आई बरखा बहार, पडे़ बूंदनि फुहार
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दिनेश कुकरेती
बादशाह अकबर ने सभासदों से पूछा, बारह में से चार महीने निकल जाएं तो शेष कितने रहे? सभी ने एक स्वर में जवाब दिया, आठ। लेकिन, बीरबल का गणित सभी से भिन्न था। वह बोला, जहांपनाह! बारह में चार गए तो बाकी बचा शून्य। बादशाह अचरज से बोले, कैसे? तब बीरबल ने उन्हें समझाया, हमारा देश खेती प्रधान है। खेती वर्षा पर आधारित है। वर्ष के बारह महीनों में से वर्षा के चार महीने यदि निकल जाएं, तो शेष क्या बचेगा? सूखा, दुर्भिक्ष, महामारी और मौत का तांडव। इस नई व्याख्या को सुन सभा में सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे।
सच भी है, वर्षा ऋतु जहां प्रकृति के कण-कण में जीवन का संचार करती है, वहीं मिट्टी भी हरियाली से भर उठती है। वर्षा ऋतु व्यक्ति एवं समाज की आध्यात्मिक चेतना जगाने में भी अहम भूमिका निभाती है। इसलिए वर्षा ऋतु के चार महीनों के लिए 'चातुर्मासÓ शब्द प्रयोग हुआ। यदि वर्षा ऋतु न हो तो बाकी ऋतुएं महत्वहीन हो जाती हैं। इसके बिना उनका सारा सौंदर्य जाता रहता है। वह वर्षा ऋतु ही है, जो अपने शीतल जल से धरती की प्यास बुझाकर उसे उर्वर बनाती है। वर्षाकाल शुरू होते ही प्रकृति में कुछ स्वाभाविक बदलाव होने लगते हैं। इनमें पर्यावरण का परिवर्तन सबसे प्रमुख है। जहां वर्षा का शीतल जल वातावरण को ठंडक प्रदान कर सुहावना और प्रिय बना देता है, वहीं यह नाना प्रकार के जीवों की उत्पत्ति का कारक भी बनता है। यह ऐसा समय है, जब बूंदों की रिमझिम में संगीत का सरगम होता है। हवा, बादल, पेड़, पपीहे सब झूमते-गाते हुए से प्रतीत होते हैं। यह उल्लास जहां लोक के कंठ से बारहमासी, कजरी व झूला गीतों के रूप फूटता है, वहीं सुर साधकों के हृदय में उमडऩे-घुमडऩे लगता है राग मेघ-मल्हार।
वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड के 28वें सर्ग में वर्षा के सौंदर्य का बखान करते हुए श्रीराम कहते हैं, 'वर्षाकाल आ पहुंचा। देखो, पर्वत के समान बड़े-बड़े मेघों के समूहों से आकाश आच्छादित हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो मेघ रूपी सीढिय़ों से आकाश में पहुंचकर अर्जुन के फूलों के हार सी दिखने वाली मेघमालाओं से सूर्य बिंब स्थित अलंकार प्रिय नारायण शोभा पा रहे हैं।Ó पहाड़ों की ढलानों पर उतरते मेघों के सौंदर्य पर मुग्ध कवियों ने वर्षा काल में नदियों के कल-कल निनाद, झरनों की झर-झर, मेढकों की टर-टर, झींगुरों की झिर-झिर, वन-उपवनों के सौंदर्य और पशु-पक्षियों के क्रीड़ा-कल्लोल का अद्भुत चित्रण किया है। 'मेघदूतमÓ में अलकापुरी से भटके शापग्रस्त यक्ष द्वारा मेघों को दूत मानकर अपनी प्रिया यक्षिणी तक विरह-वेदना और प्रेम संदेश भेज देने का निवेदन है। कहते हैं कि महाकवि कालिदास ही वह यक्ष थे, जो उज्जैन से कश्मीर तक अपनी प्रियतमा को मेघों से संदेशा भेजना चाहते थे।
वर्षा ऋतु का पर्यायवाची चातकानंदन यानी चातक को आनंद देने वाली ऋतु भी है। वर्षा काल की समाप्ति के उपरांत अक्टूबर-नवंबर तक ये पक्षी लौटते मानसून के साथ पुन: अरब सागर होते हुए वापस अफ्रीका चले जाते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे परदेशी बालम चातुर्मास बीतने के बाद अपनी प्रियतमा को छोड़ वापस काम पर लौट जाया करते थे। क्या पावस ऋतु का ऐसा शब्द चित्र खींचना अन्यत्र सम्भव है? यही शब्द चित्र तो है जो वर्षा ऋतु में दून घाटी में उल्लास भर देता है। चहुंओर बिखरी हरियाली, सूखे वृक्षों पर नवीन पल्लव, ऐसा प्रतीत होता है मानो घाटी ने अपने जीर्णशीर्ण वस्त्रों का परित्याग कर नवीन हरित परिधान धारण कर लिया है। आकाश में मेघों की गडग़ड़ाहट के साथ श्यामल घनघोर घटाओं में स्वर्णिम चपला दामिनी की थिरकन, मृदंग वादन की संगति में नृत्य का आभास कराती है। मेघ गर्जना से उन्मादित मयूर अपने सतरंगी पंखों को फैलाकर नृत्य विभोर हो उठता है। श्यामवर्णी मेघ के मध्य उड़ती हुई बकुल पंक्तियां अत्यंत मनोहारी प्रतीत होती हैं। तब कवि गा उठता है, 'आई बरखा बहार पड़े बूंदनि फुहार, गोरी भीजत अंगनवा अरे सांवरिया, गोरी-गोरी बैयां पहने हरी-हरी चूडिय़ां, आगे सोने के कंगनवा अरे सांवरिया, बालों में गजरवा सोहे नैनन बीच सजरा, माथे लाली रे टिकुलिया अरे सांवरिया।Ó
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