Friday, 2 October 2020

कहानी (चाहत)

(कहानी)



चाहत

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सका मुझसे मिलन अनायास ही हुआ था। वैसे तो हम कई बार दो-चार हुए थे,लेकिन आपस में कोई निकटता नहीं थी। मैं और वो एक-दूसरे के सामने होने पर भी चुपचाप अपनी राह गुजर जाते थे। यह मेरा कॉलेज का अंतिम वर्ष था। इसी दौरान उससे मेरी मुलाकात हुई, किंतु बड़े नाटकीय ढंग से। दरअसल, उसका घर मेरे मित्र सुशील के घर के ठीक पीछे था। सुशील के घर मेरा आना-जाना लगा रहता था, सो कभी-कभी अकस्मात  उससे भी नजरें मिल जाया करतीं। जिस मकान में वह परिवार समेत रहती थी, वह किराये का था। यह मुझे सुशील से ही मालूम हुआ। साथ ही उसका नाम भी मालूम पड़ गया। भावना था उसका नाम। बड़ी मासूम सी, आकर्षक नैन-नक्श थे उसके। उस समय बारहवीं में पढ़ती थी। कक्षा के हिसाब से उम्र कुछ अधिक थी यानी बीस साल।

भावना की परीक्षाएं नजदीक थी। परीक्षाओं में प्रयोगात्मक परीक्षा के लिए पोस्टर व फाइल तैयार करनी पड़ती है, जो उसे भी बनानी थी। भावना और सुशील के परिवार में अच्छे पड़ोसियों जैसा तालमेल था, जिससे दोनों सगे भाई-बहन की तरह रहते थे। लिहाजा, भावना ने फाइल बनाने की जिम्मेदारी सुशील को सौंप दी। सुशील की यह पुरानी आदत है कि वह किसी भी प्रकार दूसरे व्यक्ति से अपनी तारीफ करवाने की फिराक में रहता है। सो, उसने भावना को भी इन्कार नहीं किया। वैसे चित्र बनाने के मामले में वह शून्य ही था। जाहिर है फाइल मेरे ही गले पडऩी थी। खैर! मैंने फाइल व चार्ट तैयार कर पांच-छह दिन में उसे लौटा दिए।

एक दिन मैं सुशील के घर गया तो भावना वहीं सुशील की बहन सुधा के साथ बैठी मिली। फाइल भी उसके हाथ में थी। सुधा से उसे मालूम पड़ चुका था कि फाइल सुशील ने नहीं, बल्कि मैंने बनाई है। मैं चुपचाप दूसरे कमरे में जा बैठा। लेकिन, सुधा मुझे बुलाकर अपने साथ भावना के पास ले गई और खुद भी मेरे पास ही बैठ गई।
सुधा को मैं अपनी छोटी बहिन की तरह प्यार करता हूं, लेकिन इससे कहीं बढ़कर वह मेरी एक अच्छी दोस्त भी है। इसलिए मैं उससे कभी भी कोई बात नहीं छिपाता था। खैर! एक-दूसरे परिचय होने के बाद भी मैं चुप ही बैठा रहा। तब भावना ने स्वयं ही पहल करते हुए कहा- 'आपका- बहुत-बहुत धन्यवाद ।Ó
'हूं...Ó
मैं चौंका (रुककर) 'मैं कुछ समझा नहींÓ-  मैंने कहा।
'आपने फाइल बनाकर मेरी कितनी हेल्प की है, आप नहीं जानतेÓ-  भावना बोली।
'शायद आपको गलतफहमी हुई है। आपसे तो मैं आज पहली बार मिल रहा हूं। फिर फाइल...।Ó-  मैंने कहा।
'लेकिन...मुझे सब मालूम हो चुका है। वैसे आपकी कला की जितनी भी तारीफ की जाए, कम ही हैÓ-  भावना बोली थी।
मैं चुप रहा।

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उस दिन के बाद करीब दो माह तक मेरी भावना से कोई मुलाकात नहीं हुई। हां, इतना जरूर पता चला कि भावना लोगों ने वहां से घर बदल लिया है और दूसरी जगह शिफ्ट हो गए हैं। जिस मकान में वे शिफ्ट हुए थे, वह हाल ही में बना था। वहां पर सभी-सुविधाएं थी, सिवाए बिजली के। हालांकि, फिटिंग हो चुकी थी, लेकिन कनेक्शन होना बाकी था। भवन स्वामी कनेक्शन के लिए भागादौड़ कर रहा था, मगर काम नहीं बन रहा था। इससे भावना के पिता भी तनाव में थे। इस बारे में उन्होंने सुशील के घर जाकर उससे भी बात की। संयोग से मैं भी उस वक्त सुशील के साथ ही था। सो, मेरा भी उनसे परिचय हो गया। हमने उन्हेंं भरोसा दिलाया कि तीन-चार दिन के भीतर उनके घर बिजली आ जाएगी।
हमारी बिजली दफ्तर में कुछ अधिकारियों से अच्छी छनती है। दरअसल, उन्होंने भावना की सगाई तय कर दी थी। चार-पांच दिन में सगाई होनी थी। गर्मियों के दिन थे, सो बिजली का होना जरूरी था। दूसरे दिन मैं कॉलेज गया तो देखा भावना भी सुधा के साथ कॉलेज आई हुई है। मैं सुधा के पास ही बैठ गया और बातों-बातों में उस दिन भावना से भी मेरा अच्छा मेल-जोल हो गया। वहां सुधा की क्लासमेट रेखा भी मौजूद थी। उससे भी मेरे स्नेहमयी संबंध थे। सुधा की तरह वह भी मुझसे हर बात बेहिचक कह देती थी। सो, मुझे अलग ले जाकर बोली- 'भईया तुमने कभी भावना के बारे में भी सोचा है?Ó
'क्या ?Ó- मैंने कहा।
'वह तो तुम्हें बहुत चाहती हैÓ- रेखा ने कहा।
'ऐसा!Ó- मैं बोला। हालांकि, इस हकीकत से मैं अच्छी तरह वाकिफ था।
'हां! उसे तुमसे बहुत ज्यादा लगाव है, पर तुमसे वह कुछ भी व्यक्त नहीं कर पाती।Ó- रेखा बोली थी।
मुझे उस दिन पहली बार अहसास हुआ कि मैं भी तो उसे कितना चाहता हूं, पर...। हालांकि जब भी वह दिखती थी तो मेरी तिरछी निगाह उस पर ही रहती थी। परन्तु, इस हकीकत को मैंने उस पर जाहिर नहीं होने दिया।
खैर! कुछ देर बात करने के बाद हम घर लौटने लगे तो सुधा बोली- 'भाई, चलो भावना के घर से होकर चलते हैं ।Ó मैं बगैर कोई जवाब दिये चुपचाप उसके साथ चलने लगा। आधा रास्ता तय करने तक तो भावना भी खामोशी से चलती रही, लेकिन जब घर करीब आ गया तो मुझसे मुखातिब होकर बोली- 'आप भी मेरी सगाई में जरूर आना, नहीं तो मैं नाराज हो जाऊंगी।Ó
मैं उसके भावों को समझ रहा था, इसलिए सिर्फ यह कहकर कि, 'जरूर आऊंगाÓ, चुप हो गया। घर पहुंचकर भावना ने अपनी मां से मेरा परिचय कराया। उसकी मां बोली, 'अच्छा! बेटा, अमित तू ही है। भावना ने तेरे बारे में मुझे बता दिया था। बहुत तारीफ करती है तेरी।Ó कुछ देर बैठने के बाद मैंने जाने की इजाजत चाही तो उसकी मां बोली, 'बेटा सगाई के दिन जरूर आना। सब काम तुमने ही करने हैं। भूलना मत।Ó मैंने आने का वादा किया और घर लौट आया।
उस दिन बेहद खुश था। दूसरे दिन शाम को हमने यहां बिजली का कनेक्शन भी करवा दिया। फिर तो भावना के माता-पिता हमारे कायल हो गए। वह भावना की सगाई का दिन था। मैं भी नियत समय पर उसके घर पहुंच गया। उस दिन भावना से मैं जी-भरकर बातें की। वह मेरे बिल्कुल करीब बैठ मेरे चेहरे को तक रही थी। शायद उसे पढऩे की कोशिश कर रही थी। सारे दिन मैं वहां रहा, पर जो कहना चाहता था, वह न कह पाया। हां, बातों-बातों में मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर जरूर रख लिया था। काफी देर तक यूं ही रखा रहा। उसे भी अच्छा लग रहा था, इसलिए उसने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की। फिर मैं उठकर चुपचाप घर लौट आया था।
मैं रेखा के मुंह से, कुछ-कुछ अस्पष्ट सा सुधा के मुंह से भी सुन चुका था कि भावना मुझसे बहुत प्यार करती है। और...कहती कि, 'मैं क्या करूं? मेरे पिता ने इतनी जल्दी और मुझसे राय-मशविरा किए बगैर मेरी सगाई कर दी। मैं विरोध भी नहीं कर सकती थी।Ó लेकिन, मुझसे तो भावना कुछ बोल ही नहीं पाती थी। हालांकि, उसके भावों से स्पष्ट झलकता था कि वह सचमुच मुझे किस हद तक चाहती है।


सगाई के काफी दिन बाद मेरा अनिल के घर जाना हुआ। संयोग से घर में सुधा के अलावा परिवार का कोई सदस्य न था। और...यह मेरी खुशकिस्मती थी कि भावना भी वहीं बैठी थी। अकेले होने के कारण मुझे भावना से बात करने में बड़ी सहूलियत थी। उस दिन पहली बार भावना मुझसे लिपटी रही। काफी देर तक उसने अपना सिर मेरे सीने से लगाए रखा। मैंने भी पहली बार उसके गाल चूमे थे। मैं आहिस्ता-आहिस्ता उसके बालों को सहला रहा था और वह चुपचाप मुझे देख रही थी। लेकिन, मैं फिर भी दिल की बात को जुबां पर न ला सका।
भावना ने उस दिन मुझसे  कहा था- 'मैंने बड़े अरमानों से जिसे चाहा, मैं जानती हूं, वह अब मुझे नहीं मिल सकता, लेकिन मैं उसे हमेशा चाहती रहूंगी। मेरे दिल में उसके लिए जो प्यार है, उसमें कोई कमी नहीं हो सकती।Ó मैं सब-कुछ समझ गया था।
21 मई 1995। यह भावना की शादी का दिन था। संयोग से मेरी काॅलेज की परीक्षा का भी यह अंतिम दिन था। मेरी मौखिक परीक्षा होनी थी उस दिन। मुझे भावना ने अपनी शादी में बुलाया था, सो जाना जरूरी था। मुझे खुशी भी थी और दुख भी। खैर! परीक्षा देकर मैं सीधे उसके घर पहुंच गया। दिनभर वहीं रहा, लेकिन भावना के करीब भी न फटका। हिम्मत ही नहीं हो रही थी जाने की। धीरे-धीरे विदाई की घड़ी भी आ गई। मैंने जैसे-तैसे खुद को संयत कर भावना को विदा किया। मुंह से बोल तक न फूटे, पर आंखें स्वत: सजल हो गई थीं। अब मेरे लिए वहां एक पल रुकना भी संभव नहीं था। सो, मैं खामोशी से घर लौट आया।
शादी के बाद भावना मुझे मिली। मुझसे काफी देर लिपटी रही, लेकिन तब भी मैं अपनी भावनाओं को उस पर व्यक्त नहीं कर पाया था। हां, मैंने साहस बटोरकर कागज का एक टुकड़ा जरूर उसे थमा दिया, जिसका मजमून था- 'कुछ तेरी अदाओं ने लूटा, कुछ तेरी इनायत मार गई, मैं राज-ए-मोहब्बत कह न सका, चुप रहने की आदत मार गई।Ó ...इसके बाद मैं चुपचाप लौट पड़ा।


(नोट: मेरी यह कहानी कहानी वर्ष 1997 में सरिता में प्रकाशित हुई थी।)

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