:: यादें ::
डी.एकिन का 'ओलंपियाÓ और एस्ले का 'ओरियंटÓ
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दिनेश कुकरेती
आज का 'दिग्विजयÓ सिनेमा तीस के दशक में देहरादून की शान हुआ करता था। उस दौर में सिर्फ दो ही छविगृह दून में थे, एक 'ओलंपियाÓ और दूसरा 'ओरियंटÓ। दोनों ही 1927 में बनकर तैयार हुए, लेकिन हिंदुस्तानी सिर्फ 'ओलंपियाÓ में ही एंट्री कर सकते थे। 'ओरियंटÓ सिर्फ अंग्रेजों के लिए था और यहां फिल्में भी इंग्लिश ही लगा करती थीं। बाद में इन दोनों छविगृहों के बीच गांधीपार्क के ठीक सामने सड़क की दूसरी ओर 'ओडियनÓ नाम से एक नया टॉकीज भी अस्तित्व में आया, लेकिन आज उसकी सिर्फ यादें बाकी हैं।
डी.एकिन का 'ओलंपियाÓ और एस्ले का 'ओरियंटÓ
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दिनेश कुकरेती
आज का 'दिग्विजयÓ सिनेमा तीस के दशक में देहरादून की शान हुआ करता था। उस दौर में सिर्फ दो ही छविगृह दून में थे, एक 'ओलंपियाÓ और दूसरा 'ओरियंटÓ। दोनों ही 1927 में बनकर तैयार हुए, लेकिन हिंदुस्तानी सिर्फ 'ओलंपियाÓ में ही एंट्री कर सकते थे। 'ओरियंटÓ सिर्फ अंग्रेजों के लिए था और यहां फिल्में भी इंग्लिश ही लगा करती थीं। बाद में इन दोनों छविगृहों के बीच गांधीपार्क के ठीक सामने सड़क की दूसरी ओर 'ओडियनÓ नाम से एक नया टॉकीज भी अस्तित्व में आया, लेकिन आज उसकी सिर्फ यादें बाकी हैं।
ओलंपिया वह ऐतिहासिक सिनेमाघर है, जिसने घंटाघर के ठीक सामने आरएस माधोराम की बिल्डिंग में आकार लिया। इसकी मालकिन थी डी.एकिन। सिनेमाघर के नीचे लाल इमली-धारीवाल की एजेंसी हुआ करती थी। पास ही बंगाली स्वीट शॉप के आगे पेट्रोल पंप था, जिसका टैंकर वहीं नीचे खुदवाया गया था। भारतीयों के लिए बने इस 450 सीट वाले सिनेमाघर में तब केवल हिंदी फिल्में चला करती थीं। फिल्म निर्माता-निर्देशक एवं लेखक डा.आरके वर्मा बताते हैं कि उस दौर में 'कृष्ण जन्मÓ, 'मिसिंग ब्रेसलेटÓ (बाद में इसी से मिस्टर इंडिया बनी), 'भूल-भुलैयाÓ जैसी पारिवारिक फिल्मों ने टिकट खिड़की पर सफलता के झंडे गाड़े।
वह बताते हैं कि 30 नवंबर 1927 को ओलंपिया की मालकिन ने सरकार को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि 'यहां पर एक स्टूडियो खोला जाना चाहिए।Ó इसके 15 दिन बाद एमकेपी के अवैतनिक प्रबंधक बाबू एस.दर्शनलाल ने भी एक चिट्ठी लिखी, 'देहरादून में ओलंपिया भारतीयों के लिए है। यहां हिंदी फिल्में चलती हैं।Ó उन्होंने यह भी लिखा कि 'इंग्लैंड में दिखाई जाने वाली फिल्मों में भारत की गलत छवि पेश की जाती है।Ó यही 'ओलंपियाÓ वर्ष 1948 में 'प्रकाश टॉकीजÓ हुआ और आज इसे 'दिग्विजयÓ सिनेमा के नाम से जानते हैं।
वह बताते हैं कि 1927में ही 'ओलंपियाÓ से कुछ मीटर के फासले पर गांधी पार्क के सामने एस्ले नामक अंग्रेज ने प्लॉट खरीदकर 500 सीट वाले 'ओरियंटÓ सिनेमा की स्थापना की। लेकिन, यहां भारतीयों के लिए 'नो एंट्रीÓ थी। इन दोनों सिनेमाघरों के बीच गांधीपार्क के ठीक सामने बाद में 'ओडियनÓ सिनेमा अस्तित्व में आया। 226 सीट वाले इस हॉल में भी सिर्फ अंग्रेजी फिल्में लगा करती थीं। 1948 में यहां दो और सिनेमाघर बने, 'अमृतÓ और 'हॉलीवुडÓ। 'अमृतÓ में हिंदी और 'हॉलीवुडÓ में अंग्रेजी फिल्में लगा करती थीं। तब का 'अमृतÓ आज का 'नटराजÓ है, जबकि 'हॉलीवुडÓ कालांतर में 'चीनियाÓ थियेटर बना और फिर 'कैपरीÓ सिनेमा। अब इस हॉल की जगह कैपरी टेड्र सेंटर ने ले ली है।
इसी कालखंड में मोती बाजार देहरादून का सबसे बड़ा सिनेमाघर अस्तित्व में आया। नाम था 'फिल्मिस्तानÓ और सीटे 650। यहां भी पारिवारिक फिल्में लगा करती थीं। जब यहां 'जय संतोषी मांÓ लगी तो, दर्शक स्टेज पर पैसे फेंका करते थे। रेलवे स्टेशन के समीप 'मिनर्वाÓ सिनेमाघर था, जो बाद में 'लक्ष्मीÓ सिनेमा बना और आज वहां लक्ष्मी पैलेस नाम से व्यावसायिक सेंटर है। सिनेमाघरों का अब नामोनिशान भी नहीं बचा।
(फोटो सहयोग गोपाल सिंह थापा)
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