Thursday, 15 October 2020

एफआरआई : इतिहास समेटती धरोहर



एफआरआई : इतिहास समेटती धरोहर
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दिनेश कुकरेती
पनी खूबसूरत आबोहवा के जाना जाने वाला देहरादून शहर लीची व आम के बागीचों और बासमती की महक के लिए ही प्रसिद्ध नहीं रहा, बल्कि यहां की ऐतिहासिक इमारतें भी देश-दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचती रही हैं। इन्हीं में एक है वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआई) की मुख्य इमारत। ग्रीक-रोमन और औपनिवेशिक शैली में बनी महल जैसी यह इमारत शहर के हृदय स्थल घंटाघर से सात किमी दूर देहरादून-चकराता हाइवे पर स्थित है। दो हजार एकड़  क्षेत्र में फैले एफआरआई की स्थापना वर्ष 1878 में ब्रिटिश इंपीरियल फॉरेस्ट स्कूल के नाम से की गई थी। वर्ष 1906 में इसकी पुनर्स्‍थापना कर इसे फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट का स्वरूप दिया गया। राष्ट्रीय धरोहर घोषित हो चुके एफआरआइ के मुख्य भवन का उद्घाटन वर्ष 1921 में किया गया।

इस भवन का डिजाइन विलियम लुटयंस ने तैयार किया था, जिसे बनने में करीब छह साल का समय लगा। तब इस पर 90 लाख की लागत आई थी। वन क्षेत्र में अपने शोध कार्य के लिए प्रसिद्ध इस संस्थान को एशिया में अपनी तरह के एकमात्र संस्थान होने का गौरव हासिल है। वर्ष 1988 में एफआरआई और उसके शोध केंद्रों को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अधीन लाया गया। वर्ष 1991 में इसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की ओर से डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दिया किया। यह भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (आइसीएफआरई) के अंतर्गत आने वाला एक प्रमुख संस्थान है। तिब्बत से लेकर सिंगापुर तक के सभी तरह के पेड़-पौधे यहां मौजूद हैं। इसलिए इसे देहरादून की पहचान और गौरव भी कहा जाता है।

उड़द की दाल से जोड़ी गई इमारत
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आपको आश्चर्य होगा कि एफआरआइ की इस इमारत को जोडऩे या बनाने के लिए चूना पत्थर व उड़द की दाल के मिश्रण का उपयोग किया गया। यह वजह है कि इसकी चमक और मजबूती आज भी इसे सबसे अलग बनाती है।

विज्ञान और पर्यटन साथ-साथ
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वन अनुसंधान संस्थान में प्रयोगशालाएं, एक पुस्तकालय, वनस्पति-संग्रहालय, वनस्पति-वाटिका, मुद्रण-यंत्र और प्रायोगिक मैदानी क्षेत्र हैं। जिन पर वानिकी शोध किया जाता है। इसके संग्रहालय वैज्ञानिक जानकारी के अलावा पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र हैं।

एफआरआई का भूगोल
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वन अनुसंधान संस्थान परिसर के उत्तर में देहरादून कैंट और दक्षिण में भारतीय सैन्य अकादमी (आइएमए) स्थित है। टोंस नदी इसकी पश्चिमी सीमा बनाती है।

शोध के साथ प्रशिक्षण भी
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संस्थान में वानिकी से संबंधित शोध कार्यों के अलावा भारतीय वन सेवा (आइएफएस) के लिए चयनित अधिकारियों को भी प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके लिए यहां इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वन अकादमी (आइजीएनएफए) की स्थापना की गई है। यह प्रशिक्षण आइसीएफआरई की देखरेख में ही होता है। देहरादून में आइसीएफआरई के माध्यम से भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआइआइ) और भारतीय वन प्रबंधन संस्थान भी संचालित किए जाते हैं।

अनूठा है एफआरआई का संग्रहालय
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एफआरआई का संग्रहालय प्रतिदिन सुबह 9.30 से शाम पांच बजे तक आमजन के लिए खुला रहता है। संस्थान के म्यूजियम समेत अन्य हिस्सों को देखने के लिए प्रवेश शुल्क निर्धारित है। इस संग्रहालय में छह अनुभाग हैं, जिन्हें पैथोलॉजी संग्रहालय, सामाजिक वानिकी संग्रहालय, वन-वर्धन संग्रहालय, लकड़ी संग्रहालय, अकाष्ठ वन उत्पाद संग्रहालय व कीट विज्ञान संग्रहालय नाम से जाना जाता है।

अनूठा है 800 साल पुराना तना
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एफआरआई में दुनियाभर की कुछ बेहद अनोखी चीजें देखी जा सकती हैं। इनमें सबसे खास है 800 साल पुराने पेड़ का कटा हुआ तना। सदियों पुराने इस तने की पहचान इस पर बनी हुई लकीरों को पहचान कर की गई। इसे सुरक्षित रखने के लिए कई तरह के पेंट का इस्तेमाल किया गया है। इसके अलावा यहां बहुत पुरानी बांस-बल्लियों या लकड़ी के डंडों को भी देखा जा सकता है।

शूटिंग का पसंदीदा स्थल
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एफआरआई का मुंबई में स्थित भारतीय फिल्म उद्योग से संबंध होने के कारण कई बड़े फिल्म निर्माता एफआरआई परिसर में अपनी फिल्मों की शूटिंग भी कर चुके हैं। इनमें धर्मा प्रोडक्शन की 'स्टूडेंट ऑफ द ईयरÓ व तिग्मांशु धूलिया की 'पान सिंह तोमरÓ के अलावा 'फरिश्तेÓ, 'रहना है तेरे दिल मेंÓ, 'कृष्णा कॉटेजÓ, 'अरमानÓ, 'घर का चिरागÓ 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर-2Ó, 'जीनियसÓ जैसी बड़ी फिल्मों की शूटिंग एफआरआइ में ही हुई। इसके अलावा 'पहरेदार पिया कीÓ, 'ये रिश्ता क्या कहलाता हैÓ, 'जिया जलेÓ, 'दुल्हनÓ जैसे टीवी सीरियलों की शूटिंग भी यहां की गई।



छह राज्यों की जरूरतों का करता है पूरा
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संस्थान विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड की अनुसंधान जरूरतों को पूरा करता है। वर्तमान में यह वानिकी में पीएचडी उपाधि के अलावा एमएससी डिग्री के लिए अग्रणी तीन कोर्स और दो स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्रदान करता है। 
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Dinesh Kukreti
The city of Dehradun, known for its beautiful climate, is not only famous for the litchi and mango orchards and aroma of basmati, but the historical buildings here have also attracted the attention of the country and the world.  One of them is the main building of the Forest Research Institute (FRI).  This palace, built in Greek-Roman and colonial style, is situated on the Dehradun-Chakrata highway, seven km from the clock tower of the heart of the city.  The FRI, spread over two thousand acres, was established in the year 1878 as the British Imperial Forest School.  In the year 1906 it was restored and given the shape of Forest Research Institute.  The main building of the FRI, which has been declared a national heritage, was inaugurated in the year 1921.
The building was designed by William Lutyens, which took about six years to build.  Then it cost 90 lakhs.  Known for its research work in the forest sector, the institute has the distinction of being the only institution of its kind in Asia.  In the year 1988, FRI and its research centers were brought under the Ministry of Forest and Environment.  In 1991, it was granted deemed university status by the University Grants Commission (UGC).  It is a premier institute under the Indian Council of Forestry Research and Education (ICFRE).  All kinds of plants from Tibet to Singapore are present here.  Hence it is also called Dehradun's identity and pride.

Building added with urad dal
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You would be surprised that a mixture of limestone and urad dal was used to add or build this FRI building.  This is the reason that its brightness and strength make it different even today.

Science and tourism together
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The Forest Research Institute has laboratories, a library, a botanical museum, a botanical garden, a printing machine and experimental field.  On which forestry research is done.  Apart from scientific information, its museum is also a center of attraction for tourists.

Geography of fri
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Dehradun Cantt is situated to the north of the Forest Research Institute campus and Indian Military Academy (IMA) to the south.  The Tons River forms its western boundary.

Research along with research
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In addition to research work related to forestry, the institute also imparts training to selected officers for the Indian Forest Service (IFS).  For this, the Indira Gandhi National Forest Academy (IGNFA) has been established here.  This training takes place under the supervision of ICFRE.  Indian Institute of Wildlife (WII) and Indian Institute of Forest Management are also operated through ICFRE in Dehradun.

FRI's museum is unique
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The FRI Museum is open to the public from 9.30 am to 5 pm daily.  The entrance fee is fixed to see other parts of the institute including museum.  The museum has six sections, known as the Pathology Museum, Social Forestry Museum, Forestry Museum, Wood Museum, Akash Forest Products Museum and Entomology Museum.

800 years old stem is unique
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Some very unique things around the world can be seen in FRI.  The most prominent of these is the truncated trunk of an 800 year old tree.  The centuries-old trunk was identified by identifying the ridges built on it.  Several types of paint have been used to protect it.  Apart from this, very old bamboo-bats or wooden poles can also be seen here.

Favorite shooting spot
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Due to FRI's connection to the Indian film industry in Mumbai, many big filmmakers have also shot their films at the FRI campus.  These include Dharma Production's 'Student of the Year' and Tigmanshu Dhulia's 'Paan Singh Tomar' apart from 'Farishte', 'Rahna Hai Tere Dil Mein', 'Krishna Cottage', 'Armaan', 'Ghar ka Chirag' 'Student of the Year -2', 'Genius'  Shooting of big films like FRI was done only.  Apart from this, TV serials like 'Paharedar Piya Ki Ó,' Yeh Rishta Kya Kehlata Hai ',' Jiya Jale ',' Dulhan 'were also shot here.

Meets the needs of six states
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The institute specifically caters to the research needs of Punjab, Haryana, Chandigarh, Delhi, Uttar Pradesh and Uttarakhand.  It currently offers three courses leading to an MSc degree and two postgraduate diplomas in addition to a PhD degree in forestry.

Tuesday, 6 October 2020

लॉकडाउन (कहानी)



लॉकडाउन 

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दिनेश कुकरेती 

चानक एक अननोन फोन कॉल ने अमित की तंद्रा भंग कर दी। अनमने भाव से उसने कॉल रिसीव की तो दूसरी ओर से कानों में रस घोलती आवाज गूंजी- 'हैल्लो...अमित से बात हो रही है क्या?Ó 

'जी...आप कौन?Ó 

'पहचाना नहीं..क्यों पहचानोगे, बड़े आदमी जो हो गए हो।Ó 

'आप बताएंगी नहीं तो पहचानूंगा कैसे भला।Ó 

'कोशिश तो करो...सब याद आ जाएगा।Ó 

अमित के माथे पर बल पड़ गए कि आखिर इतने अधिकार से बात करने वाली यह आवाज किसकी हो सकती है। उधर से फिर आवाज गूंजी- 'खामोश क्यों हो गए?Ó 

अचकचाते हुए अमित ने कहा- 'नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है।Ó 

'...तो कैसी बात है यारÓ- फिर आवाज गूंजी। 



अब अमित को इतना तो भरोसा हो गया कि उधर से जो भी है, है बहुत करीबी, इसलिए आग्रही भाव से बोला- 'सच कह रहा हूं, मुझे कुछ याद नहीं आ रहा। प्लीज! आप ही बता दीजिए ना।Ó 

'अरे...मैं नमिता...तुम्हारी कॉलेज की दोस्त...कुछ याद आया क्या?Ó 

'नमिताÓ शब्द कानों में पड़ते ही अमित की आंखों में कॉलेज के दिनों के तमाम दृश्य परत-दर-परत उघडऩे लगे। हालांकि, उसे अब भी यकीन नहीं हो पा रहा था कि फोन करने वाली सचमुच उसकी कॉलेज की दोस्त नमिता ही है। लेकिन, उसके जीवन में कभी कोई दूसरी नमिता भी तो नहीं आई थी। सो, वह चहककर बोला, 'तुम सचमुच नमिता ही हो ना...मेरी दोस्त।Ó

'हां भई हां, तुम्हारी ही दोस्त हूं।Ó- नमिता ने कहा। 

'...पर इतने सालों तक कहां थी तू? मुझे भूल क्यों गई? कभी तो सुध ले लेती। शादी से पहले तो कैसे चिट्ठियों में कभी न भूलने का भरोसा दिलाती थी। और...एक मैं हूं, जो तुझे कभी भुला ही नहीं पाया। कभी फोन ही कर लेती? और...हां! ये तुम-तुम क्या कर रही है। बदल गई यार तू तो।Ó- अमित एक ही सांस में यह सब कह गया।

'चुप पागल! मुझे भी तो कुछ बोलने दे। मैं तुझे भूली होती तो फोन ही क्यों करती। पता है, कितनी मुश्किल से मिला तेरा नंबर। जरा देख... तुझे फेसबुक पर भी रिक्वेस्ट भेजी है और तू है कि मेरी आवाज भी नहीं पहचान रहाÓ- नमिता ने कहा। 

'नहीं यार! जीवन में पहली बार तुझसे फोन पर बात हो रही है ना, भला एकदम कैसे पहचान पाता मैं तेरी आवाज। उस दौर में फोन किसके पास होता था। यहां तक कि बेस फोन भी गिने-चुने लोगों के पास ही थे। फिर शादी के बाद सिर्फ दो ही बार तो मिली है तू मुझे। तब से पूरे अट्ठारह साल बीत गए, तेरा कुछ पता ही नहीं चला। अच्छा छोड़...पहले ये बता कि तू है कहां आजकल। नौकरी कैसे चल रही है। छुट्टियां होंगी इन दिनों तो। संभलकर रहना यार, इस कोरोना और लॉकडाउन ने तो जीना मुहाल कर दिया है।Ó- इतना कहते-कहते अमित कहीं खो-सा गया। 

'पागल मैं ठीक हूं और शिमला में रह रही हूं। स्कूल तो कब से बंद है। ये भी घर पर ही हैं। तेरी बहुत याद आती थी, कल ही तेरा नंबर मिला तो फोन कर रही हूं। तू तो यार बिल्कुल भी नहीं बदला, फेसबुक में तेरी तस्वीर देख रही थी। तब जैसा था, अब भी वैसा ही है। पर, ये बता उदास क्यों लग रहा है। अच्छा नहीं लगा क्या मेरा फोन करना।Ó- नमिता ने कहा। 



मिता के मुंह से यह आखिरी वाक्य सुनकर अमित खीझ-सा गया, लेकिन फिर कुछ देर रुककर बोला, 'तू मुझे कभी पहचान ही नहीं पाई, तभी तो ऐसा कह रही है।Ó 

'नहीं रे! पहचाना तो तूने नहीं मुझे। तूने मुझे इशारा भी किया होता तो मैं जमाने से लड़ जाती। मैं सारे ग्रुप में सबसे ज्यादा तुझे ही पसंद करती थी। तुझे पता है, हमारे ग्रुप में अंजलि भी तुझे मन ही मन चाहती थी। वह मुझसे कुछ कहती तो नहीं थी, पर मुझे सब मालूम था, इसलिए उससे जलन-सी होती थी। क्या तू यह सब महसूस नहीं करता था।Ó- नमिता ने कहा। 

'झूठी कहीं की, अगर ऐसा था तो तब कह देती। मुझे हमेशा यह सब सुनने का इंतजार रहता था। मैं खुद तुझसे कह देता, लेकिन मनोज ने जब एक दिन बताया कि तू मुकुल को चाहती है तो फिर मेरी हिम्मत नहीं हुई। मुकुल तेरे घर के पास ही तो रहता था और तेरी उससे अच्छी छनती भी थी। ऐसे में मैं नहीं चाहता था कि हमारी दोस्ती में कोई दरार पड़े। वैसे सच कहूं तो तेरा इससे फायदा ही हुआ। दोनों जने सरकारी नौकरी में हो। अच्छा कमा रहे हो। मेरे साथ भला ऐसे खुश रह पाती तू? ...और रही बात प्यार की, वह तो हमेशा ही रहेगा। आज भी मैं तुझे उतना ही प्यार करता हूं, जितना कि तब करता था।Ó- अमित झोंक में कहता चला गया। 

'अब क्या होना है यार, सब-कुछ रेत की तरह मुट्ठी से निकल चुका है। इसका दोषी सिर्फ तू है। जीवन में सारी खुशियां पैसों से ही नहीं मिला करती। नौकरी तो तू भी कर रहा है। बच्चे तेरे भी हैं। फिर ऐसा क्या है, जो मैं तेरे साथ खुश नहीं रह पाती। खैर! अब मैं ज्यादा कुछ नहीं कहूंगी। मैं नहीं चाहती कि हमारे परिवारों का सुकून छिन जाए। मन अजीब-सा हो रहा है, पर तू अपना ख्याल रखना। मुझे तेरी बड़ी चिंता हो रही थी, इसीलिए फोन किया। बात करते रहना यार... मन हल्का हो जाता है...।Ó यह कहते-कहते नमिता ने चुप्पी साध ली। शायद वो भावुक हो गई थी। पर, अमित के लिए खुद को संयत कर पाना मुश्किल हो रहा था। वो जानता था कि दोनों ही सामाजिक बेडिय़ों में बंधे हुए हैं, लेकिन मन पर किसका वश चलता है। ऐसा हो तो सारे संत न हो जाएं। सो... अमित धीमे से बोला- 'लव यू यार।Ó 

प्रत्युत्तर में नमिता 'चुप...Ó कहकर धीमे से मुस्करा दी और फिर बोली-'अच्छा यार अब मुझे भूलना मत, मैं फिर बात करूंगी।Ó 



अब अमित को देखकर ऐसा लग रहा था, मानो उसे बेपनाह खुशियां मिल गई हैं। उसकी आंखों में उन दिनों के दृश्य साकार हो उठे, जब मूंगफली का एक दाना भी अकेले उसके गले में नहीं उतरता था। यही हाल नमिता का भी था। दोनों अन्य दोस्तों के साथ अक्सर कॉलेज से लौटते हुए लस्सी जरूर पीते थे। 

खाली पीरियड में दोनों पेड़ की छांव तले बैठ जाते और फिर यह भी खबर नहीं रहती कि कितना वक्त गुजर गया है। नमिता हालांकि लोअर मिडिल क्लास से आती थी, लेकिन ब्राह्मण होने के कारण उसके परिवार का रुतबा तो था ही। इसके विपरीत संपन्न परिवार से होने के बावजूद अमित पिछड़ी जाति से था। शायद इस कारण भी वह नमिता से मन की बात नहीं कह पाया। वैसे नमिता ने कभी भी जाति बंधनों को अहमियत नहीं दी। 

अमित का नमिता के घर में खूब आना-जाना था और नमिता भी गाहे-बगाहे उसके घर पर आ जाती थी। अपनी शादी का कार्ड देने भी वह खुद ही आई थी। आखिरी बार वह शादी के बाद पति के साथ अमित के घर आई थी। तब अमित की शादी हो चुकी थी, इसलिए उसकी पत्नी से मिलने के लिए वह स्पेशियली आई थी। इसके बाद फिर कभी उसकी अमित से मुलाकत नहीं हुई। पर, उस दिन अचानक नमिता का फोन आने के बाद अमित की मानो दुनिया ही बदल गई।

वह सोच रहा था कि लॉकडाउन से लोग इतने खिन्न क्यों हैं। यह ठीक है कि कोरोना के रूप में खड़े अदृश्य दुश्मन ने पूरी दुनिया को त्रस्त किया हुआ है, लेकिन यह भी तो सच है कि हमारा धैर्य और हमारा संयम हमें एक ऐसी दुनिया में ले जा रहा है, जहां संभवत: रिश्तों कि अहमियत समझी जाएगी। राजसत्ताओं की समझ में भी आ जाएगा कि प्रकृति की खुशहाली में ही मानवता का कल्याण छिपा हुआ है और प्रकृति पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं, नदी, झरनों, पहाडो़ं आदि से ही नहीं बनती, किसान एवं मजदूर भी उसका अभिन्न अंग हैं। आने वाली दुनिया प्रेम का मतलब भी समझेगी, जैसे नमिता ने उसके प्रेम का मतलब समझा और उसने नमिता के प्रेम का।

डरा रहा कोरोना, समझा रहा कोरोना



डरा रहा कोरोना, समझा रहा कोरोना
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कोरोना के अनेक रूप हैं, बुरे भी और अच्छे भी। एक तरफ कोरोना महामारी, त्रासदी, आपदा, भय, विषाद आदि-आदि रूपों में हमारे सामने है, वहीं इसने पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक जीने के तौर-तरीके भी पूरी तरह बदल डाले। कोरोना ने हमें प्रकृति की अहमियत समझाई तो स्वयं को प्रकृति के अनुरूप ढालने के लिए प्रेरित भी किया। कोरोना ने बताया कि सादगी, संयम, सद्प्रयास, हौसला और सकारात्मक दृष्टिकोण से हम बड़ी से बड़ी चुनौती का भी सहज भाव से मुकाबला कर सकते हैं। बस! हमें धैर्य को नहीं टूटने देना है, अंधकार देर-सवेर खुद-ब-खुद छंट जाएगा। 

दिनेश कुकरेती
हामारी कोई भी हो, हर कालखंड में उसका कमोबेश यही स्वरूप रहा है। ऐसी ही चुनौतियों से तब भी मानवता का जूझता पड़ा, जैसी आज हमारे सामने खड़ी हैं। हां! यह जरूर है कि साधन-संसाधनों की स्थिति में समय के साथ-साथ बदलाव आया है। आज हम समझ पा रहे हैं कि प्रकारांतर से यह मानवीय भूल का ही नतीजा है। जबकि, पहले संक्रामक बीमारियों को दैवीय प्रकोप की परिणति मान लिया जाता था और मनुष्य चुनौतियों से लडऩे के बजाय नियति के शरणागत हो जाता था। आज बहुत हद तक ऐसा नहीं है। हम जितनी शिद्दत से कोविड-19 के खतरों को महसूस कर रहे हैं और उसी गंभीरता से इससे लडऩे के लिए लगातार खुद को तैयार भी कर रहे हैं। हम जानते हैं कि इस महामारी का पूरी तरह खात्मा तब तक संभव नहीं, जब तक कि कोई प्रामाणिक वैक्सीन अस्तित्व में नहीं आ जाती। सो, तब तक इससे बचने को हमने अपनी जीवनचर्या को ही आमूलचूल बदल डाला है। यह अलग बात है कि इस बदलाव से तमाम विसंगतियां भी सामने आ रही हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि इन्हीं विसंगतियों के बीच से रास्ता भी निकलना है।
जरा थोड़ी देर गंभीरता से मनन कीजिए, पता चल जाएगा कि कोरोना ने न केवल स्वास्थ्य के सामने चुनौतियां खड़ी की हैं, बल्कि समाज, शिक्षा, संस्कृति, खान-पान, अर्थ, व्यापार, पर्यटन, तीर्थाटन आदि, सभी को बुरी तरह प्रभावित किया है। कोरोना ऐसा दुश्मन है, जो हम चैलेंज भी कर रहा है और लड़ाई में मुकाबले के लिए खुद को तैयार करने के अवसर भी दे रहा है। वह समझा रहा है कि लड़ाई को जीतने के लिए सबसे पहले हमें अपना इम्यूनिटी सिस्टम (प्रतिरोधक क्षमता) मजबूत करना होगा। ...और ऐसा प्रकृति के करीब रहकर ही संभव है। चलताऊ भोजन (फास्ट फूड) की संस्कृति हमें मुकाबले में टिके नहीं रहने देगी। हमारी समझ में आ गया है कि तरक्की का मतलब जमीन छोड़ देना नहीं है। प्रकृति ने जो फूड चेन हमारे लिए नियत की है, अंतत: वही हमें बीमारियों से लडऩे की ताकत देती है। हमारे लिए दुपहिया-चौपहिया जितना जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है खुशी-खुशी पैदल चलना। एसी की शीतलता से ज्यादा जरूरत हमारे लिए खिड़की से आनी वाले ताजा हवा के झोंको की है। भले ही उसमें मौसमानुकूल वातावरण की गर्माहट या शीतलता क्यों न समाई हुई हो।
कोरोना ने हमें यह सोचने को भी मजबूर किया कि भोग-विलास की तमाम जरूरतों के बावजूद मनुष्य की अंतिम लड़ाई पेट के लिए ही है। कोठियों में रहने वाला हो या झोपड़ी में, गेहूं-चावल के बगैर किसी की भी गुजर संभव नहीं। हां! क्वालिटी और कीमत में अंतर जरूर हो सकता है। इसलिए जरूरी है कि हम कृषि क्षेत्र एवं किसानों को सशक्त करने के लिए कार्य करें। यह न भूलें कि आपात काल में सिर्फ किसान ही हमारी उम्मीदों को जिलाए रख सकता है। पूरी दुनिया में अगर लॉकडाउन सफल हो पाया तो यह किसान की मेहनत का ही परिणाम था। इस अवधि में पूरी मानवता गेहूं-चावल के इर्द-गिर्द ही केंद्रित रही। सबका ध्येय एक ही रहा कि कोई भूखा न रहे।
इस महामारी ने यह भी समझाया कि हमें समाज के प्रति उदार होना चाहिए। यही हमारे मनुष्य होने की पहचान भी है। एक-दूसरे का हाथ बंटाने और कमजोर लोगों की मदद करने से ही समाज परिस्थितियों का मुकाबला करने में सक्षम होता है। भोगवादी संस्कृति के बावजूद लॉकडाउन की अवधि में इसकी झलक व्यापक स्तर पर देखने को मिली। सक्षम लोग खुलकर जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आए और लाखों लोगों का जीवन बचाने के साथ ही उनकी उम्मीदों को भी मुरझाने नहीं दिया। वहीं, हमने यह भी प्रत्यक्ष देखा कि एक कल्याणकारी राज्य के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की क्या अहमियत है और इसे मजबूत किया जाना क्यों जरूरी है। संकट की इस घड़ी में जहां मुनाफा बटोरेने वाले तमाम निजी अस्पताल और चिकित्सक तटस्थ नजर आए या नेपथ्य में चले गए, वहीं सरकारी अस्पताल व चिकित्सकों ने सीमित संसाधनों के बावजूद अपनी जिम्मेदारी का पूरे मनोयोग से न केवल निर्वहन किया, बल्कि स्वयं की जान जोखिम में डालने से भी नहीं हिचके। 



इस कालखंड ने जीवन को सरल भी बनाया और कठिन भी। सरल इस मायने में कि आम लोग एक ओर जहां डिजिटल होना सीखे, वहीं उन्हें यह भी मालूम हुआ इंटरनेट के माध्यम से दूर रहकर भी एक-दूसरे से करीबी कैसे बनाई जाती है। बच्चे घर बैठे ऑनलाइन स्टडी में पारंगत हुए और बड़े ऑनलाइन खरीदारी में। लेकिन, इसका कष्टदायी पक्ष यह है कि आज भी उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य के ज्यादातर गांवों में इंटरनेट पहुंच ही नहीं बना पाया। जहां पहुंचा भी, वहां अव्वल तो नेटवर्क नहीं आता और आता भी है तो टू-जी स्पीड का। उस पर एक बड़ी आबादी ऐसी भी है, जो आर्थिक रूप से इतनी मजबूत नहीं कि पेट काटकर इंटरनेट सेवा का उपभोग कर सके। ऐसे भी परिवारों की कमी नहीं है, जिनमें दो से अधिक बच्चे हैं और मोबाइल सिर्फ एक। बताइए! सभी बच्चे एक साथ क्लास कैसे अटेंड कर लेंगे। उस पर 'आपÓ ऐसे परिवारों के पास लैपटॉप होने की उम्मीद किए बैठे हैं। इतना ही नहीं, दिनभर मोबाइल की छोटी-सी स्क्रीन पर आंखें गड़ाए रहने से बच्चों की आंखों पर भी तो फर्क पड़ेगा। क्या यह चिंताजनक स्थिति नहीं है।
एक बात और, जो लगती तो सामान्य है, लेकिन परिणाम इसके बेहद गंभीर हो सकते हैं। यह है डब्ल्यूएचओ की ओर से दिया गया टर्म, जिसे 'सोशल डिस्टेंसिंगÓ कहा जा रहा है। चीन के वुहान शहर में कोरोना संक्रमण के मामले सामने आने पर डब्ल्यूएचओ ने इसे सुरक्षा का सबसे कारगर हथियार बताया था। दरअसल, वर्ष 1930 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से टीबी जैसी संक्रामक बीमारियों पर शोध करने वाले विलियम एफ वेल्स ने यह टर्म ईजाद किया था। शोध के दौरान वह इस नतीजे पर पहुंचे थे कि मुंह से निकलने वाले इन्फेक्टेड ड्रॉपलेट्स एक से दो मीटर के अंतर्गत ही गिरते हैं। इसलिए संक्रमित व सामान्य व्यक्ति के बीच इतनी दूरी होनी ही चाहिए। कोरोना संक्रमण फैलने पर इस टर्म का पालन करना सभी के लिए अनिवार्य माना गया।
देखा जाए तो 'सोशल डिस्टेंसिंगÓ का मतलब 'सामाजिक दूरीÓ होता है। जबकि, दो व्यक्तियों के बीच एक से दो मीटर दूरी का मतलब तो 'फिजिकल डिस्टेंसिंगÓ यानी 'शारीरिक दूरीÓ हुआ। सही टर्म भी यही है। आखिर हम समाज से दूरी बनाकर कैसे इस महामारी का मुकाबला कर सकते हैं। होना तो यह चाहिए कि सामाजिक सहभागिता निभाते हुए हम शारीरिक दूरी का पालन करें। लेकिन, दुर्भाग्य से जिम्मेदार लोग पूरी दुनिया को सामाजिक दूरी बनाने की नसीहत दे रहे हैं। इसके अलावा भी जीवन से जुड़े तमाम ऐसे पहलू हैं, जिन्हें कोविड-19 ने किसी न किसी रूप में प्रभावित किया और कर रहे हैं। लेकिन, मनुष्य होने के नाते हमें हर परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इतिहास गवाह है कि मनुष्य ने संकट पर हमेशा विजय प्राप्त की है और अतीत से सबक लेकर भविष्य में भी प्राप्त करता रहेगा। यही तो जीवन है और जीवन कभी हार नहीं मानता।

Sunday, 4 October 2020

डी.एकिन का 'ओलंपियाÓ और एस्ले का 'ओरियंटÓ

:: यादें ::
डी.एकिन का 'ओलंपियाÓ और एस्ले का 'ओरियंटÓ
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दिनेश कुकरेती
आज का 'दिग्विजयÓ सिनेमा तीस के दशक में देहरादून की शान हुआ करता था। उस दौर में सिर्फ दो ही छविगृह दून में थे, एक 'ओलंपियाÓ और दूसरा 'ओरियंटÓ। दोनों ही 1927 में बनकर तैयार हुए, लेकिन हिंदुस्तानी सिर्फ 'ओलंपियाÓ में ही एंट्री कर सकते थे। 'ओरियंटÓ सिर्फ अंग्रेजों के लिए था और यहां फिल्में भी इंग्लिश ही लगा करती थीं। बाद में इन दोनों छविगृहों के बीच गांधीपार्क के ठीक सामने सड़क की दूसरी ओर 'ओडियनÓ नाम से एक नया टॉकीज भी अस्तित्व में आया, लेकिन आज उसकी सिर्फ यादें बाकी हैं।

ओलंपिया वह ऐतिहासिक सिनेमाघर है, जिसने घंटाघर के ठीक सामने आरएस माधोराम की बिल्डिंग में आकार लिया। इसकी मालकिन थी डी.एकिन। सिनेमाघर के नीचे लाल इमली-धारीवाल की एजेंसी हुआ करती थी। पास ही बंगाली स्वीट शॉप के आगे पेट्रोल पंप था, जिसका टैंकर वहीं नीचे खुदवाया गया था। भारतीयों के लिए बने इस 450 सीट वाले सिनेमाघर में तब केवल हिंदी फिल्में चला करती थीं। फिल्म निर्माता-निर्देशक एवं लेखक डा.आरके वर्मा बताते हैं कि उस दौर में 'कृष्ण जन्मÓ, 'मिसिंग ब्रेसलेटÓ (बाद में इसी से मिस्टर इंडिया बनी), 'भूल-भुलैयाÓ जैसी पारिवारिक फिल्मों ने टिकट खिड़की पर सफलता के झंडे गाड़े।

वह बताते हैं कि 30 नवंबर 1927 को ओलंपिया की मालकिन ने सरकार को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि 'यहां पर एक स्टूडियो खोला जाना चाहिए।Ó इसके 15 दिन बाद एमकेपी के अवैतनिक प्रबंधक बाबू एस.दर्शनलाल ने भी एक चिट्ठी लिखी, 'देहरादून में ओलंपिया भारतीयों के लिए है। यहां हिंदी फिल्में चलती हैं।Ó उन्होंने यह भी लिखा कि 'इंग्लैंड में दिखाई जाने वाली फिल्मों में भारत की गलत छवि पेश की जाती है।Ó यही 'ओलंपियाÓ वर्ष 1948 में 'प्रकाश टॉकीजÓ हुआ और आज इसे 'दिग्विजयÓ सिनेमा के नाम से जानते हैं।

वह बताते हैं कि 1927में ही 'ओलंपियाÓ से कुछ मीटर के फासले पर गांधी पार्क के सामने एस्ले नामक अंग्रेज ने प्लॉट खरीदकर 500 सीट वाले 'ओरियंटÓ सिनेमा की स्थापना की। लेकिन, यहां भारतीयों के लिए 'नो एंट्रीÓ थी। इन दोनों सिनेमाघरों के बीच गांधीपार्क के ठीक सामने बाद में 'ओडियनÓ सिनेमा अस्तित्व में आया। 226 सीट वाले इस हॉल में भी सिर्फ अंग्रेजी फिल्में लगा करती थीं। 1948 में यहां दो और सिनेमाघर बने, 'अमृतÓ और 'हॉलीवुडÓ। 'अमृतÓ में हिंदी और 'हॉलीवुडÓ में अंग्रेजी फिल्में लगा करती थीं। तब का 'अमृतÓ आज का 'नटराजÓ है, जबकि 'हॉलीवुडÓ कालांतर में 'चीनियाÓ थियेटर बना और फिर 'कैपरीÓ सिनेमा। अब इस हॉल की जगह कैपरी टेड्र सेंटर ने ले ली है।

इसी कालखंड में मोती बाजार देहरादून का सबसे बड़ा सिनेमाघर अस्तित्व में आया। नाम था 'फिल्मिस्तानÓ और सीटे 650। यहां भी पारिवारिक फिल्में लगा करती थीं। जब यहां 'जय संतोषी मांÓ लगी तो, दर्शक स्टेज पर पैसे फेंका करते थे। रेलवे स्टेशन के समीप 'मिनर्वाÓ सिनेमाघर था, जो बाद में 'लक्ष्मीÓ सिनेमा बना और आज वहां लक्ष्मी पैलेस नाम से व्यावसायिक सेंटर है। सिनेमाघरों का अब नामोनिशान भी नहीं बचा।
(फोटो सहयोग गोपाल सिंह थापा)

आई बरखा बहार, पडे़ बूंदनि फुहार


आई बरखा बहार, पडे़ बूंदनि फुहार
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दिनेश कुकरेती
बादशाह अकबर ने सभासदों से पूछा, बारह में से चार महीने निकल जाएं तो शेष कितने रहे? सभी ने एक स्वर में जवाब दिया, आठ। लेकिन, बीरबल का गणित सभी से भिन्न था। वह बोला, जहांपनाह! बारह में चार गए तो बाकी बचा शून्य। बादशाह अचरज से बोले, कैसे? तब बीरबल ने उन्हें समझाया, हमारा देश खेती प्रधान है। खेती वर्षा पर आधारित है। वर्ष के बारह महीनों में से वर्षा के चार महीने यदि निकल जाएं, तो शेष क्या बचेगा? सूखा, दुर्भिक्ष, महामारी और मौत का तांडव। इस नई व्याख्या को सुन सभा में सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे।

सच भी है, वर्षा ऋतु जहां प्रकृति के कण-कण में जीवन का संचार करती है, वहीं मिट्टी भी हरियाली से भर उठती है। वर्षा ऋतु व्यक्ति एवं समाज की आध्यात्मिक चेतना जगाने में भी अहम भूमिका निभाती है। इसलिए वर्षा ऋतु के चार महीनों के लिए 'चातुर्मासÓ शब्द प्रयोग हुआ। यदि वर्षा ऋतु न हो तो बाकी ऋतुएं महत्वहीन हो जाती हैं। इसके बिना उनका सारा सौंदर्य जाता रहता है। वह वर्षा ऋतु ही है, जो अपने शीतल जल से धरती की प्यास बुझाकर उसे उर्वर बनाती है। वर्षाकाल शुरू होते ही प्रकृति में कुछ स्वाभाविक बदलाव होने लगते हैं। इनमें पर्यावरण का परिवर्तन सबसे प्रमुख है। जहां वर्षा का शीतल जल वातावरण को ठंडक प्रदान कर सुहावना और प्रिय बना देता है, वहीं यह नाना प्रकार के जीवों की उत्पत्ति का कारक भी बनता है। यह ऐसा समय है, जब बूंदों की रिमझिम में संगीत का सरगम होता है। हवा, बादल, पेड़, पपीहे सब झूमते-गाते हुए से प्रतीत होते हैं। यह उल्लास जहां लोक के कंठ से बारहमासी, कजरी व झूला गीतों के रूप फूटता है, वहीं सुर साधकों के हृदय में उमडऩे-घुमडऩे लगता है राग मेघ-मल्हार।

वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड के 28वें सर्ग में वर्षा के सौंदर्य का बखान करते हुए श्रीराम कहते हैं, 'वर्षाकाल आ पहुंचा। देखो, पर्वत के समान बड़े-बड़े मेघों के समूहों से आकाश आच्छादित हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो मेघ रूपी सीढिय़ों से आकाश में पहुंचकर अर्जुन के फूलों के हार सी दिखने वाली मेघमालाओं से सूर्य बिंब स्थित अलंकार प्रिय नारायण शोभा पा रहे हैं।Ó पहाड़ों की ढलानों पर उतरते मेघों के सौंदर्य पर मुग्ध कवियों ने वर्षा काल में नदियों के कल-कल निनाद, झरनों की झर-झर, मेढकों की टर-टर, झींगुरों की झिर-झिर, वन-उपवनों के सौंदर्य और पशु-पक्षियों के क्रीड़ा-कल्लोल का अद्भुत चित्रण किया है। 'मेघदूतमÓ में अलकापुरी से भटके शापग्रस्त यक्ष द्वारा मेघों को दूत मानकर अपनी प्रिया यक्षिणी तक विरह-वेदना और प्रेम संदेश भेज देने का निवेदन है। कहते हैं कि महाकवि कालिदास ही वह यक्ष थे, जो उज्जैन से कश्मीर तक अपनी प्रियतमा को मेघों से संदेशा भेजना चाहते थे। 

वर्षा ऋतु का पर्यायवाची चातकानंदन यानी चातक को आनंद देने वाली ऋतु भी है। वर्षा काल की समाप्ति के उपरांत अक्टूबर-नवंबर तक ये पक्षी लौटते मानसून के साथ पुन: अरब सागर होते हुए वापस अफ्रीका चले जाते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे परदेशी बालम चातुर्मास बीतने के बाद अपनी प्रियतमा को छोड़ वापस काम पर लौट जाया करते थे। क्या पावस ऋतु का ऐसा शब्द चित्र खींचना अन्यत्र सम्भव है? यही शब्द चित्र तो है जो वर्षा ऋतु में दून घाटी में उल्लास भर देता है। चहुंओर बिखरी हरियाली, सूखे वृक्षों पर नवीन पल्लव, ऐसा प्रतीत होता है मानो घाटी ने अपने जीर्णशीर्ण वस्त्रों का परित्याग कर नवीन हरित परिधान धारण कर लिया है। आकाश में मेघों की गडग़ड़ाहट के साथ श्यामल घनघोर घटाओं में स्वर्णिम चपला दामिनी की थिरकन, मृदंग वादन की संगति में नृत्य का आभास कराती है। मेघ गर्जना से उन्मादित मयूर अपने सतरंगी पंखों को फैलाकर नृत्य विभोर हो उठता है। श्यामवर्णी मेघ के मध्य उड़ती हुई बकुल पंक्तियां अत्यंत मनोहारी प्रतीत होती हैं। तब कवि गा उठता है, 'आई बरखा बहार पड़े बूंदनि फुहार, गोरी भीजत अंगनवा अरे सांवरिया, गोरी-गोरी बैयां पहने हरी-हरी चूडिय़ां, आगे सोने के कंगनवा अरे सांवरिया, बालों में गजरवा सोहे नैनन बीच सजरा, माथे लाली रे टिकुलिया अरे सांवरिया।Ó

कभी कम नहीं हुई पलटन बाजार की रूमानियत

कभी कम नहीं हुई पलटन बाजार की रूमानियत
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दिनेश कुकरेती
दून के खुशगवार मौसम में चलिए एतिहासिक पलटन बाजार की सैर करें। अंग्रेजों के जमाने में बसा तकरीबन सौ साल पुराना यह बाजार दून की आन-बान-शान है। यही वजह है कि देहरादून का भ्रमण तब तक पूरा नहीं माना जाता, जब तक कि रंगीन पलटन बाजार न घूम लिया जाए। यह ऐसा बाजार है, जहां से खाली हाथ लौटने का मन नहीं करता। कारण, यह बाजार हर वर्ग की पॉकेट का ख्याल रखता है। विश्वसनीयता के मामले में इसका कोई शानी नहीं। बहुत से लोग किताबें व कपड़े खरीदने या घूमने का आनंद लेने के लिए यहां आते हैं। घंटाघर तक फैले इस बाजार में चूडिय़ां, दूल्हा-दुल्हन के कपड़े, तैयार वस्त्र (रेडीमेट गारमेंट्स), हर प्रकार के मसाले, जूते, रोजाना घरेलू उपयोग में आने वाली वस्तुएं, उपहार का सामान, गुणवत्ता वाले बासमती चावल से लेकर ट्रैकिंग और लंबी पैदल यात्रा का साजो-सामान सब-कुछ वास्तविक कीमतों पर उपलब्ध रहता है। अगर आप मोलभाव करने का हुनर रखते हैं तो यहां बहुत सारी वस्तुएं न्यूनतम दाम पर खरीद सकते हैं। ब्रांडेड कपड़ों के कई शोरूम भी यहां मौजूद हैं। इसके अलावा आप प्राचीन वस्तुएं, शॉल, स्वेटर, कॉर्डिगन, सजावटी और पीतल के सामान जैसी हस्तशिल्प वस्तुएं भी पलटन बाजार में खरीद सकते हैं।


ऐसे पड़ा 'पलटन बाजारÓ नाम
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ब्रिटिश हुकूमत के दौर में जब वर्ष 1822 के आसपास सहारनपुर मार्ग अस्तित्व में आया, तब मसूरी व तत्कालीन गढ़वाल राज्य के समीपस्थ क्षेत्रों तक सामान पहुंचाने के लिए देहरादून से लगे राजपुर गांव तक भी यातायात व्यवस्था शुरू हुई। उस कालखंड में आज के देहरादून-दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर मोहंड में बनी सुरंग से देहरादून और फिर मुख्य सड़क राजपुर रोड में प्रवेश किया जाता था। तब एकमात्र सड़क धामावाला गांव से आज के घंटाघर के समीप से होते हुए राजपुर गांव तक पहुंचती थी। इसी कारण वर्ष 1892 के आसपास तक दर्शनी गेट से राजपुर तक की सड़क 'राजपुर रोडÓ कहलाती थी। वर्ष 1864 में मुख्य मार्ग के समीप (वर्तमान पलटन बाजार में) अंग्रेजों की ओल्ड सिरमौर बटालियन ने अपनी छावनी स्थापित की। साहित्यकार देवकी नंदन पांडेय अपनी पुस्तक 'गौरवशाली देहरादूनÓ में लिखते हैं कि तब आज के यूनिवर्सल आयरन स्टोर से लेकर जंगम शिवालय के सामने वाली गली तक सैन्य अधिकारियों के आवासीय स्थल होते थे और इसके पीछे बटालियन ठहरती थी। घंटाघर से लेकर पलटन बाजार ंिस्थत सिंधी स्वीट शॉप के सामने तंग गली तक सड़क के दोनों ओर के क्षेत्र सेना के पास थे। सेना की आवाजाही के कारण कालांतर में यही क्षेत्र 'पलटन बाजारÓ कहलाया।


परेड ग्राउंड में थी गोरखा बटालियन की छावनी
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यह वह दौर है जब परेड ग्राउंड गोरखा बटालियन की छावनी के रूप में विकसित था। सिरमौर बटालियन और गोरखा बटालियन के सैनिक व अधिकारियों के लिए बाजार व पूजा स्थल विकसित किए गए। घंटाघर का हनुमान मंदिर, सब्जी मंडी की मस्जिद, फालतू लाइन का गुरुद्वारा और कचहरी रोड का चर्च भी उसी काल में अस्तित्व में आए।

 
1874 तक रही यहां ओल्ड सिरमौर बटालियन --------------------------------------- 
साहित्यकार देवकी नंदन पांडेय के अनुसार ओल्ड सिरमौर बटालियन और गोरखा बटालियन बाद में गढ़ी डाकरा क्षेत्र में स्थानांतरित कर दी गई, जिससे पलटन बाजार क्षेत्र खाली हो गया। तीन जुलाई 1874 को यह क्षेत्र सेना ने इस शर्त के साथ तत्कालीन सुपरिन्टेंडेंट ऑफ दून एचजी रॉस की सुपुर्दगी में दे दिया कि वह प्रतिवर्ष सेना के कोष में इसका नजराना जमा करवाएंगे। सुपरिन्टेंडेंट ऑफ दून ने सेना की ओर से सौंपी गई यह भूमि देखरेख के लिए नगर पालिका को सौंप दी। इसके बाद नगर पालिका की ओर से लंबे समय तक इस विशाल क्षेत्र का वार्षिक नजराना सेना को दिया जाता रहा।

वर्ष 1923 में लिया पलटन बाजार ने आकार
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एक मार्च 1923 को रायबहादुर उग्रसेन सिंह ने देहरादून नगर पालिका के अध्यक्ष का कार्यभार संभाला। इसके बाद उन्होंने खाली पड़े कई नजूल भूखंडों का स्वामित्व या तो अपने पक्ष में कर लिया या फिर नजूल नियमावली की अनदेखी कर उन्हें औने-पौने दाम में व्यापारियों के हाथ दिया। यही प्रक्रिया ओल्ड सिरमौर बटालियन की खाली की गई संपत्ति के साथ भी दोहराई गई। जिससे धीरे-धीरे पलटन बाजार आकार लेता चला गया।


उस दौर के प्रतिष्ठित व्यावसायिक प्रतिष्ठान
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पलटन बाजार के पुराने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में प्रमुख रूप से भगवान दास बैंक, चाचा हलवाई, दर्शनलाल टंडन की सोडा वाटर फैक्ट्री, नेशनल न्यूज एजेंसी, कस्तूरी हौजरी स्टोर, सुभाष फैमिली वियर, भाटिया ब्रदर्स, भोजा राम एंड संस, गुप्ता न्यूज एजेंसी, साहित्य सदन, सतपाल कृष्ण कुमार व ओमप्रकाश हलवाई आदि शामिल थे।


चाचा हलवाई बनाते थे वायसराय के लिए भोजन
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चाचा हलवाई की विशाल दुकान नेशनल न्यूज एजेंसी व गांधी आश्रम के स्थान पर हुआ करती थी। वायसराय के देहरादून आने पर यहीं से उनके भोजन की व्यवस्था की जाती थी। इसी तरह ग्रेंड बेकरी की दुकान के स्थान पर दर्शनलाल टंडन की हिमालय सोडा वाटर फैक्ट्री हुआ करती थी। वायसराय के लिए तैयार किया गया शुद्ध पेयजल यहीं से जाता था।


लार न टपकने लगे तो कहना...
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यह बाजार चाट गली के लिए प्रसिद्ध है। आप यहां गोलगप्पे, समोसे, चाट, चाऊमीन, मोमोज, डोसा व टिक्की से लेकर विभिन्न प्रकार के फास्ट फूड का जायका ले सकते हैं। इस बाजार की स्वादिष्ट और फ्लेवरफुल आइसक्रीम की तो बात ही निराली है।


ब्रांडेड-गैर ब्रांडेड का संगम
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पलटन बाजार शॉप-ए-हेलिक्स के लिए सबसे लोकप्रिय स्थान है। यहां पीटर इंग्लैंड, फास्ट ट्रैक, बाटा, कामिनी, वर्धमान जैसे ब्रांड से लेकर अन्य गैर-ब्रांडेड वस्तुएं तक सब-कुछ उपलब्ध हैं। पलटन बाजार की पहचान अपने बेकरी और रेस्टोरेंट (जैसे- गेलॉर्ड एक्सप्रेस, सनराइज बेकर्स, हंगर बेल) के लिए भी है, जहां आप कोई भी स्वादिष्ट भोजन कर सकते हैं।


बारह घंटे खुला रहता है बाजार
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पल्टन बाजार में दुकानें सुबह दस बजे से खुलती हैं और रात 10 बजे तक बंद हो जाती हैं। बाजार हर वक्त आगंतुकों से खचाखच रहता है। खासकर रविवार को तो यहां पैर रखने तक को जगह नहीं मिलती। इसलिए बेहतर यही है कि अपने दुपहिया या चौपहिया वाहनों को उचित स्थान पर पार्क कर ही यहां आएं। पास ही स्थित राजीव गांधी कॉम्प्लेक्स में वाहन पार्क करने के लिए पर्याप्त स्थान मौजूद है।

Friday, 2 October 2020

कहानी (चाहत)

(कहानी)



चाहत

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सका मुझसे मिलन अनायास ही हुआ था। वैसे तो हम कई बार दो-चार हुए थे,लेकिन आपस में कोई निकटता नहीं थी। मैं और वो एक-दूसरे के सामने होने पर भी चुपचाप अपनी राह गुजर जाते थे। यह मेरा कॉलेज का अंतिम वर्ष था। इसी दौरान उससे मेरी मुलाकात हुई, किंतु बड़े नाटकीय ढंग से। दरअसल, उसका घर मेरे मित्र सुशील के घर के ठीक पीछे था। सुशील के घर मेरा आना-जाना लगा रहता था, सो कभी-कभी अकस्मात  उससे भी नजरें मिल जाया करतीं। जिस मकान में वह परिवार समेत रहती थी, वह किराये का था। यह मुझे सुशील से ही मालूम हुआ। साथ ही उसका नाम भी मालूम पड़ गया। भावना था उसका नाम। बड़ी मासूम सी, आकर्षक नैन-नक्श थे उसके। उस समय बारहवीं में पढ़ती थी। कक्षा के हिसाब से उम्र कुछ अधिक थी यानी बीस साल।

भावना की परीक्षाएं नजदीक थी। परीक्षाओं में प्रयोगात्मक परीक्षा के लिए पोस्टर व फाइल तैयार करनी पड़ती है, जो उसे भी बनानी थी। भावना और सुशील के परिवार में अच्छे पड़ोसियों जैसा तालमेल था, जिससे दोनों सगे भाई-बहन की तरह रहते थे। लिहाजा, भावना ने फाइल बनाने की जिम्मेदारी सुशील को सौंप दी। सुशील की यह पुरानी आदत है कि वह किसी भी प्रकार दूसरे व्यक्ति से अपनी तारीफ करवाने की फिराक में रहता है। सो, उसने भावना को भी इन्कार नहीं किया। वैसे चित्र बनाने के मामले में वह शून्य ही था। जाहिर है फाइल मेरे ही गले पडऩी थी। खैर! मैंने फाइल व चार्ट तैयार कर पांच-छह दिन में उसे लौटा दिए।

एक दिन मैं सुशील के घर गया तो भावना वहीं सुशील की बहन सुधा के साथ बैठी मिली। फाइल भी उसके हाथ में थी। सुधा से उसे मालूम पड़ चुका था कि फाइल सुशील ने नहीं, बल्कि मैंने बनाई है। मैं चुपचाप दूसरे कमरे में जा बैठा। लेकिन, सुधा मुझे बुलाकर अपने साथ भावना के पास ले गई और खुद भी मेरे पास ही बैठ गई।
सुधा को मैं अपनी छोटी बहिन की तरह प्यार करता हूं, लेकिन इससे कहीं बढ़कर वह मेरी एक अच्छी दोस्त भी है। इसलिए मैं उससे कभी भी कोई बात नहीं छिपाता था। खैर! एक-दूसरे परिचय होने के बाद भी मैं चुप ही बैठा रहा। तब भावना ने स्वयं ही पहल करते हुए कहा- 'आपका- बहुत-बहुत धन्यवाद ।Ó
'हूं...Ó
मैं चौंका (रुककर) 'मैं कुछ समझा नहींÓ-  मैंने कहा।
'आपने फाइल बनाकर मेरी कितनी हेल्प की है, आप नहीं जानतेÓ-  भावना बोली।
'शायद आपको गलतफहमी हुई है। आपसे तो मैं आज पहली बार मिल रहा हूं। फिर फाइल...।Ó-  मैंने कहा।
'लेकिन...मुझे सब मालूम हो चुका है। वैसे आपकी कला की जितनी भी तारीफ की जाए, कम ही हैÓ-  भावना बोली थी।
मैं चुप रहा।

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उस दिन के बाद करीब दो माह तक मेरी भावना से कोई मुलाकात नहीं हुई। हां, इतना जरूर पता चला कि भावना लोगों ने वहां से घर बदल लिया है और दूसरी जगह शिफ्ट हो गए हैं। जिस मकान में वे शिफ्ट हुए थे, वह हाल ही में बना था। वहां पर सभी-सुविधाएं थी, सिवाए बिजली के। हालांकि, फिटिंग हो चुकी थी, लेकिन कनेक्शन होना बाकी था। भवन स्वामी कनेक्शन के लिए भागादौड़ कर रहा था, मगर काम नहीं बन रहा था। इससे भावना के पिता भी तनाव में थे। इस बारे में उन्होंने सुशील के घर जाकर उससे भी बात की। संयोग से मैं भी उस वक्त सुशील के साथ ही था। सो, मेरा भी उनसे परिचय हो गया। हमने उन्हेंं भरोसा दिलाया कि तीन-चार दिन के भीतर उनके घर बिजली आ जाएगी।
हमारी बिजली दफ्तर में कुछ अधिकारियों से अच्छी छनती है। दरअसल, उन्होंने भावना की सगाई तय कर दी थी। चार-पांच दिन में सगाई होनी थी। गर्मियों के दिन थे, सो बिजली का होना जरूरी था। दूसरे दिन मैं कॉलेज गया तो देखा भावना भी सुधा के साथ कॉलेज आई हुई है। मैं सुधा के पास ही बैठ गया और बातों-बातों में उस दिन भावना से भी मेरा अच्छा मेल-जोल हो गया। वहां सुधा की क्लासमेट रेखा भी मौजूद थी। उससे भी मेरे स्नेहमयी संबंध थे। सुधा की तरह वह भी मुझसे हर बात बेहिचक कह देती थी। सो, मुझे अलग ले जाकर बोली- 'भईया तुमने कभी भावना के बारे में भी सोचा है?Ó
'क्या ?Ó- मैंने कहा।
'वह तो तुम्हें बहुत चाहती हैÓ- रेखा ने कहा।
'ऐसा!Ó- मैं बोला। हालांकि, इस हकीकत से मैं अच्छी तरह वाकिफ था।
'हां! उसे तुमसे बहुत ज्यादा लगाव है, पर तुमसे वह कुछ भी व्यक्त नहीं कर पाती।Ó- रेखा बोली थी।
मुझे उस दिन पहली बार अहसास हुआ कि मैं भी तो उसे कितना चाहता हूं, पर...। हालांकि जब भी वह दिखती थी तो मेरी तिरछी निगाह उस पर ही रहती थी। परन्तु, इस हकीकत को मैंने उस पर जाहिर नहीं होने दिया।
खैर! कुछ देर बात करने के बाद हम घर लौटने लगे तो सुधा बोली- 'भाई, चलो भावना के घर से होकर चलते हैं ।Ó मैं बगैर कोई जवाब दिये चुपचाप उसके साथ चलने लगा। आधा रास्ता तय करने तक तो भावना भी खामोशी से चलती रही, लेकिन जब घर करीब आ गया तो मुझसे मुखातिब होकर बोली- 'आप भी मेरी सगाई में जरूर आना, नहीं तो मैं नाराज हो जाऊंगी।Ó
मैं उसके भावों को समझ रहा था, इसलिए सिर्फ यह कहकर कि, 'जरूर आऊंगाÓ, चुप हो गया। घर पहुंचकर भावना ने अपनी मां से मेरा परिचय कराया। उसकी मां बोली, 'अच्छा! बेटा, अमित तू ही है। भावना ने तेरे बारे में मुझे बता दिया था। बहुत तारीफ करती है तेरी।Ó कुछ देर बैठने के बाद मैंने जाने की इजाजत चाही तो उसकी मां बोली, 'बेटा सगाई के दिन जरूर आना। सब काम तुमने ही करने हैं। भूलना मत।Ó मैंने आने का वादा किया और घर लौट आया।
उस दिन बेहद खुश था। दूसरे दिन शाम को हमने यहां बिजली का कनेक्शन भी करवा दिया। फिर तो भावना के माता-पिता हमारे कायल हो गए। वह भावना की सगाई का दिन था। मैं भी नियत समय पर उसके घर पहुंच गया। उस दिन भावना से मैं जी-भरकर बातें की। वह मेरे बिल्कुल करीब बैठ मेरे चेहरे को तक रही थी। शायद उसे पढऩे की कोशिश कर रही थी। सारे दिन मैं वहां रहा, पर जो कहना चाहता था, वह न कह पाया। हां, बातों-बातों में मैंने अपना हाथ उसके कंधे पर जरूर रख लिया था। काफी देर तक यूं ही रखा रहा। उसे भी अच्छा लग रहा था, इसलिए उसने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की। फिर मैं उठकर चुपचाप घर लौट आया था।
मैं रेखा के मुंह से, कुछ-कुछ अस्पष्ट सा सुधा के मुंह से भी सुन चुका था कि भावना मुझसे बहुत प्यार करती है। और...कहती कि, 'मैं क्या करूं? मेरे पिता ने इतनी जल्दी और मुझसे राय-मशविरा किए बगैर मेरी सगाई कर दी। मैं विरोध भी नहीं कर सकती थी।Ó लेकिन, मुझसे तो भावना कुछ बोल ही नहीं पाती थी। हालांकि, उसके भावों से स्पष्ट झलकता था कि वह सचमुच मुझे किस हद तक चाहती है।


सगाई के काफी दिन बाद मेरा अनिल के घर जाना हुआ। संयोग से घर में सुधा के अलावा परिवार का कोई सदस्य न था। और...यह मेरी खुशकिस्मती थी कि भावना भी वहीं बैठी थी। अकेले होने के कारण मुझे भावना से बात करने में बड़ी सहूलियत थी। उस दिन पहली बार भावना मुझसे लिपटी रही। काफी देर तक उसने अपना सिर मेरे सीने से लगाए रखा। मैंने भी पहली बार उसके गाल चूमे थे। मैं आहिस्ता-आहिस्ता उसके बालों को सहला रहा था और वह चुपचाप मुझे देख रही थी। लेकिन, मैं फिर भी दिल की बात को जुबां पर न ला सका।
भावना ने उस दिन मुझसे  कहा था- 'मैंने बड़े अरमानों से जिसे चाहा, मैं जानती हूं, वह अब मुझे नहीं मिल सकता, लेकिन मैं उसे हमेशा चाहती रहूंगी। मेरे दिल में उसके लिए जो प्यार है, उसमें कोई कमी नहीं हो सकती।Ó मैं सब-कुछ समझ गया था।
21 मई 1995। यह भावना की शादी का दिन था। संयोग से मेरी काॅलेज की परीक्षा का भी यह अंतिम दिन था। मेरी मौखिक परीक्षा होनी थी उस दिन। मुझे भावना ने अपनी शादी में बुलाया था, सो जाना जरूरी था। मुझे खुशी भी थी और दुख भी। खैर! परीक्षा देकर मैं सीधे उसके घर पहुंच गया। दिनभर वहीं रहा, लेकिन भावना के करीब भी न फटका। हिम्मत ही नहीं हो रही थी जाने की। धीरे-धीरे विदाई की घड़ी भी आ गई। मैंने जैसे-तैसे खुद को संयत कर भावना को विदा किया। मुंह से बोल तक न फूटे, पर आंखें स्वत: सजल हो गई थीं। अब मेरे लिए वहां एक पल रुकना भी संभव नहीं था। सो, मैं खामोशी से घर लौट आया।
शादी के बाद भावना मुझे मिली। मुझसे काफी देर लिपटी रही, लेकिन तब भी मैं अपनी भावनाओं को उस पर व्यक्त नहीं कर पाया था। हां, मैंने साहस बटोरकर कागज का एक टुकड़ा जरूर उसे थमा दिया, जिसका मजमून था- 'कुछ तेरी अदाओं ने लूटा, कुछ तेरी इनायत मार गई, मैं राज-ए-मोहब्बत कह न सका, चुप रहने की आदत मार गई।Ó ...इसके बाद मैं चुपचाप लौट पड़ा।


(नोट: मेरी यह कहानी कहानी वर्ष 1997 में सरिता में प्रकाशित हुई थी।)