Wednesday, 21 April 2021

नमामि रामं रघुवंश नाथम



 

नमामि रामं रघुवंश नाथम

दिनेश कुकरेती

रामनवमी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के आठ दिन बाद पड़ती है। इस तिथि को श्रीराम के जन्मदिन की स्मृति में मनाया जाता है। राम श्रीविष्णु के अवतार माने गए हैं। अगस्त्य संहिता के अनुसार पुनर्वसु नक्षत्र व कर्क लग्न में जब सूर्य अन्यान्य पांच ग्रहों की शुभ दृष्टि के साथ मेष राशि पर विराजमान थे, तब राम ने असुरों का संहार करने के लिए धरा पर अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। अयोध्या के राजकुमार होते हुए भी राम पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग 14 वर्ष के लिए वन चले गए। धार्मिक दृष्टि से चैत्र शुक्ल नवमी का विशेष महत्व है। इस तिथि को दिन के बारह बजे जैसे ही सौंदर्य निकेतन, शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए चतुर्भुजधारी श्रीराम प्रकट हुए, माता कौशल्या विस्मित हो गईं। राम के सौंदर्य व तेज को देखकर उनके नेत्र तृप्त नहीं हो रहे थे। देवलोक भी अवध के सामने श्रीराम के जन्मोत्सव को देख फीका-सा लग रहा था। देवता, ऋषि, किन्नर, चारण सभी जन्मोत्सव में शामिल होकर आनंद उठा रहे थे। इसीलिए हम प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल नवमी को राम जन्मोत्सव मनाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामनवमी के दिन ही रामचरितमानस की रचना का शुभारंभ किया था।

जहां अनंत मर्यादाएं, वहां राम

भारतीय संस्कृति में ऐसा कोई दूसरा चरित्र नहीं, जिसे राम के समक्ष खड़ा किया जा सके। राम हमारी अनंत मर्यादाओं के प्रतीक पुरुष हैं, धीर-वीर हैं और इस सबसे बढ़कर प्रशांत (स्थिर या आडंबर रहित) हैं। इसलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर महाकवि भास, कालीदास, भवभूति और तुलसीदास तक न जाने कितनों ने अपनी लेखनी और प्रतिभा से राम के चरित्र को संवारा। वाल्मीकि के राम जहां लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष हैं। वहीं, भास, कालिदास और भवभूति के राम कुलरक्षक, आदर्श पुत्र, पति, पिता व प्रजापालक राजा का चरित्र सामने रखते हैं। कालिदास ने 'रघुवंशÓ महाकाव्य में इक्ष्वाकुवंश का वर्णन किया, तो भवभूति ने 'उत्तर रामचरितमÓ में अनेक मार्मिक प्रसंग जोड़ डाले। लेकिन, तुलसीदास ने रामचरित्र का कोई प्रसंग नहीं छोड़ा। यानी रामकथा को संपूर्णता वास्तव में तुलसीदास ने ही प्रदान की।

मान चेतना के आदि पुरुष

तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं। वे दुराचारियों, यज्ञ विध्वंसक राक्षसों का नाश कर लौकिक मर्यादाओं की स्थापना के लिए ही जन्म लेते हैं। वे सामान्य मनुष्य की तरह सुख-दुख का भोग करते हैं और जीवन-मरण के चक्र से होकर गुजरते हैं। लेकिन आखिर में अपनी पारलौकिक छवि की छाप छोड़ जाते हैं। इसलिए राम मर्यादा पुरुषोत्तम तो हैं ही, मान चेतना के आदि पुरुष भी हैं।

सबके अपने-अपने राम

तुलसीदास, रैदास, नाभादास, नानकदास, कबीरदास आदि के राम अलग-अलग हैं। किसी के राम दशरथ पुत्र हैं तो किसी के लिए सबसे न्यारे। तभी तो तुलसीदास कहते हैं, 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिंंह तैसी।Ó जबकि, इकबाल कहते हैं कि 'है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज, अहले वतन समझते हैं, उनको इमामे हिंद।Ó

आत्माओं को आनंदित करने वाले

राम कौन हैं। वे लोक जीवन में इतने प्रिय क्यों हैं। उनके बाद भी बहुत से धर्मनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, प्रजा हितैषी, न्याय प्रिय व नीति निपुण राजा हुए, फिर राम राज्य की महिमा का इतना गायन क्यों। असल में राम दो हैं। एक  वह जो अयोध्या में जन्मे, जिनके दैहिक जन्म का नाम राम है। दूसरे निराकार परमात्मा, जिन्हें राम का नाम इसलिए दिया गया, क्योंकि वह रमणीय और लुभाने वाला है। वह आत्माओं को आनंदित करने वाला है। ज्ञानवान और योगयुक्त आत्मा ही सीता है, क्योंकि वह निराकार राम का वरण करना चाहती है। लेकिन, निराकार राम से मिलने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है यानी पवित्रता का व्रत लेना होता है।

शरीर क्षेत्र, आत्मा क्षेत्रज्ञ

गीता अथवा ज्ञान की भाषा में शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा गया है। जब मनुष्यता (क्षेत्रज्ञ) के बुद्धि रूपी क्षेत्र में ज्ञान का हल चलाया जाता है, तब उन लकीरों से यानी ज्ञान की पक्की धारणा से सीता का जन्म होता है। यह जन्म माता के गर्भ से नहीं होता, क्योंकि यह तो स्वयं आत्मा का जन्म यानी जागरण अथवा पुनरुद्धार है।

पंचतत्वों ने निर्मित शरीर ही पंचवटी

यह संसार ही कांटों का वन है और पंच भौतिक तत्वों से निर्मित यह शरीर ही पंचवटी है। इसी में आत्मा रूपी सीता (वैदेही यानी देह से न्यारी) रहती है। मन में लक्ष्य को धारण करने की जो आज्ञा है, वही लक्ष्मण की खींची हुई लकीर है। इसका उल्लंघन करना आत्मा रूपी सीता के लिए मना है।

सभी व्यक्तियों का शासन है रामराज्य

राम जीवन के हर क्षेत्र में मर्यादाओं से बंधे हुए हैं और उनका कहीं भी उल्लंघन नहीं करते। वे पूरी तरह अपने समाज और देश के प्रति समर्पित हैं। इसीलिए वे रघुकुल भूषण हैं, समाज के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय हैं। राम के वीतरागी स्वभाव के अनेक उदाहरण रामायण में भरे पड़े हैं। रामराज्य में यद्यपि राजतंत्रीय व्यवस्था थी, मगर वह मर्यादित राजतंत्र था, निरंकुश नहीं। आधुनिक जनतंत्र केवल बहुमत का शासन है, मगर रामराज्य तो सभी व्यक्तियों का शासन था। जिसमें एक साधारण धोबी की आवाज भी उपेक्षित नहीं रह पाती। उसके शंका व्यक्त करने पर भी राम अपनी प्राणप्रिया पत्नी को बीहड़ वनों में भेज देते हैं। राम राज्य में केवल संन्यासी को ही नहीं, राजा को भी योगी कहा जाता था, जो प्रजा के लिए अपना सब-कुछ त्यागने के लिए तत्पर रहता था। राम इसके साक्षात प्रतीक हैं। 

समझाई संगठन की अहमियत 

राम ने मानवता से ओतप्रोत एक ऐसे समाज की रचना की, जो अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए भी तैयार रहे। राम अनुसूचित जातियों व जनजातियों में अत्यंत लोकप्रिय ही नहीं बन गए, बल्कि अपने आत्मीय भाव से उन्हें संगठित कर और बुराइयों से निकाल उनमें संगठन का स्वभाव पैदा करते रहे। इतिहास में कहीं भी जिक्र नहीं आता कि अयोध्या, जनकपुर व अन्य किन्हीं भी राजवंशों से संपर्क कर रावण को मारने के लिए राम ने संदेश भेजे या संपर्क किया। रामसेतु निर्माण में उन्होंने जन-जन को एक प्रबल संदेश दिया। सेतु के निर्माण में गिलहरी भी जुटी, क्योंकि पीडि़त, दुखी, गरीब व पंक्ति के अंत में खड़े व्यक्ति को भी राम प्यार करते हैं।

Sunday, 18 April 2021

नागा संन्यासियों का रहस्‍यलोक, कैसे बनते हैं नागा


दिनेश कुकरेती

र तीन साल के अंतराल में हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन व नासिक में होने वाले कुंभ मेले का सबसे बड़ा आकर्षण होते हैं दशनामी (दसनामी) संन्यासी अखाडो़ं से जुडे़ नागा संन्यासी यानी अवधूत। यह दशनामी संबोधन संन्यासियों को आदि शंकराचार्य का दिया हुआ है। इसकी भी एक लंबी कहानी है। असल में आदि शंकराचार्य ने पूरब में जगन्नाथपुरी गोवर्धन पीठ, पश्चिम में द्वारका-शारदा पीठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में शृंगेरी पीठ की स्थापना के बाद देशभर में विभिन्न पंथों में बंटे साधु समाज को दस पदनाम देकर संगठित किया। ये दस पदनाम हैं- तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी। इसके उपरांत शंकराचार्य ने इनमें से ‘वन’ ‘अरण्य’ पद गोवर्धन पीठ ‘तीर्थ’ ‘आश्रम’ पदनाम शारदा पीठ, ‘गिरि’ ‘पर्वत’ ‘सागर’ पदनाम ज्योतिर्पीठ और पुरी’ ‘भारती’ ‘सरस्वती’ पदनाम शृंगेरी पीठ से संबद्ध कर दिए। यह संपूर्ण व्यवस्था उन्होंने बिखरे हुए संत समाज को व्यवस्थित करने के लिए की। कालांतर में इन्हीं दशनामी संन्यासियों के बीच से नागा संन्यासियों का अभ्युदय हुआ। 

नागा, जो आकाश को अपना वस्त्र मानते हैं, शरीर पर भभूत (भस्म) मलते हैं, दिगंबर रूप में रहना पसंद करते हैं और युद्ध कला में उन्हें महारथ हासिल है। देखा जाए तो नागा सनातनी संस्कृति के संवाहक हैं और आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा का निर्वाह करते हुए विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं। हरिद्वार समेत दूसरे तीर्थों के दूरदराज इलाकों, हिमालय की कंदराओं, प्राकृतिक गुफाओं आदि स्थानों पर ये आम जनजीवन से दूर कठोर अनुशासन में रहते हैं। कहते हैं दुनिया चाहे कितनी भी क्यों न बदल जाए, लेकिन शिव और अग्नि के ये भक्त इसी स्वरूप में रहेंगे। 

अब मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि नागा संन्यासी शीत को कैसे बर्दाश्त करते होंगे। असल में नागा तीन प्रकार के योग करते हैं, जो उन्हें शीत से निपटने को शक्ति प्रदान करते हैं। नागा अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं। देखा जाए तो नागा भी एक सैन्य पंथ है। आप इनके समूह को सनातनी सैन्य रेजीमेंट भी कह सकते हैं। इतिहास में आततायियों के विरुद्ध ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का उल्लेख मिलता है, जिनमें हजारों नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया और अपनी जान की बाजी लगाकर भी सनातनी संस्कृति की रक्षा की। ऐसा नहीं कि नागा साधु सिर्फ पुरुष ही होते हैं। कुछ महिलायें भी नागा साधु होती हैं और गेरुवा वस्त्र धारण करती हैं। इन्हें अवधूतानी कहा जाता है। 

कठिन परीक्षाओं से गुजरकर बनते हैं नागा

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नागा संन्यासी बनना आसान नहीं है। इसके लिए कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। जब भी नागा बनने का इच्छुक कोई व्यक्ति किसी भी संन्यासी अखाड़े में जाता है तो उसे पहले कई तरह की परीक्षा देनी पड़ती है। सर्वप्रथम संबंधित अखाड़े के प्रबंधक यह पड़ताल करते हैं कि वह नागा क्यों बनना चाहता है। उसकी पूरी पृष्ठभूमि और मंतव्यों को जांचने के बाद ही उसे अखाड़े में शामिल किया जाता है। श्री पंचदशनाम जूना अखाडे़ के श्रीमहंत मोहन भारती बताते हैं कि अखाड़े में शामिल होने के बाद तीन साल तक उसे अपने गुरुओं की सेवा करनी पड़ती है। सभी प्रकार के कर्मकांडों को समझने के साथ स्वयं भी उनका हिस्सा बनना होता है। जब संबंधित व्यक्ति के गुरु को अपने शिष्य पर भरोसा हो जाता है तो उसे अगली प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। यह प्रक्रिया कुंभ के दौरान शुरू होती है। इस अवधि में संबंधित  व्यक्ति को संन्यासी से महापुरुष के रूप में दीक्षित किया जाता है। उसे गंगा में 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। फिर भस्म, भगवा और रुद्राक्ष की माला दी जाती है। 

श्रीमहंत मोहन भारती बताते हैं कि महापुरुष बन जाने के बाद उसे अवधूत बनाए जाने की तैयारी शुरू होती है। अखाड़ों के आचार्य अवधूत बनाने के लिए सबसे पहले महापुरुष बन चुके संन्यासी का जनेऊ संस्कार करते हैं और इसके बाद उसे संन्यासी जीवन की शपथ दिलवाई जाती है। साथ ही उसके परिवार और स्वयं का पिंडदान करवाया जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वो परिवार और संसार के लिए मर चुका है। पिंडदान करने के बाद दंडी संस्कार होता है और उसे पूरी रात पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करना पड़ता है। रातभर चले इस जाप के बाद भोर होने पर अखाड़े ले जाकर उससे विजया हवन करवाया जाता है और फिर गंगा में 108 डुबकियों का स्नान होता है। गंगा में डुबकियां लगाने के बाद उसे अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग करवाया जाता है। 

श्रीमहंत मोहन भारती के आनुसार नागा पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया के दौरान इन संन्यासियों को सिर्फ एक लंगोट में रहना पड़ता है। उन्हें दिगंबर कहा जाता है। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट का भी परित्याग कर देते हैं और और श्रीदिगंबर कहलाते हैं। इसके बाद वो ताउम्र इसी श्रीदिगंबर अवस्था में रहते हैं।

'कालÓ के उपासक बने शांति के पुजारी

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इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि 14वीं सदी के आरंभ में आततायी शासकों ने सनातनी परंपरा को आघात पहुंचाना शुरू कर दिया था। तब परमहंस संन्यासियों को लगने लगा कि उनकी इस राक्षसी प्रवृत्ति पर शास्त्रीय मर्यादा के अनुकूल विवेक शक्ति से विजय पाना असंभव है। सो, एक कुंभ पर्व में दशनामी संन्यासियों और सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वानों ने तय किया कि क्यों न शस्त्र का जवाब शस्त्र से ही दिया जाए। नतीजा, दशनामी संन्यासियों के संगठन की सामरिक संरचना फील्ड फॉरमेशन आरंभ हुई। असल में स्थिति भी ऐसी ही थी। सनातनी परंपरा की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करना ही एकमात्र विकल्प शेष रह गया था। लिहाजा, ऐसा निश्चय हो जाने पर सर्वानुमति से निर्णय लिया गया कि आगामी कुंभ पर्व के सम्मेलन में पूर्वोक्त चारों आम्नायों (शृंगेरी, गोवर्धन, ज्योतिष व शारदा मठ) से संबंधित दसों पदों के संन्यासियों की मढिय़ों के समस्त मठ संचालकों को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाए। 

इस निर्णय के अनुसार उससे अग्रिम कुंभ पर्व के सम्मेलन में देश के समस्त भागों से हजारों मठों के संचालक, विशिष्ट संत-संन्यासी व सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वान इकट्ठा हुए। उन्होंने एकमत से फैसला लिया कि अब परमात्मा के कल्याणकारी शिव स्वरूप की उपासना करते हुए सनातन धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। इसलिए परमात्मा रुद्र के संहारक भैरव स्वरूप की उपासना करते हुए हाथों में शस्त्र धारण कर दुष्टों का संहार किया जाए। ऐसा निश्चिय हो जाने के बाद शस्त्रों से सज्जित होने के लिए समस्त दशनामी पदों का आह्वान किया गया। इनमें विरक्त संन्यासियों के अलावा ऐसे सहस्त्रों नवयुवक भी सम्मिलित हुए, जिनके हृदय में सनातन धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान करने की प्रबल भावना थी। हजारों की संख्या में नवयुवक संन्यास दीक्षा लेकर धर्म रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गए। 

परमात्मा के भैरव स्वरूप की अविच्छिन्न शक्ति प्रचंड भैरवी (मां दुर्गा) का आह्वान कर उनके प्रतीक के रूप में भालों की संरचना हुई। इन्हीं भालों के सानिध्य में दशनाम संन्यासियों को युद्धकला का प्रशिक्षण देकर शस्त्रों से सज्जित किया गया। इसके बाद प्रशिक्षित एवं शस्त्र सज्जित संन्यासियों ने वस्त्र आदि साधनों का परित्याग कर दिया। आदि शंकराचार्य से पूर्व जैसे परमहंस संन्यासी वस्त्र त्यागकर दिगंबर अवस्था में रहते थे, वैसे भी वे भी शरीर में भस्म लगाए दिगंबर अवस्था में रहने लगे। इसी दिगंबर रूप ने उन्हें नागा संन्यासी के रूप में प्रतिष्ठित किया। कालांतर में नागा संन्यासी संज्ञा ही उनकी पहचान हो गया।

अग्नि वस्त्र धारण करती हैं

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अब थोडा़ महिला नागा संन्यासियों के बारे में भी जान लें। जूना अखाडे़ की साध्वी श्रीमहंत साधना गिरि बताती हैं कि नागा संन्यासी यानी अवधूतानी बनने के लिए सबसे पहले महिलाओं को संन्यासी बनना पड़ता है। इसके लिए वह पंच संस्कार धर्म का पालन करती हैं। इसके तहत सभी को अपने-अपने पांच गुरु-कंठी गुरु, भगौती गुरु, भर्मा गुरु, भगवती गुरु व शाखा गुरु (सतगुरु) बनाने पड़ते हैं। इनके अधीन ये सभी संन्यास के कठोर नियमों का पालन करती हैं। इसके बाद जहां-जहां कुंभ होते हैं, वहां इससे संबंधित संस्कार में भाग लेती हैं। अवधूतानी बनने की प्रक्रिया के तहत सभी साध्वी पूरी रात धर्मध्वजा के नीचे पंचाक्षरी मंत्र 'ॐ नम: शिवाय' का जाप करती हैं। सभी को यह कड़ी चेतावनी होती है कि इस प्रक्रिया में किसी किस्म का कोई व्यवधान न होने पाए। यही वजह है कि जब प्रक्रिया चल रही होती है, तब वहां किसी का भी प्रवेश करने की अनुमति नहीं होती।संन्यास दीक्षा में कुंभ पर्व के दौरान गंगा घाट पर मुंडन व पिंडदान होता है। रात में अखाड़े की छावनी में स्थापित धर्मध्वजा के नीचे 'ॐ नम: शिवाय' का जाप किया जाता है। यहीं पर ब्रह्ममुहूर्त में अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर 'विजया होम' के बाद संन्यास दीक्षा देते है। इसके बाद उन्हें स्त्री व धर्म की मर्यादा के लिए तन ढकने को पौने दो मीटर कपड़ा (अग्नि वस्त्र) दिया जाता है। फिर सभी संन्यासी गंगा में 108 डुबकियां लगाकर अग्नि वस्त्र धारण करती हैं और आचार्य महामंडलेश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। अब उन पर और उनके जन्म पर परिवार व माता-पिता का कोई अधिकार नहीं रह जाता। उसका जन्म धर्म, लोक कल्याण और मानव मात्र की सेवा को समर्पित हो जाता है। संन्यास दीक्षा के उपरांत आत्मा और परमात्मा के मिलन का एहसास होता है।

करती हैं 'अभ्रत' या 'मूसल वस्त्र' स्नान

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कुंभ पर्व के दौरान सभी अवधूतानी संबंधित अखाड़े के शाही स्नान, शाही जुलूस और पेशवाई का अभिन्न हिस्सा होती हैं। वह अखाड़े के शाही स्नान के दौरान अपने क्रम के अनुसार एकल वस्त्र यानी अग्नि वस्त्र के साथ स्नान करती हैं। इसे अभ्रत स्नान या मूसल वस्त्र स्नान भी कहते हैं। शाही जुलूस और पेशवाई के समय भी यह सभी अवधूतानी धर्म की मर्यादा में रहती हैं और अग्नि वस्त्र के साथ शामिल होती हैं।

जमीन का बिछौना, एक वक्त का भोजन

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नागा संन्यासी को केवल जमीन पर ही सोते हैं और इस नियम का पालन हर नागा साधु को करना होता है। इसके साथ वह 24 घंटे में केवल एक ही बार भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के लिए वो एक दिन में सिर्फ सात घरों से ही भिक्षा ले सकते हैं। अगर इन सात बार में भिक्षा न मिले तो उन्हें भूखा ही रहना पड़ता है। नागा संन्यासी अगर वस्त्र धारण करना चाहे तो सिर्फ गेरुवा वस्त्र ही पहन सकता है और केवल भस्म का ही उसका शृंगार है।

Friday, 2 April 2021

एक हजार साल में 11वीं बार 14 अप्रैल को मेष संक्रांति

एक हजार साल में 11वीं बार 14 अप्रैल को मेष संक्रांति

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दिनेश कुकरेती

कुंभ का संयोग कब व कहां बनेगा, यह गुरु और सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है। जब सूर्य मेष राशि और गुरु कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं, तब हरिद्वार कुंभ का आयोजन होता है। कथा है कि समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश को पाने के लिए देव-दानवों में 12 दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस संघर्ष के दौरान पृथ्वी में चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन व नासिक) पर कलश छलक पड़ा। इससे सर्वप्रथम अमृत की बूंदें हरिद्वार में बह रही पतित पावनी गंगा में गिरीं। जब यह अमृत छलका, तब सूर्य व चंद्र मेष राशि और गुरु कुंभ राशि में भ्रमण कर रहे थे। तभी से हर 12 वर्ष के अंतराल में हरिद्वार कुंभ का आयोजन होता है।

खगोलीय गणना के अनुसार सूर्य की गति भी हर 70 साल के अंतराल में परिवर्तित हो जाती है। सूर्य एक अंश रोज चलता है और 30 दिन में 30 अंश पार कर लेता है। लेकिन, 70 साल के अंतराल में मेष संक्रांति एक दिन के बाद शुरू होती है। यही मेष संक्रांति इस बार 14 अप्रैल को पड़ रही है, जो हरिद्वार कुंभ पर्व के मुख्य स्नान की तिथि है। हालांकि, बीते एक हजार वर्षों के दौरान कुंभ मेले के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो यह हमेशा ही ऐसा नहीं रहा। इस लंबे कालखंड में मेष संक्रांति की तिथि में लगातार परिवर्तन होता रहा है। 2021 ईस्वी में पड़ रहा यह बारहवां कुंभ है, जब 14 अप्रैल को मेष संक्रांति होने से यही कुंभ पर्व का मुख्य स्नान होगा। 

ज्योतिषाचार्य डॉ. सुशांत राज कहते हैं कि 21वीं सदी के इस दूसरे कुंभ से पूर्व बीते हजार वर्षों के दौरान हरिद्वार में 86 कुंभ हो चुके हैं। अब तक के दस कुंभ पर्वों के दौरान मेष संक्रांति 14 अप्रैल को पड़ती रही है और इस बार भी पड़ रही है। लेकिन, 1001 ईस्वी में यह एक अप्रैल और 1108 ईस्वी में दो अप्रैल को पड़ी थी। महत्वपूर्ण बात देखिए कि इस कालखंड में 11 अप्रैल को छोड़कर एक से 14 अप्रैल तक की सभी तारीख में कुंभ स्नान हुआ। 11 अप्रैल को कभी भी कुंभ स्नान का मुहूर्त नहीं निकला।

बीते हजार वर्षों में कब, किस तारीख को हुआ कुंभ का मुख्य स्नान

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-वर्ष 1001, 1013, 1025, 1037, 1049, 1062, 1072, 1084 व 1096 में एक अप्रैल

-वर्ष 1108, 1120 व 1132 में दो अप्रैल

-वर्ष 1144, 1156, 1167 व 1179 में तीन अप्रैल

-वर्ष 1191, 1203, 1215, 1227, 1239, 1250, 1262, 1274, 1286 व 1298 में चार अप्रैल

-वर्ष 1310, 1322, 1333, 1345, 1357, 1369, 1381 व 1393 में पांच अप्रैल

-वर्ष 1403, 1416, 1428, 1440 व 1452 में छह अप्रैल

-वर्ष 1464, 1476 व 1488 में सात अप्रैल

-वर्ष 1500, 1511 व 1523 में आठ अप्रैल

-वर्ष 1535, 1547, 1559, 1571, 1583, 1594, 1606, 1618, 1630, 1642, 1654, 1666, 1677 व 1689 में नौ अप्रैल

-वर्ष 1701, 1713, 1725, 1737, 1744, 1760, 1772, 1784 व 1796 में दस अप्रैल

-वर्ष 1808, 1820, 1832 व 1844 में 12 अप्रैल

-वर्ष 1855, 1867, 1879 व 1891 में 13 अप्रैल

-वर्ष 1903, 1915, 1927, 1938, 1950, 1962, 1974, 1986, 1998, 2010 और अब 2021 में 14 अप्रैल

सबसे कम बार बुधवार को हुए मुख्य स्नान

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बीते एक हजार वर्षों में 12-12 बार सोमवार, मंगलवार, शनिवार व रविवार को कुंभ के मुख्य स्नान हुए। जबकि, बुधवार को दस, गुरुवार को 13 और शुक्रवार को 14 बार मुख्य स्नान पर्व पड़े। इस बार मुख्य स्नान फिर बुधवार को पड़ रहा है।

11 वर्ष में होता है हर आठवां कुंभ

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प्राचीन काल में विद्वानों ने ब्रह्मांड को बारह भागों में विभाजित कर प्रत्येक भाग को पृथक राशिनाम प्रदान किया। सूर्यादि नवग्रहों के इन राशि चक्रों से गुजरने को ही ग्रहों का गोचर (गमन या चलना) कहा जाता है। सभी ग्रहों का भ्रमणकाल भी अलग-अलग है। इनमें सूर्य सभी बारह राशियों को पार करने में एक वर्ष का समय लेता है, जबकि चंद्रमा लगभग 27 दिन तीन घंटे। इसी तरह गुरु को बारह राशियों का चक्र भेदने में लगभग 12 वर्ष लगते हैं। यही वजह है कि चारों स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन व नासिक) पर एक कुंभ के बाद दूसरा कुंभ 12 साल के अंतराल में पड़ता है। हालांकि, गुरु की पूर्ण गति ठीक बारह वर्ष नहीं होती और वह राशियों की परिक्रमा में 11 वर्ष 11 महीने व 27 दिन (4332.5 दिन) का समय लेता है। इसके चलते सातवें और आठवें कुंभ के बीच यह अंतर बढ़ते-बढ़ते लगभग एक वर्ष का हो जाता है। इस तरह हर आठवां कुंभ 12 के बजाय 11 वर्ष में होता है।

ब्रह्म के रहस्य से परिचित कराता है कुंभ

ब्रह्म के रहस्य से परिचित कराता है कुंभ
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दिनेश कुकरेती

नातन धर्म की मान्यता है कि संसार के सभी प्राणियों में आत्मा का वास है, लेकिन इनमें मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो इस लोक में पाप एवं पुण्य, दोनों कर्म भोग सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। सनातनी परंपरा में चार मुख्य संप्रदाय बताए गए हैं। पहला वैष्णव, जो विष्णु को परमेश्वर मानता है। दूसरा शैव, जो शिव को परमेश्वर मानता है। तीसरा शाक्त, जो देवी को परमशक्ति मानता है और चौथा स्मार्त, जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों का एक समान मानता है। बावजूद इसके ज्यादातर सनातनी स्वयं को किसी भी संप्रदाय में वर्गीकृत नहीं करते।

उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म (ब्रह्मा नहीं) ही परम तत्व है। ब्रह्म ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है और सृष्टि का आधार है। इसी से सृष्टि की उत्पत्ति होती है और नष्ट होने पर सृष्टि इसी में विलीन हो जाती है। व्‍याकरणाचार्य स्‍वामी दिव्‍येश्‍वरानंद कहते हैं कि ब्रह्म एक और सिर्फ एक ही है। वही विश्वातीत भी है और विश्व से परे भी। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ है। वही कालातीत, नित्य व शाश्वत है और वही परम ज्ञान भी है। वह कहते हैं कि ब्रह्म के दो रूप हैं, परब्रह्म व अपरब्रह्म। 

परब्रह्म असीम, अनंत और रूप-शरीर विहीन है। वह सभी गुणों से परे है, फिर भी उसमें अनंत सत्य, अनंत चित और अनंत आनंद है। ब्रह्म की पूजा नहीं की जाती, क्योंकि वह पूजा से परे और अनिर्वचनीय है। उसका ध्यान किया जाता है। प्रणव अक्षर ओउम् ब्रह्म वाक्य है, जिसे सनातनी परंपरा में परम पवित्र शब्द माना गया है। मान्यता है कि ओउम् की ध्वनि पूरे ब्रह्मांड में गुंजायमान है। ध्यान में गहरे उतरने पर वह सुनाई देती है।













ब्रह्म की परिकल्पना वेदांत दर्शन का केंद्रीय स्तंभ है और सनातन धर्म की विश्व को अनुपम देन है। देखा जाए तो ब्रह्म ऐसा रहस्य है, जिसे दुनिया के हर मत-संप्रदाय को मानने वाला व्यक्ति जानना चाहता है और समझना चाहता है। उसकी यही जिज्ञासा उसे खींच लाती है कुंभ जैसे अनूठे अनुष्ठानों में। मानवीयता का जो भाव कुंभ में देखने को मिलता है, वह और कहीं संभव नहीं। कुंभ में दुनिया का सबसे बड़ा आकर्षण विश्व कल्याण का वह भाव है, जो 'सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे संतु निरामय:Ó का संदेश पूरे मानव समाज को देता है। 

Friday, 19 March 2021

दून के रंगमंच का सुनहरा अतीत

कभी पूरे उत्तर भारत में दून के रंगमंच की धाक हुआ करती थी। यह वह दौर है, जब लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी, मुंबई, चंडीगढ़, सहारनपुर, भारत भवन भोपाल जैसे शहरों में स्थानीय नाट्य संस्थाओं की ओर से नाटकों के सफल प्रदर्शन के फलस्वरूप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) का ध्यान दून की ओर भी आकृष्ट हुआ। रामलीला से आरंभ होकर दून का रंगमंच पहले कोलकाता की कोरिन्यियन ड्रामा कंपनी और फिर साधुराम महेंद्रू के लक्ष्मण ड्रामेटिक क्लब के पारसी नाटकों से होता हुआ 70 के दशक (1961 से 1970) तक पहुंचा। यहीं से दून के रंगमंच का स्वर्णिम काल शुरू होता है, जो 90 के दशक (1981 से 1990) तक बदस्तूर जारी रहा। इस कालखंड में यहां की कई नाट्य संस्थाओं व रंगकर्मियों ने राष्ट्रीय फलक पर न सिर्फ अपनी कला का लोहा मनवाया, बल्कि दून के रंगमंच को अलग पहचान भी दिलाई। इस सफलता में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही नेहरू युवा केंद्र की। हम भी रंगमंच के इसी सुनहरे अतीत से परिचित हो लें- 












दून के रंगमंच का सुनहरा अतीत

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दिनेश कुकरेती

ब्बे के दशक में देहरादून के नेहरू युवा केंद्र को रंगकर्मियों के बीच 'मंडी हाउसÓ के नाम से ख्याति प्राप्त थी। तब रंगमंच की समस्त गतिविधियां इसी केंद्र से संचालित हुआ करती थीं। यह दौर इस मायने में भी अविस्मरणीय है कि अमरदीप चड्ढा के बाद हिमानी शिवपुरी, श्रीश डोभाल, चंद्रमोहन व अरविंद पांडे को इसी दौरान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश मिला। इसी अवधि में अशोक चक्रवर्ती, अविनंदा, एवी राणा, अवधेश कुमार, सहदेव नेगी, ज्योतिष घिल्डियाल, ज्ञान गुप्ता, टीके अग्रवाल, सतीश चंद्र, तपन डे, दीपक भट्टाचार्य, अजय चक्रवर्ती, धीरेंद्र चमोली, रामप्रसाद सुंद्रियाल, गजेंद्र वर्मा, दादा अशोक चक्रवर्ती, अतीक अहमद, रमेश डोबरियाल, सुरेंद्र भंडारी, दुर्गा कुकरेती जैसे मंझे हुए रंगकर्मियों की मजबूत जमात भी खड़ी हुई। लेकिन, नेहरू युवा केंद्र के बंद होते ही नाट्य संस्थाओं के साथ रंगकर्मी भी बिखर-से गए। आज क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों व वीडियो एलबमों की व्यस्तता के चलते कलाकारों के पास समय का अभाव है। इसका सीधा असर रंगमंच पर भी पड़ा। हालांकि, इस सबके बावजूद दून में वरिष्ठजनों का अनुभव और युवाओं की ऊर्जा रंगमंच की जोत जलाए हुए है। वरिष्ठ रंगकर्मी ज्योतिष घिल्डियाल कहते हैं कि रंगमंच मानवीय है। जब तक जीवन है, रंगमंच भी है। वह बीमार पड़ सकता है, थक सकता है, पर मर नहीं सकता। वरिष्ठ रंगकर्मी यमुनाराम कहते हैं कि रंगमंच को संतुष्टि तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर संभावनाएं तलाश कर नए आयाम जुटाने होंगे।

चरित्र में जान फूंक देते थे दादा

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दून के रंगमंच को दादा अशोक चक्रवर्ती के बिना पूर्ण नहीं माना जा सकता। नाटक 'बर्फ की मीनारÓ में उनका विलियम का चरित्र दर्शकों को आज भी याद है। नाटक 'बर्फ की मीनारÓ व 'तलछटÓ के दिल्ली समेत कई स्थानों पर सफल प्रदर्शन किए गए। वर्ष 1978 में उन्होंने रंगकर्मियों के साथ मिलकर 'वातायनÓ संस्था की स्थापना की और पूरी तरह नाटकों को समर्पित हो गए। उनके निर्देशन में 'शंबूक की हत्याÓ, 'मैन विदाउट शैडोÓ व 'निशाचरÓ जैसे बहुचर्चित नाटकों का अनेक स्थानों पर प्रदर्शन हुआ। कैंसर जैसे असाध्य रोग के बावजूद उन्होंने अपने जीवन के अंतिम नाटक 'अंधा भोजÓ का निर्देशन किया। बांग्ला नाटक 'रातेर अथितिÓ का ङ्क्षहदी अनुवाद उन्हीं के सहयोग से पूर्ण हो पाया था। एनएसडी जाने के इच्छुक रंगकर्मी दादा से ही प्रशिक्षण लेते थे। एक समय ऐसा भी आया, जब दादा नुक्कड़ को समर्पित हो गए। 'दृष्टिÓ नाट्य संस्था के माध्यम से उन्होंने पूरे उत्तराखंड में जनजागरण अभियान चलाया। 'उत्तराखंड नाट्य परिसंघÓ की परिकल्पना को वर्ष 2003 में दादा ने ही मूर्तरूप दिया। जिसका उद्देश्य उत्तराखंड में रंग शिथिलता को तोडऩा व सार्थक एवं सक्रिय रंग आंदोलन का सूत्रपात करना था।














'प्रह्लादÓ से मानी जाती है गढ़वाली रंगमंच की शुरुआत

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गढ़वाली रंगमंच की शुरुआत वर्ष 1930 से मानी जाती है। वर्ष 1930 में भवानी दत्त थपलियाल ने पहली बार गढ़वाली नाटक 'प्रह्लादÓ की प्रस्तुति दी। हालांकि, वर्ष 1912 में उन्होंने 'जय-विजयÓ और वर्ष 1914 में 'प्रह्लादÓ नाटक की रचना कर दी थी। लेकिन, कतिपय कारणों के चलते वर्ष 1930 से पूर्व इनका मंचन नहीं हो पाया। इसी बीच वर्ष 1932 में चार गैल्यों (साथियों) द्वारा रचित एवं अभिनीत नाटक 'पांखूÓ का उत्तरकाशी के माघ मेले में पहली बार मंचन हुआ। इन चार गैल्यों में से एक सत्यप्रसाद रतूड़ी थे। हालांकि, थोड़ा पीछे जाएं तो टिहरी राज्य के तत्कालीन रेजीडेंट शैमियर ने टिहरी में एक नाट्य क्लब की स्थापना कर ली थी। रियासत के सभी अधिकारी इस नाट्य क्लब के सदस्य होते थे। वर्ष 1921 तक इस क्लब के लिए प्रेक्षागृह भी बन गया, लेकिन नाटकों का मंचन इससे पूर्व से होने लगा था। अगस्त 1917 में टिहरी में नाटक 'सत्य हरिश्चंद्रÓ का पूर्वाभ्यास शुरू हो गया था और दो माह बाद इसे टिहरी में पारसी शैली में अभिनीत किया गया। नाट्य गृह बनने से टिहरी में नाटकों के लेखन व मंचन में तेजी आई और आने वाले वर्षों में 'यहूदी की बेटीÓ, 'खूबसूरत बलाÓ, 'सफेद खूनÓ, 'दानवीर कर्णÓ जैसे कुछ नाटकों का मंचन हुआ। वर्ष 1932 में विश्वंभर दत्त उनियाल रचित नाटक 'बसंतीÓ ने 'प्रह्लादÓ जैसी ही लोकप्रियता हासिल की। 

गढ़वाली के कुछ प्रमुख नाटक

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'भारी भूलÓ व 'मलेथा की कूलÓ  (जीत सिंह नेगी), 'खाडू लापताÓ, 'अंछर्यूं को तालÓ, 'दुर्जन की कछड़ीÓ व 'घरजवैंÓ (ललित मोहन थपलियाल), 'दूणो जनमÓ व 'कीड़ू की ब्वैÓ (किशोर घिल्डियाल), 'जंकजोड़Ó व 'अर्धग्रामेश्वरÓ (राजेंद्र धस्माना), 'कंस वधÓ, 'कंसानुक्रमÓ व 'स्वयंवरÓ (कन्हैयालाल डंडरियाल), 'मंगतू बौल्याÓ (स्वरूप ढौंडियाल), 'कफनÓ व 'लिंडर्या छ््वाराÓ (डॉ. कुसुम नौटियाल), 'जीतू बगड्वालÓ (ब्रजेंद्र शाह)
















ब्रह्मा ने नाटक रचा तो विश्वकर्मा ने रंगमंच

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रंगमंच शब्द 'रंगÓ और 'मंचÓ के मेल से बना है। रंग, जिसके तहत दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवार, छत और पर्दों पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है। साथ ही अभिनेताओं की वेशभूषा और सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है। मंच, जिसके तहत दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊंचा रखा जाता है। जबकि, दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला या नाट्यशाला कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ। 'ऋग्वेदÓ के कतिपय सूत्रों में यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी आदि के कुछ संवाद हैं। इन संवादों में लोग नाटक के विकास का इशारा पाते हैं। माना जाता है कि इन्हीं संवादों से प्रेरणा पाकर लोगों ने नाटक की रचना की होगी और इसी से नाट्यकला का विकास हुआ। यथासमय भरतमुनि ने उसे शास्त्रीय रूप दिया। 

'नाट्यशास्त्रÓ में नाटकों के विकास की प्रक्रिया व्यक्त करते हुए भरतमुनि कहते हैं, नाट्यकला की उत्पत्ति दैवीय है। दुखरहित सतयुग बीत जाने पर त्रेतायुग के आरंभ में देवताओं ने ब्रह्माजी से मनोरंजन का कोई ऐसा साधन उत्पन्न करने की प्रार्थना की, जिससे देवता अपना दुख भूल सकें और आनंद प्राप्त कर सकें। फलस्वरूप ब्रह्माजी ने 'ऋग्वेदÓ से कथोपकथन, 'सामवेदÓ से गायन, 'यजुर्वेदÓ से अभिनय और 'अथर्ववेदÓ से रस लेकर नाटक का निर्माण किया। रंगमंच के निर्माण का दायित्व निभाया देवशिल्पी विश्वकर्मा ने।




Monday, 18 January 2021

छलकने को तैयार अमृत कलश

 

छलकने को तैयार अमृत कलश

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सनातनी परंपरा में कुंभ से बड़ा कोई अन्य धाॢमक अनुष्ठान नहीं है। माना जाता है कि कुंभ की यह परंपरा समुद्र मंथन के बाद तब शुरू हुई थी, जब अमृत कलश के लिए देव-दानवों के बीच हुए संघर्ष के दौरान मृत्युलोक समेत अन्य लोकों में 12 स्थानों पर अमृत की बूंदें छलक गईं। शास्त्रों के अनुसार इनमें से चार स्थान (हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक व उज्जैन) ही धरती पर हैं। शेष आठ स्थान अन्य लोकों में मौजूद हैं। धरती पर हर तीन वर्ष के अंतराल में हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक व उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है। यानी हर स्थान पर 12 साल के अंतराल में कुंभ आयोजित होता है। वर्ष 2021 में यह योग गंगाद्वार हरिद्वार में बन रहा है और वह भी 12 नहीं, बल्कि 11 साल बाद। खास बात यह कि हरिद्वार कुंभ का योग ऐसे समय में बना है, जब संपूर्ण धरा कोरोना महामारी से त्रस्त है। इसलिए कुंभ में हरिद्वार पहुंचने वाले साधु-संतों और श्रद्धालु-यात्रियों को कोविड-19 की गाइडलाइन का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा। 

दिनेश कुकरेती

ह पहला मौका है, जब दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक अनुष्ठान हरिद्वार कुंभ का आयोजन महामारी के दौर (कोरोना काल) में हो रहा है। वैसे तो इस कुंभ को वर्ष 2022 में होना था, लेकिन ग्रह चाल के कारण यह संयोग एक वर्ष पूर्व ही बन गया। खास बात यह कि ऐसा संयोग एक सदी के अंतराल में पहली बार बना है। जबकि, सामान्यत: कुंभ 12 वर्ष के अंतराल में होता है। लेकिन, काल गणना के अनुसार बृहस्पति का कुंभ राशि और सूर्य का मेष राशि में संक्रमण होने पर ही कुंभ का संयोग (अमृत योग) बनता है। बीते एक हजार वर्षों में हरिद्वार कुंभ की परंपरा को देखें तो वर्ष 1760, वर्ष 1885 व वर्ष 1938 के कुंभ 11वें वर्ष में हुए थे। इसके 83 वर्ष बाद वर्ष 2021 में यह मौका आ रहा है।    













11 वर्ष बाद होता है हर आठवां कुंभ

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बृहस्पति ग्रह 11 वर्ष, 11 माह और 27 दिनों (4332.5 दिन) में बारह राशियों की परिक्रमा पूरी करता है। इस हिसाब से बारह वर्ष पूरे होने में 50.5 दिन कम रह जाते हैं। धीरे-धीरे सातवें और आठवें कुंभ के बीच यह अंतर बढ़ते-बढ़ते लगभग एक वर्ष का हो जाता है। ऐसे में हर आठवां कुंभ 11 वर्ष बाद होता है। 20वीं सदी में हरिद्वार मे तीसरा कुंभ वर्ष 1927 में हुआ था और अगला कुंभ वर्ष 1939 में होना था। लेकिन, बृहस्पति की चाल के कारण यह 11वें वर्ष (वर्ष 1938) में ही आ गया था। इसी तरह 21वीं सदी में बृहस्पति के चाल के कारण आठवां कुंभ वर्ष 2022 के स्थान पर वर्ष 2021 में पड़ रहा है। हर सदी में कम से कम एक बार ऐसा संयोग अवश्य बनता है।

एक हजार वर्ष पूर्व एक अप्रैल को पड़ी थी मेष संक्रांति

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हरिद्वार कुंभ के बीते हजार वर्षों के इतिहास को देखें तो इस कालखंड में 85 कुंभ हो चुके हैं। कुंभ का मुख्य स्नान बृहस्पति, सूर्य व चंद्रमा की युति के चलते मेष संक्रांति (सूर्य की संक्रांति) में ही होते हैं। खास बात यह कि वर्तमान में मेष संक्रांति अमूमन 14 अप्रैल को ही पड़ती है। लेकिन, एक हजार वर्ष पूर्व यह पहली अप्रैल को पड़ी थी। इसके बाद वर्ष 1108 में मेष संक्रांति दो अप्रैल को पड़ी। 

कुंभ को लेकर सनातनी मान्यता

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कुंभ को लेकर देवताओं और दानवों के बीच 12 दिनों तक 12 स्थानों पर घनघोर संघर्ष हुआ। कहते हैं कि इस दौरान अमृत कुंभ पाने को लेकर हुई छीना-झपटी में 12 स्थानों पर अमृत की बूंदें छलक पड़ीं। इनमें से चार स्थान हरिद्वार, प्रयाग, नासिक व उज्जैन मृत्युलोक में भारत भूमि पर हैं। जबकि, शेष आठ स्थान अन्य लोकों (स्वर्ग आदि) में माने जाते हैं। शास्त्रों में 12 वर्ष का मान देवताओं के बारह दिन के बराबर होता है। इसीलिए सामान्यत: 12वें वर्ष ही प्रत्येक स्थान पर कुंभ का संयोग बनता है।













हरिद्वार कुंभ-2021 में शाही स्नान की तिथियां

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11 मार्च 2021, महाशिवरात्रि पर्व पर पहला शाही स्नान

12 अप्रैल 2021, सोमवती अमावस्या पर दूसरा शाही स्नान

14 अप्रैल 2021, बैशाखी पर्व पर तीसरा शाही स्नान

27 अप्रैल 2021, चैत्र पूर्णिमा पर चौथा शाही स्नान

कुंभ में अन्य महत्वपूर्ण स्नान

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14 जनवरी 2021, मकर संक्रांति

11 फरवरी 2021, मौनी अमावस्या

16 फरवरी 2021, वसंत पंचमी

27 फरवरी 2021, माघ पूर्णिमा

13 अप्रैल 2021, नव संवत्सर

21 अप्रैल 2021, रामनवमी

सिर्फ हरिद्वार व प्रयागराज में ही होता है अर्द्धकुंभ

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कुंभ दो प्रकार का होता है, अर्द्धकुंभ और पूर्ण कुंभ। अर्द्धकुंभ जहां छह साल के अंतराल में आयोजित होता है, वहीं पूर्ण कुंभ 12 वर्ष के अंतराल में। अर्द्धकुंभ सिर्फ हरिद्वार और प्रयागराज में आयोजित होता है। उज्जैन और नासिक में लगने वाले पूर्ण कुंभ को 'सिंहस्थÓ कहा जाता है।

ऐसे तय होता है कुंभ का आयोजन

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कुंभ कहां मनाया जाएगा, यह बृहस्पति और सूर्य की स्थिति पर निर्भर करता है। जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तो हरिद्वार कुंभ का आयोजन होता है। बृहस्पति के वृषभ राशि और सूर्य के मकर राशि में आने पर प्रयागराज कुंभ आयोजित होता है। उज्जैन में कुंभ का आयोजन तब होता है, जब सूर्य और बृहस्पति दोनों वृश्चिक राशि में आ जाते हैं। इसी तरह नासिक कुंभ का आयोजन बृहस्पति और सूर्य के सिंह राशि में प्रवेश करने पर किया जाता है।

कहां किस स्थान पर होता है कुंभ

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-हरिद्वार में गंगा के किनारे

-प्रयागराज में गंगा, यमुना और विलुप्त सरस्वती नदी के संगम तट पर

-नासिक में गोदावरी नदी के तट पर

-उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर

















ऐसे होती है कुंभ की गणना

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कुंभ की गणना एक विशेष विधि से होती है। इसमें गुरु यानी बृहस्पति का विशेष महत्व है। खगोलीय गणना के अनुसार बृहस्पति एक राशि में लगभग एक वर्ष रहता है। बारह राशियों के भ्रमण में उसे 12 वर्ष समय लगता है। इस तरह प्रत्येक बारह साल बाद कुंभ उसी स्थान पर वापस आ जाता है। इसी प्रकार कुंभ के लिए निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीसरे वर्ष कुंभ का अयोजन होता है। कुंभ के लिए निर्धारित चारों स्थानों में प्रयागराज के कुंभ का विशेष महत्व माना गया है। यहां 144 वर्ष के अंतराल में महाकुंभ का आयोजन होता है, क्योंकि देवताओं का 12वां वर्ष मृत्युलोक के 144 वर्ष बाद आता है।

Sunday, 17 January 2021

अपना गणतंत्र सबसे निराला

अपना गणतंत्र सबसे निराला



भारत में जितने भी राष्ट्रीय पर्व मनाए जाते हैं, गणतंत्र-दिवस उन सभी में सबसे प्रमुख एवं महत्वपूर्ण पर्व है। लाहौर में रावी नदी के तट पर वर्ष 1930 में इसी दिन आजादी के दीवानों ने पूर्ण स्वराज की प्रतिज्ञा ली थी, जो 15 अगस्त 1947 को पूर्ण हुई। 26 जनवरी 1950 को भारत एक संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और लोकतांत्रिक गणराज्य बना। आइए! भारत के इसी गणतांत्रिक स्वरूप से हम भी परिचित हो लें...

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दिनेश कुकरेती

29 राज्य, सात केंद्र शासित प्रदेश, 1.32 अरब से अधिक की आबादी, चार प्रमुख धर्मों की उदयभूमि, 20 से ज्यादा संवैधानिक दर्जा प्राप्त भाषाएं, 1652 बोलियां, बहुधर्मी, अनगिनत संप्रदाय, परंपरा, रीति-रिवाज और त्यौहार। यही है 'इंडिया, दैट इज भारत।Ó अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के बाद अपना भाग्य-विधाता खुद होने का अहसास लोगों के मन में हिलौरें ले रहा था। मन उडऩा चाहता था और उम्मीदों का कोई छोर नहीं था। जेहन में तैर रहे थे नए राष्ट्र के निर्माण से जुड़े अनगिनत सवाल। संविधान सभा के सामने चुनौती थी कि नया गणतंत्र ऐसा हो, जिसमें देश की भाषाई, धार्मिक, जातीय व सांस्कृतिक विविधता को आत्मसात किया जा सके। लोगों के लिए सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि से न्याय सुनिश्चित हो। इसके अलावा जरूरत नए गणतंत्र में नागरिकों को बराबरी का अहसास कराने की भी थी। गणतंत्र यानी एक ऐसी व्यवस्था, जिसमें शक्ति का केंद्र राजा नहीं, बल्कि खुद जनता और उसके चुने प्रतिनिधि हों। आखिरकार, गूढ़ विचार-मंथन के बाद भारतीय गणतंत्र का ऐसा स्वरूप उभरकर सामने आया, जो पूरी दुनिया में अनूठा है।

हर तबके की बराबर हिस्सेदारी

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नौ दिसंबर 1946 को हुई संविधान सभा की पहली बैठक प्रमाण है कि किस नजरिए से भारतीय गणतंत्र की रूपरेखा तैयार हो रही थी। संविधान सभा में विभिन्न प्रांतों के सदस्यों के साथ ही रियासतों के प्रतिनिधि भी हिस्सा ले रहे थे। आम जनता से भी अपने सुझाव भेजने का अनुरोध किया गया था। यानी आरंभ से ही ध्येय एक ऐसे गणतंत्र की स्थापना का था, जिसमें समाज के हर वर्ग की बराबर हिस्सेदारी हो। कहने का मतलब भारतीय संविधान नैतिक दूरदृष्टि, राजनीतिक परिपक्वता और कानूनी कौशल का परिणाम था और इससे राष्ट्रीय एवं सामाजिक स्तर पर एक नई क्रांति का आभिर्भाव हुआ।

हमेशा ऊंचा रहा संविधान का सिर

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भारतीय गणतंत्र में देश की विविधता एवं जटिलता को एक राजनीतिक व्यवस्था के रूप में अपनाया गया और ऐसा करते समय विभिन्न क्षेत्रों में बहुलतावाद का भी पूरा सम्मान किया गया। राजनीतिक क्षेत्र में लोकतंत्र, सांस्कृतिक क्षेत्र में संघीय ढांचे और धार्मिक मामलों में धर्मनिरपेक्षता के सहारे एक नए गणतंत्र के मायनों को स्पष्ट किया गया। गणतंत्र बनने के बाद से ही नीति-निर्धारकों की प्राथमिकता देश के संघीय ढांचे को बरकरार रखना रही है। हालांकि, आजादी के बाद के सालों में देश की विविधता और विभिन्नता को चुनौती देते कई संकट खड़े हुए। कई मौकों पर देश के विघटन की आशंका जताई गई, राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ घनघोर अविश्वास पनपा, बावजूद इसके देश की जनता ने कभी संविधान का सिर नीचा नहीं होने दिया।

आम और खास का एक ही अधिकार

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यह भारतीय गणतंत्र की सबसे बड़ी खूबी है कि इसमें सत्ता के केंद्र में बैठे व्यक्ति को भी वही अधिकार हासिल है, जो बीहड़ में रहने वाले सामान्य व्यक्ति को। एक बेहद साधारण नागरिक भी समझता है कि सत्ता के बनने या गिरने में उसके वोट की अहमियत क्या है।

समस्याओं के लिए राजनीति जिम्मेदार

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यह कहना गलत होगा कि गणतंत्र में समस्याएं नहीं होतीं। समानता के तमाम वादों के बावजूद व्यावहारिक दिक्कतें कई बार निराशा पैदा करती हैं, चुनौतियां पहाड़-सी खड़ी नजर आती हैं। लेकिन, इसकेलिए गणतंत्र नहीं, राजनीतिक वर्ग और जनता की बेरुखी ही मुख्य रूप से जिम्मेदार है। संविधान तो हर व्यक्ति को बराबरी का दर्जा देता है और आगे बढऩे के समान अवसर मुहैया कराने का भरोसा भी।


















गण की व्यवस्था गणतांत्रिक

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'लोकÓ किसी एक जगह रहने वाले व्यक्तियों की संज्ञा है और गण का अर्थ है 'उनका समूहÓ। जिस जगह की उच्चतम व्यवस्था गण के माध्यम से चुनी जाए, उसे गणतांत्रिक कहते हैं। इस तरह भारत लोकतंत्र और गणतंत्र दोनों ही है, जबकि ब्रिटेन, डेनमार्क आदि देशों में लोकतंत्र तो है, पर वह गणतंत्र नहीं हैं।

लोकतंत्र में भी जनता का ही शासन  

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हर लोकतंत्र गणराज्य भी हो, यह जरूरी नहीं। वे संवैधानिक राजतंत्र भी गणराज्य की श्रेणी में आते हैं, जहां राष्ट्राध्यक्ष एक वंशानुगत राजा होता है और असली शासन जनता की चुनी हुई संसद चलाती है। ऐसे देशों में ब्रिटेन और उसके डोमिनियन देश कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, स्पेन, बेल्जियम, नीदरलैंड, स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क, जापान, कंबोडिया व लाओस शामिल हैं।

राष्ट्र किसी की निजी मिल्कियत नहीं

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गणराज्य या गणतंत्र सरकार का एक रूप है, जिसमें देश को सार्वजनिक मामला माना जाता है, न कि शासकों की निजी संस्था या संपत्ति। गणराज्य के भीतर सत्ता के शीर्ष पद विरासत में नहीं मिलते। यह सरकार का एक रूप है, जिसमें राज्य का प्रमुख राजा नहीं होता। गणराज्य की परिभाषा का विशेष रूप से संदर्भ सरकार के एक ऐसे स्वरूप से है, जिसमें व्यक्ति नागरिक निकाय का प्रतिनिधित्व करते हैं और विधि के अनुसार शक्ति का प्रयोग करते हैं। जिसमें निर्वाचित राज्य के प्रमुख के साथ शक्तियों का पृथक्करण शामिल होता है। जिस राज्य का संदर्भ संवैधानिक गणराज्य या प्रतिनिधि लोकतंत्र से है। 

हजारों साल पहले भी थे गणराज्य

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आमतौर पर धारणा है कि गणराज्यों की परंपरा यूनान के नगर राज्यों से शुरू हुई। जबकि, इन नगर राज्यों से भी हजारों वर्ष पूर्व (600 सदी ईस्वी पूर्व से चौथी सदी ईस्वी तक) भारत भूमि में अनेक गणराज्य अस्तित्व में थे। उनकी शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी। गणराज्य (गणतंत्र) का अर्थ है बहुमत का शासन। 'ऋग्वेदÓ, 'अथर्ववेदÓ व 'ब्राह्मणÓ ग्रंथ में इस शब्द का प्रयोग जनतंत्र और गणराज्य के आधुनिक अर्थों में किया गया है। वैदिक साहित्य में विभिन्न स्थानों पर उल्लेख हुआ है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर यहां गणतंत्रीय व्यवस्था थी। 'ऋग्वेदÓ के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि 'समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत।Ó कुछ स्थानों पर मूलत: राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ। इसका उदाहरण कुरु और पांचाल जैसे राज्य हैं, जिन्होंने ईसा से चार या पांच सदी पूर्व राजतंत्रीय व्यवस्था का परित्याग कर गणतंत्रीय व्यवस्था अपनाई। 600 ईस्वी पूर्व से 200 ईस्वी बाद तक, जब भारत बौद्ध धर्म के प्रभाव में था, जनतंत्र आधारित राजनीति लोक प्रचलित एवं बलवती थी। तब भारत में महानगरीय संस्कृति बड़ी तेजी से पनप रही थी। पाली साहित्य में तत्कालीन दौर की समृद्ध नगरी कौशाम्बी और वैशाली के आकर्षक वर्णन मिलते हैं। सिकंदर के भारत अभियान को लिपिबद्ध करने वाले डायोडोरस सिक्युलस ने भारत के साबरकी (सामबस्ती) नामक एक स्थान का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वहां पर गणतांत्रिक प्रणाली थी, जहां लोग मुक्त और आत्मनिर्भर थे।

गुप्त साम्राज्य तक रहे गणराज्य

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गणराज्यों की अंतिम झलक गुप्त साम्राज्य के उदय काल तक दिखाई पड़ती है। समुद्रगुप्त के धरणिबंध के उद्देश्य से किए हुए सैनिक अभियान से गणराज्यों का विलय हो गया था। अर्वाचीन पुरातत्व के उत्खनन में गणराज्यों के कुछ लेख, सिक्के और मिट्टी की मुहरें प्राप्त हुई हैं। विशेष रूप से विजयशाली यौधेय गणराज्य के संबंध में मिली प्रामाणिक सामग्री उसके गौरवशाली अतीत को प्रस्तुत करती है।