Wednesday, 21 April 2021

नमामि रामं रघुवंश नाथम



 

नमामि रामं रघुवंश नाथम

दिनेश कुकरेती

रामनवमी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के आठ दिन बाद पड़ती है। इस तिथि को श्रीराम के जन्मदिन की स्मृति में मनाया जाता है। राम श्रीविष्णु के अवतार माने गए हैं। अगस्त्य संहिता के अनुसार पुनर्वसु नक्षत्र व कर्क लग्न में जब सूर्य अन्यान्य पांच ग्रहों की शुभ दृष्टि के साथ मेष राशि पर विराजमान थे, तब राम ने असुरों का संहार करने के लिए धरा पर अवतार लिया और जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। अयोध्या के राजकुमार होते हुए भी राम पिता के वचनों को पूरा करने के लिए संपूर्ण वैभव को त्याग 14 वर्ष के लिए वन चले गए। धार्मिक दृष्टि से चैत्र शुक्ल नवमी का विशेष महत्व है। इस तिथि को दिन के बारह बजे जैसे ही सौंदर्य निकेतन, शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किए हुए चतुर्भुजधारी श्रीराम प्रकट हुए, माता कौशल्या विस्मित हो गईं। राम के सौंदर्य व तेज को देखकर उनके नेत्र तृप्त नहीं हो रहे थे। देवलोक भी अवध के सामने श्रीराम के जन्मोत्सव को देख फीका-सा लग रहा था। देवता, ऋषि, किन्नर, चारण सभी जन्मोत्सव में शामिल होकर आनंद उठा रहे थे। इसीलिए हम प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल नवमी को राम जन्मोत्सव मनाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामनवमी के दिन ही रामचरितमानस की रचना का शुभारंभ किया था।

जहां अनंत मर्यादाएं, वहां राम

भारतीय संस्कृति में ऐसा कोई दूसरा चरित्र नहीं, जिसे राम के समक्ष खड़ा किया जा सके। राम हमारी अनंत मर्यादाओं के प्रतीक पुरुष हैं, धीर-वीर हैं और इस सबसे बढ़कर प्रशांत (स्थिर या आडंबर रहित) हैं। इसलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर महाकवि भास, कालीदास, भवभूति और तुलसीदास तक न जाने कितनों ने अपनी लेखनी और प्रतिभा से राम के चरित्र को संवारा। वाल्मीकि के राम जहां लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष हैं। वहीं, भास, कालिदास और भवभूति के राम कुलरक्षक, आदर्श पुत्र, पति, पिता व प्रजापालक राजा का चरित्र सामने रखते हैं। कालिदास ने 'रघुवंशÓ महाकाव्य में इक्ष्वाकुवंश का वर्णन किया, तो भवभूति ने 'उत्तर रामचरितमÓ में अनेक मार्मिक प्रसंग जोड़ डाले। लेकिन, तुलसीदास ने रामचरित्र का कोई प्रसंग नहीं छोड़ा। यानी रामकथा को संपूर्णता वास्तव में तुलसीदास ने ही प्रदान की।

मान चेतना के आदि पुरुष

तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं। वे दुराचारियों, यज्ञ विध्वंसक राक्षसों का नाश कर लौकिक मर्यादाओं की स्थापना के लिए ही जन्म लेते हैं। वे सामान्य मनुष्य की तरह सुख-दुख का भोग करते हैं और जीवन-मरण के चक्र से होकर गुजरते हैं। लेकिन आखिर में अपनी पारलौकिक छवि की छाप छोड़ जाते हैं। इसलिए राम मर्यादा पुरुषोत्तम तो हैं ही, मान चेतना के आदि पुरुष भी हैं।

सबके अपने-अपने राम

तुलसीदास, रैदास, नाभादास, नानकदास, कबीरदास आदि के राम अलग-अलग हैं। किसी के राम दशरथ पुत्र हैं तो किसी के लिए सबसे न्यारे। तभी तो तुलसीदास कहते हैं, 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिंंह तैसी।Ó जबकि, इकबाल कहते हैं कि 'है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज, अहले वतन समझते हैं, उनको इमामे हिंद।Ó

आत्माओं को आनंदित करने वाले

राम कौन हैं। वे लोक जीवन में इतने प्रिय क्यों हैं। उनके बाद भी बहुत से धर्मनिष्ठ, कर्तव्यनिष्ठ, प्रजा हितैषी, न्याय प्रिय व नीति निपुण राजा हुए, फिर राम राज्य की महिमा का इतना गायन क्यों। असल में राम दो हैं। एक  वह जो अयोध्या में जन्मे, जिनके दैहिक जन्म का नाम राम है। दूसरे निराकार परमात्मा, जिन्हें राम का नाम इसलिए दिया गया, क्योंकि वह रमणीय और लुभाने वाला है। वह आत्माओं को आनंदित करने वाला है। ज्ञानवान और योगयुक्त आत्मा ही सीता है, क्योंकि वह निराकार राम का वरण करना चाहती है। लेकिन, निराकार राम से मिलने के लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है यानी पवित्रता का व्रत लेना होता है।

शरीर क्षेत्र, आत्मा क्षेत्रज्ञ

गीता अथवा ज्ञान की भाषा में शरीर को क्षेत्र और आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा गया है। जब मनुष्यता (क्षेत्रज्ञ) के बुद्धि रूपी क्षेत्र में ज्ञान का हल चलाया जाता है, तब उन लकीरों से यानी ज्ञान की पक्की धारणा से सीता का जन्म होता है। यह जन्म माता के गर्भ से नहीं होता, क्योंकि यह तो स्वयं आत्मा का जन्म यानी जागरण अथवा पुनरुद्धार है।

पंचतत्वों ने निर्मित शरीर ही पंचवटी

यह संसार ही कांटों का वन है और पंच भौतिक तत्वों से निर्मित यह शरीर ही पंचवटी है। इसी में आत्मा रूपी सीता (वैदेही यानी देह से न्यारी) रहती है। मन में लक्ष्य को धारण करने की जो आज्ञा है, वही लक्ष्मण की खींची हुई लकीर है। इसका उल्लंघन करना आत्मा रूपी सीता के लिए मना है।

सभी व्यक्तियों का शासन है रामराज्य

राम जीवन के हर क्षेत्र में मर्यादाओं से बंधे हुए हैं और उनका कहीं भी उल्लंघन नहीं करते। वे पूरी तरह अपने समाज और देश के प्रति समर्पित हैं। इसीलिए वे रघुकुल भूषण हैं, समाज के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय हैं। राम के वीतरागी स्वभाव के अनेक उदाहरण रामायण में भरे पड़े हैं। रामराज्य में यद्यपि राजतंत्रीय व्यवस्था थी, मगर वह मर्यादित राजतंत्र था, निरंकुश नहीं। आधुनिक जनतंत्र केवल बहुमत का शासन है, मगर रामराज्य तो सभी व्यक्तियों का शासन था। जिसमें एक साधारण धोबी की आवाज भी उपेक्षित नहीं रह पाती। उसके शंका व्यक्त करने पर भी राम अपनी प्राणप्रिया पत्नी को बीहड़ वनों में भेज देते हैं। राम राज्य में केवल संन्यासी को ही नहीं, राजा को भी योगी कहा जाता था, जो प्रजा के लिए अपना सब-कुछ त्यागने के लिए तत्पर रहता था। राम इसके साक्षात प्रतीक हैं। 

समझाई संगठन की अहमियत 

राम ने मानवता से ओतप्रोत एक ऐसे समाज की रचना की, जो अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए भी तैयार रहे। राम अनुसूचित जातियों व जनजातियों में अत्यंत लोकप्रिय ही नहीं बन गए, बल्कि अपने आत्मीय भाव से उन्हें संगठित कर और बुराइयों से निकाल उनमें संगठन का स्वभाव पैदा करते रहे। इतिहास में कहीं भी जिक्र नहीं आता कि अयोध्या, जनकपुर व अन्य किन्हीं भी राजवंशों से संपर्क कर रावण को मारने के लिए राम ने संदेश भेजे या संपर्क किया। रामसेतु निर्माण में उन्होंने जन-जन को एक प्रबल संदेश दिया। सेतु के निर्माण में गिलहरी भी जुटी, क्योंकि पीडि़त, दुखी, गरीब व पंक्ति के अंत में खड़े व्यक्ति को भी राम प्यार करते हैं।

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