Thursday, 16 July 2020

पहाड़ों की मनमोहक रानी है मसूरी




पहाड़ों की मनमोहक रानी है मसूरी
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दिनेश कुकरेती
मैदानों में झुलसाने वाली गर्मी से राहत पानी है तो चले आइए मसूरी। बादलों से अठखेलियां करते बांज, बुरांस और चीड़ के वृक्षों के बीच सर्पीली सड़क पर तन को छूती चंचल हवा मन को तृप्ति देती है। दृश्य ऐसे मानो किसी चित्रकार ने तूलिका से रंग भर अपनी जिंदगी की सर्वश्रेष्ठ पेंटिंग की रचना की हो। ऐसा नहीं कि मसूरी सिर्फ गॢमयों के लिए मुफीद है, सॢदयों में भी इसका रंग अनूठा होता है।

हिमालय पर्वतमाला की शिवालिक श्रेणी में समुद्रतल से 6600 फीट की ऊंचाई पर बसी पहाड़ों की रानी मसूरी का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। वर्ष 1825 में एक अंग्रेज अधिकारी कैप्टन यंग ने इस स्थान की तलाश की। मसूरी के इतिहास के जानकार जयप्रकाश भारद्वाज बताते हैं कि कैप्टन यंग को यहां की आबोहवा इंग्लैंड जैसी लगी और उन्होंने यहां एक बंगले का निर्माण कराया। कहते हैं यहां मन्सूर का पौधा बहुतायत में होता था, इसलिए नाम पड़ा मसूरी। इसके बाद वर्ष 1827 में मसूरी में पहला सेनोटेरियम बना, आज यह इलाका लंढौर कैंट के नाम से जाना जाता है। कुछ साल बाद भारत के पहले सर्वेयर जनरल सर जार्ज एवरेस्ट ने भी मसूरी को अपना घर बनाया। इन्हीं के नाम पर दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट है।
दून का ताज मसूरी
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मसूरी की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि यह नगर देहरादून का ताज जैसा प्रतीत होता है। उत्तर पूर्व में हिमालय के शिखर तो दक्षिण में दून घाटी के विहंगम नजारा एक जादुई आकर्षण उत्पन्न करता है।
1959 में आए थे दलाई लामा
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चीन अधिकृत तिब्बत से निर्वासित होने के बाद वर्ष 1959 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा पहले पहल मसूरी ही आए थे। यहीं तिब्बत की पहली निर्वासित सरकार बनी थी। बाद में वे हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला के पास मेक्लोडगंज स्थानांतरित हो गए।

माल रोड
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अंग्रेजों द्वारा बसाई गई इस नगरी में हर इमारत पर ब्रिटिश छाप नजर आती है। अंग्रेज अफसरों के सैर के लिए निॢमत माल रोड पर उस जमाने पर भारतीयों का प्रवेश वॢजत था। इतिहासकार  भारद्वाज बताते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के पिता पं.मोती लाल नेहरू अक्सर मसूरी आते थे। उन्होंने मालरोड पर भारतीयों को प्रवेश पर प्रतिबंध को तोड़ यहां सैर की। इसके अलावा पंडित नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी मसूरी की नैसॢगक छटा खूब भाती थीं।

गन हिल
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मसूरी आए और गन हिल नहीं देखा तो क्या देखा। चोटी पर स्थित इस स्थान से हिमालय की बंदरपूंछ, श्रीकांता, पिठवाड़ा और गंगोत्री हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियां नजर आती हैं। मसूरी और दून का विहंगम दृश्य भी इसका खास आकर्षण है। दरअसल ब्रिटिश काल में इस चोटी पर एक तोप से गोला दागा जाता था। दोपहर ठीक 12 बजे दागे जाने वाले गोले की आवाज से लोग अपनी घड़ी का मिलान करते थे। इस लिए चोटी का नाम पड़ा गन हिल। यहां तक पहुंचने के लिए रोपवे का रोमांच भी लिया जा सकता है। चार सौ मीटर लंबे रोपवे से चोटी तक पहुंचने करीब 20 मिनट लगते हैं। इस चोटी पर चढ़ते हुए आप ट्रैकिंग का लुत्फ भी उठा सकते हैं। ट्रैकिंग के लिए सामान किराये पर उपलब्ध है।

लाल बहादुर शास्त्री अकादमी
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भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में चुने गए प्रोबेशनर्स को प्रशिक्षण देने के लिए बनी यह अकादमी अपने आप में खास है। हालांकि पर्यटकों यहां प्रवेश नहीं कर सकते, लेकिन यह मसूरी की शान है।

ऐतिहासिक स्कूल
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ब्रिटिश काल में बने स्कूल मसूरी के प्रमुख आकर्षण में से एक है। रोमन कैथोलिक शैली में बनी सेंट जॉर्ज स्कूल की मशहूर इमारत पर्यटकों को बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है। इसकी स्थापना वर्ष 1853 में की गई थी। इसके अलावा 1850 में स्थापित वुडस्टॉक भी खास है। इसकी स्थापना अंग्रेज अफसरों की पनयिों के एक समूह ने की थी।
कंपनी गार्डन
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वर्ष 1842 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ.एच फाकनार ने मसूरी में एक बगीचे की स्थापना की। बगीचे में विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे लगाए। तब ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम पर इसका नाम रखा गया कंपनी गार्डन। अब इसे म्यूनिसिपल गार्डन या बॉटनिकल गार्डन के नाम से जाना जाता है।
कैमल बैक रोड
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तीन किलोमीटर लंबी यह रोड कुलरी बाजार से लाइब्रेरी बाजार तक है। इस सड़क पर पैदल चलने का अपना ही आनंद है। यहां से हिमालय में सूर्यास्त का मनोहारी दृश्य दिखाई देता है। दूर से यह इलाका ऊंट के कूबड़ जैसा नजर आता है।
कैम्पटी और भट्टा फाल
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मसूरी से 15 किलोमीटर दूर यमुनोत्री हाईव पर पडऩे वाला जलप्रपात कैम्पटी फाल के नाम से जाना जाता है। चारों ओर से ऊंचे पहाड़ों से घिरे झरने की तलहटी में स्नान तरोताजा करने वाला अहसास है। बताते हैं कि अंग्रेज अधिकारी अक्सर छुट्टी के दिन यहा टी-पार्टी के लिए आते थे। इसी तरह मसूरी से नौ किलोमीटर दूर देहरादून पर मार्ग पर पडऩे वाला झरना भट्टा फाल भी पर्यटकों को खूब लुभाता है।
ग्लोगी पावर हाउस
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यह उत्तर भारत के सबसे पुराने पावर प्रोजक्ट में से एक है। अक्टूबर 1907 में इस प्रोजेक्ट की आधारशिला रखी गई और इसके निर्माण में पांच वर्ष का समय लगा। दिसंबर 1912 में इससे बिजली आपूॢत शुरू की गई। मूसरी देश के उन गिने-चुने शहरों में शामिल है, जो उस वक्त पहली बार बिजली से रोशन हुए। आज भी यह पावर हाउस 5.4 मिलियन यूनिट बिजली का उत्पादन कर रहा है।
खानपान
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सचिन को पसंद हैं चार दुकान का बन आमलेट
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यूं तो मसूरी में उत्तर और दक्षिण भारतीय व्यंजन आसानी से उपलब्ध हैं, लेकिन लंढौर कैंट स्थित चार दुकान की बात ही कुछ और है। क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर जब भी मसूरी आते हैं, चार दुकान का बन आमलेट खाना नहीं भूलते। सचिन ही क्यों, बालीवुड सितारे अरशद वारसी को यहां की चाय भाती है तो दिवंगत अभिनेता टॉम आल्टर को भी यहां के स्नैक्स पसंद थे। चार दुकान के मालिक अनिल प्रकाश व विपिन प्रकाश भाई हैं। वे बताते हैं कि यहां पर आने वाले पर्यटकों को उनकी दुकान के परांठे, मैगी, दाल पकोड़ा, बन आमलेट और पिज्जा खासे पसंद हैं।
माल रोड पर भुट्टों का स्वाद
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यदि आप मसूरी आए और भुट्टे का स्वाद नहीं लिया तो फिर यात्रा का क्या मजा। माल रोड पर स्थान-स्थान पर आपको भुने और उबले भुट्टे मिल जाएंगे और पर्यटक इनका खूब लुत्फ भी लेते हैं।


रस्किन की नजर में मसूरी
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मसूरी लेखक और कलाकारों की भी कर्मभूमि रही है। प्रसिद्ध अभिनेता दिवंगत टॉम आल्टर ने यहीं से स्कूली दिनों में थियेटर की शुरुआत की थी तो विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार रस्किन बांड के रचना संसार में मसूरी ही बसता है। रस्किन कहते हैं 'यहां के कुदरती नजारे और अद्भुत शांति साहित्य सृजन के लिए प्रेरित करती है। हालांकि आज यहां की जनसंख्या में काफी बढ़ोत्तरी हो चुकी है, लेकिन मसूरी तो मसूरी है। मुझे गर्व है कि मैं मसूरी का नागरिक हूं।Ó
धनोल्टी में बिताइए सुकून के पल
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यदि शोर शराबे से दूर कुछ वक्त गुजारना हो तो धनोल्टी आपके लिए बेहतर विकल्प है। मसूरी से महज 30 किलोमीटर दूर देवदार के घने वन से घिरा है धनोल्टी। यहां से हिमाच्छादित चोटियों का दृश्य मन को मोहने वाला है। यहां पर गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस, वन विभाग का गेस्ट हाउस के अलावा बंबू हट्
स और होटल की सुविधा है। मसूरी की तरह भीड़भाड़ भी नहीं है।

काणाताल की कैंप साइट
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यदि आप कैंपिंग के शौकीन है तो मसूरी से 45 किलोमीटर दूर काणाताल आपका इंतजार कर रहा है। देवदार के वृक्षों की छांव में कॉटेज, रिर्जाट और हट में कुछ दिन गुजारना दिव्य एहसास से कम नहीं। सुहावना मौसम और प्रकृति की नजदीकी, छुट्टियां बिताने के लिए और क्या चाहिए। कैंपिंग के लिए इससे बेहतर और कौन सी जगह होगी।

सुरकंडा देवी
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मसूरी-टिहरी रोड पर मसूरी से लगभग 33 और धनोल्टी से और किलोमीटर की दूरी पर है सिद्धपीठ सुरकुंडा देवी का मंदिर। समुद्रतल से दस हजार फीट की ऊंर्चा पर स्थित यह मंदिर समुद्र तल से दस हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित इस स्थान से हिमालय का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।
चंबा
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मसूरी से महज 56 किलोमीटर दूर टिहरी जिले में स्थित चंबा कस्बा अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए मशहूर है। फलों के बागान से गुजरती सर्पीली सड़क पर यात्रा सुकून देने के साथ ही रोमांच से भी भरपूर है। बागानों की पृष्ठभूमि से उभरता हिमालय का दृश्य किसी का भी मन मोह लेता है।

लाखामंडल
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मसूरी से कैम्पटीफॉल से गुजरते हएु 75 किलोमीटर दूर स्थित लाखामंडल एक पौराणिक स्थल है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां कौरवों ने पांडवों को लाक्षागृह में जलाने का प्रयास किया था।  खुदाई में निकली मूर्तियां यहां के ऐतिहासिक महत्व का प्रमाण भी हैं।
बॉलीवुड की भी पसंद मसूरी
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मसूरी शुरुआत से ही शूटिंग के लिए बॉलीवुड की पसंद रहा है। नब्बे के दशक में अनिल शर्मा के निर्देशन में बनी फिल्म 'फरिश्तेÓ के एक गाने 'तेरे बिन जग लगता है सूनाÓ की शूटिंग कैम्प्टीफॉल की सुंदर वादियों में हुई थी। फिल्म 'फरिश्तेÓ के इस गाने की शूटिंग के लिए अभिनेत्री श्रीदेवी और अभिनेता विनोद खन्ना यहां आए थे। तब अभिनेत्री श्रीदेवी ने मसूरी की काफी तारीफ की थी। पिछले कुछ सालों की बात करें तो एक बार फिर बॉलीवुड ने उत्तराखंड का रुख करना शुरू कर दिया है। इसमें अधिकतर शूटिंग देहरादून और मसूरी की खूबसूरत लोकेशन में हो रही है। अभी पिछले दो सालों में ही अभिनेता अजय देवगन ने फिल्म 'शिवॉयÓ की शूटिंग के लिए मसूरी को चुना। इसके बाद अनिल शर्मा की फिल्म 'जीनियसÓ के कुछ दृश्य भी मसूरी में फिल्माए गए। फिल्म 'परमाणुÓ की अधिकांश शूटिंग तो राजस्थान में हुई है, लेकिन अभिनेता जॉन अब्राहम के घर की शूटिंग मसूरी में की गई। काफी दिनों तक जॉन अब्राहम शूटिंग के लिए मसूरी में ही रहे। वहीं धर्मा प्रोडेक्शन की सुपर हिट सीरीज 'स्टूडेंट ऑफ द इयरÓ की शूटिंग के बाद ही उसका दूसरा पार्ट 'स्टूडेंट ऑफ द इयर-2Ó की शूटिंग भी मसूरी और देहरादून की वादियों में की गई। मसूरी के पास ही स्थित भट्टा फाल में अभिनेता टाइगर श्राफ के घर का सेट बनाया गया था। मसूरी की ही अलग-अलग लोकेशन में करीब 20 दिन फिल्म की शूटिंग हुई। फिल्म 'बत्ती गुल, मीटर चालूÓ की शूटिंग मसूरी में भी हुई। अभिनेता शाहिद कपूर और अभिनेत्री श्रद्धा कपूर भी शूटिंग के लिए यहां पहुंचे थे। फिल्म की अधिकांश शूटिंग माल रोड, भट्टा फॉल, गन हिल, कंपनी गार्डन, सिस्टर बाजार, झड़ी पानी, लंढौरा, चार दुकान आदि लोकेशन पर हुई।
कैसे पहुंचे
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निकटतम हवाई अड्डा जौलीग्रांट-60 किमी
निकटतम रेलवे स्टेशन देहरादून-35 किमी
देहरादून से टैक्सी और बस से मसूरी पहुंचा जा सकता है।

Wednesday, 15 July 2020

जिनके गीतों पर झूमते हैं खेल-खलिहान

उत्तराखंडी लोक के आद्यकवि एवं प्रख्यात लोक गायक जीत सिंह नेगी को समर्पित। उनके गीत हमेशा उत्तराखंडी लोक को थिरकाते रहेंगे।

जिनके गीतों पर झूमते हैं खेल-खलिहान
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दिनेश कुकरेती
उनके हाथों से कलम चली और कागज गीतों की खुशबू से महक उठे। कंठ से सुर फूटे तो डांडी-कांठी झूम उठीं। कदमों की आहट पर पर खेत-खलिहान थिरकने लगे। वह आगे बढ़ते गए और माटी की महक से लोक खिलखिला उठा। कवि, गीतकार, गायक, संगीकार, रंगकर्मी, नृत्य निर्देशक, नाट्य निर्देशक, संवाद लेखक जैसी तमाम उपमाएं उनके कद के सामने बौनी पडऩे लगीं। ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व है गढ़वाली के आद्यकवि जीत सिंह नेगी का।
हम आपको उस दौर में लिए चलते हैं, जब ग्रामोफोन व रेडियो के सिवा मनोरंजन का कोई साधन नहीं था। लेकिन, तब यह सेाधन भी पैसे वालों के पास ही हुआ करते थे। रेडियो रखना समृद्धि का सूचक था तो ग्रामोफोन विलासिता का। वर्ष 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरंभ हुआ। तब वह जीत सिंह नेगी ही थे, जिन्हें रेडियो पर प्रथम बैच का 'गीत गायकÓ होने का श्रेय मिला। तिबारियां लोक के सुरों में थिरकने लगीं और झूम उठे खेत-खलिहान। लोक को उसका मसीहा जो मिल गया था।
नेगी जी के कंठ से फूटे हृदयस्पर्शी स्वर 'तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा घसियारी का भेष मा, खुद मा तेरी सड़क्यूं पर मी रोणु छौं परदेस माÓ जब घसेरियों के कानों में पड़े तो उनकी आंखें छलछला उठीं। लोकगीतों के इतिहास में यह ऐसी कालजयी रचना है, जिसने लोकप्रियता की सारी सीमाएं लांघ डालीं। हर उत्तराखंडी के हृदय में गीत के रूप में 'जीतÓ धड़कने लगा।
लोक के समंदर में हलचल पैदा करने वाला यह अकेला गीत नहीं था। इससे बहुत पहले वर्ष 1949 में नेगीजी 'यंग इंडियाÓ ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग करा चुके थे। उस जमाने में ग्रामोफोन की शोभा बने ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए। बाद के वर्षों में तो नेगीजी उत्तराखंड की आवाज बन गए। उनके हर गीत में पहाड़ का प्रतिबिंब झलकता है।
अभावों से अभिशप्त प्रवासी पहाड़ी के विकल करुण जीवन के संयोग-वियोग के सैकड़ों गीत नेगी जी ने लिखे। इनमें निश्चल, सहज और नैसर्गिक प्रेम की अभिव्यंजना होती है। गीतों के अलावा नेगीजी ने कई कालजयी नाटकों की रचना भी की। 'मलेथा की कूलÓ, 'भारी भूलÓ, 'जीतू बगड्वालÓ उनके प्रसिद्ध नाटक हैं, जिनका देश के कई शहरों में मंचन हो चुका है। आखिरी समय तक उनकी बूढ़ी आंखें सपना देखती रहीं, एक समृद्ध संस्कृति का, एक खुशहाल उत्तराखंड का। हालांकि, वृद्धावस्था में कदम डगमगाने लगे थे, लेकिन, कभी संकल्प नहीं डिगा, कलम नहीं थमी।

नेगी जैसा कोई नहीं था
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 गढ़वाल के सांस्कृतिक कार्यकलापों में लोकगायक जीत सिंह नेगी के नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही। गढ़वाली गीतों की धुन बनाने और सजाने-संवारने में उनकी विशिष्टता को लोक साहित्य समिति उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सचिव विद्यानिवास मिश्र ही नहीं, आकाशवाणी दिल्ली के तत्कालीन चीफ प्रोड्यूसर (म्यूजिक) ठाकुर जयदेव सिंह ने भी मान्यता दी थी। यही नहीं, उनके गीतों की व्यापकता और लोकप्रियता को भारतीय जनगणना सर्वेक्षण विभाग ने भी प्रमाणित किया था।

कब तक सिसकती रहेगी दुधबोली
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सात वर्ष पूर्व मुझे प्रसिद्ध लोकगायक जीत सिंह नेगी के साक्षात्कार का मौका मिला था। संभवत: यह नेगीजी का अंतिम साक्षात्कार था। बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ लोक का जिक्र होते ही नेगीजी कहने लगे, 'हम कहां जाना चाहते थे और कहां पहुंच गए। कहां खो गई वह अपण्यास (अपनापन)। सोचा था अपने राज्य में अपनी परंपराएं समृद्ध होंगी। रीति-रिवाजों के प्रति लोगों का अनुराग बढ़ेगा। लेकिन, यहां तो उल्टी गंगा बहने लगी। कला और कलाकार, दोनों ही आहत हैं। दुधबोली सिसक रही है, पर उसके आंसू किसी को नजर नहीं आते हैं। सब अपने में मस्त हैं, न संस्कृति की चिंता है, न संस्कारों की ही।Ó यह कहते-कहते 'सुर सम्राटÓ जीत सिंह नेगी अतीत की गहराइयों में खो गए।
अब मेरी उत्कंठा बढऩे लगी थी, पर कुछ बोला नहीं। बल्कि, यूं कहें कि बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई। खैर! नेगीजी ने ही खामोशी तोड़ी और कहने लगे, 'बड़ी पीड़ा होती है, जब अपनों की करीबी भी बेगानेपन का अहसास कराती है। सबकी आंखों पर स्वार्थ का पर्दा पड़ा हुआ है। फिर वह नेता हों या अफसर, किसी का उत्तराखंड से कोई लेना-देना नहीं। सोचा था अपने राज में अपनी भाषा-संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। गढ़वाली-कुमाऊंनी को सम्मान मिलेगा। लेकिन, हुआ क्या। इन दस सालों में हम गढ़वाली-कुमाऊंनी को दूसरी राजभाषा बनाने का साहस तक नहीं जुटा पाए। न ठोस संस्कृति नीति बनी, न फिल्म नीति ही।
नेगीजी का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट कर रहा था। लग रहा था, जैसे उत्तराखंड खुद अपनी पीड़ा बयां कर रहा है। कहने लगे, 'मैंने पैसा कमाने के बारे में कभी नहीं सोचा। मेरा उद्देश्य हमेशा ही लोक संस्कृति की समृद्धि रहा। लेकिन, आज संस्कृति को मनोरंजन का साधन मात्र मान लिया गया है। क्या ऐसे बचेगी संस्कृति।Ó
नेगीजी गीतों में बढ़ती उच्छृंखलता व हल्केपन से भी बेहद आहत हैं। वह कहते हैं, 'गीतों का अपनी जमीन से कटना संस्कृति के लिए बेहद नुकसानदायक है। इससे न गंभीर कलाकार पैदा होंगे, न कला का ही संरक्षण होने वाला।Ó उनके मुताबिक कवि तो युगदृष्टा-युगसृष्टा होता है। वह इतिहास ही नहीं संजोता, भविष्य का मार्गदर्शन भी करता है।
बातों का सिलसिला चलता रहा। मजा भी आ रहा था। इच्छा हो रही थी कि नेगीजी कहते रहें और मैं सुनता रहूं। लेकिन, समय की पाबंदियां हैं। सो, मैंने भी जाने की इजाजत मांगी। धीरे-धीरे बाहर तक छोडऩे के लिए आए और विदा लेते वक्त यह कहना भी नहीं भूले कि अब तुम ही कुछ कर सकते हो, अपनी संस्कृति के लिए। अपनी बोली-भाषा के लिए।

जीवन वृत्त
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नाम : जीत सिंह नेगी
जन्म तिथि : 2-2-1925
निधन : आषाढ़ कृष्ण अमावस्या 21 जून 2020
माता-पिता : रूपदेई देवी-सुल्तान सिंह नेगी
जन्म स्थान : ग्राम अयाल पट्टी पैडुलस्यूं पौड़ी गढ़वाल
वैवाहिक स्थिति : विवाहित बच्चे : एक पुत्र, दो पुत्रियां
शिक्षा : इंटरमीडिएट
प्राथमिक शिक्षा : कंडारा, पौड़ी गढ़वाल
मिडिल : मेमियो, म्यांमार
मैट्रिक : गवर्नमेंट कालेज पौड़ी गढ़वाल
इंटरमीडिएट : डीएवी कालेज देहरादून
निवास : 108/12, धर्मपुर देहरादून

रचनाएं (गढ़वाली में)
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प्रकाशित
गीत गंगा : गीत संग्रह
जौंल मगरी  : गीत संग्रह
छम घुंघुरू बाजला : गीत संग्रह
मलेथा की कूल : ऐतिहासिक गीत नाटक
भारी भूल : सामाजिक नाटक

अप्रकाशित
जीतू बगड्वाल : ऐतिहासिक गीत नाटिका
राजू पोस्टमैन : एकांकी
रामी : गीत नाटिका
पतिव्रता रामी : हिंदी नाटक
राजू पोस्टमैन : एकांकी हिंदी रूपांतर

मंचित नाटक
भारी भूल : वर्ष 1952 में गढ़वाल भातृ मंडल मुंबई के तत्वावधान में प्रथम बार इस गढ़वाली नाटक का सफल मंचन हुआ। मुंबई के प्रवासी गढ़वालियों का यह पहला बड़ा नाटक था। 1954-55 में हिमालय कला संगम दिल्ली के मंच से इस नाटक का सफल निर्देशन व मंचन।

मलेथा की गूल : मंचन प्रथम बार 1970 देहरादून में। फिर 1983 में पर्वतीय कला मंच के तत्वावधान में देहरादून में पांच प्रदर्शन। चंडीगढ़, दिल्ली, टिहरी, मसूरी एवं मुंबई में 18 बार मंचन।

जीतू बगड्वाल : पर्वतीय कला मंच के तत्वावधान में 1984 में देहरादून में मंचन। 1986 में देहरादून में ही नाटिका के आठ प्रदर्शन। 1987 में चंडीगढ़ में पुन: चार प्रदर्शन।

रामी : 1961 में टैगोर शताब्दी के अवसर पर नरेंद्र नगर में सफल मंचन। इसके अलावा मुंबई, दिल्ली, मसूरी, मेरठ, सहारनपुर आदि नगरों में मंचन।

राजू पोस्टमैन : गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के तत्वावधान में टैगोर थियेटर में इस ङ्क्षहदी-गढ़वाली मिश्रित एकांकी का मंचन। मुरादाबाद, देहरादून समेत अन्य शहरों में सात बार मंचन।

आकाशवाणी से प्रसारित
-'जीतू बगड्वालÓ व 'मलेथा की कूलÓ नाटिका का आकाशवाणी नजीबाबाद से प्रसारण। 1954 से अब तक आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ व नजीबाबाद से पांच-छह सौ बार गढ़वाली गीतों का प्रसारण
-'रामीÓ गीत नाटिका का दिल्ली दूरदर्शन से पहली बार हिंदी रूपांतरण
-गढ़वाली लोकगीतों व नृत्यों का 1950 से लेकर अब विभिन्न नगरों में प्रदर्शन

उपलब्धियां
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1. गढ़वाली लोकगीतों की विभिन्न लुप्त, अद्र्धलुप्त धुनों के संवद्र्धक, रचियता एवं स्वर सम्राट। अन्य पहाड़ी प्रदेशों की मिलती-जुलती मधुर धुनों के समावेश से उत्तराखंड परिवार की धुनों में अभिवृद्धि की। प्राचीन, लुप्त व विस्मृत धुनों को अपनी मौलिक प्रतिभा से पुनर्जीवित किया। उमड़ते-घुमड़ते बादलों, रिमझिम फुहारों, झरनों, गाड-गदेरों की कलकल, फूलों की मुस्कान, पंछियों का कलरव आदि प्रकृति के विभिन्न रूप बिंबवत उनके गीतों में सन्निहित हैं। यथा-'मेरा मैता का देश ना बास घुघूती, ना बास घुघूती घूर-घूरÓ। नेगी जी के मुख से निकलने वाले गढ़वाली लोकगीतों के प्रत्येक शब्द में बसे मधुर सुरों को सुनकर मनुष्य ही क्या पशु-पक्षी भी अपना गंतव्य भूल जाते हैं।
2. प्रथम गढ़वाली लोक गीतकार, जिन्होंने गढ़वाली लोकगीतों की सर्वप्रथम 'हिज मास्टर व्हाइस एंड ऐंजिल न्यू रिकार्डिंगÓ कंपनी में छह गीतों की रिकार्डिंग की।
3. गढ़वाली लोकगीतों के माध्यम से गढ़वाल के प्राचीन व आधुनिक सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक विचारों को वहां के जनजीवन से जोड़कर नाटक व गीतों में पिरो अभिव्यक्त किया।
4. भविष्य की पीढ़ी के गीतकारों के लिए गढ़वाली लोकगीतों के स्वर, ताल, लय व धुन को शोध के विषय का मार्ग प्रशस्त किया।
5. गढ़वाली लोकगीतों व नाटकों के माध्यम से रचनाकारों को उनके जीवन-यापन से जोडऩे के लिए मार्गदर्शन किया। उनकी कई रचनाओं के आज चलचित्र भी बन रहे हैं।

सांस्कृतिक गतिविधियां
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-वर्ष 1942 में छात्र जीवन से ही गढ़वाल की सांस्कृतिक राजधानी पौड़ी के नाट्य मंचों से स्वरचित गढ़वाली गीतों के सस्वर पाठ से गायन जीवन का शुभारंभ। प्रारंभ से ही आकर्षक सुरीली धुनों में लोकगीत गाकर लोकप्रिय हो गए थे।
-वर्ष 1949 में 'यंग इंडियाÓ ग्रामोफोन कंपनी मुंबई से छह गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग। ये गीत बहुत ही प्रचलित हुए और सराहे भी गए।
-वर्ष 1954 में मुंबई से ही फिल्म कंपनी मूवी इंडिया द्वारा निर्मित 'खलीफाÓ चलचित्र में सहायक निर्देशक की भूमिका निभाई। उन्हीं दिनों फिल्म 'चौदहवीं रातÓ, जो मुंबई की 'मून आर्ट पिक्चरÓ  ने बनाई थी, उसमें भी सहायक निर्देशक के रूप में काम किया।
-नेशनल ग्रामोफोन रिकार्डिंग कंपनी मुंबई में भी सहायक संगीत निर्देशक के पद पर कार्य किया।
-वर्ष 1955 में आकाशवाणी दिल्ली से गढ़वाली गीतों का प्रसारण आरंभ होने पर प्रथम बैच के 'गीत गायकÓ।
-1955 में ही दिल्ली की रघुमल आर्य कन्या पाठशाला में छात्राओं को सांस्कृतिक दिशा देन हेतु रंगारंग कार्यक्रमों का निर्देशन। इसी वर्ष कानपुर में चीनी प्रतिनिधि मंडल के स्वागत समारोह में पर्वतीय जन विकास समिति के तत्वावधान में सांस्कृतिक दल का नेतृत्व। इसके अलावा गढ़वाल भूमि सुधार से संबंधित दिल्ली स्थित प्रवासी गढ़वालियों के वृहद् सम्मेलन में प्रगतिवादी एवं कृषि उत्थान संबंधी गढ़वाली गीतों के माध्यम से जनजागरण में प्रमुख योगदान।
-1955-56 में सरस्वती महाविद्यालय दिल्ली के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशन।
-1956 में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री पं.गोविंद बल्लभ पंत द्वारा उद्घाटित पर्वतीय लोकगीत-नृत्य से भरपूर सांस्कृतिक समारोह में गढ़वाल की टोली का नेतृत्व। इसी वर्ष लैंसडौन में बुद्ध जयंती समारोह के अवसर पर धार्मिक प्रेरणाप्रद गीतों के गायन कार्यक्रम में भाग लिया। साथ ही अन्य नगरों में गढ़वाली लोकगीतों की गीत संध्या आयोजित करते हुए भ्रमण।
-1957 में लोक साहित्य समिति उत्तर प्रदेश के सचिव विद्यानिवास मिश्र द्वारा विशेष रिकार्डिंग के लिए स्वरचित गढ़वाली लोकगीतों के गायन का निमंत्रण, गीतों की स्वीकृति और उनकी रिकार्डिंग।
-1957 व 1964 में एचएमवी एवं कोलंबिया ग्रामोफोन कंपनी के लिए स्वयं गाकर आठ गढ़वाली गीतों की रिकार्डिंग, जो अत्यधिक प्रचलित हुए और सराहे गए।
-1957 में सूचना विभाग व लोक साहित्य समिति द्वारा संचालित सांस्कृतिक कार्यक्रम लखनऊ में गढ़वाल की ओर से पर्वतीय कार्यक्रम की प्रस्तुति। साथ ही गढ़वाली भाषा कविता पाठ में सक्रिय भाग लिया।
-1957 में लैंसडौन में प्रथम ग्रीष्म कालीन उत्सव में कवि सम्मेलन और सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया। इसी मौके पर गढ़वाल सांस्कृतिक विकास समिति के सदस्य निर्वाचित।
-1957 में देहरादून में आयोजित ऐतिहासिक विराट सांस्कृतिक सम्मेलन में गढ़वाल की लोकगीत-नृत्य टोली का नेतृत्व। तत्पश्चात इसी संस्था के कला सचिव निर्वाचित।
-1960 में पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून के मंच से लोकगीत एवं नृत्यों का आयोजन व प्रदर्शन
-1962 में पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून के मंच से लोकगीत एवं नृत्यों का प्रदर्शन।
-1963 में हरिजन सेवक संघ देहरादून के तत्वावधान में राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए पर्वतीय बाल कलाकारों को प्रशिक्षित कर लोकगीत व नृत्यों का अभूतपूर्व आयोजन। इस कार्यक्रम के उद्घोषक भी बाल कलाकार ही बनाए गए।
-1964 में श्रीनगर गढ़वाल में हरिजन सेवक संघ के लिए मनोरम कार्यक्रम का निर्देशन।
-1966 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई के तत्वावधान में उत्तराखंड के लोकगीत व नृत्य के कार्यक्रम में गढ़वाली सांस्कृतिक टोली का नेतृत्व।
-1970 में मसूरी शरदोत्सव के अवसर पर शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं की रंगारंग कार्यक्रम प्रतियोगिताओं में निर्णायक।
-1972 में गढ़वाल सभा मुरादाबाद के मंच पर देहरादून की अपनी सांस्कृतिक टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति।
-1976 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई के लिए वहीं के गढ़वाली कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशन।
-1979 में मसूरी टीवी टावर के उद्घाटन के अवसर पर दिल्ली दूरदर्शन के लिए अपनी टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतिकरण।
-1979 में सेंट्रल डिफेंस एकाउंट्स के शताब्दी समारोह के अवसर पर रंगारंग कार्यक्रम में सक्रिय भाग। इसी वर्ष मसूरी शरदोत्सव के अवसर पर अपनी सांस्कृतिक टोली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुति।
-1980 में गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के तत्वावधान में 'टैगोर थियेटरÓ में सांस्कृतिक टोली का नेतृत्व एवं रंगारंग कार्यक्रमों की प्रस्तुति।
-1982 में पर्वतीय कला मंच के गठन के बाद देहरादून में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के चार प्रदर्शन और इसी वर्ष गढ़वाल सभा चंडीगढ़ के मंच पर भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों के चार प्रदर्शन।
-1983 में पर्वतीय कला मंच के सचिव मनोनीत।
-1986 में गढ़वाली समाज कानपुर के गढ़वाली कवि सम्मेलन की अध्यक्षता।
-1987 में भारत सरकार द्वारा संचालित उत्तर मध्य सांस्कृतिक क्षेत्र द्वारा आयोजित इलाहाबाद में संपन्न सांस्कृतिक समारोह में पर्वतीय कला मंच की टोली का नेतृत्व।
-1987 में ही दृष्टि बाधितार्थ राष्ट्रीय संस्थान देहरादून में आयोजित संगीत, गायन, नृत्य और नाटक की प्रतियोगिता में निर्णायक।

सम्मान
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-रघुमल आर्य कन्या पाठशाला दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए 1955 में सम्मानित।
-1956 में गढ़वाली गीतों के प्रथम संग्रह गीत गंगा के लिए अखिल गढ़वाल सभा देहरादून द्वारा सम्मानित।
-1956 में प्रांतीय रक्षा दल देहरादून द्वारा आयोजित खेलकूद व सांस्कृतिक प्रतियोगिता के अवसर पर जिलाधीश मोहम्मद बट द्वारा सम्मानित।
-1955 में पर्वतीय जन विकास संस्था दिल्ली की ओर गढ़वाली लोक संगीत के लिए सम्मानित।
-1956 में सरस्वती महाविद्यालय दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सम्मानित।
-1957 में आचार्य नरेंद्र देव शास्त्री व सांसद भक्तदर्शन के हाथों प्रशस्ति पत्र।
-पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन देहरादून की ओर से 1958 में गणतंत्र दिवस के मौके पर लोकगीतों के रंगारंग कार्यक्रमों के लिए सम्मानित।
-1962 में साहित्य सम्मेलन चमोली द्वारा 'लोकरत्नÓ की उपाधि।
-1970 में 'मलेथा की कूलÓ नाटक के सफल मंचन के लिए हिमालय कला संगम देहरादून की ओर से सम्मानित।
-1979 में डिफेंस एकाउंट्स रिर्केशन क्लब सीडीए देहरादून की ओर से सम्मानित।
-1980 में लोक संगीत स्वर परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर आकाशवाणी नजीबाबाद की ओर से प्रशस्ति पत्र।
-1984 में स्वतंत्रता दिवस के मौके पर दून मनोरंजन क्लब की ओर से जिलाधीश अतुल चतुर्वेदी के हाथों सम्मानित।
-1990 में गढ़वाल भ्रातृ मंडल मुंबई द्वारा 'गढ़ रत्नÓ
-1995 में उत्तरप्रदेश संगीत अकादमी द्वारा अकादमी पुरस्कार, नागरिक परिषद संस्थान देहरादून द्वारा 'दूनरत्नÓ।
-1999 में उत्तराखंड महोत्सव देहरादून में 'मील का पत्थरÓ सम्मान।
-2000 में अल्मोड़ा संघ की ओर से प्रथम 'मोहन उप्रेती लोक संस्कृतिÓ पुरस्कार।
-2003 देहरादून के 18 सामाजिक संगठनों की ओर से सामूहिक नागरिक अभिनंदन।
-2011 में डा.शिवानंद फाउंडेशन की ओर से 'डा.शिवानंद नौटियाल स्मृति सम्मानÓ।
-2016 में 'दैनिक जागरणÓ की ओर से आयोजित 'स्वरोत्सवÓ में 'लाइफ टाइम अचीवमेंटÓ सम्मान

जुड़ाव
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-मनोरंजन क्लब पौड़ी-गढ़वाल
-हिमालय कला संगम, दिल्ली
-पर्वतीय जन कल्याण समिति, दिल्ली
-गढ़वाल भ्रातृ मंडल, मुंबई
-हिमालय कला संगम, देहरादून
-पर्वतीय सांस्कृतिक सम्मेलन, देहरादून
-पर्वतीय कला मंच, देहरादून
-सरस्वती महाविद्यालय, दिल्ली
-शैल सुमन, मुंबई
-अखिल गढ़वाल सभा, देहरादून
-गढ़वाल रामलीला परिषद, देहरादून
-गढ़वाल साहित्य मंडल, दिल्ली
-उत्तर प्रदेश हरिजन सेवक समाज, देहरादून
-भारत सेवक समाज, देहरादून

एलबम
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-रवांई की राजुला
-गढ़वाली सिनेमा में योगदान
-'मेरी प्यारी ब्वैÓ के संवाद और गीत लिखे।
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Thursday, 9 July 2020

Childhood

बचपन
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बच्चे और बडो़ं में
यही तो फर्क है
कि- बच्चों के सपने
बडो़ं जैसे छोटे नहीं होते।
वो हंसते हैं तो
बिना हिचक बेसाख्ता
हंसते ही चले जाते हैं
जैसे कर लिया हो इरादा
कायनात को हंसाने का
और-
रोते हैं तो उनके 
ढलकते आंसुओं में भी
नजर आती हैं
बेपनाह बेफिक्री।
पर-
जैसे-जैसे 
बडे़ होते जाते हैं बच्चे
छोटा होने लगता है उनके
सपनों का आकार
सिमटने लगता है उनकी
उन्मुक्त हंसी का दायरा
स्वार्थी होने लगते हैं
उनके आंसू
हम बडो़ं की तरह
और-
फिर एक दिन
उन सपनों को भी झटककर
चल पड़ते हैं अपनी राह
जो बडी़ उम्मीदों के साथ
देखे थे हमने
उनके लिए
इस बात की 
परवाह किए बिना
कि-
छीन रहे हैं
हम भी तो
उनका बचपन...।

@  दिनेश कुकरेती

Saturday, 25 April 2020

May the hands of the world groom

 

सलामत रहें दुनिया को संवारने वाले हाथ
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तुमको चिंता है
कि खत्म हो रहे हैं दुनिया से
अमीर और धनकुबेर
मुझे फिक्र है किसान और मजदूरों की
जिनके कठोर हाथों ने
संवारा है इस दुनिया को
सींचा है धरा को
अपने लहू के कतरों से
भरा है अमीरों का पेट
खुद भूखे रहकर।
तुम कहते हो
अमीर मिट गए तो
खोखले हो जाएंगे
खुद को शहंशाह मान बैठे मुल्क
ढह जाएंगी
 मजबूत से मजबूत अर्थव्यवस्थाएं
थम जाएगा विकास का पहिया
पर-
मैं जानता हूं ऐसा मुमकिन नहीं तब तक
जब तक सलामत हैं किसान
महफूज हैं मजदूर।
उनके होते हुए
तब भी अन्न-धन से परिपूर्ण रहेगी धरा
जब खोखले हो चुके होंगे शहंशाह
गर्दिश में आ चुके होंगे धनकुबेर
उनके खुरदरे हाथ तब भी
निर्लिप्त भाव से जुटे होंगे
ऐसी दुनिया के निर्माण में
जहां भले ही चकाचौंध फीकी पड़ चुकी हो
पर-
नए-नए सपने आकार ले रहे होंगे
और-
ऐसे सपने धनकुबेर नहीं
सिर्फ किसान और मजदूर ही
दिखा सकते हैं
क्योंकि-
भूख उनकी खुराक है
और-
बेइज्जती उनका पानी
फिर भी दुनिया के लिए
क्या है उनकी अहमियत
यह कोरोनो के खौफ ने
अच्छी तरह समझा दिया है।

 @दिनेश कुकरेती

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May the hands of the world groom
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You are worried 
That are ending with the world
Amir and Dhankuber
I care about farmers and laborers
Whose hard hands
This world is decorated
Water is for earth
With your blood clippers
The stomach of the rich is full
Being hungry himself.
you say
If the rich disappeared
Will be hollow
The country considers itself a Emperor
Will collapse
Strongest economies
The wheel of development will stop
On-
I do not know until then 
As long as the farmers are safe
The workers are safe.
Notwithstanding
Even then the house will be full of food and money
When the emperor must have been hollow
Dhankuber must have come in gurdy
Even though their rough hands
Must be busy
In the making of such a world
Where even though the glare has faded
On-
New dreams will be taking shape
And-
Such dreams are not dhankuber
Only farmers and laborers
Can show
Because-
Hunger is their diet
And-
Disrespectful of their water
Still for the world
What is their importance
This awe of corono
Well…
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@ Dinesh kukreti

Friday, 30 March 2018

A craftsman extending the tradition of Maularam


मौलाराम की परंपरा को विस्तार देता एक शिल्पी
दिनेश कुकरेती
एक ऐसा कलाकार, जिसने बुलंदियां छूने के बाद भी जड़ों से नाता नहीं तोड़ा और देश-दुनिया की परिक्रमा करते हुए लौट आया अपनी मातृभूमि की ओर। किसी लोभ के वशीभूत होकर नहीं, बल्कि इसलिए कि नई पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक का कार्य कर सके। उसे समझा सके कि लगन एवं समर्पण से कोई भी कला समृद्धि और प्रसिद्धि का आधार भी बन सकती है। यह कलाकार है वर्ष 1955 में देहरादून के मनियारवाला (गुनियालगांव) गांव में जन्मा सुरेंद्र पाल जोशी। मूलरूप से अल्मोड़ा निवासी जोशी के अंतर्मन में कला के अंकुर स्कूली जीवन के दौरान ही फूटने लगे थे, सो ऋषिकेश से बीए करने के बाद 1980 में लखनऊ के आट्र्स एंड क्राफ्ट्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। और...फिर यहां से कला का जो सफर शुरू हुआ, वह आज भी बदस्तूर जारी है। इस सफर के हर पड़ाव पर उन्होंने कला प्रेमियों को कोई न कोई ऐसी सौगात दी, जिसने सफर को यादगार बना दिया। इसी की बानगी है देहरादून में स्थापित उत्तराखंड का पहला उत्तरा समकालीन कला संग्रहालयÓ। पहाड़ की आधुनिक एवं समकालीन गतिविधियों को रेखांकित करने का यह एक ऐसा ठौर है, जहां उत्तराखंड के कला साधक एवं शिल्पी न केवल अपनी साधना को प्रदर्शित कर सकेंगे, बल्कि देश-दुनिया हिमालयी अंचल को प्रतिष्ठित करने वाले महान चित्र शिल्पी मौलाराम तोमर की परंपरा को उत्तरोत्तर विस्तार भी प्रदान करेंगे।          


ऊंचाइयों पर पहुंचा गर्दिशभरा सफर
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जोशी की साधना के शुरुआती साल बेहद गर्दिशभरे रहे। हालांकि, जीत लगन की ही हुई और संघर्ष करते-करते वर्ष 1988 में वे राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट जयपुर की फाइन आर्ट फैकल्टी में सहायक प्राध्यापक नियुक्त हो गए। लेकिन, साधना फिर भी अनवरत जारी रही। कहते हैं, 'मैं हर दिन ब्रश उठाता था और आर्ट कंप्टीशन में भी बराबर शिरकत करता था। म्यूरल बनाने का मुझे शौक था, सो आइओसी दिल्ली, यूनी लिवर मुबंई, शिपिंग कॉर्पोरेशन विशाखापत्तनम आदि स्थानों पर म्यूरल बनाए। वर्ष 1997 में ब्रिटेन से फैलोशिप मिली तो वहां भी म्यूरल पर कार्य किया। लेकिन, वर्ष 2000 के बाद मैंने सिर्फ पेंटिंग पर ही ध्यान देना शुरू कर दिया।Ó कहते हैं, 'नौकरी में रहते हुए भी मेरे मन में स्टूडेंट्स फीलिंग हमेशा रहती थी। मुझे लगता था सरकारें न तो आर्ट के लिए कुछ करना चाहती हैं और न स्टूडेंट्स के लिए ही। इन हालात में मैं खुद को बंधनों में जकड़ा हुआ महसूस करता था। मैं जानता था कि दो नावों में एक साथ सवारी नहीं की जा सकती, इसलिए वर्ष 2008 में मैंने वीआरएस ले लिया।Ó 

कला को कतर जैसा सम्मान कहीं नहीं
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जोशी बताते हैं कि इसी साल मुझे छह देशों में घूमने का मौका मिला और फिर शुरू हुआ नए सिरे से कला साधना का सफर। पेंटिंग में कई नए-नए प्रयोग किए और कई देशों में इसके लिए सम्मान भी मिला।Ó कतर का एक वाकया सुनाते हुए जोशी कहते हैं, 'मैंने ऐसा देश दुनिया में कहीं नहीं देखा, जहां कला और कलाकार को इतना सम्मान मिलता है। वहां सरकार ने ऐसा अद्भुत इस्लामिक म्यूजियम बनाया हुआ है, जिसकी तीन मंजिल समुद्र में और तीन इससे ऊपर हैं। इतना ही नहीं, कलाकारों के लिए वहां बाकायदा आर्टिस्ट कॉलोनी भी बनी हुई है। इसमें रहने वाले कलाकारों का सारा खर्चा कतर सरकार वहन करती है। ऐसा भारत में होता तो...।Ó 

पेंटिंग बनाकर चुकाते थे खाने का बिल
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लखनऊ के दिनों को याद करते हुए जोशी बताते हैं, 'वह कड़े संघर्ष का दौर था। मेरी आर्थिक स्थिति इतनी खराब थी कि ढाबे का बिल चुकाने के लिए भी पैसे नहीं होते थे। पहली बार जब ढाबे वाले ने खाने का बिल मांगा तो मैंने वहीं से कोयला उठाकर उसकी ढाबे की दीवार पर उसका पोट्रेट बना दिया। वह खुश हो गया और एक महीने का बिल माफ। दूसरी बार उसने बिल मांगा तो मैंने ढाबे के आसपास का लैंडस्कैप बनाकर उसे गिफ्ट कर दिया। वह फिर खुश हो गया। लेकिन, जब ऐसा चार-पांच बार हो गया तो आखिरकार ढाबे वाले को बोलना पड़ा, भाई! मुझे नून-तेल खरीदना है, जो पेंटिंग से तो मिलेगा नहीं। इसलिए मेहरबानी कर पैसे दे दिया करो। तब मेरी स्थिति क्या रही होगी, उसे सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है। लेकिन, मैं इससे टूटा नहीं, बल्कि और मजबूत होता चला गया।Ó 

जोशी को मिले पुरस्कारों का सफर 
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2013 में राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड (नई दिल्ली) 
2012 में केंद्रीय ललित कला ऐकेडमी नई दिल्ली का नेशनल अवार्ड 
2005 में राजस्थान सरकार के उच्च शिक्षा विभाग का सम्मान 
2004 में उप्र ललित कला ऐकेडमी का ऑल इंडिया अवार्ड 
2001 में तिलक स्मारक ट्रस्ट पुणे का ऑल इंडिया अवार्ड 
2000 में यूनेस्को का स्वर्ण पदक 
1997 में ब्रिटिश ऑट्र्स काउंसिल एंड चार्ल्‍स वेलैस ट्रस्ट वेल्स की फैलोशिप
1994 में राजस्थान ललित कला ऐकेडमी का ऑल इंडिया अवार्ड 
1992 में राजस्थान स्टेट ललित कला ऐकेडमी अवार्ड 
1991 में साउथ सेंट्रल कल्चरल जोन नागपुर का ऑल इंडिया अवार्ड 
1990 में एशियन कल्चरल सेंटर फॉर यूनेस्को (जापान) 
1986-88 में उप्र स्टेट ललित कला ऐकेडमी लखनऊ की स्कॉलरशिप 
1980-85 में लखनऊ कॉलेज ऑफ ऑर्ट की मेरिट स्कॉलरशिप
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A craftsman extending the tradition of Maularam
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Dinesh Kukreti
An artist who, despite touching his heights, did not break away from the roots and returned to his motherland, revolving around the country and the world.  Not because of any greed, but because it can act as a guide for the new generation.  Could convince him that with dedication and dedication, any art can also become the basis of prosperity and fame.  This artist is Surendra Pal Joshi, born in Maniyarwala (Gunialgaon) village in Dehradun in the year 1955.  Originally a resident of Almora, Art's sprouts began to erupt during his school life, and after joining BA from Rishikesh, he joined the Arts and Crafts College in Lucknow in 1980.  And ... Then the journey of art started from here, it continues unabated today.  At every stage of this journey, he gave some such gift to art lovers, which made the journey memorable.  This is the hallmark of Uttarakhand's first Uttara Contemporary Art Museum established in Dehradun.  This is a way to highlight the modern and contemporary activities of the mountain, where the art seekers and artisans of Uttarakhand will not only display their cultivation, but also the tradition of the great paintings, Shilpi Maularam Tomar, who has distinguished the country and the world Himalayan region.  Will also provide progressive expansion.

A difficult journey to reach the heights
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Joshi's early years of cultivation were extremely turbulent.  However, he won hard and in 1988, while struggling, he was appointed Assistant Professor in the Fine Art Faculty of Rajasthan School of Art Jaipur.  But, the practice still continued unabated.  Says, 'I used to pick up brushes every day and used to participate equally in art competition.  I was fond of making murals, so I made murals at places like IOC Delhi, Uni Liver Mumbai, Shipping Corporation Visakhapatnam etc.  In 1997, he got a fellowship from Britain and also worked on murals there.  But, after the year 2000, I started focusing only on painting. "I used to always have student feeling in my mind even while in the job."  I used to think that governments neither want to do anything for art nor for students.  In these circumstances I felt myself bound in shackles.  I knew that two boats could not ride together, so I took VRS in the year 2008. Ó


Art is not respected like Qatar
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 Joshi says that this year I got the opportunity to roam in six countries and then started a journey of art cultivation afresh.  Many new experiments were done in painting and it was also respected in many countries. हुए "I have never seen a country in the world where art and artist get so much respect," says Joshi while narrating an incident from Qatar.  There the government has built such a wonderful Islamic museum, which has three floors in the sea and three above it.  Not only this, there is also an Artist Colony for artists.  The Qatar government bears all the expenses of the artists living in it.  If it were in India….


Used to pay the food bill by making a painting
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Recalling the days of Lucknow, Joshi says, 'It was a period of hard struggle.  My financial situation was so bad that there was no money to pay the dhaba bill.  For the first time, when the dhabha asked for the food bill, I picked up the coal from there and made a portrait of it on the wall of the dhaba.  He was happy and waived one month's bill.  The second time he asked for the bill, I made a landscape around the dhaba and gifted it.  He became happy again.  But, when this happened four or five times, the dhaba finally had to speak, brother!  I have to buy noon oil, which I will not get from painting.  That's why please give money  What my situation must have been then can only be felt.  But, I did not break from it, but grew stronger.

Joshi's journey of awards
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2013 Rajiv Gandhi Excellence Award (New Delhi)
National Award for Central Fine Arts Academy, New Delhi in 2012
Honor of Higher Education Department of Rajasthan Government in 2005
2004 All India Award for Upcoming Fine Arts Academy   All India Award for Tilak Smarak Trust Pune in 2001
2000 UNESCO Gold Medal
Fellowship of the British Orts Council and Charles Wellse Trust Wales in 1997
All India Award for Rajasthan Fine Arts Academy in 1994
Rajasthan State Fine Arts Academy Award in 1992
All India Award for South Central Cultural Zone Nagpur in 1991
Asian Cultural Center for UNESCO (Japan) in 1990
Scholarship of UP State Fine Arts Academy, Lucknow in 1986-88
Merit Scholarship of Lucknow College of Ort in 1980-85

Friday, 9 March 2018

आस्था का प्रतिबिंब

आस्था का प्रतिबिंब ------------------------ दिनेश कुकरेती किलेनुमा प्राचीर के चारों ओर खुलते प्रवेश द्वार और उनके ऊपर गर्व से तनी मीनारें। पश्चिमी छोर पर विशाल फाटक खुलते ही नजर आता है सफेद सीढ़ीनुमा गोल चबूतरा। इसी चबूतरे पर खड़ा है आस्था का वह प्रतिबिंब, जिसे दूनघाटी 'झंडा साहिबÓ के रूप में सम्मान देती है। सच कहें तो दून की आत्मा है झंडा साहिब। देहरादून के जन्म और विकास की गाथा यहीं से आरंभ होती है। नानक पंथ के सातवें गुरु हर राय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र राम राय महाराज ने इसी स्थान पर झंडा चढ़ाया था। इसमें समाहित है एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत, जो दून में पनपी और पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश व दिल्ली तक फैल गई। वर्ष 1675 में चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन गुरु रामराय महाराज के कदम दून की धरती पर पड़े। वर्ष 1676 इसी दिन उनकी प्रतिष्ठा में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। यहीं से झंडा मेला की शुरुआत हुई, जो कालांतर में दूनघाटी का वार्षिक समारोह बन गया। यह इन्सान को इन्सान से जोडऩे का ऐसा पर्व है, जिसमें दूनघाटी के संपूर्ण जीवन दर्शन की झलक मिलती है। दरबार साहिब में प्रतिष्ठित झंडा साहिब साधारण ध्वज न होकर ऐसा शक्तिपुंज हैं, जिनसे नेमतें बरसती हैं। झंडेजी के आरोहण के अवसर पर देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों से हजारों संगतें द्रोणनगरी पहुंचती हैं। आरोहण की पहली शाम से ही दरबार साहिब में पांव रखने तक की जगह नहीं बचती। रात्रि में भजन-कीर्तन का दौर चलता है और होने लगता है भोर का इंतजार। सैकड़ों वर्षों का इतिहास समेटे करीब सौ फीट ऊंचे झंडेजी को उतारने और चढ़ाने की प्रक्रिया स्वयं में अद्भुत है। जमीन पर रखे बगैर झंडेजी कब उतरे और कब चढ़ गए, किसी को ठीक से भान भी नहीं होता। यही इस मेले का अद्भुत क्षण है। झंडा मेले में झंडेजी पर गिलाफ चढ़ाने की भी अनूठी परंपरा है। चैत्र पंचमी के दिन झंडे की पूजा-अर्चना के बाद पुराने झंडेजी को उतारा जाता है और ध्वज दंड में बंधे पुराने गिलाफ, दुपट्टे आदि हटाए जाते हैं। दरबार साहिब के सेवक दही, घी व गंगाजल से ध्वज दंड को स्नान कराते हैं। इसके बाद शुरू होती है झंडेजी को गिलाफ चढ़ाने की प्रक्रिया। झंडेजी पर पहले सादे (मारकीन के) और फिर शनील के गिलाफ चढ़ते हैं। सबसे ऊपर दर्शनी गिलाफ चढ़ाया जाता है और फिर पवित्र जल छिड़ककर भक्तजनों की ओर से रंगीन रुमाल, दुपट्टे आदि बांधे जाते हैं। परंपरा के अनुसार झंडेजी को दर्शनी गिलाफ के अलावा मारकीन के 41 और शनील के 21 गिलाफ चढ़ाए जाते हैं। जबकि, गिलाफ अर्पित करने वालों की तादाद हजारों में होती है। हालांकि, श्रद्धालुओं को झंडेजी के दर्शनी गिलाफ के ही दर्शन होते हैं। इसके साथ ही दरबार साहिब में समाधि पर मत्था टेकने, उसकी परिक्रमा करने, झंडेजी पर नए वस्त्र चढ़ाने और लंगर में प्रसाद ग्रहण करने का क्रम भी अनवरत चलता रहता है। ----------------------- दून की आन-बान-शान झंडेजी ------------------------ दर्शनी गिलाफ चढऩे के बाद सूर्य की ढलती किरणें जब दरबार की मीनारों और गुंबदों पर पड़ती हैं, तब सज्जादानसीन श्रीमहंत जी के आदेश से झंडेजी के आरोहण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। यही वह घड़ी है, जब झंडेजी कैंचियों के सहारे धीरे-धीरे ऊपर उठते हैं। जैसे ही वह अपने स्थान पर खड़े होकर राजसी ठाठ के साथ खुले आसमान में लहराते हैं श्री गुरु रामराय महाराज की जय-जयकार से द्रोणनगरी गूंज उठती है। यह ऐसा दृश्य होता है, जिसे वहां मौजूद हर व्यक्ति अपने हृदय में बसा लेना चाहता है। इस दौरान सिर पर चढ़ावा लिए दरबार साहिब पहुंच रही संगतें अलौकिक नजारा पेश करती हैं। दरबार साहिब के सम्मान के प्रतीक झंडेजी का जैसे ही आरोहण होता है, संगतों की परिक्रमा का सिलसिला आरंभ हो जाता है। परंपरा का यह ऐसा विलक्षण अनुभव है, जिसकी मिसाल अन्यत्र देखने को नहीं मिलती। ------------------- बाज भी करता है परिक्रमा -------------------- मान्यता है कि जब झंडेजी अपने स्थान पर विराजमान होते हैं, तभी दूर आकाश में एक बाज आता है और झंडेजी की परिक्रमा कर नजरों से ओझल हो जाता है। यही वह क्षण है, जब आस्था और विश्वास पराकाष्ठा को छू रहे होते हैं। -------------------- मसंदों को पगड़ी-प्रसाद ------------------ झंडेजी के आरोहण के बाद संगत के मसंदों को सज्जादानसीन श्रीमहंत देवेंद्रदास महाराज आशीर्वाद स्वरूप पगड़ी, प्रसाद एवं ताबीज प्रदान करते हैं। यह परंपरा माता पंजाब कौर के जमाने से चली आ रही है। ------------------ दरबार साहिब के श्रीमहंत -------------------- श्रीमहंत औददास (1687-1741) श्रीमहंत हरप्रसाद (1741-1766) श्रीमहंत हरसेवक (1766-1818) श्रीमहंत स्वरूपदास (1818-1842) श्रीमहंत प्रीतमदास (1842-1854) श्रीमहंत नारायणदास (1854-1885) श्रीमहंत प्रयागदास (1885-1896) श्रीमहंत लक्ष्मणदास (1896-1945) श्रीमहंत इंदिरेशचरण दास (1945-2000) श्रीमहंत देवेंद्रदास (25 जून 2000 से गद्दीनसीन) ---------------------- बाबा ऐसे पहुंचे थे दून ----------------- बाबा रामराय महाराज के देहरादून पहुंचने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। पिता के कहे कटु वचन कि 'तुमने मना करने के बाद भी मुगल दरबार में अपने चमत्कार दिखाए, इससे गुरु ग्रंथ साहिब का अपमान हुआ है, इसलिए मैं तुम्हारा मुंह तक नहीं देखना चाहता, तुम्हारा मुख जिस दिशा में है, उसी ओर चले जाओÓ ने बाबा रामराय के जीवन की धारा ही बदल डाली। लाहौर समेत अनेक स्थानों से यात्रा करते हुए बाबा दूनघाटी स्थित कांवली गांव पहुंचे। यहां पास ही आचार्य श्रीचंद्र महाराज के शिष्य बालू हसना से उदासीन मत की दीक्षा लेने के बाद उन्होंने वर्तमान झंडा स्थल पर डेरा डाला। दून में पिछड़े व उपेक्षित लोगों का डेरा होना चाहिए, इसी विचार के साथ वर्ष 1707 में बाबा रामराय ने दरबार साहिब का निर्माण किया।

Tuesday, 13 February 2018

मैंने समेटी हैं अनगिनत खुशियां

मैंने समेटी हैं अनगिनत खुशियां 
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दिनेश कुकरेती
मैंने विकास की गोद में प्रकृति को सिमटते देखा है। दून की खुशहाली को सिसकते देखा है। जी हां! तमाम उन गवाहों में मैं भी शामिल हूं, जिसने देहरादून की बदलती सूरत और रंगत को न सिर्फ करीब से देखा, बल्कि महसूस भी किया। मैं 30 मई 1938 को जन्मा और नाम मिला जुगमंदर हॉल। आज मैं 79 वर्ष का हो चुका हूं। वैसे तो मैं शहर का एकमात्र सार्वजनिक प्रेक्षागृह (ऑडिटोरियम) हूं, मगर दुर्भाग्य देखिए कि कई लोग ठीक से मेरा नाम (जुगमंदर हॉल) भी नहीं जानते। ...और इतिहास तो शायद गिने-चुनों को ही पता होगा।
बड़ी बात नहीं कहता, मगर मैं इस शहर की वो इमारत हूं, जिसने गुजरे दौर में इस शहर को एक नई पहचान दी। इसके खुशहाल अतीत को जिया और वर्तमान को ढो रहा हूं। ढो इसलिए रहा हूं, क्योंकि आज का दून वो शहर नहीं रहा, जिसके लिए ये दुनियाभर में जाना जाता था। जिसके लिए ब्रितानी हुकूमत भी इसकी तारीफ करती थी। एक वक्त था, जब कल-कल बहती नहरें इस शहर की पहचान हुआ करती थीं। लोग इसे उत्तर का वेनिस कहा करते थे। लीची और बासमती की खुशबू लोगों के हृदय को महका देती थी। ...और मौसम इतना खुशनुमा कि पूछिए ही मत। जो भी यहां आता, उसका मुरीद हो जाता।
वो वक्त था 70 के दशक का, जो मेरे लिए भी बेहद सुनहरा दौर रहा है। तब उत्तर भारत के रंगमंच की पूरे देश में तूती बोलती थी। उस वक्त दून उत्तर भारत के रंगमंच का 'मक्काÓ हुआ करता था और मैं 'लॉड्र्सÓ। मेरा आंगन हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी से सराबोर रहता था। तब उत्तर भारत का शायद ही कोई थियेटर ऑर्टिस्ट होगा, जो अपनी कला को निखारने के लिए मेरी चौखट पर न पहुंचा हो। मैंने भी हर कला प्रेमी पर अपना सर्वस्व न्योछावर किया और उसे बुलंदियों तक पहुंचाया। मेरे आंगन में गूंजी किलकारियां मुझे आज भी याद करती हैं। संस्कृति और कला को सहेजने में मैंने कोई कसर बाकी नहीं रखी।
मेरी इमारत में चुनी गई हर एक ईंट इस बात की गवाह है। मगर, ये ईंटें उस दौर की भी गवाही देती हैं, जब मेरे अपनों ने ही मुझे बिसरा दिया था। मैंने अपने देश को आजाद होते देखा, अपने राज्य को वजूद में आते देखा और दून को अस्थायी राजधानी बनते भी। बावजूद इसके मेरे अपनों ने ही मेरे वजूद पर ताला जड़ दिया और मुझे धकेल दिया गुमनामी की काल कोठरी में। ठीक उसी तरह जैसे दून की नहरों को विकास के लिए बलि चढ़ा दिया गया और कंक्रीट के जंगल के लिए भुला दी गई बासमती व लीची की खुशबू। हालांकि, मैंने हिम्मत नहीं हारी। हर वक्त मेरा रोम-रोम आजादी के लिए तड़पता था। मेरा आंगन फिर से उन घुंघरुओं की छनक सुनने को बेताब रहता, जिनकी आवाज मेरी धड़कन हुआ करती थी। मैं तो अनंत काल तक कला को तराशने की हसरत रखता हूं, फिर ऐसा क्यों...?
यह सवाल हर वक्त मेरे जेहन में गूंजता रहता था। मगर, मुझे उम्मीद थी कि कभी तो मेरा कोई अपना मेरी सुध लेगा, क्योंकि मैं कोई गुजरा वक्त थोड़े हूं, जो लौट के न आ सकूं। सचमुच इसी उम्मीद ने मुझे टूटने नहीं दिया। कुछ वर्षों बाद नगर निगम ने मुझे फिर से संवारने का बीड़ा उठाया और मैं बेडिय़ों से आजाद हो गया। आज मैं फिर पहले की तरह कला को मुकाम देने का काम कर रहा हूं। अब मेरे आंगन में कबूतरों के पंखों की फडफ़ड़ाहट नहीं, बल्कि रंगमंच के संवाद और लोगों की तालियां गूंजती हैं। आज मैं फिर पहले की तरह हर वक्त सुर, लय व ताल की त्रिवेणी में गोते लगाता रहता हूं।

इस परिवार ने दिया दून को विस्तार 
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इस शहर की हर सांस में समाया हुआ है लाला भगवान दास का परिवार। यही परिवार मेरा जनक भी है। सही मायने में यही वो परिवार है, जिसने दून को विस्तार दिया। मुझ जैसे तमाम स्मृति चिह्न भगवान दास और उनके परिवार ने दून को दिए। इंदर रोड, चन्दर रोड, मोहिनी रोड, प्रीतम रोड आदि नाम इस परिवार की नेकनीयती के प्रतीक हैं। देहरादून स्पोट््र्स एसोसिएशन जैसी महत्वपूर्ण संस्था भी इसी परिवार की देन है। इसके अलावा डालनवाला में 450 बीघा में फैली टाउनशिप की सौगात भी दून को इसी परिवार ने दी। दून के लिए इस परिवार की सौगातों की सूची यहीं खत्म नहीं होती, बल्कि म्युनिसिपैलिटी बिल्डिंग, लाला मनसुमरत दास मेमोरियल पवेलियन ग्राउंड, श्रीमती श्योति देवी एंड छिमा देवी वुमन्स हॉस्पिटल, डीएवी पीजी कॉलेज का जुगमंदर दास ब्लॉक, भगवानदास क्वार्टर, श्री दिगंबर जैन धर्मशाला के कुछ भवन भी इस परिवार की सामाजिक प्रतिबद्धता के उदाहरण हैं।