्पताल और चिकित्सक तटस्थ नजर आए या नेपथ्य में चले गए, वहीं सरकारी अस्पताल व चिकित्सकों ने सीमित संसाधनों के बावजूद अपनी जिम्मेदारी का पूरे मनोयोग से न केवल निर्वहन किया, बल्कि स्वयं की जान जोखिम में डालने से भी नहीं हिचके।
इस कालखंड ने जीवन को सरल भी बनाया और कठिन भी। सरल इस मायने में कि आम लोग एक ओर जहां डिजिटल होना सीखे, वहीं उन्हें यह भी मालूम हुआ इंटरनेट के माध्यम से दूर रहकर भी एक-दूसरे से करीबी कैसे बनाई जाती है। बच्चे घर बैठे ऑनलाइन स्टडी में पारंगत हुए और बड़े ऑनलाइन खरीदारी में। लेकिन, इसका कष्टदायी पक्ष यह है कि आज भी उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य के ज्यादातर गांवों में इंटरनेट पहुंच ही नहीं बना पाया। जहां पहुंचा भी, वहां अव्वल तो नेटवर्क नहीं आता और आता भी है तो टू-जी स्पीड का। उस पर एक बड़ी आबादी ऐसी भी है, जो आर्थिक रूप से इतनी मजबूत नहीं कि पेट काटकर इंटरनेट सेवा का उपभोग कर सके। ऐसे भी परिवारों की कमी नहीं है, जिनमें दो से अधिक बच्चे हैं और मोबाइल सिर्फ एक। बताइए! सभी बच्चे एक साथ क्लास कैसे अटेंड कर लेंगे। उस पर 'आपÓ ऐसे परिवारों के पास लैपटॉप होने की उम्मीद किए बैठे हैं। इतना ही नहीं, दिनभर मोबाइल की छोटी-सी स्क्रीन पर आंखें गड़ाए रहने से बच्चों की आंखों पर भी तो फर्क पड़ेगा। क्या यह चिंताजनक स्थिति नहीं है।
एक बात और, जो लगती तो सामान्य है, लेकिन परिणाम इसके बेहद गंभीर हो सकते हैं। यह है डब्ल्यूएचओ की ओर से दिया गया टर्म, जिसे 'सोशल डिस्टेंसिंगÓ कहा जा रहा है। चीन के वुहान शहर में कोरोना संक्रमण के मामले सामने आने पर डब्ल्यूएचओ ने इसे सुरक्षा का सबसे कारगर हथियार बताया था। दरअसल, वर्ष 1930 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से टीबी जैसी संक्रामक बीमारियों पर शोध करने वाले विलियम एफ वेल्स ने यह टर्म ईजाद किया था। शोध के दौरान वह इस नतीजे पर पहुंचे थे कि मुंह से निकलने वाले इन्फेक्टेड ड्रॉपलेट्स एक से दो मीटर के अंतर्गत ही गिरते हैं। इसलिए संक्रमित व सामान्य व्यक्ति के बीच इतनी दूरी होनी ही चाहिए। कोरोना संक्रमण फैलने पर इस टर्म का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य माना गया।
देखा जाए तो 'सोशल डिस्टेंसिंगÓ का मतलब 'सामाजिक दूरीÓ होता है। जबकि, दो व्यक्तियों के बीच एक से दो मीटर दूरी का मतलब तो 'फिजिकल डिस्टेंसिंगÓ यानी 'शारीरिक दूरीÓ हुआ। सही टर्म भी यही है। आखिर हम समाज से दूरी बनाकर कैसे इस महामारी का मुकाबला कर सकते हैं। होना तो यह चाहिए कि सामाजिक सहभागिता निभाते हुए हम शारीरिक दूरी का पालन करें। लेकिन, दुर्भाग्य से जिम्मेदार लोग पूरी दुनिया को सामाजिक दूरी बनाने की नसीहत दे रहे हैं। इसके अलावा भी जीवन से जुड़े तमाम ऐसे पहलू हैं, जिन्हें कोविड-19 ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया और कर रहे हैं। लेकिन, मनुष्य होने के नाते हमें हर परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इतिहास गवाह है कि मनुष्य ने संकट पर हमेशा विजय प्राप्त की है और अतीत से सबक लेकर भविष्य में भी प्राप्त करता रहेगा। यही तो जीवन है और जीवन कभी हार नहीं मानता।
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