Sunday, 18 April 2021

नागा संन्यासियों का रहस्‍यलोक, कैसे बनते हैं नागा


दिनेश कुकरेती

र तीन साल के अंतराल में हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन व नासिक में होने वाले कुंभ मेले का सबसे बड़ा आकर्षण होते हैं दशनामी (दसनामी) संन्यासी अखाडो़ं से जुडे़ नागा संन्यासी यानी अवधूत। यह दशनामी संबोधन संन्यासियों को आदि शंकराचार्य का दिया हुआ है। इसकी भी एक लंबी कहानी है। असल में आदि शंकराचार्य ने पूरब में जगन्नाथपुरी गोवर्धन पीठ, पश्चिम में द्वारका-शारदा पीठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में शृंगेरी पीठ की स्थापना के बाद देशभर में विभिन्न पंथों में बंटे साधु समाज को दस पदनाम देकर संगठित किया। ये दस पदनाम हैं- तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती और पुरी। इसके उपरांत शंकराचार्य ने इनमें से ‘वन’ ‘अरण्य’ पद गोवर्धन पीठ ‘तीर्थ’ ‘आश्रम’ पदनाम शारदा पीठ, ‘गिरि’ ‘पर्वत’ ‘सागर’ पदनाम ज्योतिर्पीठ और पुरी’ ‘भारती’ ‘सरस्वती’ पदनाम शृंगेरी पीठ से संबद्ध कर दिए। यह संपूर्ण व्यवस्था उन्होंने बिखरे हुए संत समाज को व्यवस्थित करने के लिए की। कालांतर में इन्हीं दशनामी संन्यासियों के बीच से नागा संन्यासियों का अभ्युदय हुआ। 

नागा, जो आकाश को अपना वस्त्र मानते हैं, शरीर पर भभूत (भस्म) मलते हैं, दिगंबर रूप में रहना पसंद करते हैं और युद्ध कला में उन्हें महारथ हासिल है। देखा जाए तो नागा सनातनी संस्कृति के संवाहक हैं और आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा का निर्वाह करते हुए विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं। हरिद्वार समेत दूसरे तीर्थों के दूरदराज इलाकों, हिमालय की कंदराओं, प्राकृतिक गुफाओं आदि स्थानों पर ये आम जनजीवन से दूर कठोर अनुशासन में रहते हैं। कहते हैं दुनिया चाहे कितनी भी क्यों न बदल जाए, लेकिन शिव और अग्नि के ये भक्त इसी स्वरूप में रहेंगे। 

अब मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि नागा संन्यासी शीत को कैसे बर्दाश्त करते होंगे। असल में नागा तीन प्रकार के योग करते हैं, जो उन्हें शीत से निपटने को शक्ति प्रदान करते हैं। नागा अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं। देखा जाए तो नागा भी एक सैन्य पंथ है। आप इनके समूह को सनातनी सैन्य रेजीमेंट भी कह सकते हैं। इतिहास में आततायियों के विरुद्ध ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का उल्लेख मिलता है, जिनमें हजारों नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया और अपनी जान की बाजी लगाकर भी सनातनी संस्कृति की रक्षा की। ऐसा नहीं कि नागा साधु सिर्फ पुरुष ही होते हैं। कुछ महिलायें भी नागा साधु होती हैं और गेरुवा वस्त्र धारण करती हैं। इन्हें अवधूतानी कहा जाता है। 

कठिन परीक्षाओं से गुजरकर बनते हैं नागा

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नागा संन्यासी बनना आसान नहीं है। इसके लिए कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। जब भी नागा बनने का इच्छुक कोई व्यक्ति किसी भी संन्यासी अखाड़े में जाता है तो उसे पहले कई तरह की परीक्षा देनी पड़ती है। सर्वप्रथम संबंधित अखाड़े के प्रबंधक यह पड़ताल करते हैं कि वह नागा क्यों बनना चाहता है। उसकी पूरी पृष्ठभूमि और मंतव्यों को जांचने के बाद ही उसे अखाड़े में शामिल किया जाता है। श्री पंचदशनाम जूना अखाडे़ के श्रीमहंत मोहन भारती बताते हैं कि अखाड़े में शामिल होने के बाद तीन साल तक उसे अपने गुरुओं की सेवा करनी पड़ती है। सभी प्रकार के कर्मकांडों को समझने के साथ स्वयं भी उनका हिस्सा बनना होता है। जब संबंधित व्यक्ति के गुरु को अपने शिष्य पर भरोसा हो जाता है तो उसे अगली प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। यह प्रक्रिया कुंभ के दौरान शुरू होती है। इस अवधि में संबंधित  व्यक्ति को संन्यासी से महापुरुष के रूप में दीक्षित किया जाता है। उसे गंगा में 108 डुबकियां लगवाई जाती हैं। फिर भस्म, भगवा और रुद्राक्ष की माला दी जाती है। 

श्रीमहंत मोहन भारती बताते हैं कि महापुरुष बन जाने के बाद उसे अवधूत बनाए जाने की तैयारी शुरू होती है। अखाड़ों के आचार्य अवधूत बनाने के लिए सबसे पहले महापुरुष बन चुके संन्यासी का जनेऊ संस्कार करते हैं और इसके बाद उसे संन्यासी जीवन की शपथ दिलवाई जाती है। साथ ही उसके परिवार और स्वयं का पिंडदान करवाया जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वो परिवार और संसार के लिए मर चुका है। पिंडदान करने के बाद दंडी संस्कार होता है और उसे पूरी रात पंचाक्षरी मंत्र ॐ नम: शिवाय का जाप करना पड़ता है। रातभर चले इस जाप के बाद भोर होने पर अखाड़े ले जाकर उससे विजया हवन करवाया जाता है और फिर गंगा में 108 डुबकियों का स्नान होता है। गंगा में डुबकियां लगाने के बाद उसे अखाड़े के ध्वज के नीचे दंडी त्याग करवाया जाता है। 

श्रीमहंत मोहन भारती के आनुसार नागा पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया के दौरान इन संन्यासियों को सिर्फ एक लंगोट में रहना पड़ता है। उन्हें दिगंबर कहा जाता है। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट का भी परित्याग कर देते हैं और और श्रीदिगंबर कहलाते हैं। इसके बाद वो ताउम्र इसी श्रीदिगंबर अवस्था में रहते हैं।

'कालÓ के उपासक बने शांति के पुजारी

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इतिहास के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि 14वीं सदी के आरंभ में आततायी शासकों ने सनातनी परंपरा को आघात पहुंचाना शुरू कर दिया था। तब परमहंस संन्यासियों को लगने लगा कि उनकी इस राक्षसी प्रवृत्ति पर शास्त्रीय मर्यादा के अनुकूल विवेक शक्ति से विजय पाना असंभव है। सो, एक कुंभ पर्व में दशनामी संन्यासियों और सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वानों ने तय किया कि क्यों न शस्त्र का जवाब शस्त्र से ही दिया जाए। नतीजा, दशनामी संन्यासियों के संगठन की सामरिक संरचना फील्ड फॉरमेशन आरंभ हुई। असल में स्थिति भी ऐसी ही थी। सनातनी परंपरा की रक्षा के लिए शस्त्र धारण करना ही एकमात्र विकल्प शेष रह गया था। लिहाजा, ऐसा निश्चय हो जाने पर सर्वानुमति से निर्णय लिया गया कि आगामी कुंभ पर्व के सम्मेलन में पूर्वोक्त चारों आम्नायों (शृंगेरी, गोवर्धन, ज्योतिष व शारदा मठ) से संबंधित दसों पदों के संन्यासियों की मढिय़ों के समस्त मठ संचालकों को विशेष रूप से आमंत्रित किया जाए। 

इस निर्णय के अनुसार उससे अग्रिम कुंभ पर्व के सम्मेलन में देश के समस्त भागों से हजारों मठों के संचालक, विशिष्ट संत-संन्यासी व सनातन धर्म के ज्ञाता विद्वान इकट्ठा हुए। उन्होंने एकमत से फैसला लिया कि अब परमात्मा के कल्याणकारी शिव स्वरूप की उपासना करते हुए सनातन धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। इसलिए परमात्मा रुद्र के संहारक भैरव स्वरूप की उपासना करते हुए हाथों में शस्त्र धारण कर दुष्टों का संहार किया जाए। ऐसा निश्चिय हो जाने के बाद शस्त्रों से सज्जित होने के लिए समस्त दशनामी पदों का आह्वान किया गया। इनमें विरक्त संन्यासियों के अलावा ऐसे सहस्त्रों नवयुवक भी सम्मिलित हुए, जिनके हृदय में सनातन धर्म की रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान करने की प्रबल भावना थी। हजारों की संख्या में नवयुवक संन्यास दीक्षा लेकर धर्म रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गए। 

परमात्मा के भैरव स्वरूप की अविच्छिन्न शक्ति प्रचंड भैरवी (मां दुर्गा) का आह्वान कर उनके प्रतीक के रूप में भालों की संरचना हुई। इन्हीं भालों के सानिध्य में दशनाम संन्यासियों को युद्धकला का प्रशिक्षण देकर शस्त्रों से सज्जित किया गया। इसके बाद प्रशिक्षित एवं शस्त्र सज्जित संन्यासियों ने वस्त्र आदि साधनों का परित्याग कर दिया। आदि शंकराचार्य से पूर्व जैसे परमहंस संन्यासी वस्त्र त्यागकर दिगंबर अवस्था में रहते थे, वैसे भी वे भी शरीर में भस्म लगाए दिगंबर अवस्था में रहने लगे। इसी दिगंबर रूप ने उन्हें नागा संन्यासी के रूप में प्रतिष्ठित किया। कालांतर में नागा संन्यासी संज्ञा ही उनकी पहचान हो गया।

अग्नि वस्त्र धारण करती हैं

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अब थोडा़ महिला नागा संन्यासियों के बारे में भी जान लें। जूना अखाडे़ की साध्वी श्रीमहंत साधना गिरि बताती हैं कि नागा संन्यासी यानी अवधूतानी बनने के लिए सबसे पहले महिलाओं को संन्यासी बनना पड़ता है। इसके लिए वह पंच संस्कार धर्म का पालन करती हैं। इसके तहत सभी को अपने-अपने पांच गुरु-कंठी गुरु, भगौती गुरु, भर्मा गुरु, भगवती गुरु व शाखा गुरु (सतगुरु) बनाने पड़ते हैं। इनके अधीन ये सभी संन्यास के कठोर नियमों का पालन करती हैं। इसके बाद जहां-जहां कुंभ होते हैं, वहां इससे संबंधित संस्कार में भाग लेती हैं। अवधूतानी बनने की प्रक्रिया के तहत सभी साध्वी पूरी रात धर्मध्वजा के नीचे पंचाक्षरी मंत्र 'ॐ नम: शिवाय' का जाप करती हैं। सभी को यह कड़ी चेतावनी होती है कि इस प्रक्रिया में किसी किस्म का कोई व्यवधान न होने पाए। यही वजह है कि जब प्रक्रिया चल रही होती है, तब वहां किसी का भी प्रवेश करने की अनुमति नहीं होती।संन्यास दीक्षा में कुंभ पर्व के दौरान गंगा घाट पर मुंडन व पिंडदान होता है। रात में अखाड़े की छावनी में स्थापित धर्मध्वजा के नीचे 'ॐ नम: शिवाय' का जाप किया जाता है। यहीं पर ब्रह्ममुहूर्त में अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर 'विजया होम' के बाद संन्यास दीक्षा देते है। इसके बाद उन्हें स्त्री व धर्म की मर्यादा के लिए तन ढकने को पौने दो मीटर कपड़ा (अग्नि वस्त्र) दिया जाता है। फिर सभी संन्यासी गंगा में 108 डुबकियां लगाकर अग्नि वस्त्र धारण करती हैं और आचार्य महामंडलेश्वर से आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। अब उन पर और उनके जन्म पर परिवार व माता-पिता का कोई अधिकार नहीं रह जाता। उसका जन्म धर्म, लोक कल्याण और मानव मात्र की सेवा को समर्पित हो जाता है। संन्यास दीक्षा के उपरांत आत्मा और परमात्मा के मिलन का एहसास होता है।

करती हैं 'अभ्रत' या 'मूसल वस्त्र' स्नान

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कुंभ पर्व के दौरान सभी अवधूतानी संबंधित अखाड़े के शाही स्नान, शाही जुलूस और पेशवाई का अभिन्न हिस्सा होती हैं। वह अखाड़े के शाही स्नान के दौरान अपने क्रम के अनुसार एकल वस्त्र यानी अग्नि वस्त्र के साथ स्नान करती हैं। इसे अभ्रत स्नान या मूसल वस्त्र स्नान भी कहते हैं। शाही जुलूस और पेशवाई के समय भी यह सभी अवधूतानी धर्म की मर्यादा में रहती हैं और अग्नि वस्त्र के साथ शामिल होती हैं।

जमीन का बिछौना, एक वक्त का भोजन

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नागा संन्यासी को केवल जमीन पर ही सोते हैं और इस नियम का पालन हर नागा साधु को करना होता है। इसके साथ वह 24 घंटे में केवल एक ही बार भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के लिए वो एक दिन में सिर्फ सात घरों से ही भिक्षा ले सकते हैं। अगर इन सात बार में भिक्षा न मिले तो उन्हें भूखा ही रहना पड़ता है। नागा संन्यासी अगर वस्त्र धारण करना चाहे तो सिर्फ गेरुवा वस्त्र ही पहन सकता है और केवल भस्म का ही उसका शृंगार है।

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