Thursday, 1 October 2020

उत्‍तराखंड हिमालय के चारधाम

 


यमुनोत्री से आरंभ होने वाली उत्तराखंड हिमालय की विश्व प्रसिद्ध चारधाम यात्रा गंगोत्री व केदारनाथ होती हुई बदरीनाथ में विराम लेती है। पुराणों में उल्लेख है कि बदरीनाथ धाम में भगवान नारायण के दर्शनों के बाद जीवन में और कुछ पाने की इच्छा शेष नहीं रह जाती। इसलिए बदरीनाथ धाम को भू-वैकुंठ भी कहा गया है। चारधाम यात्रा महज धार्मिक यात्रा न होकर उत्तराखंड की सामाजिक एवं सांस्कृतिक यात्रा भी है। सच कहें तो इसके बिना पर्वतीय अंचल में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आइए! हम भी चारधाम की यात्रा करें...

उत्‍तराखंड हिमालय के चारधाम

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दिनेश कुकरेती

चारधाम देश के चार प्रमुख तीर्थों पुरी, रामेश्वरम, द्वारका और बदरीनाथ का समूह है, जो चारों दिशाओं में विराजमान हैं। इन मंदिरों को आठवीं सदी में आद्य गुरु शंकराचार्य ने एक सूत्र में पिरोया था। मान्यता कि इन चारों में बदरीनाथ धाम सर्वश्रेष्ठ है। इसलिए बदरीनाथ की यात्रा सबसे अंत में करने का विधान है। लेकिन, इस यात्रा को पूर्णता हिमालय में स्थित तीन अन्य धामों यमुनोत्री, गंगोत्री व केदारनाथ की यात्रा करने के बाद ही मिलती है। पूर्व में चारों मंदिरों के इस समूह को हिमालय पर स्थित 'छोटा चारधामÓ कहा जाता था। 'छोटाÓ विशेषण इस समूह को 20वीं सदी के मध्य में मिला। लेकिन, कालांतर में छोटा चारधाम देश में प्रतिष्ठित चारधाम के रूप में पहचाने जाने लगे। भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बदरीनाथ हिंदुओं के सबसे पवित्र स्थान हैं। स्कंद पुराणÓ के 'केदारखंडÓ में उल्लेख है कि जो पुण्यात्माएं इन धामों के दर्शन करने में सफल होती हैं, उनका न केवल इस जनम का पाप धुल जाता है, वरन वह जीवन-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाती हैं। मान्यता के अनुसार तीर्थयात्री इस यात्रा के दौरान सबसे पहले यमुनोत्री में यमुनाजी और गंगोत्री में गंगाजी के दर्शन करते हैं। यहां से पवित्र जल लेकर श्रद्धालु केदारनाथ धाम पहुंचकर बाबा केदार का अभिषेक करते हैं। सबसे आखिर में होते हैं बदरीशपुरी में भगवान नारायण के दर्शन। इसीलिए शास्त्रों में इसे भक्ति से मोक्ष तक की यात्रा कहा गया है।


 

धर्म, संस्कृति और अर्थ से जुड़ी यात्रा

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हिमालय की इस चारधाम यात्रा को हम सिर्फ धार्मिक यात्रा के आवरण में नहीं देख सकते। यह उत्तराखंड की सामाजिक एवं सांस्कृतिक धरोहर ही नहीं, आर्थिकी को संवारने वाली यात्रा भी है। उच्च हिमालयी क्षेत्र में अत्याधिक बर्फबारी होने से शीतकाल के दौरान जीवन सुप्तावस्था में चला जाता है। इस अवधि में वहां जीवन संचालन के भी कोई कार्य नहीं हो पाते। ऐसे में ग्रीष्मकाल के दौरान होने वाली चारधाम यात्रा उत्तराखंड हिमालय में न केवल जीवन का संचार करती है, बल्कि यहां की आर्थिकी को संजीवनी भी प्रदान करती है। यात्राकाल में भागीरथी, यमुना, मंदाकिनी व अलकनंदा घाटी के लोग यात्रा पड़ावों पर रोजगारपरक गतिविधियों का संचालन करते हैं। ताकि शीतकाल के लिए जीवन निर्वाह के साधन जुटाने के साथ घर-परिवार की अन्य जरूरतें भी पूरी कर सकें। एक तरह से चारधाम यात्रा यहां बाजार का पर्याय है।

जै बदरी-केदारनाथ, गंगोत्री जै-जै, यमुनोत्री जै-जै

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यमुनोत्री धाम

उत्तराखंड हिमालय में बंदरपूंछ चोटी के पश्चिमी छोर पर समुद्रतल से 3291 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है चारधाम यात्रा का प्रथम पड़ाव यमुनोत्री धाम। जानकी चट्टी से छह किमी की खड़ी चढ़ाई चढऩे के बाद यमुनोत्री पहुंचा जाता है। यहां पर स्थित यमुना मंदिर का निर्माण जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं सदी में करवाया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार यमुना सूर्य की पुत्री हैं, जबकि यम पुत्र। इसलिए यमुना में स्नान करने पर यम की विशेष कृपा प्राप्त होती है। यमुना का उद्गम यमुनोत्री से लगभग एक किमी दूर 4421 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर है। यमुनोत्री मंदिर के समीप गर्म पानी के कई कुंड हैं। इनमें सूर्यकुंड सबसे प्रसिद्ध है। मान्यता है कि अपनी पुत्री को आशीर्वाद देने के लिए सूर्यदेव ने यहां गर्म जलधारा का रूप धारण किया था। श्रद्धालु इसी कुंड में चावल और आलू कपड़े में बांधकर कुछ मिनट तक छोड़ देते हैं और पके हुए इन पदार्थों को प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं। सूर्यकुंड के पास ही एक शिला है, जिसे दिव्य शिला के नाम से जाना जाता है। यात्री यमुनाजी की पूजा पहले इस दिव्य शिला का पूजन करते हैं। इसी के पास जमुना बाई कुंड है, जिसका निर्माण करीब सौ साल पहले हुआ था। इस कुंड का पानी हल्का गर्म है, जिसमें पूजा सेपहले स्नान किया जाता है। यमुनोत्री के पुजारी और पंडा पूजा करने के लिए खरसाली गांव से आते हैं, जो जानकी बाई चट्टी के पास ही है।



गंगोत्री धाम

गंगोत्री धाम समुद्रतल से 3140 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। गंगोत्री को ही गंगा का उद्गम स्थल माना गया है। हालांकि, गंगा गंगोत्री से ऊपर गोमुख ग्लेशियर से निकलती है। गंगोत्री में गंगा को 'भागीरथीÓ नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भगीरथ के नाम पर इस नदी का नाम भागीरथी पड़ा। कथा है कि राजा भगीरथ ही तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर लाए थे। सतयुग में सूर्यवंशी राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ कराने का निश्चय किया। इस दौरान उनका घोड़ा जहां-जहां गया, उनके 60 हजार पुत्रों ने उन स्थानों को अपने अधीन कर लिया। इससे देवराज इंद्र चिंतित हो गए और उन्होंने घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सगर के पुत्र मुनिवर का अनादर करते हुए घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे कुपित कपिल मुनि ने सगर के पुत्रों को भस्म हो जाने का श्राप दे दिया। लेकिन, सगर के क्षमा याचना करने पर कपिल मुनि द्रवित हो गए और बोले कि अगर स्वर्ग में प्रवाहित होने वाली गंगा पृथ्वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्पर्श इस राख से हो जाए तो उनके पुत्र जीवित हो उठेंगे। लेकिन, सगर गंगा को पृथ्वी पर लाने में असफल रहे। बाद में उनके पुत्र भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की।

ऐसा माना जाता है कि 18वीं सदी में गोरखा कैप्टन अमर सिंह थापा ने शंकराचार्य के सम्मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। 20 फीट ऊंचा यह मंदिर भागीरथी नदी के बायें तट पर सफेद पत्थरों से निर्मित है। राजा माधोसिंह ने वर्ष 1935 में इसका जीर्णोद्धार कराया,  जिससे मंदिर की बनावट में राजस्थानी शैली की झलक मिलती है। मंदिर के समीप भागीरथी शिला है, जिस पर बैठकर भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए कठोर तप किया था।


 

केदारनाथ धाम

समुद्रतल से 11746 फीट की ऊंचाई पर मंदाकिनी नदी के उद्गम स्थल के समीप स्थित है केदारनाथ धाम। यहां पहुंचने के लिए गौरीकुंड से 16 किमी की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। 'वायु पुराणÓ के अनुसार श्रीविष्णु मानव कल्याण के निमित्त पृथ्वी पर निवास करने आए और बदरीनाथ में अपना पहला कदम रखा। यहां पहले ही भगवान शिव का निवास था। लेकिन, उन्होंने नारायण के लिए इस स्थान का त्याग कर दिया और केदारपुरी में निवास करने लगे। इसीलिए पंचकेदार यात्रा में केदारनाथ को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। साथ ही केदारनाथ त्याग की भावना को भी दर्शाता है। यह वही जगह है, जहां शंकराचार्य 32 वर्ष की आयु में समाधि में लीन हुए थे। इससे पहले उन्होंने वीर शैव को केदारनाथ का रावल यानी मुख्य पुरोहित नियुक्त किया। वर्तमान में 326वें रावल केदारनाथ धाम की व्यवस्था संभाल रहे हैं। केदारनाथ मंदिर न केवल अध्यात्म, बल्कि स्थापत्य कला में भी अन्य मंदिरों से भिन्न है।

पहाड़ी की तलहटी में यह मंदिर कत्यूरी शैली में निर्मित है। इसके निर्माण में भूरे रंग के बड़े पत्थरों का प्रयोग बहुतायत में हुआ है। मंदिर के शिखर पर सोने का कलश स्थापित है, जबकि बाह्य द्वार पर पहरेदार के रूप में नंदी विराजमान हैं। मंदिर के तीन भाग हैं, पहला गर्भगृह, दूसरा दर्शन मंडप, तीसरा सभा मंडप। यात्री यहां भगवान शिव के अलावा ऋद्धि-सिद्धि के दाता श्रीगणेश, माता पार्वती, श्रीविष्णु, माता लक्ष्मी, श्रीकृष्ण, कुंती, द्रौपदी, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की पूजा-अर्चना भी करते हैं।


 

बदरीनाथ धाम

बदरीनाथ धाम नर-नारायण पर्वत के मध्य समुद्रतल से 10276 फीट (3133 मीटर) की ऊंचाई पर स्थित है। अलकनंदा नदी इस मंदिर की खूबसूरती पर चार चांद लगाती है। मान्यता है कि भगवान नारायण इस स्थान पर ध्यानमग्न रहते हैं। नारायण को छाया प्रदान करने के लिए माता लक्ष्मी ने बेर (बदरी) के पेड़ का रूप धारण किया। लेकिन, वर्तमान में यहां बेर बहुत कम संख्या में देखने को मिलते हैं। नारद, जो इन दोनों के अनन्य भक्त हैं, उनकी आराधना भी यहां की जाती है। बदरीनाथ में वर्तमान मंदिर का निर्माण दो सदी पहले गढ़वाल के राजा ने किया था। लगभग 15 मीटर ऊंचा यह मंदिर शंकुधारी शैली में बना हुआ है। मंदिर के शिखर पर गुंबद है और गर्भगृह में श्रीहरि के साथ नर-नारायण ध्यान की स्थिति में विराजमान हैं। 

ऐसा माना जाता है कि मूल मंदिर का निर्माण वैदिक काल में हुआ था, जिसका पुनरुद्धार आठवीं सदी में शंकराचार्य ने किया। मंदिर में नर-नारायण के अलावा लक्ष्मी, शिव-पार्वती और गणेश की मूर्ति भी है। मंदिर के तीन भाग हैं- गर्भगृह, दर्शन मंडप और सभागृह। वेदों और ग्रंथों में बदरीनाथ के संबंध में कहा गया है कि स्वर्ग और पृथ्वी पर अनेक पवित्र स्थान हैं, लेकिन बदरीनाथ इन सभी में अग्रगण्य है। बदरीनाथ पंच बदरी मंदिरों में प्रमुख धाम है।

चारधाम के शीतकालीन पड़ाव

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यमुनोत्री : खरसाली (खुशीमठ) स्थित यमुना मंदिर

गंगोत्री : मुखवा (मुखीमठ) स्थित गंगा मंदिर

केदारनाथ : ऊखीमठ स्थित पंचगद्दी स्थल ओंकारेश्वर मंदिर

बदरीनाथ : जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर और पांडुकेश्वर स्थित योग-ध्यान व कुबेर मंदिर

(नोट : नृसिंह मंदिर में आद्य गुरु शंकराचार्य की गद्दी और पांडुकेश्वर में भगवान नारायण के बालसखा उद्धवजी व देवताओं के खजांची कुबेरजी शीतकाल में प्रवास करते हैं।)


 


 

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